शुक्रवार, 29 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

यमलार्जुन का उद्धार

श्रीनारद उवाच ।
न ह्यन्यो जुषतो जोष्यान् बुद्धिभ्रंशो रजोगुणः ।
श्रीमदादाभिजात्यादिः यत्र स्त्री द्यूतमासवः ॥ ८ ॥
हन्यन्ते पशवो यत्र निर्दयैः अजितात्मभिः ।
मन्यमानैरिमं देहः अजरामृत्यु नश्वरम् ॥ ९ ॥
देवसंज्ञितमप्यन्ते कृमिविड् भस्मसंज्ञितम् ।
भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः ॥ १० ॥
देहः किमन्नदातुः स्वं निषेक्तुर्मातुरेव च ।
मातुः पितुर्वा बलिनः क्रेतुरग्नेः शुनोऽपि वा ॥ ११ ॥
एवं साधारणं देहं अव्यक्त प्रभवाप्ययम् ।
को विद्वान् आत्मसात्कृत्वा हन्ति जन्तूनृतेऽसतः ॥ १२ ॥
असतः श्रीमदान्धस्य दारिद्र्यं परमञ्जनम् ।
आत्मौपम्येन भूतानि दरिद्रः परमीक्षते ॥ १३ ॥

नारदजीने कहाजो लोग अपने प्रिय विषयोंका सेवन करते हैं, उनकी बुद्धिको सबसे बढक़र नष्ट करनेवाला है श्रीमदधन-सम्पत्तिका नशा । हिंसा आदि रजोगुणी कर्म और कुलीनता आदिका अभिमान भी उससे बढक़र बुद्धि-भ्रंशक नहीं है; क्योंकि श्रीमदके साथ-साथ तो स्त्री, जूआ और मदिरा भी रहती है ॥ ८ ॥ ऐश्वर्यमद और श्रीमद से अंधे होकर अपनी इन्द्रियोंके वशमें रहनेवाले क्रूर पुरुष अपने नाशवान् शरीरको तो अजर-अमर मान बैठते हैं और अपने ही-जैसे शरीरवाले पशुओं की हत्या करते हैं ॥ ९ ॥ जिस शरीरको भूदेव’, ‘नरदेव’, ‘देवआदि नामोंसे पुकारते हैंउसकी अन्तमें क्या गति होगी ? उसमें कीड़े पड़ जायँगे, पक्षी खाकर उसे विष्ठा बना देंगे या वह जलकर राखका ढेर बन जायगा । उसी शरीरके लिये प्राणियोंसे द्रोह करनेमें मनुष्य अपना कौन-सा स्वार्थ समझता है ? ऐसा करनेसे तो उसे नरककी ही प्राप्ति होगी ॥ १० ॥ बतलाओ तो सही, यह शरीर किसकी सम्पत्ति है ? अन्न देकर पालनेवालेकी है या गर्भाधान करानेवाले पिताकी ? यह शरीर उसे नौ महीने पेट में रखनेवाली माताका है अथवा माताको भी पैदा करनेवाले नानाका ? जो बलवान् पुरुष बलपूर्वक इससे काम करा लेता है, उसका है अथवा दाम देकर खरीद लेनेवालेका ? चिताकी जिस धधकती आगमें यह जल जायगा, उसका है अथवा जो कुत्ते-स्यार इसको चीथ-चीथकर खा जानेकी आशा लगाये बैठे हैं, उनका ? ॥ ११ ॥ यह शरीर एक साधारण-सी वस्तु है। प्रकृतिसे पैदा होता है और उसीमें समा जाता है । ऐसी स्थितिमें मूर्ख पशुओंके सिवा और ऐसा कौन बुद्धिमान् है जो इसको अपना आत्मा मानकर दूसरोंको कष्ट पहुँचायेगा, उनके प्राण लेगा ॥ १२ ॥ जो दुष्ट श्रीमदसे अंधे हो रहे हैं, उनकी आँखोंमें ज्योति डालनेके लिये दरिद्रता ही सबसे बड़ा अंजन है; क्योंकि दरिद्र यह देख सकता है कि दूसरे प्राणी भी मेरे ही जैसे हैं ॥ १३ ॥

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गुरुवार, 28 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

यमलार्जुन का उद्धार

श्रीराजोवाच ।
कथ्यतां भगवन् एतत् तयोः शापस्य कारणम् ।
यत्तद्विगर्हितं कर्म येन वा देवर्षेस्तमः ॥ १ ॥

श्रीशुक उवाच ।
रुद्रस्यानुचरौ भूत्वा सुदृप्तौ धनदात्मजौ ।
कैलासोपवने रम्ये मन्दाकिन्यां मदोत्कटौ ॥ २ ॥
वारुणीं मदिरां पीत्वा मदाघूर्णितलोचनौ ।
स्त्रीजनैः अनुगायद्‌भिः चेरतुः पुष्पिते वने ॥ ३ ॥
अन्तः प्रविश्य गङ्‌गायां अंभोजवनराजिनि ।
चिक्रीडतुर्युवतिभिः गजौ इव करेणुभिः ॥ ४ ॥
यदृच्छया च देवर्षिः भगवांस्तत्र कौरव ।
अपश्यन्नारदो देवौ क्षीबाणौ समबुध्यत ॥ ५ ॥
तं दृष्ट्वा व्रीडिता देव्यो विवस्त्राः शापशङ्‌किताः ।
वासांसि पर्यधुः शीघ्रं विवस्त्रौ नैव गुह्यकौ ॥ ६ ॥
तौ दृष्ट्वा मदिरामत्तौ श्रीमदान्धौ सुरात्मजौ ।
तयोरनुग्रहार्थाय शापं दास्यन् इदं जगौ ॥ ७ ॥

