॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकसठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवान् की
सन्तति का वर्णन तथा
अनिरुद्ध के
विवाह में रुक्मी का मारा जाना
श्रीशुक उवाच
एकैकशस्ताः कृष्णस्य पुत्रान्दश दशाबलाः
अजीजनन्ननवमान्पितुः सर्वात्मसम्पदा १
गृहादनपगं वीक्ष्य राजपुत्र्योऽच्युतं स्थितम्
प्रेष्ठं न्यमंसत स्वं स्वं न तत्तत्त्वविदः स्त्रियः २
चार्वब्जकोशवदनायतबाहुनेत्र
सप्रेमहासरसवीक्षितवल्गुजल्पैः
सम्मोहिता भगवतो न मनो विजेतुं
स्वैर्विभ्रमैः समशकन्वनिता विभूम्नः ३
स्मायावलोकलवदर्शितभावहारि
भ्रूमण्डलप्रहितसौरतमन्त्रशौण्डैः
पत्न्यस्तु षोडशसहस्रमनङ्गबाणैर्
यस्येन्द्रियं विमथितुं करणैर्न शेकुः ४
इत्थं रमापतिमवाप्य पतिं स्त्रियस्ता
ब्रह्मादयोऽपि न विदुः पदवीं यदीयाम्
भेजुर्मुदाविरतमेधितयानुराग
हासावलोकनवसङ्गमलालसाद्यम् ५
प्रत्युद्गमासनवरार्हणपादशौच
ताम्बूलविश्रमणवीजनगन्धमाल्यैः
केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्यैः
दासीशता अपि विभोर्विदधुः स्म दास्यम् ६
तासां या दशपुत्राणां कृष्णस्त्रीणां पुरोदिताः
अष्टौ महिष्यस्तत्पुत्रान्प्रद्युम्नादीन्गृणामि ते ७
चारुदेष्णः सुदेष्णश्च चारुदेहश्च वीर्यवान्
सुचारुश्चारुगुप्तश्च भद्रचारुस्तथापरः ८
चारुचन्द्रो विचारुश्च चारुश्च दशमो हरेः
प्रद्युम्नप्रमुखा जाता रुक्मिण्यां नावमाः पितुः ९
भानुः सुभानुः स्वर्भानुः प्रभानुर्भानुमांस्तथा
चन्द्र भानुर्बृहद्भानुरतिभानुस्तथाष्टमः १०
श्रीभानुः प्रतिभानुश्च सत्यभामात्मजा दश
साम्बः सुमित्रः पुरुजिच्छतजिच्च सहस्रजित् ११
विजयश्चित्रकेतुश्च वसुमान्द्रविडः क्रतुः
जाम्बवत्याः सुता ह्येते साम्बाद्याः पितृसम्मताः १२
वीरश्चन्द्रो ऽश्वसेनश्च चित्रगुर्वेगवान्वृषः
आमः शङ्कुर्वसुः श्रीमान्कुन्तिर्नाग्नजितेः सुताः १३
श्रुतः कविर्वृषो वीरः सुबाहुर्भद्र एकलः
शान्तिर्दर्शः पूर्णमासः कालिन्द्याः सोमकोऽवरः १४
प्रघोषो गात्रवान्सिंहो बलः प्रबल ऊर्ध्वगः
माद्र्याः पुत्रा महाशक्तिः सह ओजोऽपराजितः १५
वृको हर्षोऽनिलो गृध्रो वर्धनोऽन्नाद एव च
महाशः पावनो वह्निर्मित्रविन्दात्मजाः क्षुधिः १६
सङ्ग्रामजिद्बृहत्सेनः शूरः प्रहरणोऽरिजित्
जयः सुभद्रो भद्राया वाम आयुश्च सत्यकः १७
दीप्तिमांस्ताम्रतप्ताद्या रोहिण्यास्तनया हरेः
प्रद्युम्नाच्चानिरुद्धोऽभूद्रुक्मवत्यां महाबलः
पुत्र्यां तु रुक्मिणो राजन्नाम्ना भोजकटे पुरे १८
एतेषां पुत्रपौत्राश्च बभूवुः कोटिशो नृप
मातरः कृष्णजातीनां सहस्राणि च षोडश १९
श्रीराजोवाच
