शनिवार, 25 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

भगवान्‌ का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना

 

श्रीगोप्य ऊचुः -

भजतोऽनुभजन्त्येक एक एतद्विपर्ययम् ।

नोभयांश्च भजन्त्येक एतन्नो ब्रूहि साधु भोः ॥ १६ ॥

 

श्रीभगवानुवाच -

मिथो भजन्ति ये सख्यः स्वार्थैकान्तोद्यमा हि ते ।

न तत्र सौहृदं धर्मः स्वार्थार्थं तद्धि नान्यथा ॥ १७ ॥

भजन्त्यभजतो ये वै करुणाः पितरो यथा ।

धर्मो निरपवादोऽत्र सौहृदं च सुमध्यमाः ॥ १८ ॥

भजतोऽपि न वै केचिद् भजन्त्यभजतः कुतः ।

आत्मारामा ह्याप्तकामा अकृतज्ञा गुरुद्रुहः ॥ १९ ॥

नाहं तु सख्यो भजतोऽपि जन्तून्

भजाम्यमीषामनुवृत्तिवृत्तये ।

यथाधनो लब्धधने विनष्टे

तच्चिन्तयान्यन्निभृतो न वेद ॥ २० ॥

एवं मदर्थोज्झितलोकवेद

स्वानां हि वो मय्यनुवृत्तयेऽबलाः ।

मयापरोक्षं भजता तिरोहितं

मासूयितुं मार्हथ तत् प्रियं प्रियाः ॥ २१ ॥

न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां

स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः ।

या माभजन् दुर्जरगेहशृङ्‌खलाः

संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुना ॥ २२ ॥

 

गोपियों ने कहानटनागर ! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालोंसे ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करनेवालोंसे भी प्रेम करते हैं। परंतु कोई-कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते। प्यारे ! इन तीनोंमें तुम्हें कौन-सा अच्छा लगता है ? ॥ १६ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहामेरी प्रिय सखियो ! जो प्रेम करनेपर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थको लेकर है। लेन-देनमात्र है। न तो उनमें सौहार्द है और न तो धर्म। उनका प्रेम केवल स्वार्थके लिये ही है; इसके अतिरिक्त उनका और कोई प्रयोजन नहीं है ॥ १७ ॥ सुन्दरियो ! जो लोग प्रेम न करनेवालेसे भी प्रेम करते हैंजैसे स्वभावसे ही करुणाशील, सज्जन और माता- पिताउनका हृदय सौहार्द से, हितैषिता से भरा रहता है और सच पूछो, तो उनके व्यवहारमें निश्छल सत्य एवं पूर्ण धर्म भी है ॥ १८ ॥ कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालोंसे भी प्रेम नहीं करते, न प्रेम करनेवालों का तो उनके सामने कोई प्रश्न ही नहीं है। ऐसे लोग चार प्रकारके होते हैं। एक तो वे, जो अपने स्वरूपमें ही मस्त रहते हैंजिनकी दृष्टिमें कभी द्वैत भासता ही नहीं। दूसरे वे, जिन्हें द्वैत तो भासता है, परंतु जो कृतकृत्य हो चुके हैं; उनका किसीसे कोई प्रयोजन ही नहीं है। तीसरे वे हैं, जो जानते ही नहीं कि हमसे कौन प्रेम करता है; और चौथे वे हैं, जो जान-बूझकर अपना हित करनेवाले परोपकारी गुरुतुल्य लोगोंसे भी द्रोह करते हैं, उनको सताना चाहते हैं ॥ १९ ॥ गोपियो ! मैं तो प्रेम करनेवालोंसे भी प्रेमका वैसा व्यवहार नहीं करता, जैसा करना चाहिये। मैं ऐसा केवल इसीलिये करता हूँ कि उनकी चित्तवृत्ति और भी मुझमें लगे, निरन्तर लगी ही रहे। जैसे निर्धन पुरुषको कभी बहुत-सा धन मिल जाय और फिर खो जाय तो उसका हृदय खोये हुए धनकी चिन्तासे भर जाता है, वैसे ही मैं भी मिल-मिलकर छिप-छिप जाता हूँ ॥ २० ॥ गोपियो ! इसमें सन्देह नहीं कि तुमलोगोंने मेरे लिये लोक-मर्यादा, वेदमार्ग और अपने सगे- सम्बन्धियोंको भी छोड़ दिया है। ऐसी स्थितिमें तुम्हारी मनोवृत्ति और कहीं न जाय, अपने सौन्दर्य और सुहागकी चिन्ता न करने लगे, मुझमें ही लगी रहेइसीलिये परोक्षरूपसे तुमलोगोंसे प्रेम करता हुआ ही मैं छिप गया था। इसलिये तुमलोग मेरे प्रेममें दोष मत निकालो। तुम सब मेरी प्यारी हो और मैं तुम्हारा प्यारा हूँ ॥ २१ ॥ मेरी प्यारी गोपियो ! तुमने मेरे लिये घर-गृहस्थीकी उन बेडिय़ोंको तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े-बड़े योगी-यति भी नहीं तोड़ पाते। मुझसे तुम्हारा यह मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और सर्वथा निर्दोष है। यदि मैं अमर शरीरसेअमर जीवनसे अनन्त कालतक तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्यागका बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता। मैं जन्म-जन्म के लिये तुम्हारा ऋणी हूँ। तुम अपने सौम्य स्वभावसे, प्रेमसे मुझे उऋण कर सकती हो। परंतु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही हूँ ॥ २२ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे                         रासक्रीडायां गोपीसान्त्वनं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना