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवन् ! आप कृपया यह बतलाइये कि नलकूबर और मणिग्रीव को शाप क्यों मिला । उन्होंने ऐसा कौन-सा निन्दित कर्म किया था, जिसके कारण परम शान्त देवर्षि नारदजी को भी क्रोध आ गया ? ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! नलकूबर और मणिग्रीवये दोनों एक तो धनाध्यक्ष कुबेर के लाड़ले लडक़े थे और दूसरे इनकी गिनती हो गयी रुद्रभगवान्‌ के अनुचरोंमें । इससे उनका घमंड बढ़ गया । एक दिन वे दोनों मन्दाकिनीके तटपर कैलासके रमणीय उपवनमें वारुणी मदिरा पीकर मदोन्मत्त हो गये थे । नशेके कारण उनकी आँखें घूम रही थीं । बहुत-सी स्त्रियाँ उनके साथ गा बजा रही थीं और वे पुष्पोंसे लदे हुए वनमें उनके साथ विहार कर रहे थे ॥ २-३ ॥ उस समय गङ्गाजीमें पाँत-के-पाँत कमल खिले हुए थे । वे स्त्रियोंके साथ जलके भीतर घुस गये और जैसे हाथियों का जोड़ा हथिनियों के साथ जलक्रीडा कर रहा हो, वैसे ही वे उन युवतियों के साथ तरह-तरहकी क्रीडा करने लगे ॥ ४ ॥ परीक्षित्‌ ! संयोगवश उधरसे परम समर्थ देवर्षि नारदजी आ निकले। उन्होंने उन यक्ष-युवकोंको देखा और समझ लिया कि ये इस समय मतवाले हो रहे हैं ॥ ५ ॥ देवर्षि नारदको देखकर वस्त्रहीन अप्सराएँ लजा गयीं। शापके डरसे उन्होंने तो अपने-अपने कपड़े झटपट पहन लिये, परंतु इन यक्षोंने कपड़े नहीं पहने ॥ ६ ॥ जब देवर्षि नारदजीने देखा कि ये देवताओंके पुत्र होकर श्रीमदसे अन्धे और मदिरापान करके उन्मत्त हो रहे हैं तब उन्होंने उनपर अनुग्रह करनेके लिये शाप देते हुए यह कहा—[*] ॥ ७ ॥
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[*] देवर्षि नारदके शाप देनेमें दो हेतु थेएक तो अनुग्रहउनके मदका नाश करना और दूसरा अर्थश्रीकृष्णप्राप्ति ।
ऐसा प्रतीत होता है कि त्रिकालदर्शी देवर्षि नारद ने अपनी ज्ञानदृष्टिसे यह जान लिया कि इनपर भगवान्‌ का अनुग्रह होनेवाला है । इसीसे उन्हें भगवान्‌का भावी कृपापात्र समझकर ही उनके साथ छेड़-छाड़ की ।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) नवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

श्रीकृष्ण का ऊखल से बाँधा जाना

एवं सन्दर्शिता ह्यङ्‌ग हरिणा भृत्यवश्यता ।
स्ववशेनापि कृष्णेन यस्येदं सेश्वरं वशे ॥ १९ ॥
नेमं विरिञ्चो न भवो न श्रीरप्यङ्‌गसंश्रया ।
प्रसादं लेभिरे गोपी यत् तत्प्राप विमुक्तिदात् ॥ २० ॥
नायं सुखापो भगवान् देहिनां गोपिकासुतः ।
ज्ञानिनां चात्मभूतानां यथा भक्तिमतां इह ॥ २१ ॥
कृष्णस्तु गृहकृत्येषु व्यग्रायां मातरि प्रभुः ।
अद्राक्षीत् अर्जुनौ पूर्वं गुह्यकौ धनदात्मजौ ॥ २२ ॥
पुरा नारदशापेन वृक्षतां प्रापितौ मदात् ।
नलकूवरमणिग्रीवौ इति ख्यातौ श्रियान्वितौ ॥ २३ ॥