कथं रुक्म्यरिपुत्राय प्रादाद्दुहितरं युधि
कृष्णेन परिभूतस्तं हन्तुं रन्ध्रं प्रतीक्षते
एतदाख्याहि मे विद्वन्द्विषोर्वैवाहिकं मिथः २०
अनागतमतीतं च वर्तमानमतीन्द्रियम्
विप्रकृष्टं व्यवहितं सम्यक्पश्यन्ति योगिनः २१
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान्
श्रीकृष्णकी प्रत्येक पत्नीके गर्भसे दस-दस पुत्र उत्पन्न हुए। वे रूप, बल आदि गुणोंमें अपने पिता भगवान् श्रीकृष्णसे किसी बातमें कम न थे ।। १
।। राजकुमारियाँ देखतीं कि भगवान् श्रीकृष्ण हमारे महलसे कभी बाहर नहीं जाते। सदा
हमारे ही पास बने रहते हैं। इससे वे यही समझतीं कि श्रीकृष्णको मैं ही सबसे प्यारी
हूँ। परीक्षित् ! सच पूछो तो वे अपने पति भगवान् श्रीकृष्णका तत्त्व—उनकी महिमा नहीं समझती थीं ।। २ ।। वे सुन्दरियाँ अपने आत्मानन्द में एकरस
स्थित भगवान् श्रीकृष्ण के कमल-कलीके समान सुन्दर मुख, विशाल
बाहु, कर्णस्पर्शी नेत्र, प्रेमभरी
मुसकान, रसमयी चितवन और मधुर वाणीसे स्वयं ही मोहित रहती
थीं। वे अपने शृङ्गारसम्बन्धी हावभावोंसे उनके मनको अपनी ओर खींचनेमें समर्थ न हो
सकीं ।। ३ ।। वे सोलह हजार से अधिक थीं। अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवनसे
युक्त मनोहर भौंहोंके इशारेसे ऐसे प्रेमके बाण चलाती थीं, जो
काम-कलाके भावोंसे परिपूर्ण होते थे, परंतु किसी भी प्रकारसे,
किन्हीं साधनोंके द्वारा वे भगवान् के मन एवं इन्द्रियोंमें
चञ्चलता नहीं उत्पन्न कर सकीं ।। ४ ।। परीक्षित् ! ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता
भी भगवान् के वास्तविक स्वरूपको या उनकी प्राप्तिके मार्गको नहीं जानते। उन्हीं
रमारमण भगवान् श्रीकृष्णको उन स्त्रियोंने पतिके रूपमें प्राप्त किया था। अब
नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्दकी अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी मुसकराहट,
मधुर चितवन, नवसमागमकी लालसा आदिसे भगवान् की
सेवा करती रहती थीं ।। ५ ।। उनमेंसे सभी पत्नियोंके साथ सेवा करनेके लिये सैकड़ों
दासियाँ रहतीं। फिर भी जब उनके महलमें भगवान् पधारते तब वे स्वयं आगे जाकर
आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ आसनपर बैठातीं,
उत्तम सामग्रियोंसे उनकी पूजा करतीं, चरणकमल
पखारतीं, पान लगाकर खिलातीं, पाँव
दबाकर थकावट दूर करतीं, पंखा झलतीं, इत्र-फुलेल,
चन्दन आदि लगातीं, फूलोंके हार पहनातीं,
केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान
करातीं और अनेक प्रकारके भोजन कराकर अपने हाथों भगवान्की सेवा करतीं ।। ६ ।।
परीक्षित् !