 

ताः समादाय कालिन्द्या निर्विश्य पुलिनं विभुः ।

विकसत्कुन्दमन्दार सुरभ्यनिलषट्पदम् ॥ ११ ॥

शरच्चन्द्रांशुसन्दोह ध्वस्तदोषातमः शिवम् ।

कृष्णाया हस्ततरला चितकोमलवालुकम् ॥ १२ ॥

तद्दर्शनाह्लादविधूतहृद्रुजो

मनोरथान्तं श्रुतयो यथा ययुः ।

स्वैरुत्तरीयैः कुचकुङ्‌कुमाङ्‌कितैः

अचीक्लृपन्नासनमात्मबन्धवे ॥ १३ ॥

तत्रोपविष्टो भगवान् स ईश्वरो

योगेश्वरान्तर्हृदि कल्पितासनः ।

चकास गोपीपरिषद्‍गतोऽर्चितः

त्रैलोक्यलक्ष्म्येकपदं वपुर्दधत् ॥ १४ ॥

सभाजयित्वा तमनङ्‌गदीपनं

सहासलीलेक्षणविभ्रमभ्रुवा ।

संस्पर्शनेनाङ्‌ककृताङ्‌घ्रिहस्तयोः

संस्तुत्य ईषत्कुपिता बभाषिरे ॥ १५ ॥

 

इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन व्रजसुन्दरियों को साथ लेकर यमुनाजीके पुलिनमें प्रवेश किया। उस समय खिले हुए कुन्द और मन्दारके पुष्पोंकी सुरभि लेकर बड़ी ही शीतल और सुगन्धित मन्द-मन्द वायु चल रही थी और उसकी महँकसे मतवाले होकर भौंरे इधर-उधर मँडरा रहे थे ॥ ११ ॥ शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाकी चाँदनी अपनी निराली ही छटा दिखला रही थी। उसके कारण रात्रिके अन्धकारका तो कहीं पता ही न था, सर्वत्र आनन्द-मङ्गल का ही साम्राज्य छाया था। वह पुलिन क्या था, यमुनाजीने स्वयं अपनी लहरोंके हाथों भगवान्‌ की लीलाके लिये सुकोमल बालुका का रंगमञ्च बना रखा था ॥ १२ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शनसे गोपियोंके हृदयमें इतने आनन्द और इतने रसका उल्लास हुआ कि उनके हृदयकी सारी आधि-व्याधि मिट गयी। जैसे कर्मकाण्डकी श्रुतियाँ उसका वर्णन करते-करते अन्तमें ज्ञानकाण्डका प्रतिपादन करने लगती हैं और फिर वे समस्त मनोरथोंसे ऊपर उठ जाती हैं, कृतकृत्य हो जाती हैंवैसे ही गोपियाँ भी पूर्णकाम हो गयीं। अब उन्होंने अपने वक्ष:स्थलपर लगी हुई रोली-केसरसे चिह्नित ओढऩी को अपने परम प्यारे सुहृद् श्रीकृष्णके विराजनेके लिये बिछा दिया ॥ १३ ॥ बड़े-बड़े योगेश्वर अपने योगसाधन से पवित्र किये हुए हृदयमें जिनके लिये आसनकी कल्पना करते रहते हैं, किन्तु फिर भी अपने हृदय-सिंहासनपर बिठा नहीं पाते, वही सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ यमुनाजी की रेती में गोपियोंकी ओढऩीपर बैठ गये। सहस्र-सहस्र गोपियोंके बीचमें उनसे पूजित होकर भगवान्‌ बड़े ही शोभायमान हो रहे थे। परीक्षित्‌ ! तीनों लोकोंमेंतीनों कालोंमें जितना भी सौन्दर्य प्रकाशित होता है, वह सब तो भगवान्‌के बिन्दुमात्र सौन्दर्यका आभासभर है। वे उसके एकमात्र आश्रय हैं ॥ १४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने इस अलौकिक सौन्दर्यके द्वारा उनके प्रेम और आकाङ्क्षा को और भी उभाड़ रहे थे। गोपियोंने अपनी मन्द-मन्द मुसकान, विलासपूर्ण चितवन और तिरछी भौंहों से उनका सम्मान किया। किसीने उनके चरणकमलों को अपनी गोदमें रख लिया, तो किसीने उनके करकमलोंको। वे उनके संस्पर्श का आनन्द लेती हुई कभी-कभी कह उठती थींकितना सुकुमार है, कितना मधुर है ! इसके बाद श्रीकृष्ण के छिप जानेसे मन-ही-मन तनिक रूठकर उनके मुँहसे ही उनका दोष स्वीकार करानेके लिये वे कहने लगीं ॥ १५ ॥

 

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दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना

 