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण परम स्वतन्त्र हैं । ब्रह्मा, इन्द्र आदि के साथ यह सम्पूर्ण जगत् उनके वशमें है । फिर भी इस प्रकार बँधकर उन्होंने संसार को यह बात दिखला दी कि मैं अपने प्रेमी भक्तों के वश में हूँ[20] ॥ १९ ॥ ग्वालिनी यशोदा ने मुक्तिदाता मुकुन्द से जो कुछ अनिर्वचनीय कृपाप्रसाद प्राप्त किया वह प्रसाद ब्रह्मा पुत्र होनेपर भी, शङ्कर आत्मा होनेपर भी और वक्ष:स्थलपर विराजमान लक्ष्मी अर्धाङ्गिनी होने पर भी न पा सके, न पा सके[21] ॥ २० ॥
यह गोपिकानन्दन भगवान्‌ अनन्यप्रेमी भक्तोंके लिये जितने सुलभ हैं, उतने देहाभिमानी कर्मकाण्डी एवं तपस्वियों को तथा अपने स्वरूपभूत ज्ञानियों के लिये भी नहीं हैं[22] ॥ २१ ॥
इसके बाद नन्दरानी यशोदाजी तो घरके काम-धंधोंमें उलझ गयीं और ऊखलमें बँधे हुए भगवान्‌ श्यामसुन्दरने उन दोनों अर्जुन-वृक्षोंको मुक्ति देनेकी सोची, जो पहले यक्षराज कुबेरके पुत्र थे[23] ॥ २२ ॥ इनके नाम थे नलकूबर और मणिग्रीव । इनके पास धन, सौन्दर्य और ऐश्वर्यकी पूर्णता थी । इनका घमंड देखकर ही देवर्षि नारदजीने इन्हें शाप दे दिया था और ये वृक्ष हो गये थे[24] ॥ २३ ॥
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[20] यद्यपि भगवान्‌ स्वयं परमेश्वर हैं, तथापि प्रेमपरवश होकर बँध जाना परम चमत्कारकारी होनेके कारण भगवान्‌का भूषण ही है, दूषण नहीं ।
आत्माराम होनेपर भी भूख लगना, पूर्णकाम होनेपर भी अतृप्त रहना, शुद्ध सत्त्वस्वरूप होनेपर भी क्रोध करना, स्वाराज्य-लक्ष्मीसे युक्त होनेपर भी चोरी करना, महाकाल यम आदिको भय देनेवाले होनेपर भी डरना और भागना, मनसे भी तीव्र गतिवाले होनेपर भी माताके हाथों पकड़ा जाना, आनन्दमय होनेपर भी दुखी होना, रोना, सर्वव्यापक होनेपर भी बँध जानायह सब भगवान्‌ की स्वाभाविक भक्तवश्यता है । जो लोग भगवान्‌ को नहीं जानते हैं, उनके लिये तो इसका कुछ उपयोग नहीं है, परंतु जो श्रीकृष्णको भगवान्‌के रूपमें पहचानते हैं, उनके लिये यह अत्यन्त चमत्कारी वस्तु है और यह देखकरजानकर उनका हृदय द्रवित हो जाता है, भक्तिप्रेमसे सराबोर हो जाता है । अहो ! विश्वेश्वर प्रभु अपने भक्तके हाथों ऊखलमें बँधे हुए हैं ।

[21] इस श्लोकमें तीनों नकारोंका अन्वय लेभिरेक्रियाके साथ करना चाहिये । न पा सके,न पा सके,न पा सके ।

[22] ज्ञानी पुरुष भी भक्ति करें तो उन्हें इन सगुण भगवान्‌की प्राप्ति हो सकती है, परंतु बड़ी कठिनाईसे। ऊखल बँधे भगवान्‌ सगुण हैं, वे निर्गुण प्रेमीको कैसे मिलेंगे ?

[23] स्वयं बँधकर भी बन्धनमें पड़े हुए यक्षोंकी मुक्तिकी चिन्ता करना, सत्पुरुषके सर्वथा योग्य है ।
जब यशोदा माताकी दृष्टि श्रीकृष्णसे हटकर दूसरेपर पड़ती है, तब वे भी किसी दूसरेको देखने लगते हैं और ऐसा ऊधम मचाते हैं कि सबकी दृष्टि उनकी ओर खिंच आये । देखिये, पूतना, शकटासुर, तृणावर्त आदिका प्रसङ्ग ।

[24] ये अपने भक्त कुबेर के पुत्र हैं, इसलिये इनका अर्जुन नाम है । ये देवर्षि नारद के द्वारा दृष्टिपूत किये जा चुके हैं, इसलिये भगवान्‌ ने उनकी ओर देखा ।
जिसे पहले भक्तिकी प्राप्ति हो जाती है, उसपर कृपा करनेके लिये स्वयं बँधकर भी भगवान्‌ आते हैं ।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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बुधवार, 27 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) नवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

श्रीकृष्ण का ऊखल से बाँधा जाना

एवं स्वगेहदामानि यशोदा सन्दधत्यपि ।
गोपीनां सुस्मयन्तीनां स्मयन्ती विस्मिताभवत् ॥ १७ ॥
स्वमातुः स्विन्नगात्राया विस्रस्तकबरस्रजः ।
दृष्ट्वा परिश्रमं कृष्णः कृपयाऽऽसीत् स्वबन्धने ॥ १८ ॥

