मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बयासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बयासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण-बलराम से गोप-गोपियों की भेंट

 

श्रीशुक उवाच -

अथैकदा द्वारवत्यां वसतो रामकृष्णयोः ।

 सूर्योपरागः सुमहानासीत्कल्पक्षये यथा ॥ १ ॥

 तं ज्ञात्वा मनुजा राजन्पुरस्तादेव सर्वतः ।

 समन्तपञ्चकं क्षेत्रं ययुः श्रेयोविधित्सया ॥ २ ॥

 निःक्षत्रियां महीं कुर्वन्रामः शस्त्रभृतां वरः ।

 नृपाणां रुधिरौघेण यत्र चक्रे महाह्रदान् ॥ ३ ॥

 ईजे च भगवान्रामो यत्रास्पृष्टोऽपि कर्मणा ।

 लोकं सङ्ग्राहयन्नीशो यथान्योऽघापनुत्तये ॥ ४ ॥

 महत्यां तीर्थयात्रायां तत्रागन्भारतीः प्रजाः ।

 वृष्णयश्च तथाक्रूर वसुदेवाहुकादयः ॥ ५ ॥

 ययुर्भारत तत्क्षेत्रं स्वमघं क्षपयिष्णवः ।

 गदप्रद्युम्नसाम्बाद्याः सुचन्द्रशुकसारणैः ॥ ६ ॥

 आस्तेऽनिरुद्धो रक्षायां कृतवर्मा च यूथपः ।

 ते रथैर्देवधिष्ण्याभैः हयैश्च तरलप्लवैः ॥ ७ ॥

 गजैर्नदद्‌भिरभ्राभैः नृभिर्विद्याधरद्युभिः ।

 व्यरोचन्त महातेजाः पथि काञ्चनमालिनः ॥ ८ ॥

 दिव्यस्रग्वस्त्रसन्नाहाः कलत्रैः खेचरा इव ।

 तत्र स्नात्वा महाभागा उपोष्य सुसमाहिताः ॥ ९ ॥

 ब्राह्मणेभ्यो ददुर्धेनूः वासःस्रग्‌रुक्ममालिनीः ।

 रामह्रदेषु विधिवत् पुनराप्लुत्य वृष्णयः ॥ १० ॥

 ददुः स्वन्नं द्विजाग्र्येभ्यः कृष्णे नो भक्तिरस्त्विति ।

 स्वयं च तदनुज्ञाता वृष्णयः कृष्णदेवताः ॥ ११ ॥

 भुक्त्वोपविविशुः कामं स्निग्धच्छायाङ्‌घ्रिपाङ्‌घ्रिषु ।

 तत्रागतांस्ते ददृशुः सुहृत्संबन्धिनो नृपान् ॥ १२ ॥

 मत्स्योशीनरकौशल्य विदर्भकुरुसृञ्जयान् ।

 काम्बोजकैकयान् मद्रान् कुन्तीनानर्तकेरलान् ॥ १३ ॥

 अन्यांश्चैवात्मपक्षीयान् परांश्च शतशो नृप ।

 नन्दादीन् सुहृदो गोपान् गोपीश्चोत्कण्ठिताश्चिरम् ॥ १४ ॥

अन्योन्यसन्दर्शनहर्षरंहसा

     प्रोत्फुल्लहृद्वक्त्रसरोरुहश्रियः ।

 आश्लिष्य गाढं नयनैः स्रवज्जला

     हृष्यत्त्वचो रुद्धगिरो ययुर्मुदम् ॥ १५ ॥

 स्त्रियश्च संवीक्ष्य मिथोऽतिसौहृद

     स्मितामलापाङ्गदृशोऽभिरेभिरे ।

 स्तनैः स्तनान् कुङ्कुमपङ्करूषितान्

     निहत्य दोर्भिः प्रणयाश्रुलोचनाः ॥ १६ ॥

ततोऽभिवाद्य ते वृद्धान् यविष्ठैरभिवादिताः ।

 स्वागतं कुशलं पृष्ट्वा चक्रुः कृष्णकथा मिथः ॥ १७ ॥

 पृथा भ्रातॄन् स्वसॄर्वीक्ष्य तत्पुत्रान् पितरावपि ।

 भ्रातृपत्‍नीर्मुकुन्दं च जहौ सङ्कथया शुचः ॥ १८ ॥

 

 कुन्त्युवाच -

आर्य भ्रातरहं मन्ये आत्मानमकृताशिषम् ।

 यद्वा आपत्सु मद्वार्तां नानुस्मरथ सत्तमाः ॥ १९ ॥

 सुहृदो ज्ञातयः पुत्रा भ्रातरः पितरावपि ।

 नानुस्मरन्ति स्वजनं यस्य दैवमदक्षिणम् ॥ २० ॥

 

 श्रीवसुदेव उवाच -

अम्ब मास्मानसूयेथा दैवक्रीडनकान् नरान् ।

 ईशस्य हि वशे लोकः कुरुते कार्यतेऽथ वा ॥ २१ ॥

 कंसप्रतापिताः सर्वे वयं याता दिशं दिशम् ।

 एतर्ह्येव पुनः स्थानं दैवेनासादिताः स्वसः ॥ २२ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

