शनिवार, 11 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

गोवर्धनधारण

 

इत्युक्त्वैकेन हस्तेन कृत्वा गोवर्धनाचलम् ।

दधार लीलया कृष्णः छत्राकमिव बालकः ॥ १९ ॥

अथाह भगवान् गोपान् हेऽम्ब तात व्रजौकसः ।

यथोपजोषं विशत गिरिगर्तं सगोधनाः ॥ २० ॥

न त्रास इह वः कार्यो मद्धस्ताद्रिनिपातने ।

वातवर्षभयेनालं तत्त्राणं विहितं हि वः ॥ २१ ॥

तथा निर्विविशुर्गर्तं कृष्णाश्वासितमानसः ।

यथावकाशं सधनाः सव्रजाः सोपजीविनः ॥ २२ ॥

क्षुत्तृड्व्यथां सुखापेक्षां हित्वा तैर्व्रजवासिभिः ।

वीक्ष्यमाणो दधावद्रिं सप्ताहं नाचलत् पदात् ॥ २३ ॥

कृष्णयोगानुभावं तं निशम्येन्द्रोऽतिविस्मितः ।

निःस्तम्भो भ्रष्टसङ्‌कल्पः स्वान् मेघान् संन्यवारयत् ॥ २४ ॥

खं व्यभ्रमुदितादित्यं वातवर्षं च दारुणम् ।

निशम्योपरतं गोपान् गोवर्धनधरोऽब्रवीत् ॥ ॥

निर्यात त्यजत त्रासं गोपाः सस्त्रीधनार्भकाः ।

उपारतं वातवर्षं व्युदप्रायाश्च निम्नगाः ॥ २६ ॥

ततस्ते निर्ययुर्गोपाः स्वं स्वमादाय गोधनम् ।

शकटोढोपकरणं स्त्रीबालस्थविराः शनैः ॥ २७ ॥

भगवानपि तं शैलं स्वस्थाने पूर्ववत्प्रभुः ।

पश्यतां सर्वभूतानां स्थापयामास लीलया ॥ २८ ॥

 

इस प्रकार कहकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथसे गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया और जैसे छोटे-छोटे बालक बरसाती छत्ते के पुष्प को उखाडक़र हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने उस पर्वत को धारण कर लिया ॥ १९ ॥ इसके बाद भगवान्‌ने गोपों से कहा—‘माताजी, पिताजी और व्रजवासियो ! तुमलोग अपनी गौओं और सब सामग्रियोंके साथ इस पर्वतके गड्ढेमें आकर आरामसे बैठ जाओ ॥ २० ॥ देखो, तुमलोग ऐसी शङ्का न करना कि मेरे हाथसे यह पर्वत गिर पड़ेगा। तुमलोग तनिक भी मत डरो। इस आँधी-पानीके डरसे तुम्हें बचानेके लिये ही मैंने यह युक्ति रची है॥ २१ ॥ जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार सबको आश्वासन दियाढाढ़स बँधाया, तब सब-के-सब ग्वाल अपने-अपने गोधन, छकड़ों, आश्रितों, पुरोहितों और भृत्योंको अपने-अपने साथ लेकर सुभीते के अनुसार गोवद्र्धनके गड्ढेमें आ घुसे ॥ २२ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने सब व्रजवासियोंके देखते-देखते भूख-प्यासकी पीड़ा, आराम-विश्रामकी आवश्यकता आदि सब कुछ भुलाकर सात दिनतक लगातार उस पर्वतको उठाये रखा। वे एक डग भी वहाँसे इधर-उधर नहीं हुए ॥ २३ ॥ श्रीकृष्ण की योगमाया का यह प्रभाव देखकर इन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अपना संकल्प पूरा न होनेके कारण उनकी सारी हेकड़ी बंद हो गयी, वे भौचक्के-से रह गये। इसके बाद उन्होंने मेघों को अपने-आप वर्षा करनेसे रोक दिया ॥ २४ ॥ जब गोवर्धनधारी भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने देखा कि वह भयङ्कर आँधी और घनघोर वर्षा बंद हो गयी, आकाशसे बादल छँट गये और सूर्य दीखने लगे, तब उन्होंने गोपोंसे कहा॥ २५ ॥ मेरे प्यारे गोपो ! अब तुमलोग निडर हो जाओ और अपनी स्त्रियों, गोधन तथा बच्चों के साथ बाहर निकल आओ। देखो, अब आँधी- पानी बंद हो गया तथा नदियों का पानी भी उतर गया॥ २६ ॥ भगवान्‌ की ऐसी आज्ञा पाकर अपने-अपने गोधन, स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को साथ ले तथा अपनी सामग्री छकड़ों पर लादकर धीरे-धीरे सब लोग बाहर निकल आये ॥ २७ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने भी सब प्राणियों के देखते-देखते खेल-खेल में ही गिरिराज को पूर्ववत् उसके स्थानपर रख दिया ॥ २८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