यशोदारानी ने घर की सारी रस्सियाँ जोड़ डालीं, फिर भी वे भगवान्‌ श्रीकृष्ण को न बाँध सकीं। उनकी असफलतापर देखनेवाली गोपियाँ मुसकराने लगीं और वे स्वयं भी मुसकराती हुई आश्चर्यचकित हो गयीं [18] ॥ १७ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि मेरी मा का शरीर पसीने से लथपथ हो गया है, चोटी में गुँथी हुई मालाएँ गिर गयी हैं और वे बहुत थक भी गयी हैं; तब कृपा करके वे स्वयं ही अपनी मा के बन्धन में बँध गये[19] ॥ १८ ॥
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[18] वे मन-ही-मन सोचतींइसकी कमर मुट्ठीभर की है, फिर भी सैकड़ों हाथ लम्बी रस्सीसे यह नहीं बँधता है । कमर तिलमात्र भी मोटी नहीं होती, रस्सी एक अंगुल भी छोटी नहीं होती, फिर भी वह बँधता नहीं । कैसा आश्चर्य है । हर बार दो अंगुलकी ही कमी होती है, न तीनकी, न चारकी, न एककी । यह कैसा अलौकिक चमत्कार है ।

[19] १. भगवान्‌ श्रीकृष्णने सोचा कि जब मा के हृदय से द्वैत-भावना दूर नहीं हो रही है, तब मैं व्यर्थ अपनी असङ्गता क्यों प्रकट करूँ । जो मुझे बद्ध समझता है उसके लिये बद्ध होना ही उचित है । इसलिये वे बँध गये ।

२. मैं अपने भक्तके छोटे-से गुणको भी पूर्ण कर देता हूँयह सोचकर भगवान्‌ने यशोदा माताके गुण (रस्सी) को अपने बाँधनेयोग्य बना लिया ।

३. यद्यपि मुझमें अनन्त, अचिन्त्य कल्याण-गुण निवास करते हैं, तथापि तबतक वे अधूरे ही रहते हैं, जबतक मेरे भक्त अपने गुणोंकी मुहर उनपर नहीं लगा देते । यही सोचकर यशोदा मैयाके गुणों (वात्सल्य, स्नेह आदि और रज्जु) से अपनेको पूर्णोदर-दामोदर बना लिया ।

४. भगवान्‌ श्रीकृष्ण इतने कोमलहृदय हैं कि अपने भक्तके प्रेमको पुष्ट करनेवाला परिश्रम भी सहन नहीं करते हैं । वे अपने भक्तको परिश्रमसे मुक्त करनेके लिये स्वयं ही बन्धन स्वीकार कर लेते हैं ।

५. भगवान्‌ ने अपने मध्यभागमें बन्धन स्वीकार करके यह सूचित किया कि मुझमें तत्त्वदृष्टिसे बन्धन है ही नहीं; क्योंकि जो वस्तु आगे-पीछे, ऊपर-नीचे नहीं होती, केवल बीचमें भासती है, वह झूठी होती है । इसी प्रकार यह बन्धन भी झूठा है ।

६. भगवान्‌ किसीकी शक्ति, साधन या सामग्रीसे नहीं बँधते । यशोदाजीके हाथों श्यामसुन्दरको न बँधते देखकर पास-पड़ोसकी ग्वालिनें इकट्ठी हो गयीं और कहने लगींयशोदाजी ! लालाकी कमर तो मुट्ठीभर की ही है और छोटी-सी किङ्किणी इसमें रुन-झुन कर रही है । अब यह इतनी रस्सियोंसे नहीं बँधता तो जान पड़ता है कि विधाताने इसके ललाटमें बन्धन लिखा ही नहीं है । इसलिये अब तुम यह उद्योग छोड़ दो ।

यशोदा मैया ने कहाचाहे सन्ध्या हो जाय और गाँवभर की रस्सी क्यों न इकट्ठी करनी पड़े, पर मैं तो इसे बाँधकर ही छोडूंगी । यशोदाजीका यह हठ देखकर भगवान्‌ ने अपना हठ छोड़ दिया; क्योंकि जहाँ भगवान्‌ और भक्त के हठमें विरोध होता है, वहाँ भक्तका ही हठ पूरा होता है । भगवान्‌ बँधते हैं तब, जब भक्तकी थकान देखकर कृपापरवश हो जाते हैं । भक्तके श्रम और भगवान्‌की कृपाकी कमी ही दो अंगुलकी कमी है । अथवा जब भक्त अहंकार करता है कि मैं भगवान्‌ को बाँध लूँगा, तब वह उनसे एक अंगुल दूर पड़ जाता है और भक्तकी नकल करनेवाले भगवान्‌ भी एक अंगुल दूर हो जाते हैं । जब यशोदा माता थक गयीं, उनका शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया, तब भगवान्‌ की सर्वशक्तिचक्रवॢतनी परम भास्वती भगवती कृपा-शक्तिने भगवान्‌के हृदयको माखनके समान द्रवित कर दिया और स्वयं प्रकट होकर उसने भगवान्‌की सत्य-संकल्पितता और विभुताको अन्तर्हित कर दिया । इसीसे भगवान्‌ बँध गये ।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) नवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

