सोमवार, 8 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भृगुजी के द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा तथा

भगवान्‌ का मरे हुए ब्राह्मण-बालकों को वापस लाना

 

श्रीशुक उवाच

सरस्वत्यास्तटे राजन्नृषयः सत्रमासत

वितर्कः समभूत्तेषां त्रिष्वधीशेषु को महान् १

तस्य जिज्ञासया ते वै भृगुं ब्रह्मसुतं नृप

तज्ज्ञप्त्यै प्रेषयामासुः सोऽभ्यगाद्ब्रह्मणः सभाम् २

न तस्मै प्रह्वणं स्तोत्रं चक्रे सत्त्वपरीक्षया

तस्मै चुक्रोध भगवान्प्रज्वलन्स्वेन तेजसा ३

स आत्मन्युत्थितम्मन्युमात्मजायात्मना प्रभुः

अशीशमद्यथा वह्निं स्वयोन्या वारिणात्मभूः ४

ततः कैलासमगमत्स तं देवो महेश्वरः

परिरब्धुं समारेभे उत्थाय भ्रातरं मुदा ५

नैच्छत्त्वमस्युत्पथग इति देवश्चुकोप ह

शूलमुद्यम्य तं हन्तुमारेभे तिग्मलोचनः ६

पतित्वा पादयोर्देवी सान्त्वयामास तं गिरा

अथो जगाम वैकुण्ठं यत्र देवो जनार्दनः ७

शयानं श्रिय उत्सङ्गे पदा वक्षस्यताडयत्

तत उत्थाय भगवान्सह लक्ष्म्या सतां गतिः ८

स्वतल्पादवरुह्याथ ननाम शिरसा मुनिम्

आह ते स्वागतं ब्रह्मन्निषीदात्रासने क्षणम्

अजानतामागतान्वः क्षन्तुमर्हथ नः प्रभो ९

अतीव कोमलौ तात चरणौ ते महामुने

इत्युक्त्वा विप्रचरणौ मर्दयन् स्वेन पाणिना १०

पुनीहि सहलोकं मां लोकपालांश्च मद्गतान्

पादोदकेन भवतस्तीर्थानां तीर्थकारिणा ११

अद्याहं भगवंल्लक्ष्म्या आसमेकान्तभाजनम्

वत्स्यत्युरसि मे भूतिर्भवत्पादहतांहसः १२

 

श्रीशुक उवाच

एवं ब्रुवाणे वैकुण्ठे भृगुस्तन्मन्द्रया गिरा

निर्वृतस्तर्पितस्तूष्णीं भक्त्युत्कण्ठोऽश्रुलोचनः १३

पुनश्च सत्रमाव्रज्य मुनीनां ब्रह्मवादिनाम्

स्वानुभूतमशेषेण राजन्भृगुरवर्णयत् १४

तन्निशम्याथ मुनयो विस्मिता मुक्तसंशयाः

भूयांसं श्रद्दधुर्विष्णुं यतः शान्तिर्यतोऽभयम् १५

धर्मः साक्षाद्यतो ज्ञानं वैराग्यं च तदन्वितम्

ऐश्वर्यं चाष्टधा यस्माद्यशश्चात्ममलापहम् १६

मुनीनां न्यस्तदण्डानां शान्तानां समचेतसाम्

अकिञ्चनानां साधूनां यमाहुः परमां गतिम् १७

सत्त्वं यस्य प्रिया मूर्तिर्ब्राह्मणास्त्विष्टदेवताः

भजन्त्यनाशिषः शान्ता यं वा निपुणबुद्धयः १८

त्रिविधाकृतयस्तस्य राक्षसा असुराः सुराः

गुणिन्या मायया सृष्टाः सत्त्वं तत्तीर्थसाधनम् १९

 

श्रीशुक उवाच

इत्थं सारस्वता विप्रा नृणाम्संशयनुत्तये

पुरुषस्य पदाम्भोज सेवया तद्गतिं गताः २०

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक बार सरस्वती नदीके पावन तटपर यज्ञ प्रारम्भ करनेके लिये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि एकत्र होकर बैठे। उन लोगोंमें इस विषयपर वाद-विवाद चला कि ब्रह्मा, शिव और विष्णुमें सबसे बड़ा कौन है ? ॥ १ ॥ परीक्षित्‌ ! उन लोगोंने यह बात जाननेके लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिवकी परीक्षा लेनेके उद्देश्यसे ब्रह्माके पुत्र भृगुजीको उनके पास भेजा। महर्षि भृगु सबसे पहले ब्रह्माजीकी सभामें गये ॥ २ ॥ उन्होंने ब्रह्माजीके धैर्य आदिकी परीक्षा करनेके लिये न उन्हें नमस्कार किया और न तो उनकी स्तुति ही की। इसपर ऐसा मालूम हुआ कि ब्रह्माजी अपने तेजसे दहक रहे हैं। उन्हें क्रोध आ गया ॥ ३ ॥ परन्तु जब समर्थ ब्रह्माजीने देखा कि यह तो मेरा पुत्र ही है, तब अपने मनमें उठे हुए क्रोधको भीतर-ही-भीतर विवेकबुद्धिसे दबा लिया; ठीक वैसे ही, जैसे कोई अरणिमन्थन से उत्पन्न अग्नि को जलसे बुझा दे ॥ ४ ॥