वसुदेवोग्रसेनाद्यैः यदुभिस्तेऽर्चिता नृपाः ।

 आसन् अच्युतसन्दर्श परमानन्दनिर्वृताः ॥ २३ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इसी प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी द्वारकामें निवास कर रहे थे। एक बार सर्वग्रास सूर्यग्रहण लगा, जैसा कि प्रलयके समय लगा करता है ॥ १ ॥ परीक्षित्‌ ! मनुष्योंको ज्योतिषियोंके द्वारा उस ग्रहणका पता पहलेसे ही चल गया था, इसलिये सब लोग अपने-अपने कल्याणके उद्देश्यसे पुण्य आदि उपार्जन करनेके लिये समन्तपञ्चक-तीर्थ कुरुक्षेत्रमें आये ॥ २ ॥ समन्तपञ्चक क्षेत्र वह है, जहाँ शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ परशुरामजीने सारी पृथ्वीको क्षत्रियहीन करके राजाओंकी रुधिरधारासे पाँच बड़े-बड़े कुण्ड बना दिये थे ॥ ३ ॥ जैसे कोई साधारण मनुष्य अपने पापकी निवृत्तिके लिये प्रायश्चित्त करता है, वैसे ही सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ परशुरामने अपने साथ कर्मका कुछ सम्बन्ध न होनेपर भी लोकमर्यादाकी रक्षाके लिये वहींपर यज्ञ किया था ॥ ४ ॥

परीक्षित्‌ ! इस महान् तीर्थयात्राके अवसरपर भारतवर्षके सभी प्रान्तोंकी जनता कुरुक्षेत्र आयी थी। उनमें अक्रूर, वसुदेव, उग्रसेन आदि बड़े-बूढ़े तथा गद, प्रद्युम्र, साम्ब आदि अन्य यदुवंशी भी अपने-अपने पापोंका नाश करनेके लिये कुरुक्षेत्र आये थे। प्रद्युम्रनन्दन अनिरुद्ध और यदुवंशी सेनापति कृतवर्माये दोनों सुचन्द्र, शुक, सारण आदिके साथ नगरकी रक्षाके लिये द्वारकामें रह गये थे। यदुवंशी एक तो स्वभावसे ही परम तेजस्वी थे; दूसरे गलेमें सोनेकी माला, दिव्य पुष्पोंके हार, बहुमूल्य वस्त्र और कवचोंसे सुसज्जित होनेके कारण उनकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। वे तीर्थयात्राके पथमें देवताओंके विमानके समान रथों, समुद्रकी तरङ्गके समान चलनेवाले घोड़ों, बादलोंके समान विशालकाय एवं गर्जना करते हुए हाथियों तथा विद्याधरोंके समान मनुष्योंके द्वारा ढोयी जानेवाली पालकियोंपर अपनी पत्नियोंके साथ इस प्रकार शोभायमान हो रहे थे, मानो स्वर्गके देवता ही यात्रा कर रहे हों। महाभाग्यवान् यदुवंशियोंने कुरुक्षेत्रमें पहुँचकर एकाग्रचित्तसे संयमपूर्वक स्नान किया और ग्रहणके उपलक्ष्यमें निश्चित कालतक उपवास किया ॥ ५९ ॥ उन्होंने ब्राह्मणोंको गोदान किया। ऐसी गौओंका दान किया जिन्हें वस्त्रोंकी सुन्दर-सुन्दर झूलें, पुष्पमालाएँ एवं सोनेकी जंजीरें पहना दी गयी थीं। इसके बाद ग्रहणका मोक्ष हो जानेपर परशुरामजीके बनाये हुए कुण्डोंमें यदुवंशियोंने विधिपूर्वक स्नान किया और सत्पात्र ब्राह्मणोंको सुन्दर-सुन्दर पकवानोंका भोजन कराया। उन्होंने अपने मनमें यह सङ्कल्प किया था कि भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें हमारी प्रेमभक्ति बनी रहे। भगवान्‌ श्रीकृष्णको ही अपना आदर्श और इष्टदेव माननेवाले यदुवंशियोंने ब्राह्मणोंसे अनुमति लेकर तब स्वयं भोजन किया और फिर घनी एवं ठंडी छायावाले वृक्षोंके नीचे अपनी-अपनी इच्छाके अनुसार डेरा डालकर ठहर गये। परीक्षित्‌ ! विश्राम कर लेनेके बाद यदुवंशियोंने अपने सुहृद् और सम्बन्धी राजाओंसे मिलना-भेंटना शुरू किया ॥ १०१२ ॥ वहाँ मत्स्य, उशीनर, कोसल, विदर्भ, कुरु, सृञ्जय, काम्बोज, कैकय, मद्र, कुन्ति, आनर्त, केरल एवं दूसरे अनेकों देशोंकेअपने पक्षके तथा शत्रुपक्षकेसैकड़ों नरपति आये हुए थे। परीक्षित्‌ ! इनके अतिरिक्त यदुवंशियोंके परम हितैषी बन्धु नन्द आदि गोप तथा भगवान्‌के दर्शनके लिये चिरकालसे उत्कण्ठित गोपियाँ भी वहाँ आयी हुई थीं। यादवोंने इन सबको देखा ॥ १३-१४ ॥ परीक्षित्‌ ! एक-दूसरेके दर्शन, मिलन और वार्तालापसे सभीको बड़ा आनन्द हुआ। सभीके हृदय- कमल एवं मुख-कमल खिल उठे। सब एक-दूसरेको भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगाते, उनके नेत्रोंसे आँसुओंकी झड़ी लग जाती, रोम-रोम खिल उठता, प्रेमके आवेगसे बोली बंद हो जाती और सब-के-सब आनन्द-समुद्रमें डूबने-उतराने लगते ॥ १५ ॥ पुरुषोंकी भाँति स्त्रियाँ भी एक-दूसरेको देखकर प्रेम और आनन्दसे भर गयीं। वे अत्यन्त सौहार्द, मन्द-मन्द मुसकान, परम पवित्र तिरछी चितवनसे देख-देखकर परस्पर भेंट-अँकवार भरने लगीं। वे अपनी भुजाओंमें भरकर केसर लगे हुए वक्ष:स्थलोंको दूसरी स्त्रियोंके वक्ष:स्थलोंसे दबातीं और अत्यन्त आनन्दका अनुभव करतीं। उस समय उनके नेत्रोंसे प्रेमके आँसू छलकने लगते ॥ १६ ॥ अवस्था आदिमें छोटोंने बड़े-बूढ़ोंको प्रणाम किया और उन्होंने अपनेसे छोटोंका प्रणाम स्वीकार किया। वे एक-दूसरेका स्वागत करके तथा कुशल-मङ्गल आदि पूछकर फिर श्रीकृष्णकी मधुर लीलाएँ आपसमें कहने-सुनने लगे ॥ १७ ॥