गोवर्धनधारण

 

श्रीशुक उवाच -

इत्थं मघवताऽऽज्ञप्ता मेघा निर्मुक्तबन्धनाः ।

नन्दगोकुलमासारैः पीडयामासुरोजसा ॥ ८ ॥

विद्योतमाना विद्युद्‌भिः स्तनन्तः स्तनयित्‍नुभिः ।

तीव्रैर्मरुद्‍गणैर्नुन्ना ववृषुर्जलशर्कराः ॥ ९ ॥

स्थूणास्थूला वर्षधारा मुञ्चत्स्वभ्रेष्व-भीक्ष्णशः ।

जलौघैः प्लाव्यमाना भूः नादृश्यत नतोन्नतम् ॥ १० ॥

अत्यासारातिवातेन पशवो जातवेपनाः ।

गोपा गोप्यश्च शीतार्ता गोविन्दं शरणं ययुः ॥ ११ ॥

शिरः सुतांश्च कायेन प्रच्छाद्या सारपीडिताः ।

वेपमाना भगवतः पादमूलमुपाययुः ॥ १२ ॥

कृष्ण कृष्ण महाभाग त्वन्नाथं गोकुलं प्रभो ।

त्रातुमर्हसि देवान्नः कुपिताद् भक्तवत्सल ॥ १३ ॥

शिलावर्षानिपातेन हन्यमानमचेतनम् ।

निरीक्ष्य भगवान् मेने कुपितेन्द्रकृतं हरिः ॥ १४ ॥

अपर्त्त्वत्युल्बणं वर्षं अतिवातं शिलामयम् ।

स्वयागे विहतेऽस्माभिः इन्द्रो नाशाय वर्षति ॥ १५ ॥

तत्र प्रतिविधिं सम्यग् आत्मयोगेन साधये ।

लोकेशमानिनां मौढ्याद् हनिष्ये श्रीमदं तमः ॥ १६ ॥

न हि सद्‍भावयुक्तानां सुराणामीशविस्मयः ।

मत्तोऽसतां मानभङ्‌गः प्रशमायोपकल्पते ॥ १७ ॥

तस्मात् मच्छरणं गोष्ठं मन्नाथं मत्परिग्रहम् ।

गोपाये स्वात्मयोगेन सोऽयं मे व्रत आहितः ॥ १८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इन्द्र ने इस प्रकार प्रलय के मेघों को आज्ञा दी और उनके बन्धन खोल दिये। अब वे बड़े वेग से नन्दबाबा के व्रजपर चढ़ आये और मूसलधार पानी बरसाकर सारे व्रज को पीडि़त करने लगे ॥ ८ ॥ चारों ओर बिजलियाँ चमकने लगीं, बादल आपस में टकराकर कडक़ने लगे और प्रचण्ड आँधी की प्रेरणा से वे बड़े-बड़े ओले बरसाने लगे ॥९॥ इस प्रकार जब दल-के-दल बादल बार-बार आ-आकर खंभे के समान मोटी-मोटी धाराएँ गिराने लगे तब व्रजभूमि का कोना-कोना पानी से भर गया और कहाँ नीचा है, कहाँ ऊँचाइसका पता चलना कठिन हो गया ॥ १० ॥ इस प्रकार मूसलधार वर्षा तथा झंझावातके झपाटेसे जब एक-एक पशु ठिठुरने और काँपने लगा, ग्वाल और ग्वालिनें भी ठंडके मारे अत्यन्त व्याकुल हो गयीं, तब वे सब-के-सब भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शरण में आये ॥ ११ ॥ मूसलधार वर्षासे सताये जानेके कारण सबने अपने-अपने सिर और बच्चोंको निहुककर अपने शरीर के नीचे छिपा लिया था और वे काँपते- काँपते भगवान्‌ की चरणशरणमें पहुँचे ॥ १२ ॥ और बोले—‘प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम बड़े भाग्यवान् हो। अब तो कृष्ण ! केवल तुम्हारे ही भाग्यसे हमारी रक्षा होगी। प्रभो ! इस सारे गोकुलके एकमात्र स्वामी, एकमात्र रक्षक तुम्ही हो। भक्तवत्सल ! इन्द्रके क्रोधसे अब तुम्हीं हमारी रक्षा कर सकते हो॥ १३ ॥ भगवान्‌ ने देखा कि वर्षा और ओलोंकी मारसे पीडि़त होकर सब बेहोश हो रहे हैं। वे समझ गये कि यह सारी करतूत इन्द्रकी है। उन्होंने ही क्रोधवश ऐसा किया है ॥ १४ ॥ वे मन-ही-मन कहने लगे—‘हमने इन्द्रका यज्ञ-भङ्ग कर दिया है, इसीसे वे व्रजका नाश करनेके लिये बिना ऋतुके ही यह प्रचण्ड वायु और ओलोंके साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं ॥ १५ ॥ अच्छा, मैं अपनी योगमाया से इसका भलीभाँति जवाब दूँगा। ये मूर्खतावश अपने को लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धनका घमण्ड तथा अज्ञान मैं चूर-चूर कर दूँगा ॥१६॥ देवतालोग तो सत्त्वप्रधान होते हैं। इनमें अपने ऐश्वर्य और पदका अभिमान न होना चाहिये। अत: यह उचित ही है कि इन सत्त्वगुण से च्युत दुष्ट देवताओं का मैं मान-भङ्ग कर दूँ। इससे अन्तमें उन्हें शान्ति ही मिलेगी ॥ १७ ॥ यह सारा व्रज मेरे आश्रित है, मेरे द्वारा स्वीकृत है और एकमात्र मैं ही इसका रक्षक हूँ। अत: मैं अपनी योगमाया से इसकी रक्षा करूँगा। संतों की रक्षा करना तो मेरा व्रत ही है। अब उसके पालनका अवसर आ पहुँचा है’[*] ॥ १८ ॥

..................................................

[*] भगवान्‌ कहते हैं

 

“सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।

अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम ।।“

 

जो केवल एक बार मेरी शरण में आ जाता है और मैं तुम्हारा हूँइस प्रकार याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँयह मेरा व्रत है।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

गोवर्धनधारण

 