वहाँसे महर्षि भृगु कैलासमें गये। देवाधिदेव भगवान्‌ शङ्कर ने जब देखा कि मेरे भाई भृगुजी आये हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्दसे खड़े होकर उनका आलिङ्गन करनेके लिये भुजाएँ फैला दीं ॥ ५ ॥ परन्तु महर्षि भृगुने उनसे आलिङ्गन करना स्वीकार न किया और कहा—‘तुम लोक और वेदकी मर्यादाका उल्लङ्घन करते हो, इसलिये मैं तुमसे नहीं मिलता।भृगुजीकी यह बात सुनकर भगवान्‌ शङ्कर क्रोधके मारे तिलमिला उठे। उनकी आँखें चढ़ गयीं। उन्होंने त्रिशूल उठाकर महर्षि भृगुको मारना चाहा ॥ ६ ॥ परन्तु उसी समय भगवती सतीने उनके चरणोंपर गिरकर बहुत अनुनय-विनय की और किसी प्रकार उनका क्रोध शान्त किया। अब महर्षि भृगुजी भगवान्‌ विष्णुके निवासस्थान वैकुण्ठमें गये ॥ ७ ॥ उस समय भगवान्‌ विष्णु लक्ष्मीजीकी गोदमें अपना सिर रखकर लेटे हुए थे। भृगुजीने जाकर उनके वक्ष:स्थलपर एक लात कसकर जमा दी। भक्तवत्सल भगवान्‌ विष्णु लक्ष्मीजीके साथ उठ बैठे और झटपट अपनी शय्यासे नीचे उतरकर मुनिको सिर झुकाया, प्रणाम किया। भगवान्‌ने कहा—‘ब्रह्मन् ! आपका स्वागत है, आप भले पधारे। इस आसनपर बैठकर कुछ क्षण विश्राम कीजिये। प्रभो ! मुझे आपके शुभागमनका पता न था। इसीसे मैं आपकी अगवानी न कर सका। मेरा अपराध क्षमा कीजिये ॥ ८-९ ॥ महामुने ! आपके चरणकमल अत्यन्त कोमल हैं।यों कहकर भृगुजीके चरणोंको भगवान्‌ अपने हाथोंसे सहलाने लगे ॥ १० ॥ और बोले—‘महर्षे ! आपके चरणोंका जल तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाला है। आप उससे वैकुण्ठलोक, मुझे और मेरे अन्दर रहनेवाले लोकपालोंको पवित्र कीजिये ॥ ११ ॥ भगवन् ! आपके चरणकमलोंके स्पर्शसे मेरे सारे पाप धुल गये। आज मैं लक्ष्मीका एकमात्र आश्रय हो गया। अब आपके चरणोंसे चिह्नित मेरे वक्ष:स्थलपर लक्ष्मी सदा-सर्वदा निवास करेंगी॥ १२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंजब भगवान्‌ ने अत्यन्त गम्भीर वाणीसे इस प्रकार कहा, तब भृगुजी परम सुखी और तृप्त हो गये। भक्तिके उद्रेक से उनका गला भर आया, आँखोंमें आँसू छलक आये और वे चुप हो गये ॥ १३ ॥ परीक्षित्‌ ! भृगुजी वहाँसे लौटकर ब्रह्मवादी मुनियोंके सत्सङ्गमें आये और उन्हें ब्रह्मा, शिव और विष्णुभगवान्‌ के यहाँ जो कुछ अनुभव हुआ था, वह सब कह सुनाया ॥ १४ ॥ भृगुजीका अनुभव सुनकर सभी ऋषि-मुनियोंको बड़ा विस्मय हुआ, उनका सन्देह दूर हो गया। तबसे वे भगवान्‌ विष्णुको ही सर्वश्रेष्ठ मानने लगे; क्योंकि वे ही शान्ति और अभयके उद्गमस्थान हैं ॥ १५ ॥ भगवान्‌ विष्णुसे ही साक्षात् धर्म, ज्ञान, वैराग्य, आठ प्रकारके ऐश्वर्य और चित्तको शुद्ध करनेवाला यश प्राप्त होता है ॥ १६ ॥ शान्त, समचित्त, अकिञ्चन और सबको अभय देनेवाले साधु-मुनियोंकी वे ही एकमात्र परम गति हैं। ऐसा सारे शास्त्र कहते हैं ॥ १७ ॥ उनकी प्रिय मूर्ति है सत्त्व और इष्टदेव हैं ब्राह्मण। निष्काम, शान्त और निपुणबुद्धि (विवेकसम्पन्न) पुरुष उनका भजन करते हैं ॥ १८ ॥ भगवान्‌ की गुणमयी मायाने राक्षस, असुर और देवताउनकी ये तीन मूर्तियाँ बना दी हैं। इनमें सत्त्वमयी देवमूर्ति ही उनकी प्राप्तिका साधन है। वे स्वयं ही समस्त पुरुषार्थ- स्वरूप हैं ॥ १९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! सरस्वतीतटके ऋषियोंने अपने लिये नहीं, मनुष्योंका संशय मिटानेके लिये ही ऐसी युक्ति रची थी। पुरुषोत्तम भगवान्‌के चरणकमलोंकी सेवा करके उन्होंने उनका परमपद प्राप्त किया ॥ २० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