श्रीशुक उवाच -

इति गोप्यः प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च चित्रधा ।

रुरुदुः सुस्वरं राजन् कृष्णदर्शनलालसाः ॥ १ ॥

तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः ।

पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः ॥ २ ॥

तं विलोक्यागतं प्रेष्ठं प्रीत्युत्फुल्लदृशोऽबलाः ।

उत्तस्थुर्युगपत् सर्वाः तन्वः प्राणमिवागतम् ॥ ३ ॥

काचित् कराम्बुजं शौरेः जगृहेऽञ्जलिना मुदा ।

काचिद् दधार तद्‍बाहुं अंसे चन्दनरूषितम् ॥ ४ ॥

काचिद् अञ्जलिनागृह्णात् तन्वी ताम्बूलचर्वितम् ।

एका तदङ्‌घ्रिकमलं सन्तप्ता स्तनयोरधात् ॥ ५ ॥

एका भ्रुकुटिमाबध्य प्रेमसंरम्भविह्वला ।

घ्नन्तीवैक्षत् कटाक्षेपैः सन्दष्टदशनच्छदा ॥ ६ ॥

अपरानिमिषद् दृग्भ्यां जुषाणा तन्मुखाम्बुजम् ।

आपीतमपि नातृप्यत् सन्तस्तच्चरणं यथा ॥ ७ ॥

तं काचिन्नेत्ररन्ध्रेण हृदिकृत्य निमील्य च ।

पुलकाङ्‌ग्युपगुह्यास्ते योगीवानन्दसम्प्लुता ॥ ८ ॥

सर्वास्ताः केशवालोक परमोत्सवनिर्वृताः ।

जहुर्विरहजं तापं प्राज्ञं प्राप्य यथा जनाः ॥ ९ ॥

ताभिर्विधूतशोकाभिः भगवानच्युतो वृतः ।

व्यरोचताधिकं तात पुरुषः शक्तिभिर्यथा ॥ १० ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ की प्यारी गोपियाँ विरह के आवेश में इस प्रकार भाँति-भाँति से गाने और प्रलाप करने लगीं। अपने कृष्ण-प्यारेके दर्शन की लालसा से वे अपने को रोक न सकीं, करुणाजनक सुमधुर स्वरसे फूट-फूटकर रोने लगीं ॥ १ ॥ ठीक उसी समय उनके बीचो-बीच भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उनका मुखकमल मन्द-मन्द मुसकानसे खिला हुआ था। गलेमें वनमाला थी, पीताम्बर धारण किये हुए थे। उनका यह रूप क्या था, सबके मनको मथ डालनेवाले कामदेवके मनको भी मथनेवाला था ॥ २ ॥ कोटि-कोटि कामोंसे भी सुन्दर परम मनोहर प्राणवल्लभ श्यामसुन्दरको आया देख गोपियोंके नेत्र प्रेम और आनन्दसे खिल उठे। वे सब-की-सब एक ही साथ इस प्रकार उठ खड़ी हुर्ईं, मानो प्राणहीन शरीरमें दिव्य प्राणोंका सञ्चार हो गया हो, शरीरके एक-एक अङ्ग में नवीन चेतनानूतन स्फूर्ति आ गयी हो ॥ ३ ॥ एक गोपीने बड़े प्रेम और आनन्दसे श्रीकृष्ण के करकमल को अपने दोनों हाथोंमें ले लिया और वह धीरे-धीरे उसे सहलाने लगी। दूसरी गोपीने उनके चन्दनचर्चित भुजदण्ड को अपने कंधेपर रख लिया ॥ ४ ॥ तीसरी सुन्दरी ने भगवान्‌ का चबाया हुआ पान अपने हाथोंमें ले लिया। चौथी गोपी, जिसके हृदयमें भगवान्‌ के विरहसे बड़ी जलन हो रही थी, बैठ गयी और उनके चरणकमलों को अपने वक्ष:स्थलपर रख लिया ॥ ५ ॥ पाँचवीं गोपी प्रणयकोप से विह्वल होकर, भौहें चढ़ाकर, दाँतोंसे होठ दबाकर अपने कटाक्ष-बाणोंसे बींधती हुई उनकी ओर ताकने लगी ॥ ६ ॥ छठी गोपी अपने निर्निमेष नयनों से उनके मुखकमल का मकरन्द-रस पान करने लगी। परंतु जैसे संत पुरुष भगवान्‌ के चरणों के दर्शन से कभी तृप्त नहीं होते, वैसे ही वह उनकी मुख-माधुरीका निरन्तर पान करते रहनेपर भी तृप्त नहीं होती थी ॥ ७ ॥ सातवीं गोपी नेत्रोंके मार्गसे भगवान्‌ को अपने हृदयमें ले गयी और फिर उसने आँखें बंद कर लीं। अब मन-ही-मन भगवान्‌ का आलिङ्गन करनेसे उसका शरीर पुलकित हो गया, रोम-रोम खिल उठा और वह सिद्ध योगियोंके समान परमानन्द में मग्न हो गयी ॥ ८ ॥ परीक्षित्‌ ! जैसे मुमुक्षुजन परम ज्ञानी संत पुरुषको प्राप्त करके संसार की पीड़ा से मुक्त हो जाते हैं, वैसे ही सभी गोपियों को भगवान्‌ श्रीकृष्ण के दर्शन से परम आनन्द और परम उल्लास प्राप्त हुआ । उनके विरह के कारण गोपियों को जो दु:ख हुआ था, उससे वे मुक्त हो गयीं और शान्तिके समुद्र में डूबने-उतराने लगीं ॥ ९ ॥ परीक्षित्‌ ! यों तो भगवान्‌ श्रीकृष्ण अच्युत और एकरस हैं, उनका सौन्दर्य और माधुर्य निरतिशय है; फिर भी विरह-व्यथा से मुक्त हुई गोपियों के बीच में उनकी शोभा और भी बढ़ गयी । ठीक वैसे ही, जैसे परमेश्वर अपने नित्य ज्ञान, बल आदि शक्तियों से सेवित होनेपर और भी शोभायमान होता है ॥१० ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



गुरुवार, 23 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

 

गोपिकागीत

 

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु

भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।

तेनाटवीमटसि तद् व्यथते न किं स्वित्

कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥ १९ ॥

 

तुम्हारे चरणकमल से भी सुकुमार हैं। उन्हें हम अपने कठोर स्तनों पर भी डरते-डरते बहुत धीरे से रखती हैं कि कहीं उन्हें चोट न लग जाय। उन्हीं चरणोंसे तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे-छिपे भटक रहे हो ! क्या कंकड़, पत्थर आदि की चोट लगने से उनमें पीड़ा नहीं होती, हमें तो इसकी सम्भावनामात्र से ही चक्कर आ रहा है। हम अचेत होती जा रही हैं। श्रीकृष्ण ! श्यामसुन्दर ! प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिये है, हम तुम्हारे लिये जी रही हैं, हम तुम्हारी हैं ॥ १९ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां गोपीगीतं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