परीक्षित्‌ ! कुन्ती वसुदेव आदि अपने भाइयों, बहिनों, उनके पुत्रों, माता-पिता, भाभियों और भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखकर तथा उनसे बातचीत करके अपना सारा दु:ख भूल गयीं ॥ १८ ॥

कुन्तीने वसुदेवजीसे कहाभैया ! मैं सचमुच बड़ी अभागिन हूँ। मेरी एक भी साध पूरी न हुई। आप-जैसे साधु-स्वभाव सज्जन भाई आपत्तिके समय मेरी सुधि भी न लें, इससे बढक़र दु:खकी बात क्या होगी ? ॥ १९ ॥ भैया ! विधाता जिसके बाँयें हो जाता है उसे स्वजन-सम्बन्धी, पुत्र और माता-पिता भी भूल जाते हैं। इसमें आपलोगोंका कोई दोष नहीं ॥ २० ॥

वसुदेवजीने कहाबहिन ! उलाहना मत दो। हमसे बिलग न मानो। सभी मनुष्य दैवके खिलौने हैं। यह सम्पूर्ण लोक ईश्वरके वशमें रहकर कर्म करता है, और उसका फल भोगता है ॥ २१ ॥ बहिन ! कंससे सताये जाकर हमलोग इधर-उधर अनेक दिशाओंमें भगे हुए थे। अभी कुछ ही दिन हुए, ईश्वरकृपासे हम सब पुन: अपना स्थान प्राप्त कर सके हैं ॥ २२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! वहाँ जितने भी नरपति आये थेवसुदेव, उग्रसेन आदि यदुवंशियोंने उनका खूब सम्मान-सत्कार किया। वे सब भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन पाकर परमानन्द और शान्तिका अनुभव करने लगे ॥ २३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

सुदामा जी को ऐश्वर्यकी प्राप्ति

 

पत्‍नीं वीक्ष्य विस्फुरन्तीं देवीं वैमानिकीमिव ।

दासीनां निष्ककण्ठीनां मध्ये भान्तीं स विस्मितः ॥ २७ ॥

प्रीतः स्वयं तया युक्तः प्रविष्टो निजमन्दिरम् ।

मणिस्तम्भशतोपेतं महेन्द्रभवनं यथा ॥ २८ ॥

पयःफेननिभाः शय्या दान्ता रुक्मपरिच्छदाः ।

पर्यङ्का हेमदण्डानि चामरव्यजनानि च ॥ २९ ॥

आसनानि च हैमानि मृदूपस्तरणानि च ।

मुक्तादामविलम्बीनि वितानानि द्युमन्ति च ॥ ३० ॥

स्वच्छस्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च ।

रत्‍नदीपा भ्राजमानान् ललना रत्‍नसंयुताः ॥ ३१ ॥

विलोक्य ब्राह्मणस्तत्र समृद्धीः सर्वसम्पदाम् ।

तर्कयामास निर्व्यग्रः स्वसमृद्धिमहैतुकीम् ॥ ३२ ॥

नूनं बतैतन्मम दुर्भगस्य

     शश्वद् दरिद्रस्य समृद्धिहेतुः ।

 महाविभूतेरवलोकतोऽन्यो

     नैवोपपद्येत यदूत्तमस्य ॥ ३३ ॥

 नन्वब्रुवाणो दिशते समक्षं

     याचिष्णवे भूर्यपि भूरिभोजः ।

 पर्जन्यवत्तत् स्वयमीक्षमाणो

     दाशार्हकाणामृषभः सखा मे ॥ ३४ ॥

 किञ्चित्करोत्युर्वपि यत् स्वदत्तं

     सुहृत्कृतं फल्ग्वपि भूरिकारी ।

 मयोपणीतं पृथुकैकमुष्टिं

     प्रत्यग्रहीत् प्रीतियुतो महात्मा ॥ ३५ ॥

 तस्यैव मे सौहृदसख्यमैत्री

     दास्यं पुनर्जन्मनि जन्मनि स्यात् ।

 महानुभावेन गुणालयेन

     विषज्जतः तत्पुरुषप्रसङ्गः ॥ ३६ ॥

भक्ताय चित्रा भगवान् हि सम्पदो

     राज्यं विभूतीर्न समर्थयत्यजः ।

 अदीर्घबोधाय विचक्षणः स्वयं

     पश्यन् निपातं धनिनां मदोद्‌भवम् ॥ ३७ ॥

इत्थं व्यवसितो बुद्ध्या भक्तोऽतीव जनार्दने ।

विषयान्जायया त्यक्ष्यन् बुभुजे नातिलम्पटः ॥ ३८ ॥

तस्य वै देवदेवस्य हरेर्यज्ञपतेः प्रभोः ।

ब्राह्मणाः प्रभवो दैवं न तेभ्यो विद्यते परम् ॥ ३९ ॥

एवं स विप्रो भगवत्सुहृत्तदा

     दृष्ट्वा स्वभृत्यैरजितं पराजितम् ।

 तद्ध्यानवेगोद्‌ग्रथितात्मबन्धनः

     तद्धाम लेभेऽचिरतः सतां गतिम् ॥ ४० ॥

 एतद् ब्रह्मण्यदेवस्य श्रुत्वा ब्रह्मण्यतां नरः ।

 लब्धभावो भगवति कर्मबन्धाद् विमुच्यते ॥ ४१ ॥

 