श्रीशुक उवाच -

इन्द्रस्तदाऽऽत्मनः पूजां विज्ञाय विहतां नृप ।

गोपेभ्यः कृष्णनाथेभ्यो नन्दादिभ्यश्चुकोप ह ॥ १ ॥

गणं सांवर्तकं नाम मेघानां चान्तकारिणाम् ।

इन्द्रः प्रचोदयत् क्रुद्धो वाक्यं चाहेशमान्युत ॥ २ ॥

अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम् ।

कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम् ॥ ३ ॥

यथादृढैः कर्ममयैः क्रतुभिर्नामनौनिभैः ।

विद्यां आन्वीक्षिकीं हित्वा तितीर्षन्ति भवार्णवम् ॥ ४ ॥

वाचालं बालिशं स्तब्धं अज्ञं पण्डितमानिनम् ।

कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम् ॥ ५ ॥

एषां श्रियावलिप्तानां कृष्णेनाध्मापितात्मनाम् ।

धुनुत श्रीमदस्तम्भं पशून् नयत सङ्‌क्षयम् ॥ ६ ॥

अहं चैरावतं नागं आरुह्यानुव्रजे व्रजम् ।

मरुद्‍गणैर्महावेगैः नन्दगोष्ठजिघांसया ॥ ७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब इन्द्र को पता लगा कि मेरी पूजा बंद कर दी गयी है, तब वे नन्दबाबा आदि गोपों पर बहुत ही क्रोधित हुए। परंतु उनके क्रोध करनेसे होता क्या, उन गोपों के रक्षक तो स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण थे ॥ १ ॥ इन्द्रको अपने पद का बड़ा घमण्ड था, वे समझते थे कि मैं ही त्रिलोकी का ईश्वर हूँ। उन्होंने क्रोधसे तिलमिलाकर प्रलय करनेवाले मेघों के सांवतर्क नामक गण को व्रजपर चढ़ाई करनेकी आज्ञा दी और कहा॥ २ ॥ ओह, इन जंगली ग्वालों को इतना घमण्ड ! सचमुच यह धनका ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बलपर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला ॥ ३ ॥ जैसे पृथ्वी पर बहुत-से मन्दबुद्धि पुरुष भवसागर से पार जाने के सच्चे साधन ब्रह्मविद्या को तो छोड़ देते हैं और नाममात्र की टूटी हुई नाव सेकर्ममय यज्ञोंसे इस घोर संसार-सागर को पार करना चाहते हैं ॥ ४ ॥ कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होनेपर भी अपनेको बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्युका ग्रास है। फिर भी उसीका सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है ॥ ५ ॥ एक तो ये यों ही धनके नशे में चूर हो रहे थे; दूसरे कृष्ण ने इनको और बढ़ावा दे दिया है। अब तुमलोग जाकर इनके इस धनके घमण्ड और हेकड़ी को धूल में मिला दो तथा उनके पशुओं का संहार कर डालो ॥ ६ ॥ मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे ऐरावत हाथीपर चढक़र नन्द के व्रज का नाश करने के लिये महापराक्रमी मरुद्गणों के साथ आता हूँ॥ ७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



गुरुवार, 9 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

इन्द्रयज्ञ-निवारण

 