श्रीकृष्ण का ऊखल से बाँधा जाना

न चान्तर्न बहिर्यस्य न पूर्वं नापि चापरम् ।
पूर्वापरं बहिश्चान्तः जगतो यो जगच्च यः ॥ १३ ॥
तं मत्वात्मजमव्यक्तं मर्त्यलिङ्‌गमधोक्षजम् ।
गोपिकोलूखले दाम्ना बबन्ध प्राकृतं यथा ॥ १४ ॥
तद्दाम बध्यमानस्य स्वार्भकस्य कृतागसः ।
द्व्यङ्‌गुलोनमभूत्तेन सन्दधेऽन्यच्च गोपिका ॥ १५ ॥
यदाऽऽसीत् तदपि न्यूनं तेनान्यदपि सन्दधे ।
तदपि द्व्यङ्‌गुलं न्यूनं यद् यद् आदत्त बन्धनम् ॥ १६ ॥

जिसमें न बाहर है न भीतर, न आदि है और न अन्त; जो जगत् के पहले भी थे, बादमें भी रहेंगे; इस जगत् के भीतर तो हैं ही, बाहरी रूपोंमें भी हैं; और तो क्या, जगत् के रूपमें भी स्वयं वही हैं;[13] यही नहीं, जो समस्त इन्द्रियोंसे परे और अव्यक्त हैंउन्हीं भगवान्‌ को मनुष्यका-सा रूप धारण करनेके कारण पुत्र समझकर यशोदारानी रस्सीसे ऊखलमें ठीक वैसे ही बाँध देती हैं, जैसे कोई साधारण-सा बालक [14] हो ॥ १३-१४ ॥ जब माता यशोदा अपने ऊधमी और नटखट लडक़ेको रस्सीसे बाँधने लगीं, तब वह दो अंगुल छोटी पड़ गयी ! तब उन्होंने दूसरी रस्सी लाकर उसमें जोड़ी[15] ॥ १५ ॥ जब वह भी छोटी हो गयी, तब उसके साथ और जोड़ी[16], इस प्रकार वे ज्यों-ज्यों रस्सी लातीं और जोड़ती गयीं, त्यों-त्यों जुडऩेपर भी वे सब दो-दो अंगुल छोटी पड़ती गयीं[17] ॥ १६ ॥
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[13] इस श्लोकमें श्रीकृष्णकी ब्रह्मरूपता बतायी गयी है । उपनिषदोंमें जैसे ब्रह्मका वर्णन हैअपूर्वम् अनपरम् अनन्तरम् अबाह्यम्इत्यादि । वही बात यहाँ श्रीकृष्णके सम्बन्धमें है। वह सर्वाधिष्ठान, सर्वसाक्षी, सर्वातीत, सर्वान्तर्यामी, सर्वोपादान एवं सर्वरूप ब्रह्म ही यशोदा माताके प्रेमके वश बँधने जा रहा है। बन्धनरूप होनेके कारण उसमें किसी प्रकारकी असङ्गति या अनौचित्य भी नहीं है।

[14] यह फिर कभी ऊखलपर जाकर न बैठे इसके लिये ऊखलसे बाँधना ही उचित है; क्योंकि खलका अधिक सङ्ग होनेपर उससे मनमें उद्वेग हो जाता है ।

यह ऊखल भी चोर ही है, क्योंकि इसने कन्हैयाके चोरी करनेमें सहायता की है । दोनोंको बन्धनयोग्य देखकर ही यशोदा माताने दोनोंको बाँधनेका उद्योग किया ।

[15] यशोदा माता ज्यों-ज्यों अपने स्नेह, ममता आदि गुणों (सद्गुणों या रस्सियों) से श्रीकृष्णका पेट भरने लगीं, त्यों-त्यों अपनी नित्यमुक्तता, स्वतन्त्रता आदि सद्गुणोंसे भगवान्‌ अपने स्वरूपको प्रकट करने लगे ।

[16] १. संस्कृत-साहित्यमें गुणशब्दके अनेक अर्थ हैंसद्गुण, सत्त्व आदि गुण और रस्सी । सत्त्व, रज आदि गुण भी अखिल ब्रह्माण्डनायक त्रिलोकीनाथ भगवान्‌का स्पर्श नहीं कर सकते । फिर यह छोटा-सा गुण ( दो बित्तेकी रस्सी) उन्हें कैसे बाँध सकता है । यही कारण है कि यशोदा माताकी रस्सी पूरी नहीं पड़ती थी ।

२. संसारके विषय इन्द्रियोंको ही बाँधनेमें समर्थ हैंविषिण्वन्ति इति विषया: । ये हृदयमें स्थित अन्तर्यामी और साक्षीको नहीं बाँध सकते । तब गो-बन्धक (इन्द्रियों या गायोंको बाँधनेवाली) रस्सी गो-पति (इन्द्रियों या गायोंके स्वामी) को कैसे बाँध सकती है ?

३. वेदान्तके सिद्धान्तानुसार अध्यस्तमें ही बन्धन होता है, अधिष्ठानमें नहीं । भगवान्‌ श्रीकृष्णका उदर अनन्तकोटि ब्रह्माण्डोंका अधिष्ठान है । उसमें भला बन्धन कैसे हो सकता है ?