प्रिय परीक्षित्‌ ! ब्राह्मणपत्नी सोने का हार पहनी हुई दासियों के बीच में विमानस्थित देवाङ्गना के समान अत्यन्त शोभायमान एवं देदीप्यमान हो रही थी। उसे इस रूपमें देखकर वे विस्मित हो गये ॥ २७ ॥ उन्होंने अपनी पत्नीके साथ बड़े प्रेमसे अपने महलमें प्रवेश किया। उनका महल क्या था, मानो देवराज इन्द्र का निवासस्थान। इसमें मणियोंके सैकड़ों खंभे खड़े थे ॥ २८ ॥ हाथीके दाँत के बने हुए और सोने के पात से मँढ़े हुए पलंगों पर दूध के फेन की तरह श्वेत और कोमल बिछौने बिछ रहे थे। बहुत-से चँवर वहाँ रखे हुए थे, जिनमें सोने की डंडियाँ लगी हुई थीं ॥ २९ ॥ सोनेके सिंहासन शोभायमान हो रहे थे, जिनपर बड़ी कोमल-कोमल गद्दियाँ लगी हुई थीं ! ऐसे चँदोवे भी झिलमिला रहे थे जिनमें मोतियोंकी लडिय़ाँ लटक रही थीं ॥ ३० ॥ स्फटिकमणिकी स्वच्छ भीतोंपर पन्नेकी पच्चीकारी की हुई थी। रत्ननिर्मित स्त्रीमूर्तियोंके हाथोंमें रत्नोंके दीपक जगमगा रहे थे ॥ ३१ ॥ इस प्रकार समस्त सम्पत्तियोंकी समृद्धि देखकर और उसका कोई प्रत्यक्ष कारण न पाकर, बड़ी गम्भीरतासे ब्राह्मणदेवता विचार करने लगे कि मेरे पास इतनी सम्पत्ति कहाँसे आ गयी ॥ ३२ ॥ वे मन-ही-मन कहने लगे—‘मैं जन्मसे ही भाग्यहीन और दरिद्र हूँ। फिर मेरी इस सम्पत्ति-समृद्धिका कारण क्या है ? अवश्य ही परमैश्वर्यशाली यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्णके कृपाकटाक्षके अतिरिक्त और कोई कारण नहीं हो सकता ॥ ३३ ॥ यह सब कुछ उनकी करुणाकी ही देन है। स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण पूर्णकाम और लक्ष्मीपति होनेके कारण अनन्त भोगसामग्रियों से युक्त हैं। इसलिये वे याचक भक्त को उसके मनका भाव जानकर बहुत कुछ दे देते हैं, परन्तु उसे समझते हैं बहुत थोड़ा; इसलिये सामने कुछ कहते नहीं। मेरे यदुवंशशिरोमणि सखा श्यामसुन्दर सचमुच उस मेघसे भी बढक़र उदार हैं, जो समुद्रको भर देनेकी शक्ति रखनेपर भी किसान के सामने न बरसकर उसके सो जानेपर रातमें बरसता है और बहुत बरसनेपर भी थोड़ा ही समझता है ॥ ३४ ॥ मेरे प्यारे सखा श्रीकृष्ण देते हैं बहुत, पर उसे मानते हैं बहुत थोड़ा ! और उनका प्रेमी भक्त यदि उनके लिये कुछ भी कर दे, तो वे उसको बहुत मान लेते हैं। देखो तो सही ! मैंने उन्हें केवल एक मुट्ठी चिउड़ा भेंट किया था, पर उदार-शिरोमणि श्रीकृष्णने उसे कितने प्रेमसे स्वीकार किया ॥ ३५ ॥ मुझे जन्म- जन्म उन्हींका प्रेम, उन्हींकी हितैषिता, उन्हींकी मित्रता और उन्हींकी सेवा प्राप्त हो। मुझे सम्पत्तिकी आवश्यकता नहीं, सदा-सर्वदा उन्हीं गुणोंके एकमात्र निवासस्थान महानुभाव भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें मेरा अनुराग बढ़ता जाय और उन्हींके प्रेमी भक्तोंका सत्सङ्ग प्राप्त हो ॥ ३६ ॥ अजन्मा भगवान्‌ श्रीकृष्ण सम्पत्ति आदिके दोष जानते हैं। वे देखते हैं कि बड़े-बड़े धनियोंका धन और ऐश्वर्यके मदसे पतन हो जाता है। इसलिये वे अपने अदूरदर्शी भक्तको उसके माँगते रहनेपर भी तरह-तरहकी सम्पत्ति, राज्य और ऐश्वर्य आदि नहीं देते। यह उनकी बड़ी कृपा है॥ ३७ ॥ परीक्षित्‌ ! अपनी बुद्धिसे इस प्रकार निश्चय करके वे ब्राह्मणदेवता त्यागपूर्वक अनासक्तभावसे अपनी पत्नीके साथ भगवत्प्रसादस्वरूप विषयोंको ग्रहण करने लगे और दिनोंदिन उनकी प्रेम-भक्ति बढऩे लगी ॥ ३८ ॥

