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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
शकट-भञ्जन
और तृणावर्त-उद्धार
तृणावर्तः
शान्तरयो वात्यारूपधरो हरन्
कृष्णं
नभोगतो गन्तुं नाशक्नोद्भूरिभारभृत् ॥ २६ ॥
तमश्मानं
मन्यमान आत्मनो गुरुमत्तया
गले
गृहीत उत्स्रष्टुं नाशक्नोदद्भुतार्भकम् ॥ २७ ॥
गलग्रहणनिश्चेष्टो
दैत्यो निर्गतलोचनः
अव्यक्तरावो
न्यपतत्सहबालो व्यसुर्व्रजे ॥ २८ ॥
तमन्तरिक्षात्पतितं
शिलायां
विशीर्णसर्वावयवं
करालम्
पुरं
यथा रुद्र शरेण विद्धं
स्त्रियो
रुदत्यो ददृशुः समेताः ॥ २९ ॥
प्रादाय
मात्रे प्रतिहृत्य विस्मिताः
कृष्णं
च तस्योरसि लम्बमानम्
तं
स्वस्तिमन्तं पुरुषादनीतं
विहायसा
मृत्युमुखात्प्रमुक्तम्
गोप्यश्च
गोपाः किल नन्दमुख्या
लब्ध्वा
पुनः प्रापुरतीव मोदम् ॥ ३० ॥
अहो
बतात्यद्भुतमेष रक्षसा
बालो
निवृत्तिं गमितोऽभ्यगात्पुनः
हिंस्रः
स्वपापेन विहिंसितः खलः
साधुः
समत्वेन भयाद्विमुच्यते ॥ ३१ ॥
किं
नस्तपश्चीर्णमधोक्षजार्चनं
पूर्तेष्टदत्तमुत
भूतसौहृदम्
यत्सम्परेतः
पुनरेव बालको
दिष्ट्या
स्वबन्धून्प्रणयन्नुपस्थितः ॥ ३२ ॥
दृष्ट्वाद्भुतानि
बहुशो नन्दगोपो बृहद्वने
वसुदेववचो
भूयो मानयामास विस्मितः ॥ ३३ ॥
इधर
तृणावर्त बवंडररूपसे जब भगवान् श्रीकृष्णको आकाशमें उठा ले गया, तब उनके भारी बोझको न सँभाल सकनेके कारण उसका वेग शान्त हो गया । वह अधिक
चल न सका ॥ २६ ॥ तृणावर्त अपनेसे भी भारी होनेके कारण श्रीकृष्णको नीलगिरिकी
चट्टान समझने लगा । उन्होंने उसका गला ऐसा पकड़ा कि वह उस अद्भुत शिशुको अपनेसे
अलग नहीं कर सका ॥ २७ ॥ भगवान् ने इतने जोरसे उसका गला पकड़ रखा था कि वह असुर
निश्चेष्ट हो गया । उसकी आँखें बाहर निकल आयीं। बोलती बंद हो गयी । प्राण-पखेरू
उड़ गये और बालक श्रीकृष्णके साथ वह व्रजमें गिर पड़ा [*] ॥ २८ ॥ वहाँ जो
स्त्रियाँ इकट्ठी होकर रो रही थीं, उन्होंने देखा कि वह
विकराल दैत्य आकाशसे एक चट्टानपर गिर पड़ा और उसका एक-एक अङ्ग चकनाचूर हो गया—ठीक वैसे ही, जैसे भगवान् शङ्करके बाणोंसे आहत हो
त्रिपुरासुर गिरकर चूर-चूर हो गया था ॥ २९ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण उसके वक्ष:स्थलपर
लटक रहे थे । यह देखकर गोपियाँ विस्मित हो गयीं । उन्होंने झटपट वहाँ जाकर
श्रीकृष्णको गोदमें ले लिया और लाकर उन्हें माताको दे दिया । बालक मृत्युके मुखसे
सकुशल लौट आया । यद्यपि उसे राक्षस आकाशमें उठा ले गया था, फिर
भी वह बच गया । इस प्रकार बालक श्रीकृष्णको फिर पाकर यशोदा आदि गोपियों तथा नन्द
आदि गोपोंको अत्यन्त आनन्द हुआ ॥ ३० ॥ वे कहने लगे—‘अहो ! यह
तो बड़े आश्चर्यकी बात है । देखो तो सही, यह कितनी अद्भुत
घटना घट गयी ! यह बालक राक्षसके द्वारा मृत्युके मुखमें डाल दिया गया था, परंतु फिर जीता-जागता आ गया और उस हिंसक दुष्टको उसके पाप ही खा गये ! सच
है, साधुपुरुष अपनी समतासे ही सम्पूर्ण भयोंसे बच जाता है ॥
३१ ॥ हमने ऐसा कौन-सा तप, भगवान् की पूजा, प्याऊ-पौसला, कूआँ-बावली, बाग-बगीचे
आदि पूर्त, यज्ञ, दान अथवा जीवोंकी
भलाई की थी, जिसके फलसे हमारा यह बालक मरकर भी अपने स्वजनों को
सुखी करने के लिये फिर लौट आया ? अवश्य ही यह बड़े सौभाग्य की
बात है’ ॥ ३२ ॥ जब नन्दबाबा ने देखा कि महावन में बहुत-सी
अद्भुत घटनाएँ घटित हो रही हैं, तब आश्चर्यचकित होकर
उन्होंने वसुदेवजीकी बातका बार-बार समर्थन किया ॥ ३३ ॥
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[*]
पाण्डुदेशमें सहस्राक्ष नामके एक राजा थे । वे नर्मदा-तटपर अपनी रानियोंके साथ
विहार कर रहे थे । उधरसे दुर्वासा ऋषि निकले, परंतु
उन्होंने प्रणाम नहीं किया । ऋषिने शाप दिया—‘तू राक्षस हो
जा ।’ जब वह उनके चरणों पर गिरकर गिड़गिड़ाया, तब दुर्वासाजीने कह दिया—‘भगवान् श्रीकृष्णके
श्रीविग्रहका स्पर्श होते ही तू मुक्त हो जायगा ।’ वही राजा
तृणावर्त होकर आया था और श्रीकृष्णका संस्पर्श प्राप्त करके मुक्त हो गया ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से