॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
भगवान्
का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना
श्रीगोप्य
ऊचुः -
भजतोऽनुभजन्त्येक
एक एतद्विपर्ययम् ।
नोभयांश्च
भजन्त्येक एतन्नो ब्रूहि साधु भोः ॥ १६ ॥
श्रीभगवानुवाच
-
मिथो
भजन्ति ये सख्यः स्वार्थैकान्तोद्यमा हि ते ।
न
तत्र सौहृदं धर्मः स्वार्थार्थं तद्धि नान्यथा ॥ १७ ॥
भजन्त्यभजतो
ये वै करुणाः पितरो यथा ।
धर्मो
निरपवादोऽत्र सौहृदं च सुमध्यमाः ॥ १८ ॥
भजतोऽपि
न वै केचिद् भजन्त्यभजतः कुतः ।
आत्मारामा
ह्याप्तकामा अकृतज्ञा गुरुद्रुहः ॥ १९ ॥
नाहं
तु सख्यो भजतोऽपि जन्तून्
भजाम्यमीषामनुवृत्तिवृत्तये
।
यथाधनो
लब्धधने विनष्टे
तच्चिन्तयान्यन्निभृतो
न वेद ॥ २० ॥
एवं
मदर्थोज्झितलोकवेद
स्वानां
हि वो मय्यनुवृत्तयेऽबलाः ।
मयापरोक्षं
भजता तिरोहितं
मासूयितुं
मार्हथ तत् प्रियं प्रियाः ॥ २१ ॥
न
पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां
स्वसाधुकृत्यं
विबुधायुषापि वः ।
या
माभजन् दुर्जरगेहशृङ्खलाः
संवृश्च्य
तद् वः प्रतियातु साधुना ॥ २२ ॥
गोपियों
ने कहा—नटनागर ! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं, जो प्रेम
करनेवालोंसे ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करनेवालोंसे भी प्रेम करते हैं।
परंतु कोई-कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते। प्यारे ! इन तीनोंमें तुम्हें कौन-सा
अच्छा लगता है ? ॥ १६ ॥
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—मेरी प्रिय सखियो ! जो प्रेम करनेपर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थको लेकर है। लेन-देनमात्र है। न तो उनमें
सौहार्द है और न तो धर्म। उनका प्रेम केवल स्वार्थके लिये ही है; इसके अतिरिक्त उनका और कोई प्रयोजन नहीं है ॥ १७ ॥ सुन्दरियो ! जो लोग
प्रेम न करनेवालेसे भी प्रेम करते हैं—जैसे स्वभावसे ही
करुणाशील, सज्जन और माता- पिता—उनका
हृदय सौहार्द से, हितैषिता से भरा रहता है और सच पूछो,
तो उनके व्यवहारमें निश्छल सत्य एवं पूर्ण धर्म भी है ॥ १८ ॥ कुछ
लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालोंसे भी प्रेम नहीं करते,
न प्रेम करनेवालों का तो उनके सामने कोई प्रश्न ही नहीं है। ऐसे लोग
चार प्रकारके होते हैं। एक तो वे, जो अपने स्वरूपमें ही मस्त
रहते हैं—जिनकी दृष्टिमें कभी द्वैत भासता ही नहीं। दूसरे वे,
जिन्हें द्वैत तो भासता है, परंतु जो कृतकृत्य
हो चुके हैं; उनका किसीसे कोई प्रयोजन ही नहीं है। तीसरे वे
हैं, जो जानते ही नहीं कि हमसे कौन प्रेम करता है; और चौथे वे हैं, जो जान-बूझकर अपना हित करनेवाले
परोपकारी गुरुतुल्य लोगोंसे भी द्रोह करते हैं, उनको सताना
चाहते हैं ॥ १९ ॥ गोपियो ! मैं तो प्रेम करनेवालोंसे भी प्रेमका वैसा व्यवहार नहीं
करता, जैसा करना चाहिये। मैं ऐसा केवल इसीलिये करता हूँ कि
उनकी चित्तवृत्ति और भी मुझमें लगे, निरन्तर लगी ही रहे।
जैसे निर्धन पुरुषको कभी बहुत-सा धन मिल जाय और फिर खो जाय तो उसका हृदय खोये हुए
धनकी चिन्तासे भर जाता है, वैसे ही मैं भी मिल-मिलकर छिप-छिप
जाता हूँ ॥ २० ॥ गोपियो ! इसमें सन्देह नहीं कि तुमलोगोंने मेरे लिये लोक-मर्यादा,
वेदमार्ग और अपने सगे- सम्बन्धियोंको भी छोड़ दिया है। ऐसी
स्थितिमें तुम्हारी मनोवृत्ति और कहीं न जाय, अपने सौन्दर्य
और सुहागकी चिन्ता न करने लगे, मुझमें ही लगी रहे—इसीलिये परोक्षरूपसे तुमलोगोंसे प्रेम करता हुआ ही मैं छिप गया था। इसलिये
तुमलोग मेरे प्रेममें दोष मत निकालो। तुम सब मेरी प्यारी हो और मैं तुम्हारा
प्यारा हूँ ॥ २१ ॥ मेरी प्यारी गोपियो ! तुमने मेरे लिये घर-गृहस्थीकी उन
बेडिय़ोंको तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े-बड़े योगी-यति भी नहीं
तोड़ पाते। मुझसे तुम्हारा यह मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा
निर्मल और सर्वथा निर्दोष है। यदि मैं अमर शरीरसे—अमर जीवनसे
अनन्त कालतक तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्यागका बदला चुकाना
चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता। मैं जन्म-जन्म के लिये तुम्हारा ऋणी हूँ। तुम अपने सौम्य
स्वभावसे, प्रेमसे मुझे उऋण कर सकती हो। परंतु मैं तो
तुम्हारा ऋणी ही हूँ ॥ २२ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां
गोपीसान्त्वनं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से