प्रिय परीक्षित्‌ ! देवताओंके भी आराध्यदेव भक्त-भयहारी यज्ञपति सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ स्वयं ब्राह्मणों को अपना प्रभु, अपना इष्टदेव मानते हैं। इसलिये ब्राह्मणोंसे बढक़र और कोई भी प्राणी जगत् में नहीं है ॥ ३९ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्यारे सखा उस ब्राह्मणने देखा कि यद्यपि भगवान्‌ अजित हैं, किसीके अधीन नहीं हैं; फिर भी वे अपने सेवकोंके अधीन हो जाते हैं, उनसे पराजित हो जाते हैं;’ अब वे उन्हींके ध्यानमें तन्मय हो गये। ध्यानके आवेगसे उनकी अविद्याकी गाँठ कट गयी और उन्होंने थोड़े ही समयमें भगवान्‌ का धाम, जो कि संतोंका एकमात्र आश्रय है, प्राप्त किया ॥ ४० ॥ परीक्षित्‌ ! ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णकी इस ब्राह्मणभक्तिको जो सुनता है, उसे भगवान्‌ के चरणोंमें प्रेमभाव प्राप्त हो जाता है और वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥ ४१ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे पृथुकोपाख्यानं नाम एकशीतितमोऽध्यायः ॥ ८१ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

सुदामा जी को ऐश्वर्यकी प्राप्ति

 

ब्राह्मणस्तां तु रजनीं उषित्वाच्युतमन्दिरे ।

भुक्त्वा पीत्वा सुखं मेने आत्मानं स्वर्गतं यथा ॥ १२ ॥

श्वोभूते विश्वभावेन स्वसुखेनाभिवन्दितः ।

जगाम स्वालयं तात पथ्यनुव्रज्य नन्दितः ॥ १३ ॥

स चालब्ध्वा धनं कृष्णान् न तु याचितवान् स्वयम् ।

स्वगृहान् व्रीडितोऽगच्छन् महद्दर्शननिर्वृतः ॥ १४ ॥

अहो ब्रह्मण्यदेवस्य दृष्टा ब्रह्मण्यता मया ।

यद् दरिद्रतमो लक्ष्मीं आश्लिष्टो बिभ्रतोरसि ॥ १५ ॥

क्वाहं दरिद्रः पापीयान् क्व कृष्णः श्रीनिकेतनः ।

ब्रह्मबन्धुरिति स्माहं बाहुभ्यां परिरम्भितः ॥ १६ ॥

निवासितः प्रियाजुष्टे पर्यङ्के भ्रातरो यथा ।

महिष्या वीजितः श्रान्तो बालव्यजनहस्तया ॥ १७ ॥

शुश्रूषया परमया पादसंवाहनादिभिः ।

पूजितो देवदेवेन विप्रदेवेन देववत् ॥ १८ ॥

स्वर्गापवर्गयोः पुंसां रसायां भुवि सम्पदाम् ।

सर्वासामपि सिद्धीनां मूलं तच्चरणार्चनम् ॥ १९ ॥

अधनोऽयं धनं प्राप्य माद्यात् उच्चैः न मां स्मरेत् ।

इति कारुणिको नूनं धनं मेऽभूरि नाददात् ॥ २० ॥

इति तच्चिन्तयन् अन्तः प्राप्तो नियगृहान्तिकम् ।

सूर्यानलेन्दुसङ्काशैः विमानैः सर्वतो वृतम् ॥ २१ ॥

विचित्रोपवनोद्यानैः कूजद्‍द्विजकुलाकुलैः ।

प्रोत्फुल्लकमुदाम्भोज कह्लारोत्पलवारिभिः ॥ २२ ॥

जुष्टं स्वलङ्कृतैः पुम्भिः स्त्रीभिश्च हरिणाक्षिभिः ।

किमिदं कस्य वा स्थानं कथं तदिदमित्यभूत् ॥ २३ ॥

एवं मीमांसमानं तं नरा नार्योऽमरप्रभाः ।

प्रत्यगृह्णन् महाभागं गीतवाद्येन भूयसा ॥ २४ ॥

पतिमागतमाकर्ण्य पत्‍न्युद्धर्षातिसम्भ्रमा ।

निश्चक्राम गृहात्तूर्णं रूपिणी श्रीरिवालयात् ॥ २५ ॥

पतिव्रता पतिं दृष्ट्वा प्रेमोत्कण्ठाश्रुलोचना ।

मीलिताक्ष्यनमद् बुद्ध्या मनसा परिषस्वजे ॥ २६ ॥

 