४. भगवान्‌ जिसको अपनी कृपाप्रसादपूर्ण दृष्टिसे देख लेते हैं, वही सर्वदाके लिये बन्धनसे मुक्त हो जाता है । यशोदा माता अपने हाथमें जो रस्सी उठातीं, उसीपर श्रीकृष्णकी दृष्टि पड़ जाती । वह स्वयं मुक्त हो जाती, फिर उसमें गाँठ कैसे लगती ?

५. कोई साधक यदि अपने गुणोंके द्वारा भगवान्‌को रिझाना चाहे तो नहीं रिझा सकता । मानो यही सूचित करनेके लिये कोई भी गुण (रस्सी) भगवान्‌ के उदरको पूर्ण करनेमें समर्थ नहीं हुआ ।

[17] रस्सी दो अंगुल ही कम क्यों हुई ? इसपर कहते हैं

१. भगवान्‌ ने सोचा कि जब मैं शुद्धहृदय भक्तजनोंको दर्शन देता हूँ, तब मेरे साथ एकमात्र सत्त्वगुणसे ही सम्बन्धकी स्फूर्ति होती है, रज और तमसे नहीं । इसलिये उन्होंने रस्सीको दो अंगुल कम करके अपना भाव प्रकट किया ।

२. उन्होंने विचार किया कि जहाँ नाम और रूप होते हैं, वहीं बन्धन भी होता है । मुझ परमात्मामें बन्धनकी कल्पना कैसे ? जबकि ये दोनों ही नहीं । दो अंगुलकी कमीका यही रहस्य है ।

३. दो वृक्षोंका उद्धार करना है । यही क्रिया सूचित करनेके लिये रस्सी दो अंगुल कम पड़ गयी ।

४. भगवत्कृपा से द्वैतानुरागी भी मुक्त हो जाता है और असङ्ग भी प्रेमसे बँध जाता है । यही दोनों भाव सूचित करनेके लिये रस्सी दो अंगुल कम हो गयी ।

५. यशोदा माता ने छोटी-बड़ी अनेकों रस्सियाँ अलग-अलग और एक साथ भी भगवान्‌ की कमरमें लगायीं, परंतु वे पूरी न पड़ीं; क्योंकि भगवान्‌ में छोटे-बड़ेका कोई भेद नहीं है । रस्सियोंने कहाभगवान्‌ के समान अनन्तता, अनादिता और विभुता हमलोगोंमें नहीं है । इसलिये इनको बाँधनेकी बात बंद करो । अथवा जैसे नदियाँ समुद्रमें समा जाती हैं वैसे ही सारे गुण (सारी रस्सियाँ) अनन्तगुण भगवान्‌में लीन हो गये, अपना नाम-रूप खो बैठे । ये ही दो भाव सूचित करनेके लिये रस्सियोंमें दो अंगुलकी न्यूनता हुई ।

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मंगलवार, 26 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

श्रीकृष्ण का ऊखल से बाँधा जाना

अन्वञ्चमाना जननी बृहच्चलत्
श्रोणीभराक्रान्तगतिः सुमध्यमा ।
जवेन विस्रंसितकेशबन्धन
च्युतप्रसूनानुगतिः परामृशत् ॥ १० ॥
कृतागसं तं प्ररुदन्तमक्षिणी
कर्षन्तमञ्जन्मषिणी स्वपाणिना ।
उद्वीक्षमाणं भयविह्वलेक्षणं
हस्ते गृहीत्वा भिषयन्त्यवागुरत् ॥ ११ ॥
त्यक्त्वा यष्टिं सुतं भीतं विज्ञायार्भकवत्सला ।
इयेष किल तं बद्धुं दाम्नातद्‌वीर्यकोविदा ॥ १२ ॥

जब इस प्रकार माता यशोदा श्रीकृष्ण के पीछे दौडऩे लगीं तब कुछ ही देर में बड़े-बड़े एवं हिलते हुए नितम्बों के कारण उनकी चाल धीमी पड़ गयी । वेग से दौडऩे के कारण चोटी की गाँठ ढीली पड़ गयी । वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़तीं, पीछे-पीछे चोटी में गुँथे हुए फूल गिरते जाते । इस प्रकार सुन्दरी यशोदा ज्यों-त्यों करके उन्हें पकड़ सकीं[10] ॥ १० ॥ श्रीकृष्ण का हाथ पकडक़र वे उन्हें डराने-धमकाने लगीं । उस समय श्रीकृष्णकी झाँकी बड़ी विलक्षण हो रही थी । अपराध तो किया ही था, इसलिये रुलाई रोकनेपर भी न रुकती थी । हाथोंसे आँखें मल रहे थे, इसलिये मुँहपर काजलकी स्याही फैल गयी थी, पिटनेके भयसे आँखें ऊपरकी ओर उठ गयी थीं, उनसे व्याकुलता सूचित होती थी[11] ॥ ११ ॥ जब यशोदाजीने देखा कि लल्ला बहुत डर गया है, तब उनके हृदयमें वात्सल्य-स्नेह उमड़ आया । उन्होंने छड़ी फेंक दी । इसके बाद सोचा कि इसको एक बार रस्सीसे बाँध देना चाहिये (नहीं तो यह कहीं भाग जायगा) । परीक्षित्‌ ! सच पूछो तो यशोदा मैयाको अपने बालकके ऐश्वर्यका पता न था[12] ॥ १२ ॥
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[10] माता यशोदाके शरीर और सृंगार दोनों ही विरोधी हो गयेतुम प्यारे कन्हैयाको क्यों खदेड़ रही हो । परंतु मैया ने पकडक़र ही छोड़ा ।