श्रीशुक उवाच -

कालात्मना भगवता शक्रदर्पं जिघांसता ।

प्रोक्तं निशम्य नन्दाद्याः साध्वगृह्णन्त तद्वचः ॥ ३१ ॥

तथा च व्यदधुः सर्वं यथाऽऽह मधुसूदनः ।

वाचयित्वा स्वस्त्ययनं तद् द्रव्येण गिरिद्विजान् ॥ ३२ ॥

उपहृत्य बलीन् सम्यग् सर्वान् आदृता यवसं गवाम् ।

गोधनानि पुरस्कृत्य गिरिं चक्रुः प्रदक्षिणम् ॥ ३३ ॥

अनांस्यनडुद्युक्तानि ते चारुह्य स्वलङ्‌कृताः ।

गोप्यश्च कृष्णवीर्याणि गायन्त्यः सद्विजाशिषः ॥ ३४ ॥

कृष्णस्त्वन्यतमं रूपं गोपविश्रम्भणं गतः ।

शैलोऽस्मीति ब्रुवन् भूरि बलिमादद् बृहद्वपुः ॥ ३५ ॥

तस्मै नमो व्रजजनैः सह चक्रेऽऽत्मनाऽऽत्मने ।

अहो पश्यत शैलोऽसौ रूपी नोऽनुग्रहं व्यधात् ॥ ३६ ॥

एषोऽवजानतो मर्त्यान् कामरूपी वनौकसः ।

हन्ति ह्यस्मै नमस्यामः शर्मणे आत्मनो गवाम् ॥ ३७ ॥

इत्यद्रिगोद्विजमखं वासुदेवप्रचोदिताः ।

यथा विधाय ते गोपा सहकृष्णा व्रजं ययुः ॥ ३८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कालात्मा भगवान्‌की इच्छा थी कि इन्द्रका घमण्ड चूर-चूर कर दें। नन्दबाबा आदि गोपों ने उनकी बात सुनकर बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार कर ली ॥ ३१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार का यज्ञ करने को कहा था, वैसा ही यज्ञ उन्होंने प्रारम्भ किया। पहले ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर उसी सामग्रीसे गिरिराज और ब्राह्मणोंको सादर भेंटें दीं, तथा गौओंको हरी-हरी घास खिलायी। इसके बाद नन्दबाबा आदि गोपोंने गौओंको आगे करके गिरिराजकी प्रदक्षिणा की ॥ ३२-३३ ॥ ब्राह्मणोंका आशीर्वाद प्राप्त करके वे और गोपियाँ भलीभाँति शृङ्गार करके और बैलोंसे जुती गाडिय़ोंपर सवार होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलाओं- का गान करती हुई गिरिराजकी परिक्रमा करने लगीं ॥ ३४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण गोपोंको विश्वास दिलानेके लिये गिरिराजके ऊपर एक दूसरा विशाल शरीर धारण करके प्रकट हो गये, तथा मैं गिरिराज हूँइस प्रकार कहते हुए सारी सामग्री आरोगने लगे ॥ ३५ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने उस स्वरूपको दूसरे व्रज-वासियोंके साथ स्वयं भी प्रणाम किया और कहने लगे—‘देखो, कैसा आश्चर्य है ! गिरिराजने साक्षात् प्रकट होकर हमपर कृपा की है ॥ ३६ ॥ ये चाहे जैसा रूप धारण कर सकते हैं। जो वनवासी जीव इनका निरादर करते हैं, उन्हें ये नष्ट कर डालते हैं। आओ, अपना और गौओंका कल्याण करनेके लिये इन गिरिराज को हम नमस्कार करें॥ ३७ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्रेरणासे नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपोंने गिरिराज, गौ और ब्राह्मणोंका विधिपूर्वक पूजन किया तथा फिर श्रीकृष्णके साथ सब व्रजमें लौट आये ॥ ३८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

इन्द्रयज्ञ-निवारण

 

देहानुच्चावचाञ्जन्तुः प्राप्योत् सृजति कर्मणा ।

शत्रुर्मित्रमुदासीनः कर्मैव गुरुरीश्वरः ॥ १७ ॥

तस्मात् संपूजयेत्कर्म स्वभावस्थः स्वकर्मकृत् ।

अन्जसा येन वर्तेत तदेवास्य हि दैवतम् ॥ १८ ॥

आजीव्यैकतरं भावं यस्त्वन्यमुपजीवति ।

न तस्माद् विन्दते क्षेमं जारान्नार्यसती यथा ॥ १९ ॥

वर्तेत ब्रह्मणा विप्रो राजन्यो रक्षया भुवः ।

वैश्यस्तु वार्तया जीवेत् शूद्रस्तु द्विजसेवया ॥ २० ॥

कृषिवाणिज्यगोरक्षा कुसीदं तूर्यमुच्यते ।

वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम् ॥ २१ ॥

सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः ।

रजसोत्पद्यते विश्वं अन्योन्यं विविधं जगत् ॥ २२ ॥

रजसा चोदिता मेघा वर्षन्त्यम्बूनि सर्वतः ।

प्रजास्तैरेव सिध्यन्ति महेन्द्रः किं करिष्यति ॥ २३ ॥

न नः पुरोजनपदा न ग्रामा न गृहा वयम् ।

नित्यं वनौकसस्तात वनशैलनिवासिनः ॥ ॥

तस्माद्‍गवां ब्राह्मणानां अद्रेश्चारभ्यतां मखः ।

य इंद्रयागसंभाराः तैरयं साध्यतां मखः ॥ २५ ॥

पच्यन्तां विविधाः पाकाः सूपान्ताः पायसादयः ।

संयावापूपशष्कुल्यः सर्वदोहश्च गृह्यताम् ॥ २६ ॥

हूयन्तामग्नयः सम्यग् ब्राह्मणैर्ब्रह्मवादिभिः ।

अन्नं बहुगुणं तेभ्यो देयं वो धेनुदक्षिणाः ॥ २७ ॥

अन्येभ्यश्चाश्वचाण्डाल पतितेभ्यो यथार्हतः ।

यवसं च गवां दत्त्वा गिरये दीयतां बलिः ॥ २८ ॥

स्वलङ्‌कृता भुक्तवन्तः स्वनुलिप्ताः सुवाससः ।

प्रदक्षिणां च कुरुत गोविप्रानलपर्वतान् ॥ २९ ॥

एतन्मम मतं तात क्रियतां यदि रोचते ।

अयं गोब्राह्मणाद्रीणां मह्यं च दयितो मखः ॥ ३० ॥

 