परीक्षित्‌ ! ब्राह्मणदेवता उस रातको भगवान्‌ श्रीकृष्णके महलमें ही रहे। उन्होंने बड़े आरामसे वहाँ खाया-पिया और ऐसा अनुभव किया, मानो मैं वैकुण्ठमें ही पहुँच गया हूँ ॥ १२ ॥ परीक्षित्‌ ! श्रीकृष्णसे ब्राह्मणको प्रत्यक्षरूपमें कुछ भी न मिला। फिर भी उन्होंने उनसे कुछ माँगा नहीं ! वे अपने चित्तकी करतूत पर कुछ लज्जित-से होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शनजनित आनन्दमें डूबते- उतराते अपने घरकी ओर चल पड़े ॥ १३-१४ ॥ वे मन-ही-मन सोचने लगे—‘अहो, कितने आनन्द और आश्चर्यकी बात है ! ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णकी ब्राह्मणभक्ति आज मैंने अपनी आँखों देख ली। धन्य है ! जिनके वक्ष:स्थलपर स्वयं लक्ष्मीजी सदा विराजमान रहती हैं, उन्होंने मुझ अत्यन्त दरिद्रको अपने हृदयसे लगा लिया ॥ १५ ॥ कहाँ तो मैं अत्यन्त पापी और दरिद्र, और कहाँ लक्ष्मीके एकमात्र आश्रय भगवान्‌ श्रीकृष्ण ! परन्तु उन्होंने यह ब्राह्मण है’—ऐसा समझकर मुझे अपनी भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगा लिया ॥ १६ ॥ इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे उस पलंगपर सुलाया, जिसपर उनकी प्राणप्रिया रुक्मिणीजी शयन करती हैं। मानो मैं उनका सगा भाई हूँ ! कहाँतक कहूँ ? मैं थका हुआ था, इसलिये स्वयं उनकी पटरानी रुक्मिणीजीने अपने हाथों चँवर डुलाकर मेरी सेवा की ॥ १७ ॥ ओह, देवताओंके आराध्यदेव होकर भी ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले प्रभुने पाँव दबाकर, अपने हाथों खिला-पिलाकर मेरी अत्यन्त सेवा-शुश्रूषा की और देवताके समान मेरी पूजा की ॥ १८ ॥ स्वर्ग, मोक्ष, पृथ्वी और रसातलकी सम्पत्ति तथा समस्त योगसिद्धियोंकी प्राप्तिका मूल उनके चरणोंकी पूजा ही है ॥ १९ ॥ फिर भी परमदयालु श्रीकृष्णने यह सोचकर मुझे थोड़ा-सा भी धन नहीं दिया कि कहीं यह दरिद्र धन पाकर बिलकुल मतवाला न हो जाय और मुझे न भूल बैठे॥ २० ॥

इस प्रकार मन-ही-मन विचार करते-करते ब्राह्मणदेवता अपने घरके पास पहुँच गये। वे वहाँ क्या देखते हैं कि सब-का-सब स्थान सूर्य, अग्रि और चन्द्रमाके समान तेजस्वी रत्ननिर्मित महलोंसे घिरा हुआ है। ठौर-ठौर चित्र-विचित्र उपवन और उद्यान बने हुए हैं तथा उनमें झुंड-के-झुंड रंग-बिरंगे पक्षी कलरव कर रहे हैं। सरोवरोंमें कुमुदिनी तथा श्वेत, नील और सौगन्धिकभाँति- भाँतिके कमल खिले हुए हैं; सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष बन-ठनकर इधर-उधर विचर रहे हैं। उस स्थानको देखकर ब्राह्मणदेवता सोचने लगे—‘मैं यह क्या देख रहा हूँ ? यह किसका स्थान है ? यदि यह वही स्थान है, जहाँ मैं रहता था, तो यह ऐसा कैसे हो गया॥ २१२३ ॥ इस प्रकार वे सोच ही रहे थे कि देवताओंके समान सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष गाजे-बाजेके साथ मङ्गलगीत गाते हुए उस महाभाग्यवान् ब्राह्मणकी अगवानी करनेके लिये आये ॥ २४ ॥ पतिदेवका शुभागमन सुनकर ब्राह्मणीको अपार आनन्द हुआ और वह हड़बड़ाकर जल्दी-जल्दी घरसे निकल आयी, वह ऐसी मालूम होती थी मानो मूर्तिमती लक्ष्मीजी ही कमलवन से पधारी हों ॥ २५ ॥ पतिदेवको देखते ही पतिव्रता पत्नीके नेत्रोंमें प्रेम और उत्कण्ठाके आवेग से आँसू छलक आये। उसने अपने नेत्र बंद कर लिये। ब्राह्मणीने बड़े प्रेमभावसे उन्हें नमस्कार किया और मन-ही-मन आलिङ्गन भी ॥ २६ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



रविवार, 4 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

सुदामा जी को ऐश्वर्यकी प्राप्ति

 

श्रीशुक उवाच -

स इत्थं द्विजमुख्येन सह सङ्कथयन् हरिः ।

सर्वभूतमनोऽभिज्ञः स्मयमान उवाच तम् ॥ १ ॥

ब्रह्मण्यो ब्राह्मणं कृष्णो भगवान् प्रहसन् प्रियम् ।

प्रेम्णा निरीक्षणेनैव प्रेक्षन् खलु सतां गतिः ॥ २ ॥

 

