॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
गोवर्धनधारण
इत्युक्त्वैकेन
हस्तेन कृत्वा गोवर्धनाचलम् ।
दधार
लीलया कृष्णः छत्राकमिव बालकः ॥ १९ ॥
अथाह
भगवान् गोपान् हेऽम्ब तात व्रजौकसः ।
यथोपजोषं
विशत गिरिगर्तं सगोधनाः ॥ २० ॥
न
त्रास इह वः कार्यो मद्धस्ताद्रिनिपातने ।
वातवर्षभयेनालं
तत्त्राणं विहितं हि वः ॥ २१ ॥
तथा
निर्विविशुर्गर्तं कृष्णाश्वासितमानसः ।
यथावकाशं
सधनाः सव्रजाः सोपजीविनः ॥ २२ ॥
क्षुत्तृड्व्यथां
सुखापेक्षां हित्वा तैर्व्रजवासिभिः ।
वीक्ष्यमाणो
दधावद्रिं सप्ताहं नाचलत् पदात् ॥ २३ ॥
कृष्णयोगानुभावं
तं निशम्येन्द्रोऽतिविस्मितः ।
निःस्तम्भो
भ्रष्टसङ्कल्पः स्वान् मेघान् संन्यवारयत् ॥ २४ ॥
खं
व्यभ्रमुदितादित्यं वातवर्षं च दारुणम् ।
निशम्योपरतं
गोपान् गोवर्धनधरोऽब्रवीत् ॥ ॥
निर्यात
त्यजत त्रासं गोपाः सस्त्रीधनार्भकाः ।
उपारतं
वातवर्षं व्युदप्रायाश्च निम्नगाः ॥ २६ ॥
ततस्ते
निर्ययुर्गोपाः स्वं स्वमादाय गोधनम् ।
शकटोढोपकरणं
स्त्रीबालस्थविराः शनैः ॥ २७ ॥
भगवानपि
तं शैलं स्वस्थाने पूर्ववत्प्रभुः ।
पश्यतां
सर्वभूतानां स्थापयामास लीलया ॥ २८ ॥
इस
प्रकार कहकर भगवान् श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथसे गिरिराज गोवर्धन को
उखाड़ लिया और जैसे छोटे-छोटे बालक बरसाती छत्ते के पुष्प को उखाडक़र हाथ में रख
लेते हैं,
वैसे ही उन्होंने उस पर्वत को धारण कर लिया ॥ १९ ॥ इसके बाद भगवान्ने
गोपों से कहा—‘माताजी, पिताजी और
व्रजवासियो ! तुमलोग अपनी गौओं और सब सामग्रियोंके साथ इस पर्वतके गड्ढेमें आकर
आरामसे बैठ जाओ ॥ २० ॥ देखो, तुमलोग ऐसी शङ्का न करना कि
मेरे हाथसे यह पर्वत गिर पड़ेगा। तुमलोग तनिक भी मत डरो। इस आँधी-पानीके डरसे
तुम्हें बचानेके लिये ही मैंने यह युक्ति रची है’ ॥ २१ ॥ जब
भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार सबको आश्वासन दिया—ढाढ़स
बँधाया, तब सब-के-सब ग्वाल अपने-अपने गोधन, छकड़ों, आश्रितों, पुरोहितों
और भृत्योंको अपने-अपने साथ लेकर सुभीते के अनुसार गोवद्र्धनके गड्ढेमें आ घुसे ॥
२२ ॥ भगवान् श्रीकृष्णने सब व्रजवासियोंके देखते-देखते भूख-प्यासकी पीड़ा,
आराम-विश्रामकी आवश्यकता आदि सब कुछ भुलाकर सात दिनतक लगातार उस
पर्वतको उठाये रखा। वे एक डग भी वहाँसे इधर-उधर नहीं हुए ॥ २३ ॥ श्रीकृष्ण की
योगमाया का यह प्रभाव देखकर इन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अपना संकल्प पूरा
न होनेके कारण उनकी सारी हेकड़ी बंद हो गयी, वे भौचक्के-से
रह गये। इसके बाद उन्होंने मेघों को अपने-आप वर्षा करनेसे रोक दिया ॥ २४ ॥ जब गोवर्धनधारी
भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि वह भयङ्कर आँधी और घनघोर वर्षा बंद हो गयी, आकाशसे बादल छँट गये और सूर्य दीखने लगे, तब
उन्होंने गोपोंसे कहा— ॥ २५ ॥ ‘मेरे
प्यारे गोपो ! अब तुमलोग निडर हो जाओ और अपनी स्त्रियों, गोधन
तथा बच्चों के साथ बाहर निकल आओ। देखो, अब आँधी- पानी बंद हो
गया तथा नदियों का पानी भी उतर गया’ ॥ २६ ॥ भगवान् की ऐसी
आज्ञा पाकर अपने-अपने गोधन, स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को साथ ले तथा अपनी सामग्री छकड़ों पर लादकर धीरे-धीरे
सब लोग बाहर निकल आये ॥ २७ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण ने भी सब प्राणियों के
देखते-देखते खेल-खेल में ही गिरिराज को पूर्ववत् उसके स्थानपर रख दिया ॥ २८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से