जीव अपने कर्मों के अनुसार उत्तम और अधम शरीरों को ग्रहण करता और छोड़ता रहता है। अपने कर्मोंके अनुसार ही यह शत्रु है, यह मित्र है, यह उदासीन है’—ऐसा व्यवहार करता है। कहाँतक कहूँ, कर्म ही गुरु है और कर्म ही ईश्वर ॥ १७ ॥ इसलिये पिताजी ! मनुष्यको चाहिये कि पूर्व संस्कारोंके अनुसार अपने वर्ण तथा आश्रमके अनुकूल धर्मोंका पालन करता हुआ कर्मका ही आदर करे। जिसके द्वारा मनुष्यकी जीविका सुगमतासे चलती है, वही उसका इष्टदेव होता है ॥ १८ ॥ जैसे अपने विवाहित पतिको छोडक़र जार पतिका सेवन करनेवाली व्यभिचारिणी स्त्री कभी शान्तिलाभ नहीं करती, वैसे ही जो मनुष्य अपनी आजीविका चलानेवाले एक देवताको छोडक़र किसी दूसरेकी उपासना करते हैं, उससे उन्हें कभी सुख नहीं मिलता ॥ १९ ॥ ब्राह्मण वेदोंके अध्ययन-अध्यापनसे, क्षत्रिय पृथ्वी- पालनसे, वैश्य वार्ता वृत्तिसे और शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंकी सेवासे अपनी जीविकाका निर्वाह करें ॥ २० ॥ वैश्योंकी वार्तावृत्ति चार प्रकारकी हैकृषि, वाणिज्य, गोरक्षा और ब्याज लेना। हमलोग उन चारोंमेंसे एक केवल गोपालन ही सदासे करते आये हैं ॥ २१ ॥ पिताजी ! इस संसारकी स्थिति, उत्पत्ति और अन्तके कारण क्रमश: सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण हैं। यह विविध प्रकारका सम्पूर्ण जगत् स्त्री-पुरुषके संयोगसे रजोगुणके द्वारा उत्पन्न होता है ॥ २२ ॥ उसी रजोगुणकी प्रेरणासे मेघगण सब कहीं जल बरसाते हैं। उसीसे अन्न और अन्नसे ही सब जीवोंकी जीविका चलती है। इसमें भला इन्द्रका क्या लेना-देना है ? वह भला, क्या कर सकता है ? ॥ २३ ॥

 

पिताजी ! न तो हमारे पास किसी देशका राज्य है और न तो बड़े-बड़े नगर ही हमारे अधीन हैं। हमारे पास गाँव या घर भी नहीं हैं। हम तो सदाके वनवासी हैं, वन और पहाड़ ही हमारे घर हैं ॥ २४ ॥ इसलिये हमलोग गौओं, ब्राह्मणों और गिरिराजका यजन करनेकी तैयारी करें। इन्द्र- यज्ञके लिये जो सामग्रियाँ इकट्ठी की गयी हैं, उन्हींसे इस यज्ञका अनुष्ठान होने दें ॥ २५ ॥ अनेकों प्रकारके पकवानखीर, हलवा, पूआ, पूरी आदिसे लेकर मूँगकी दालतक बनाये जायँ। व्रजका सारा दूध एकत्र कर लिया जाय ॥ २६ ॥ वेदवादी ब्राह्मणोंके द्वारा भलीभाँति हवन करवाया जाय तथा उन्हें अनेकों प्रकारके अन्न, गौएँ और दक्षिणाएँ दी जायँ ॥ २७ ॥ और भी, चाण्डाल, पतित तथा कुत्तों तक को यथायोग्य वस्तुएँ देकर गायों को चारा दिया जाय और फिर गिरिराज को भोग लगाया जाय ॥ २८ ॥ इसके बाद खूब प्रसाद खा-पीकर, सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहनकर गहनोंसे सज-सजा लिया जाय और चन्दन लगाकर गौ, ब्राह्मण, अग्रि तथा गिरिराज गोवर्धनकी प्रदक्षिणा की जाय ॥ २९ ॥ पिताजी ! मेरी तो ऐसी ही सम्मति है। यदि आपलोगोंको रुचे, तो ऐसा ही कीजिये। ऐसा यज्ञ गौ, ब्राह्मण और गिरिराजको तो प्रिय होगा ही; मुझे भी बहुत प्रिय है ॥ ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



बुधवार, 8 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

इन्द्रयज्ञ-निवारण

 