श्रीभगवानुवाच -

किमुपायनमानीतं ब्रह्मन्मे भवता गृहात् ।

अण्वप्युपाहृतं भक्तैः प्रेम्णा भुर्येव मे भवेत् ।

भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते ॥ ३ ॥

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।

तदहं भक्त्युपहृतं अश्नामि प्रयतात्मनः ॥ ४ ॥

इत्युक्तोऽपि द्विजस्तस्मै व्रीडितः पतये श्रियः ।

पृथुकप्रसृतिं राजन् न प्रायच्छदवाङ्मुखः ॥ ५ ॥

सर्वभूतात्मदृक् साक्षात् तस्यागमनकारणम् ।

विज्ञायाचिन्तयन्नायं श्रीकामो माभजत्पुरा ॥ ६ ॥

पत्‍न्याः पतिव्रतायास्तु सखा प्रियचिकीर्षया ।

प्राप्तो मामस्य दास्यामि सम्पदोऽमर्त्यदुर्लभाः ॥ ७ ॥

इत्थं विचिन्त्य वसनात् चीरबद्धान् द्विजन्मनः ।

स्वयं जहार किमिदं इति पृथुकतण्डुलान् ॥ ८ ॥

नन्वेतदुपनीतं मे परमप्रीणनं सखे ।

तर्पयन्त्यङ्ग मां विश्वं एते पृथुकतण्डुलाः ॥ ९ ॥

इति मुष्टिं सकृज्जग्ध्वा द्वितीयां जग्धुमाददे ।

तावच्छ्रीर्जगृहे हस्तं तत्परा परमेष्ठिनः ॥ १० ॥

एतावतालं विश्वात्मन् सर्वसम्पत्समृद्धये ।

अस्मिन्लोके अथवामुष्मिन् पुंसस्त्वत्तोषकारणम् ॥ ११ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंप्रिय परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण सबके मनकी बात जानते हैं। वे ब्राह्मणोंके परम भक्त, उनके क्लेशोंके नाशक तथा संतोंके एकमात्र आश्रय हैं। वे पूर्वोक्त प्रकारसे उन ब्राह्मणदेवताके साथ बहुत देरतक बातचीत करते रहे। अब वे अपने प्यारे सखा उन ब्राह्मणसे तनिक मुसकराकर विनोद करते हुए बोले। उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण उन ब्राह्मणदेवताकी ओर प्रेमभरी दृष्टिसे देख रहे थे ॥ १-२ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘ब्रह्मन् ! आप अपने घरसे मेरे लिये क्या उपहार लाये हैं ? मेरे प्रेमी भक्त जब प्रेमसे थोड़ी-सी वस्तु भी मुझे अर्पण करते हैं, तो वह मेरे लिये बहुत हो जाती है। परन्तु मेरे अभक्त यदि बहुत-सी सामग्री भी मुझे भेंट करते हैं, तो उससे मैं सन्तुष्ट नहीं होता ॥ ३ ॥ जो पुरुष प्रेम-भक्तिसे फल-फूल अथवा पत्ता-पानीमेंसे कोई भी वस्तु मुझे समर्पित करता है, तो मैं उस शुद्धचित्त भक्तका वह प्रेमोपहार केवल स्वीकार ही नहीं करता, बल्कि तुरंत भोग लगा लेता हूँ॥ ४ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर भी उन ब्राह्मण देवताने लज्जावश उन लक्ष्मीपतिको वे चार मुट्ठी चिउड़े नहीं दिये। उन्होंने संकोचसे अपना मुँह नीचे कर लिया था। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण समस्त प्राणियोंके हृदयका एक-एक सङ्कल्प और उनका अभाव भी जानते हैं। उन्होंने ब्राह्मणके आनेका कारण, उनके हृदयकी बात जान ली। अब वे विचार करने लगे कि एक तो यह मेरा प्यारा सखा है, दूसरे इसने पहले कभी लक्ष्मीकी कामनासे मेरा भजन नहीं किया है। इस समय यह अपनी पतिव्रता पत्नीको प्रसन्न करनेके लिये उसीके आग्रहसे यहाँ आया है। अब मैं इसे ऐसी सम्पत्ति दूँगा, जो देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है॥ ५-७ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने ऐसा विचार करके उनके वस्त्रमेंसे चिथड़ेकी एक पोटलीमें बँधा हुआ चिउड़ा यह क्या है’—ऐसा कहकर स्वयं ही छीन लिया ॥ ८ ॥ और बड़े आदरसे कहने लगे—‘प्यारे मित्र ! यह तो तुम मेरे लिये अत्यन्त प्रिय भेंट ले आये हो। ये चिउड़े न केवल मुझे, बल्कि सारे संसारको तृप्त करनेके लिये पर्याप्त हैं॥ ९ ॥ ऐसा कहकर वे उसमेंसे एक मुट्ठी चिउड़ा खा गये और दूसरी मुट्ठी ज्यों ही भरी, त्यों ही रुक्मिणीके रूपमें स्वयं भगवती लक्ष्मीजीने भगवान्‌ श्रीकृष्णका हाथ पकड़ लिया ! क्योंकि वे तो एकमात्र भगवान्‌ के परायण हैं, उन्हें छोडक़र और कहीं जा नहीं सकतीं ॥ १० ॥ रुक्मिणीजीने कहा—‘विश्वात्मन् ! बस, बस। मनुष्यको इस लोकमें तथा मरनेके बाद परलोकमें भी समस्त सम्पत्तियोंकी समृद्धि प्राप्त करनेके लिये यह एक मुट्ठी चिउड़ा ही बहुत है; क्योंकि आपके लिये इतना ही प्रसन्नताका हेतु बन जाता है॥ ११ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अस्सीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अस्सीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

श्रीकृष्ण के द्वारा सुदामा जी का स्वागत

 

