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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
श्रीकृष्ण
के विरह में गोपियों की दशा
इत्युन्मत्तवचो
गोप्यः कृष्णान्वेषणकातराः ।
लीला
भगवतस्तास्ता ह्यनुचक्रुस्तदात्मिकाः ॥ १४ ॥
कस्याचित्पूतनायन्त्याः
कृष्णायन्त्यपिबत्स्तनम् ।
तोकयित्वा
रुदत्यन्या पदाहन् शकटायतीम् ॥ १५ ॥
दैत्यायित्वा
जहारान्यामेको कृष्णार्भभावनाम् ।
रिङ्गयामास
काप्यङ्घ्री कर्षन्ती घोषनिःस्वनैः ॥ १६ ॥
कृष्णरामायिते
द्वे तु गोपायन्त्यश्च काश्चन ।
वत्सायतीं
हन्ति चान्या तत्रैका तु बकायतीम् ॥ १७ ॥
आहूय
दूरगा यद्वत्कृष्णस्तमनुवर्ततीम् ।
वेणुं
क्वणन्तीं क्रीडन्तीमन्याः शंसन्ति साध्विति ॥ १८ ॥
कस्याञ्चित्स्वभुजं
न्यस्य चलन्त्याहापरा ननु ।
कृष्णोऽहं
पश्यत गतिं ललितामिति तन्मनाः ॥ १९ ॥
मा
भैष्ट वातवर्षाभ्यां तत्त्राणं विहितं मय ।
इत्युक्त्वैकेन
हस्तेन यतन्त्युन्निदधेऽम्बरम् ॥ २० ॥
आरुह्यैका
पदाक्रम्य शिरस्याहापरां नृप ।
दुष्टाहे
गच्छ जातोऽहं खलानां ननु दण्डधृक् ॥ २१ ॥
तत्रैकोवाच
हे गोपा दावाग्निं पश्यतोल्बणम् ।
चक्षूंष्याश्वपिदध्वं
वो विधास्ये क्षेममञ्जसा ॥ २२ ॥
बद्धान्यया
स्रजा काचित्तन्वी तत्र उलूखले ।
भीता
सुदृक्पिधायास्यं भेजे भीतिविडम्बनम् ॥ २३ ॥
परीक्षित्
! इस प्रकार मतवाली गोपियाँ प्रलाप करती हुई भगवान् श्रीकृष्णको ढूँढ़ते-ढूँढ़ते
कातर हो रही थीं। अब और भी गाढ़ आवेश हो जानेके कारण वे भगवन्मय होकर भगवान्की
विभिन्न लीलाओंका अनुकरण करने लगीं ॥ १४ ॥ एक पूतना बन गयी, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसका स्तन पीने लगीं। कोई छकड़ा बन गयी, तो किसीने बालकृष्ण बनकर रोते हुए उसे पैरकी ठोकर मारकर उलट दिया ॥ १५ ॥
कोई सखी बालकृष्ण बनकर बैठ गयी तो कोई तृणावर्त दैत्यका रूप धारण करके उसे हर ले
गयी। कोई गोपी पाँव घसीट-घसीटकर घुटनों के बल बकैयाँ चलने लगी और उस समय उसके
पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोलने लगे ॥ १६ ॥ एक बनी कृष्ण, तो
दूसरी बनी बलराम, और बहुत-सी गोपियाँ ग्वालबालों के रूपमें
हो गयीं। एक गोपी बन गयी वत्सासुर, तो दूसरी बनी बकासुर। तब
तो गोपियोंने अलग-अलग श्रीकृष्ण बनकर वत्सासुर और बकासुर बनी हुई गोपियोंको
मारनेकी लीला की ॥ १७ ॥ जैसे श्रीकृष्ण वनमें करते थे, वैसे
ही एक गोपी बाँसुरी बजा-बजाकर दूर गये हुए पशुओंको बुलानेका खेल खेलने लगी। तब
दूसरी गोपियाँ ‘वाह-वाह’ करके उसकी
प्रशंसा करने लगीं ॥ १८ ॥ एक गोपी अपनेको श्रीकृष्ण समझकर दूसरी सखीके गलेमें बाँह
डालकर चलती और गोपियोंसे कहने लगती—‘मित्रो ! मैं श्रीकृष्ण
हूँ। तुमलोग मेरी यह मनोहर चाल देखो’ ॥ १९ ॥ कोई गोपी
श्रीकृष्ण बनकर कहती— ‘अरे व्रजवासियो ! तुम आँधी-पानीसे मत
डरो। मैंने उससे बचनेका उपाय निकाल लिया है।’ ऐसा कहकर
गोवर्धन-धारणका अनुकरण करती हुई वह अपनी ओढऩी उठाकर ऊपर तान लेती ॥ २० ॥ परीक्षित्
! एक गोपी बनी कालिय नाग, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसके
सिरपर पैर रखकर चढ़ी-चढ़ी बोलने लगी—‘रे दुष्ट साँप ! तू
यहाँ से चला जा। मैं दुष्टों का दमन करनेके लिये ही उत्पन्न हुआ हूँ ॥ २१ ॥
इतनेमें ही एक गोपी बोली—‘अरे ग्वालो ! देखो, वनमें बड़ी भयङ्कर आग लगी है। तुमलोग जल्दी-से-जल्दी अपनी आँखे मूँद लो,
मैं अनायास ही तुमलोगोंकी रक्षा कर लूँगा’ ॥
२२ ॥ एक गोपी यशोदा बनी और दूसरी बनी श्रीकृष्ण। यशोदा ने फूलोंकी मालासे
श्रीकृष्ण को ऊखलमें बाँध दिया। अब वह श्रीकृष्ण बनी हुई सुन्दरी गोपी हाथोंसे
मुँह ढाँककर भयकी नकल करने लगी ॥ २३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से