श्रीनन्द उवाच -

पर्जन्यो भगवान् इन्द्रो मेघास्तस्यात्ममूर्तयः ।

तेऽभिवर्षन्ति भूतानां प्रीणनं जीवनं पयः ॥ ८ ॥

तं तात वयमन्ये च वार्मुचां पतिमीश्वरम् ।

द्रव्यैस्तद् रेतसा सिद्धैः यजन्ते क्रतुभिर्नराः ॥ ९ ॥

तच्छेषेणोपजीवन्ति त्रिवर्गफलहेतवे ।

पुंसां पुरुषकाराणां पर्जन्यः फलभावनः ॥ १० ॥

य एनं विसृजेत् धर्मं परम्पर्यागतं नरः ।

कामाल्लोभात् भयाद् द्वेषात् स वै नाप्नोति शोभनम् ॥ ११ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

वचो निशम्य नन्दस्य तथान्येषां व्रजौकसाम् ।

इन्द्राय मन्युं जनयन् पितरं प्राह केशवः ॥ १२ ॥

 

श्रीभगवानुवाच -

कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव विलीयते ।

सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते ॥ १३ ॥

अस्ति चेदीश्वरः कश्चित् फलरूप्यन्यकर्मणाम् ।

कर्तारं भजते सोऽपि न ह्यकर्तुः प्रभुर्हि सः ॥ १४ ॥

किमिन्द्रेणेह भूतानां स्वस्वकर्मानुवर्तिनाम् ।

अनीशेनान्यथा कर्तुं स्वभावविहितं नृणाम् ॥ १५ ॥

स्वभावतन्त्रो हि जनः स्वभावमनुवर्तते ।

स्वभावस्थमिदं सर्वं सदेवासुरमानुषम् ॥ १६ ॥

 

नन्दबाबाने कहाबेटा ! भगवान्‌ इन्द्र वर्षा करनेवाले मेघोंके स्वामी हैं। ये मेघ उन्हींके अपने रूप हैं। वे समस्त प्राणियोंको तृप्त करनेवाला एवं जीवनदान करनेवाला जल बरसाते हैं ॥ ८ ॥ मेरे प्यारे पुत्र ! हम और दूसरे लोग भी उन्हीं मेघपति भगवान्‌ इन्द्रकी यज्ञोंके द्वारा पूजा किया करते हैं। जिन सामग्रियोंसे यज्ञ होता है, वे भी उनके बरसाये हुए शक्तिशाली जलसे ही उत्पन्न होती हैं ॥ ९ ॥ उनका यज्ञ करनेके बाद जो कुछ बच रहता है, उसी अन्नसे हम सब मनुष्य अर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्गकी सिद्धिके लिये अपना जीवन निर्वाह करते हैं। मनुष्योंके खेती आदि प्रयत्नोंके फल देनेवाले इन्द्र ही हैं ॥ १० ॥ यह धर्म हमारी कुलपरम्परासे चला आया है। जो मनुष्य काम, लोभ, भय अथवा द्वेषवश ऐसे परम्परागत धर्मको छोड़ देता है, उसका कभी मङ्गल नहीं होता ॥ ११ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! ब्रह्मा, शङ्कर आदिके भी शासन करनेवाले केशव भगवान्‌ने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियोंकी बात सुनकर इन्द्रको क्रोध दिलानेके लिये अपने पिता नन्दबाबासे कहा ॥ १२ ॥

 

श्रीभगवान्‌ ने कहापिताजी ! प्राणी अपने कर्मके अनुसार ही पैदा होता और कर्मसे ही मर जाता है। उसे उसके कर्मके अनुसार ही सुख-दु:ख, भय और मङ्गल के निमित्तों की प्राप्ति होती है ॥ १३ ॥ यदि कर्मोंको ही सब कुछ न मानकर उनसे भिन्न जीवोंके कर्मका फल देनेवाला ईश्वर माना भी जाय, तो वह कर्म करनेवालोंको ही उनके कर्मके अनुसार फल दे सकता है। कर्म न करनेवालोंपर उसकी प्रभुता नहीं चल सकती ॥ १४ ॥ जब सभी प्राणी अपने-अपने कर्मोंका ही फल भोग रहे हैं तब हमें इन्द्रकी क्या आवश्यकता है ? पिताजी ! जब वे पूर्वसंस्कारके अनुसार प्राप्त होनेवाले मनुष्योंके कर्म-फलको बदल ही नहीं सकतेतब उनसे प्रयोजन ? ॥ १५ ॥ मनुष्य अपने स्वभाव (पूर्व-संस्कारों) के अधीन है। वह उसीका अनुसरण करता है। यहाँतक कि देवता, असुर, मनुष्य आदिको लिये हुए यह सारा जगत् स्वभावमें ही स्थित है ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