गोपिकागीत

 

अटति यद् भवानह्नि काननं

त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।

कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते

जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद् दृशाम् ॥ १५ ॥

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवान्

अतिविलङ्‌घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।

गतिविदस्तवोद्‍गीतमोहिताः

कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥ १६ ॥

रहसि संविदं हृच्छयोदयं

प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् ।

बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते

मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥ १७ ॥

व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्‌ग ते

वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्‌गलम् ।

त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां

स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥ १८ ॥

 

प्यारे ! दिनके समय जब तुम वनमें विहार करनेके लिये चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिये एक-एक क्षण युगके समान हो जाता है और जब तुम सन्ध्याके समय लौटते हो तथा घुँघराली अलकोंसे युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविन्द हम देखती हैं, उस समय पलकोंका गिरना हमारे लिये भार हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है कि इन नेत्रोंकी पलकोंको बनानेवाला विधाता मूर्ख है ॥ १५ ॥ प्यारे श्यामसुन्दर ! हम अपने पति- पुत्र, भाई-बन्धु और कुल-परिवार का त्याग कर, उनकी इच्छा और आज्ञाओंका उल्लङ्घन करके तुम्हारे पास आयी हैं। हम तुम्हारी एक-एक चाल जानती हैं, संकेत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गानकी गति समझकर, उसीसे मोहित होकर यहाँ आयी हैं। कपटी ! इस प्रकार रात्रिके समय आयी हुई युवतियोंको तुम्हारे सिवा और कौन छोड़ सकता है ॥ १६ ॥ प्यारे ! एकान्तमें तुम मिलनकी आकाङ्क्षा, प्रेम-भावको जगानेवाली बातें करते थे। ठिठोली करके हमें छेड़ते थे। तुम प्रेमभरी चितवनसे हमारी ओर देखकर मुसकरा देते थे और हम देखती थीं तुम्हारा वह विशाल वक्ष:स्थल, जिसपर लक्ष्मीजी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं। तबसे अबतक निरन्तर हमारी लालसा बढ़ती ही जा रही है और हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध होता जा रहा है ॥ १७ ॥ प्यारे ! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति व्रज-वनवासियोंके सम्पूर्ण दु:ख-तापको नष्ट करनेवाली और विश्वका पूर्ण मङ्गल करनेके लिये है। हमारा हृदय तुम्हारे प्रति लालसासे भर रहा है। कुछ थोड़ी-सी ऐसी ओषधि दो, जो तुम्हारे निजजनोंके हृदयरोग को सर्वथा निर्मूल कर दे ॥ १८ ॥

 

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बुधवार, 22 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

गोपिकागीत

 

चलसि यद् व्रजाच्चारयन् पशून्

नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।

शिलतृणाङ्‌कुरैः सीदतीति नः

कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥ ११ ॥

दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैः

वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।

घनरजस्वलं दर्शयन् मुहु

र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥ १२ ॥

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं

धरणिमण्डनं ध्येयमापदि ।

चरणपङ्‌कजं शन्तमं च ते

रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥ १३ ॥

सुरतवर्धनं शोकनाशनं

स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।

इतररागविस्मारणं नृणां

वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥ १४ ॥

 