शिवजी का सङ्कटमोचन

 

स तद्वरपरीक्षार्थं शम्भोर्मूर्ध्नि किलासुरः

स्वहस्तं धातुमारेभे सोऽबिभ्यत्स्वकृताच्छिवः २३

तेनोपसृष्टः सन्त्रस्तः पराधावन्सवेपथुः

यावदन्तं दिवो भूमेः कष्ठानामुदगादुदक् २४

अजानन्तः प्रतिविधिं तूष्णीमासन्सुरेश्वराः

ततो वैकुण्ठमगमद्भास्वरं तमसः परम् २५

यत्र नारायणः साक्षान्न्यासिनां परमो गतिः

शान्तानां न्यस्तदण्डानां यतो नावर्तते गतः २६

तं तथा व्यसनं दृष्ट्वा भगवान्वृजिनार्दनः

दूरात्प्रत्युदियाद्भूत्वा बटुको योगमायया २७

मेखलाजिनदण्डाक्षैस्तेजसाग्निरिव ज्वलन्

अभिवादयामास च तं कुशपाणिर्विनीतवत् २८

 

श्रीभगवानुवाच

शाकुनेय भवान्व्यक्तं श्रान्तः किं दूरमागतः

क्षणं विश्रम्यतां पुंस आत्मायं सर्वकामधुक् २९

यदि नः श्रवणायालं युष्मद्व्यवसितं विभो

भण्यतां प्रायशः पुम्भिर्धृतैः स्वार्थान्समीहते ३०

 

श्रीशुक उवाच

एवं भगवता पृष्टो वचसामृतवर्षिणा

गतक्लमोऽब्रवीत्तस्मै यथापूर्वमनुष्ठितम् ३१

 

श्रीभगवानुवाच

एवं चेत्तर्हि तद्वाक्यं न वयं श्रद्दधीमहि

यो दक्षशापात्पैशाच्यं प्राप्तः प्रेतपिशाचराट् ३२

यदि वस्तत्र विश्रम्भो दानवेन्द्र जगद्गुरौ

तर्ह्यङ्गाशु स्वशिरसि हस्तं न्यस्य प्रतीयताम् ३३

यद्यसत्यं वचः शम्भोः कथञ्चिद्दानवर्षभ

तदैनं जह्यसद्वाचं न यद्वक्तानृतं पुनः ३४

इत्थं भगवतश्चित्रैर्वचोभिः स सुपेशलैः

भिन्नधीर्विस्मृतः शीर्ष्णि स्वहस्तं कुमतिर्न्यधात् ३५

अथापतद्भिन्नशिराः व्रजाहत इव क्षणात्

जयशब्दो नमःशब्दः साधुशब्दोऽभवद्दिवि ३६

मुमुचुः पुष्पवर्षाणि हते पापे वृकासुरे

देवर्षिपितृगन्धर्वा मोचितः सङ्कटाच्छिवः ३७

मुक्तं गिरिशमभ्याह भगवान्पुरुषोत्तमः

अहो देव महादेव पापोऽयं स्वेन पाप्मना ३८

हतः को नु महत्स्वीश जन्तुर्वै कृतकिल्बिषः

क्षेमी स्यात्किमु विश्वेशे कृतागस्को जगद्गुरौ ३९

य एवमव्याकृतशक्त्युदन्वतः

परस्य साक्षात्परमात्मनो हरेः

गिरित्रमोक्षं कथयेच्छृणोति वा

विमुच्यते संसृतिभिस्तथारिभिः ४०

 