इन्द्रयज्ञ-निवारण

 

श्रीशुक उवाच -

भगवानपि तत्रैव बलदेवेन संयुतः ।

अपश्यत् निवसन् गोपान् इन्द्रयागकृतोद्यमान् ॥ १ ॥

तदभिज्ञोऽपि भगवान् सर्वात्मा सर्वदर्शनः ।

प्रश्रयावनतोऽपृच्छत् वृद्धान् नन्दपुरोगमान् ॥ २ ॥

कथ्यतां मे पितः कोऽयं सम्भ्रमो व उपागतः ।

किं फलं कस्य चोद्देशः केन वा साध्यते मखः ॥ ३ ॥

एतद्‍ब्रूहि महान् कामो मह्यं शुश्रूषवे पितः ।

न हि गोप्यं हि साधूनां कृत्यं सर्वात्मनामिह ॥ ४ ॥

अस्त्यस्व-परदृष्टीनां अमित्रोदास्तविद्विषाम् ।

उदासीनोऽरिवद् वर्ज्य आत्मवत् सुहृदुच्यते ॥ ५ ॥

ज्ञात्वाज्ञात्वा च कर्माणि जनोऽयमनुतिष्ठति ।

विदुषः कर्मसिद्धिः स्यात् तथा नाविदुषो भवेत् ॥ ६ ॥

तत्र तावत् क्रियायोगो भवतां किं विचारितः ।

अथ वा लौकिकस्तन्मे पृच्छतः साधु भण्यताम् ॥ ७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ वृन्दावन में रहकर अनेकों प्रकारकी लीलाएँ कर रहे थे। उन्होंने एक दिन देखा कि वहाँके सब गोप इन्द्र-यज्ञ करनेकी तैयारी कर रहे हैं ॥ १ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण सबके अन्तर्यामी और सर्वज्ञ हैं। उनसे कोई बात छिपी नहीं थी, वे सब जानते थे। फिर भी विनयावनत होकर उन्होंने नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपोंसे पूछा॥ २ ॥ पिताजी ! आपलोगोंके सामने यह कौन-सा बड़ा भारी काम, कौन-सा उत्सव आ पहुँचा है ? इसका फल क्या है ? किस उद्देश्यसे, कौन लोग, किन साधनोंके द्वारा यह यज्ञ किया करते हैं ? पिताजी ! आप मुझे यह अवश्य बतलाइये ॥ ३ ॥ आप मेरे पिता हैं और मैं आपका पुत्र। ये बातें सुनने के लिये मुझे बड़ी उत्कण्ठा भी है। पिताजी ! जो संत पुरुष सबको अपनी आत्मा मानते हैं, जिनकी दृष्टि में अपने और पराये का भेद नहीं है, जिनका न कोई मित्र है, न शत्रु और न उदासीनउनके पास छिपाने की तो कोई बात होती ही नहीं। परंतु यदि ऐसी स्थिति न हो, तो रहस्यकी बात शत्रुकी भाँति उदासीनसे भी नहीं कहनी चाहिये। मित्र तो अपने समान ही कहा गया है, इसलिये उससे कोई बात छिपायी नहीं जाती ॥ ४-५ ॥ यह संसारी मनुष्य समझे-बेसमझे अनेकों प्रकारके कर्मोंका अनुष्ठान करता है। उनमें से समझ-बूझकर करनेवाले पुरुषों के कर्म जैसे सफल होते हैं, वैसे बेसमझ के नहीं ॥ ६ ॥ अत: इस समय आपलोग जो क्रियायोग करने जा रहे हैं, वह सुहृदों के साथ विचारितशास्त्रसम्मत है अथवा लौकिक ही हैमैं यह सब जानना चाहता हूँ; आप कृपा करके स्पष्टरूप से बतलाइये॥ ७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...