अपि नः स्मर्यते ब्रह्मन् वृत्तं निवसतां गुरौ ।

गुरुदारैश्चोदितानां इन्धनानयने क्वचित् ॥ ३५ ॥

प्रविष्टानां महारण्यं अपर्तौ सुमहद् द्विज ।

वातवर्षं अभूत्तीव्रं निष्ठुराः स्तनयित्‍नवः ॥ ३६ ॥

सूर्यश्चास्तं गतस्तावत् तमसा चावृता दिशः ।

निम्नं कूलं जलमयं न प्राज्ञायत किञ्चन ॥ ३७ ॥

वयं भृशम्तत्र महानिलाम्बुभिः

     निहन्यमाना महुरम्बुसम्प्लवे ।

 दिशोऽविदन्तोऽथ परस्परं वने

     गृहीतहस्ताः परिबभ्रिमातुराः ॥ ३८ ॥

एतद्‌ विदित्वा उदिते रवौ सान्दीपनिर्गुरुः ।

अन्वेषमाणो नः शिष्यान् आचार्योऽपश्यदातुरान् ॥ ३९ ॥

अहो हे पुत्रका यूयं अस्मदर्थेऽतिदुःखिताः ।

आत्मा वै प्राणिनां प्रेष्ठः तं अनादृत्य मत्पराः ॥ ४० ॥

एतदेव हि सच्छिष्यैः कर्तव्यं गुरुनिष्कृतम् ।

यद्‌ वै विशुद्धभावेन सर्वार्थात्मार्पणं गुरौ ॥ ४१ ॥

तुष्टोऽहं भो द्विजश्रेष्ठाः सत्याः सन्तु मनोरथाः ।

छन्दांस्ययातयामानि भवन्त्विह परत्र च ॥ ४२ ॥

इत्थंविधान्यनेकानि वसतां गुरुवेश्मसु ।

गुरोरनुग्रहेणैव पुमान् पूर्णः प्रशान्तये ॥ ४३ ॥

 

श्रीब्राह्मण उवाच -

किमस्माभिरनिर्वृत्तं देवदेव जगद्‌गुरो ।

भवता सत्यकामेन येषां वासो गुरावभूत् ॥ ४४ ॥

यस्य च्छन्दोमयं ब्रह्म देह आवपनं विभो ।

श्रेयसां तस्य गुरुषु वासोऽत्यन्तविडम्बनम् ॥ ४५ ॥

 

ब्रह्मन् ! जिस समय हमलोग गुरुकुलमें निवास कर रहे थे; उस समयकी वह बात आपको याद है क्या, जब हम दोनोंको एक दिन हमारी गुरुपत्नी ने र्ईंधन लानेके लिये जंगलमें भेजा था ॥ ३५ ॥ उस समय हमलोग एक घोर जंगलमें गये हुए थे और बिना ऋतुके ही बड़ा भयङ्कर आँधी-पानी आ गया था। आकाशमें बिजली कडक़ने लगी थी ॥ ३६ ॥ तबतक सूर्यास्त हो गया; चारों ओर अँधेरा- ही-अँधेरा फैल गया। धरतीपर इस प्रकार पानी-ही-पानी हो गया कि कहाँ गड्ढा है, कहाँ किनारा, इसका पता ही न चलता था ॥ ३७ ॥ वह वर्षा क्या थी, एक छोटा-मोटा प्रलय ही था। आँधीके झटकों और वर्षाकी बौछारोंसे हमलोगोंको बड़ी पीड़ा हुई, दिशाका ज्ञान न रहा। हमलोग अत्यन्त आतुर हो गये और एक-दूसरेका हाथ पकडक़र जंगलमें इधर-उधर भटकते रहे ॥ ३८ ॥ जब हमारे गुरुदेव सान्दीपनि मुनिको इस बातका पता चला, तब वे सूर्योदय होनेपर अपने शिष्य हमलोगों को ढूँढ़ते हुए जंगलमें पहुँचे और उन्होंने देखा कि हम अत्यन्त आतुर हो रहे हैं ॥ ३९ ॥ वे कहने लगे—‘आश्चर्य है, आश्चर्य है ! पुत्रो ! तुमलोगोंने हमारे लिये अत्यन्त कष्ट उठाया। सभी प्राणियोंको अपना शरीर सबसे अधिक प्रिय होता है; परन्तु तुम दोनों उसकी भी परवा न करके हमारी सेवामें ही संलग्न रहे ॥ ४० ॥ गुरुके ऋणसे मुक्त होनेके लिये सत्-शिष्योंका इतना ही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध भावसे अपना सब कुछ और शरीर भी गुरुदेवकी सेवामें समर्पित कर दें ॥ ४१ ॥ द्विजशिरोमणियो ! मैं तुमलोगोंसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ तुम्हारे सारे मनोरथ, सारी अभिलाषाएँ पूर्ण हों और तुमलोगोंने हमसे जो वेदाध्ययन किया है, वह तुम्हें सर्वदा कण्ठस्थ रहे तथा इस लोक एवं परलोकमें कहीं भी निष्फल न हो॥ ४२ ॥ प्रिय मित्र ! जिस समय हमलोग गुरुकुलमें निवास कर रहे थे, हमारे जीवनमें ऐसी-ऐसी अनेकों घटनाएँ घटित हुई थीं। इसमें सन्देह नहीं कि गुरुदेवकी कृपासे ही मनुष्य शान्तिका अधिकारी होता और पूर्णताको प्राप्त करता है ॥ ४३ ॥

ब्राह्मणदेवताने कहादेवताओंके आराध्यदेव जगद्गुरु श्रीकृष्ण ! भला अब हमें क्या करना बाकी है ? क्योंकि आपके साथ, जो सत्यसङ्कल्प परमात्मा हैं, हमें गुरुकुलमें रहनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था ॥ ४४ ॥ प्रभो ! छन्दोमय वेद, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चतुर्विध पुरुषार्थके मूल स्रोत हैं; और वे हैं आपके शरीर। वही आप वेदाध्ययनके लिये गुरुकुलमें निवास करें, यह मनुष्य- लीलाका अभिनय नहीं तो और क्या है ? ॥ ४५ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे श्रीदामचरिते अशीतितमोऽध्यायः ॥ ८० ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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