[11] विश्वके इतिहासमें, भगवान्‌ के सम्पूर्ण जीवनमें पहली बार स्वयं विश्वेश्वरभगवान्‌ मा के सामने अपराधी बनकर खड़े हुए हैं । मानो अपराधी भी मैं ही हूँइस सत्यका प्रत्यक्ष करा दिया । बायें हाथसे दोनों आँखें रगड़-रगडक़र मानो उनसे कहलाना चाहते हों कि ये किसी कर्मके कर्ता नहीं हैं । ऊपर इसलिये देख रहे हैं कि जब माता ही पीटनेके लिये तैयार है, तब मेरी सहायता और कौन कर सकता है ? नेत्र भयसे विह्वल हो रहे हैं, ये भले ही कह दें कि मैंने नहीं किया, हम कैसे कहें । फिर तो लीला ही बंद हो जायगी ।

मा ने डाँटाअरे, अशान्तप्रकृते ! वानरबन्धो ! मन्थनीस्फोटक ! अब तुझे मक्खन कहाँसे मिलेगा ? आज मैं तुझे ऐसा बाँधूँगी, ऐसा बाँधूँगी कि न तो तू ग्वालबालोंके साथ खेल ही सकेगा और न माखन-चोरी आदि ऊधम ही मचा सकेगा ।

[12] अरी मैया ! मोहि मत मार ।माताने कहा—‘यदि तुझे पिटनेका इतना डर था तो मटका क्यों फोड़ा ?’ श्रीकृष्ण—‘अरी मैया ! मैं अब ऐसा कभी नहीं करूँगा । तू अपने हाथसे छड़ी डाल दे ।

श्रीकृष्णका भोलापन देखकर मैयाका हृदय भर आया, वात्सल्य-स्नेहके समुद्रमें ज्वार आ गया । वे सोचने लगींलाला अत्यन्त डर गया है । कहीं छोडऩेपर यह भागकर वनमें चला गया तो कहाँ-कहाँ भटकता फिरेगा, भूखा-प्यासा रहेगा । इसलिये थोड़ी देरतक बाँधकर रख लूँ । दूध-माखन तैयार होनेपर मना लूँगी । यही सोच-विचारकर माताने बाँधनेका निश्चय किया । बाँधनेमें वात्सल्य ही हेतु था ।

भगवान्‌ के ऐश्वर्यका अज्ञान दो प्रकार का होता है, एक तो साधारण प्राकृत जीवों को और दूसरा भगवान्‌ के नित्यसिद्ध प्रेमी परिकर को । यशोदा मैया आदि भगवान्‌ की स्वरूपभूता चिन्मयी लीला के अप्राकृत नित्य-सिद्ध परिकर हैं । भगवान्‌ के प्रति वात्सल्यभाव, शिशु-प्रेमकी गाढ़ताके कारण ही उनका ऐश्वर्य-ज्ञान अभिभूत हो जाता है; अन्यथा उनमें अज्ञानकी संभावना ही नहीं है । इनकी स्थिति तुरीयावस्था अथवा समाधि का भी अतिक्रमण करके सहज प्रेममें रहती है । वहाँ प्राकृत अज्ञान, मोह, रजोगुण और तमोगुणकी तो बात ही क्या, प्राकृत सत्त्वकी भी गति नहीं है । इसलिये इनका अज्ञान भी भगवान्‌की लीलाकी सिद्धिके लिये उनकी लीलाशक्तिका ही एक चमत्कार विशेष है ।

तभीतक हृदयमें जड़ता रहती है, जबतक चेतनका स्फुरण नहीं होता । श्रीकृष्ण के हाथमें आ जानेपर यशोदा माताने बाँसकी छड़ी फेंक दीयह सर्वथा स्वाभाविक है ।

मेरी तृप्ति का प्रयत्न छोडक़र छोटी-मोटी वस्तुपर दृष्टि डालना केवल अर्थ-हानिका ही हेतु नहीं है, मुझे भी आँखोंसे ओझल कर देता है । परंतु सब कुछ छोडक़र मेरे पीछे दौडऩा मेरी प्राप्तिका हेतु है । क्या मैयाके चरितसे इस बातकी शिक्षा नहीं मिलती ?