हमारे प्यारे स्वामी ! तुम्हारे चरण कमलसे भी सुकोमल और सुन्दर हैं। जब तुम गौओं को चराने के लिये व्रजसे निकलते हो तब यह सोचकर कि तुम्हारे वे युगल चरण कंकड़, तिनके और कुश-काँटे गड़ जानेसे कष्ट पाते होंगे, हमारा मन बेचैन हो जाता है। हमें बड़ा दु:ख होता है ॥ ११ ॥ दिन ढलनेपर जब तुम वनसे घर लौटते हो, तो हम देखती हैं कि तुम्हारे मुखकमलपर नीली-नीली अलकें लटक रही हैं और गौओंके खुरसे उड़-उडक़र घनी धूल पड़ी हुई है। हमारे वीर प्रियतम ! तुम अपना वह सौन्दर्य हमें दिखा-दिखाकर हमारे हृदयमें मिलनकी आकाङ्क्षाप्रेम उत्पन्न करते हो ॥ १२ ॥ प्रियतम ! एकमात्र तुम्हीं हमारे सारे दु:खोंको मिटानेवाले हो। तुम्हारे चरणकमल शरणागत भक्तोंकी समस्त अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाले हैं। स्वयं लक्ष्मीजी उनकी सेवा करती हैं और पृथ्वीके तो वे भूषण ही हैं। आपत्तिके समय एकमात्र उन्हींका चिन्तन करना उचित है, जिससे सारी आपत्तियाँ कट जाती हैं। कुञ्जविहारी ! तुम अपने वे परम कल्याणस्वरूप चरणकमल हमारे वक्ष:स्थलपर रखकर हृदयकी व्यथा शान्त कर दो ॥ १३ ॥ वीरशिरोमणे ! तुम्हारा अधरामृत मिलन के सुखको, आकाङ्क्षाको बढ़ानेवाला है। वह विरहजन्य समस्त शोक-सन्तापको नष्ट कर देता है। यह गानेवाली बाँसुरी भलीभाँति उसे चूमती रहती है। जिन्होंने एक बार उसे पी लिया, उन लोगोंको फिर दूसरों और दूसरोंकी आसक्तियोंका स्मरण भी नहीं होता। हमारे वीर ! अपना वही अधरामृत हमें वितरण करो, पिलाओ ॥ १४ ॥

 

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दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

गोपिकागीत

 

मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया

बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।

विधिकरीरिमा वीर मुह्यती

रधरसीधुनाप्याययस्व नः ॥ ८ ॥

तव कथामृतं तप्तजीवनं

कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।

श्रवणमङ्‌गलं श्रीमदाततं

भुवि गृणन्ति ये भूरिदा जनाः ॥ ९ ॥

प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं

विहरणं च ते ध्यानमङ्‌गलम् ।

रहसि संविदो या हृदि स्पृशः

कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥ १० ॥

 

कमलनयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है ! उसका एक-एक पद, एक-एक शब्द, एक-एक अक्षर मधुरातिमधुर है। बड़े-बड़े विद्वान् उसमें रम जाते हैं। उसपर अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं। तुम्हारी उसी वाणीका रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं। दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य अमृतसे भी मधुर अधर-रस पिलाकर हमें जीवन-दान दो, छका दो ॥ ८ ॥ प्रभो ! तुम्हारी लीलाकथा भी अमृतस्वरूप है। विरहसे सताये हुए लोगोंके लिये तो वह जीवन सर्वस्व ही है। बड़े-बड़े ज्ञानी महात्माओंभक्त कवियोंने उसका गान किया है, वह सारे पाप-ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवणमात्रसे परम मङ्गलपरम कल्याणका दान भी करती है। वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है। जो तुम्हारी उस लीला-कथाका गान करते हैं, वास्तवमें भूलोकमें वे ही सबसे बड़े दाता हैं ॥ ९ ॥ प्यारे ! एक दिन वह था, जब तुम्हारी प्रेमभरी हँसी और चितवन तथा तुम्हारी तरह-तरहकी क्रीडाओंका ध्यान करके हम आनन्दमें मग्र हो जाया करती थीं। उनका ध्यान भी परम मङ्गलदायक है, उसके बाद तुम मिले। तुमने एकान्तमें हृदयस्पर्शी ठिठोलियाँ कीं, प्रेमकी बातें कहीं। हमारे कपटी मित्र ! अब वे सब बातें याद आकर हमारे मनको क्षुब्ध किये देती हैं ॥ १० ॥

 

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मंगलवार, 21 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

गोपिकागीत

 

विरचिताभयं वृष्णिधूर्य ते

चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।

करसरोरुहं कान्त कामदं

शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥ ५ ॥

व्रजजनार्तिहन् वीर योषितां

निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।

भज सखे भवत् किङ्‌करीः स्म नो

जलरुहाननं चारु दर्शय ॥ ६ ॥

प्रणतदेहिनां पापकर्षणं

तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।

फणिफणार्पितं ते पदाम्बुजं

कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥ ७ ॥

 