मैं कह चुका हूँ कि भगवान् श्रीकृष्णकी प्रत्येक पत्नीके दस-दस पुत्र थे। उन
रानियोंमें आठ पटरानियाँ थीं, जिनके विवाहका वर्णन मैं पहले कर चुका हूँ। अब उनके प्रद्युम्र आदि
पुत्रोंका वर्णन करता हूँ ।। ७ ।। रुक्मिणीके गर्भसे दस पुत्र हुए—प्रद्युम्र, चारुदेष्ण, सुदेष्ण,
पराक्रमी चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुचन्द्र,
विचारु और दसवाँ चारु। ये अपने पिता भगवान् श्रीकृष्णसे किसी
बातमें कम न थे ।। ८-९ ।। सत्यभामाके भी दस पुत्र थे—भानु,
सुभानु, स्वर्भानु, प्रभानु,
भानुमान्, चन्द्रभानु, बृहद्भानु,
अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु। जाम्बवतीके
भी साम्ब आदि दस पुत्र थे—साम्ब, सुमित्र,
पुरुजित्, शतजित्, सहस्रजित्,
विजय, चित्रकेतु, वसुमान्,
द्रविड और क्रतु। ये सब श्रीकृष्णको बहुत प्यारे थे ।। १०—१२ ।। नाग्रजिती सत्याके भी दस पुत्र हुए—वीर,
चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगु,
वेगवान्, वृष, आम,
शङ्कु, वसु और परम तेजस्वी कुन्ति ।। १३ ।।
कालिन्दीके दस पुत्र ये थे—श्रुत, कवि,
वृष, वीर, सुबाहु,
भद्र, शान्ति, दर्श,
पूर्णमास और सबसे छोटा सोमक ।। १४ ।। मद्रदेशकी राजकुमारी
लक्ष्मणाके गर्भसे प्रघोष, गात्रवान्, सिंह,
बल, प्रबल, ऊर्ध्वग,
महाशक्ति, सह, ओज और
अपराजितका जन्म हुआ ।। १५ ।। मित्रविन्दा के पुत्र थे—वृक,
हर्ष, अनिल, गृध्र,
वर्धन, अन्नाद, महाश,
पावन, वह्नि और क्षुधि ।। १६ ।। भद्राके पुत्र
थे—संग्रामजित्, बृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित्, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक ।। १७ ।। इन पटरानियोंके अतिरिक्त भगवान्की रोहिणी आदि सोलह
हजार एक सौ और भी पत्नियाँ थीं। उनके दीप्तिमान् और ताम्रतप्त आदि दस-दस पुत्र
हुए। रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्नका मायावती रतिके अतिरिक्त भोजकट-नगरनिवासी रुक्मीकी
पुत्री रुक्मवतीसे भी विवाह हुआ था। उसीके गर्भसे परम बलशाली अनिरुद्धका जन्म हुआ।
परीक्षित् ! श्रीकृष्णके पुत्रोंकी माताएँ ही सोलह हजारसे अधिक थीं। इसलिये उनके
पुत्र-पौत्रोंकी संख्या करोड़ों तक पहुँच गयी ।। १८-१९ ।।
राजा
परीक्षित् ने पूछा—परम ज्ञानी मुनीश्वर ! भगवान्
श्रीकृष्णने रणभूमिमें रुक्मीका बड़ा तिरस्कार किया था। इसलिये वह सदा इस बातकी
घातमें रहता था कि अवसर मिलते ही श्रीकृष्णसे उसका बदला लूँ और उनका काम तमाम कर
डालूँ। ऐसी स्थितिमें उसने अपनी कन्या रुक्मवती अपने शत्रुके पुत्र प्रद्युम्नजीको
कैसे ब्याह दी ? कृपा करके बतलाइये ! दो शत्रुओंमें— श्रीकृष्ण और रुक्मीमें फिरसे परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध कैसे हुआ ? ।। २० ।। आपसे कोई बात छिपी नहीं है। क्योंकि योगीजन भूत, भविष्य और वर्तमानकी सभी बातें भलीभाँति जानते हैं। उनसे ऐसी बातें भी
छिपी नहीं रहतीं; जो इन्द्रियोंसे परे हैं, बहुत दूर हैं अथवा बीचमें किसी वस्तुकी आड़ होनेके कारण नहीं दीखतीं ।। २१
।।
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गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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