मुझे योगियोंकी भी बुद्धि नहीं पकड़ सकती, परंतु जो सब ओरसे मुँह मोडक़र मेरी ओर दौड़ता है, मैं उसकी मुट्ठी में आ जाता हूँ । यही सोचकर भगवान्‌ यशोदा के हाथों पकड़े गये ।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

श्रीकृष्ण का ऊखल से बाँधा जाना

उत्तार्य गोपी सुशृतं पयः पुनः
प्रविश्य संदृश्य च दध्यमत्रकम् ।
भग्नं विलोक्य स्वसुतस्य कर्म
तज्जहास तं चापि न तत्र पश्यती ॥ ७ ॥
उलूखलाङ्‌घ्रेरुपरि व्यवस्थितं
मर्काय कामं ददतं शिचि स्थितम् ।
हैयङ्‌गवं चौर्यविशङ्‌कितेक्षणं
निरीक्ष्य पश्चात् सुतमागमच्छनैः ॥ ८ ॥
तां आत्तयष्टिं प्रसमीक्ष्य सत्वरः
ततोऽवरुह्यापससार भीतवत् ।
गोप्यन्वधावन्न यमाप योगिनां
क्षमं प्रवेष्टुं तपसेरितं मनः ॥ ९ ॥

यशोदाजी औंटे हुए दूधको उतारकर[7] फिर मथनेके घरमें चली आयीं। वहाँ देखती हैं तो दहीका मटका (कमोरा) टुकड़े-टुकड़े हो गया है। वे समझ गयीं कि यह सब मेरे लालाकी ही करतूत है। साथ ही उन्हें वहाँ न देखकर यशोदा माता हँसने लगीं ॥ ७ ॥ इधर-उधर ढूँढऩेपर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे हुए ऊखलपर खड़े हैं और छीकेपरका माखन ले-लेकर बंदरोंको खूब लुटा रहे हैं। उन्हें यह भी डर है कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाय, इसलिये चौकन्ने होकर चारों ओर ताकते जाते हैं । यह देखकर यशोदारानी पीछेसे धीरे-धीरे उनके पास जा पहुँचीं[8] ॥ ८ ॥ जब श्रीकृष्णने देखा कि मेरी मा हाथमें छड़ी लिये मेरी ही ओर आ रही है, तब झटसे ओखलीपरसे कूद पड़े और डरे हुएकी भाँति भागे। परीक्षित्‌ ! बड़े-बड़े योगी तपस्याके द्वारा अपने मनको अत्यन्त सूक्ष्म और शुद्ध बनाकर भी जिनमें प्रवेश नहीं करा पाते, पानेकी बात तो दूर रही, उन्हीं भगवान्‌ के पीछे-पीछे उन्हें पकडऩेके लिये यशोदाजी दौड़ीं [9] ॥ ९ ॥
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[7] यशोदा माता दूधके पास पहुँचीं । प्रेमका अद्भुत दृश्य ! पुत्रको गोदसे उतारकर उसके पेयके प्रति इतनी प्रीति क्यों ? अपनी छातीका दूध तो अपना है, वह कहीं जाता नहीं । परंतु यह सहस्रों छटी हुई गायोंके दूधसे पालित पद्मगन्धा गायका दूध फिर कहाँ मिलेगा ? वृन्दावनका दूध अप्राकृत, चिन्मय, प्रेमजगत्का दूधमाको आते देखकर शर्मसे दब गया । अहो ! आगमें कूदनेका संकल्प करके मैंने माके स्नेहानन्दमें कितना बड़ा विघ्र कर डाला ? और मा अपना आनन्द छोडक़र मेरी रक्षाके लिये दौड़ी आ रही है । मुझे धिक्कार है ।दूधका उफनना बंद हो गया और वह तत्काल अपने स्थानपर बैठ गया ।

[8] मा ! तुम अपनी गोदमें नहीं बैठाओगी तो मैं किसी खलकी गोदमें जा बैठूँगा’—यही सोचकर मानो श्रीकृष्ण उलटे ऊखलके ऊपर जा बैठे । उदार पुरुष भले ही खलोंकी संगतिमें जा बैठें, परंतु उनका शील-स्वभाव बदलता नहीं है । ऊखलपर बैठकर भी वे बन्दरोंको माखन बाँटने लगे । सम्भव है रामावतारके प्रति जो कृतज्ञताका भाव उदय हुआ था, उसके कारण अथवा अभी-अभी क्रोध आ गया था, उसका प्रायश्चित्त करनेके लिये !

श्रीकृष्ण के नेत्र हैं चौर्यविशङ्कितध्यान करनेयोग्य । वैसे तो उनके ललित, कलित, छलित, बलित, चकित आदि अनेकों प्रकारके ध्येय नेत्र हैं, परंतु ये प्रेमीजनों के हृदयमें गहरी चोट करते हैं ।

[9] भीत होकर भागते हुए भगवान्‌ हैं । अपूर्व झाँकी है ! ऐश्वर्य को तो मानो मैया के वात्सल्य प्रेम पर न्योछावर करके व्रज के बाहर ही फेंक दिया है ! कोई असुर अस्त्र-शस्त्र लेकर आता तो सुदर्शन चक्र का स्मरण करते। मैया की छड़ी का निवारण करने के लिये कोई भी अस्त्र-शस्त्र नहीं ! भगवान्‌ की यह भयभीत मूर्ति कितनी मधुर है ! धन्य है इस भय को ।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...