अपने प्रेमियोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेवालोंमें अग्रगण्य यदुवंशशिरोमणे ! जो लोग जन्म- मृत्युरूप संसारके चक्करसे डरकर तुम्हारे चरणोंकी शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे करकमल अपनी छत्रछायामें लेकर अभय कर देते हैं। हमारे प्रियतम ! सबकी लालसा-अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजीका हाथ पकड़ा है, हमारे सिरपर रख दो ॥ ५ ॥ व्रजवासियोंके दु:ख दूर करनेवाले वीरशिरोमणि श्यामसुन्दर ! तुम्हारी मन्द-मन्द मुसकानकी एक उज्ज्वल रेखा ही तुम्हारे प्रेमीजनोंके सारे मान-मदको चूर-चूर कर देनेके लिये पर्याप्त है। हमारे प्यारे सखा ! हमसे रूठो मत, प्रेम करो। हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणोंपर निछावर हैं। हम अबलाओंको अपना वह परम सुन्दर साँवला-साँवला मुखकमल दिखलाओ ॥ ६ ॥ तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणियों के सारे पापोंको नष्ट कर देते हैं। वे समस्त सौन्दर्य, माधुर्यकी खान हैं और स्वयं लक्ष्मीजी उनकी सेवा करती रहती हैं। तुम उन्हीं चरणों से हमारे बछड़ों के पीछे-पीछे चलते हो और हमारे लिये उन्हें साँप के फणोंतक पर रखने में भी तुमने संकोच नहीं किया। हमारा हृदय तुम्हारी विरह-व्यथा की आग से जल रहा है। तुम्हारी मिलने की आकाङ्क्षा हमें सता रही है। तुम अपने वे ही चरण हमारे वक्ष:स्थल पर रखकर हमारे हृदयकी ज्वाला को शान्त कर दो ॥ ७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

गोपिकागीत

 

गोप्य ऊचुः -

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः

श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।

दयित दृश्यतां दिक्षु तावका

स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १ ॥

शरदुदाशये साधुजातसत्

सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।

सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका

वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥ २ ॥

विषजलाप्ययाद् व्यालराक्षसाद्

वर्षमारुताद् वैद्युतानलात् ।

वृषमयात्मजाद् विश्वतो भयाद्

ऋषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३ ॥

न खलु गोपीकानन्दनो भवान्

अखिलदेहिनां अन्तरात्मदृक् ।

विखनसार्थितो विश्वगुप्तये

सख उदेयिवान् सात्वतां कुले ॥ ४ ॥

 

गोपियाँ विरहावेश में गाने लगीं—‘प्यारे ! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी व्रज की महिमा बढ़ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मी जी अपना निवासस्थान वैकुण्ठ छोडक़र यहाँ नित्य-निरन्तर निवास करने लगी हैं, इसकी सेवा करने लगी हैं। परंतु प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं, वन- वन में भटककर तुम्हें ढूँढ़ रही हैं ॥ १ ॥ हमारे प्रेमपूर्ण हृदयके स्वामी ! हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं। तुम शरत्कालीन जलाशयमें सुन्दर-से-सुन्दर सरसिजकी कर्णिका के सौन्दर्य को चुरानेवाले नेत्रोंसे हमें घायल कर चुके हो। हमारे मनोरथ पूर्ण करनेवाले प्राणेश्वर ! क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है ? अस्त्रोंसे हत्या करना ही वध है ? ॥ २ ॥ पुरुषशिरोमणे ! यमुनाजी के विषैले जलसे होनेवाली मृत्यु, अजगर के रूपमें खानेवाले अघासुर, इन्द्रकी वर्षा, आँधी, बिजली, दावानल, वृषभासुर और व्योमासुर आदिसे एवं भिन्न-भिन्न अवसरोंपर सब प्रकारके भयोंसे तुमने बार-बार हमलोगों की रक्षा की है ॥ ३ ॥ तुम केवल यशोदानन्दन ही नहीं हो; समस्त शरीरधारियों के हृदय में रहनेवाले उनके साक्षी हो, अन्तर्यामी हो। सखे ! ब्रह्माजी की प्रार्थना से विश्वकी रक्षा करनेके लिये तुम यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हो ॥ ४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...