भगवान्‌ शङ्कर के इस प्रकार कह देनेपर वृकासुर के मन में यह लालसा हो आयी कि मैं पार्वतीजीको ही हर लूँ।वह असुर शङ्कर जी के वरकी परीक्षाके लिये उन्हीं के सिरपर हाथ रखनेका उद्योग करने लगा। अब तो शङ्कर जी अपने दिये हुए वरदानसे ही भयभीत हो गये ॥ २३ ॥ वह उनका पीछा करने लगा और वे उससे डरकर काँपते हुए भागने लगे। वे पृथ्वी, स्वर्ग और दिशाओंके अन्ततक दौड़ते गये; परन्तु फिर भी उसे पीछा करते देखकर उत्तरकी ओर बढ़े ॥ २४ ॥ बड़े-बड़े देवता इस सङ्कट को टालनेका कोई उपाय न देखकर चुप रह गये। अन्तमें वे प्राकृतिक अंधकारसे परे परम प्रकाशमय वैकुण्ठलोकमें गये ॥ २५ ॥ वैकुण्ठमें स्वयं भगवान्‌ नारायण निवास करते हैं। एकमात्र वे ही उन संन्यासियोंकी परम गति हैं, जो सारे जगत्को अभयदान करके शान्तभावमें स्थित हो गये हैं। वैकुण्ठमें जाकर जीवको फिर लौटना नहीं पड़ता ॥ २६ ॥ भक्तभयहारी भगवान्‌ ने देखा कि शङ्करजी तो बड़े सङ्कटमें पड़े हुए हैं। तब वे अपनी योगमायासे ब्रह्मचारी बनकर दूरसे ही धीरे-धीरे वृकासुरकी ओर आने लगे ॥ २७ ॥ भगवान्‌ने मूँजकी मेखला, काला मृगचर्म, दण्ड और रुद्राक्षकी माला धारण कर रखी थी। उनके एक-एक अंगसे ऐसी ज्योति निकल रही थी, मानो आग धधक रही हो। वे हाथमें कुश लिये हुए थे। वृकासुरको देखकर उन्होने बड़ी नम्रतासे झुककर प्रणाम किया ॥ २८ ॥

ब्रह्मचारी वेषधारी भगवान्‌ ने कहाशकुनिनन्दन वृकासुरजी ! आप स्पष्ट ही बहुत थके-से जान पड़ते हैं। आज आप बहुत दूरसे आ रहे हैं क्या ? तनिक विश्राम तो कर लीजिये। देखिये, यह शरीर ही सारे सुखोंकी जड़ है। इसीसे सारी कामनाएँ पूरी होती हैं। इसे अधिक कष्ट न देना चाहिये ॥ २९ ॥ आप तो सब प्रकारसे समर्थ हैं। इस समय आप क्या करना चाहते हैं ? यदि मेरे सुननेयोग्य कोई बात हो तो बतलाइये। क्योंकि संसारमें देखा जाता है कि लोग सहायकोंके द्वारा बहुत-से काम बना लिया करते हैं ॥ ३० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌के एक-एक शब्दसे अमृत बरस रहा था। उनके इस प्रकार पूछनेपर पहले तो उसने तनिक ठहरकर अपनी थकावट दूर की; उसके बाद क्रमश: अपनी तपस्या, वरदान-प्राप्ति तथा भगवान्‌ शङ्करके पीछे दौडऩेकी बात शुरूसे कह सुनायी ॥ ३१ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहा—‘अच्छा, ऐसी बात है ? तब तो भाई ! हम उसकी बातपर विश्वास नहीं करते। आप नहीं जानते हैं क्या ? वह तो दक्ष प्रजापतिके शापसे पिशाचभावको प्राप्त हो गया है। आजकल वही प्रेतों और पिशाचोंका सम्राट् है ॥ ३२ ॥ दानवराज ! आप इतने बड़े होकर ऐसी छोटी-छोटी बातोंपर विश्वास कर लेते हैं ? आप यदि अब भी उसे जगद्गुरु मानते हों और उसकी बातपर विश्वास करते हों, तो झटपट अपने सिरपर हाथ रखकर परीक्षा कर लीजिये ॥ ३३ ॥ दानव-शिरोमणे ! यदि किसी प्रकार शङ्करकी बात असत्य निकले तो उस असत्यवादीको मार डालिये, जिससे फिर कभी वह झूठ न बोल सके ॥ ३४ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ने ऐसी मोहित करनेवाली अद्भुत और मीठी बात कही कि उसकी विवेक-बुद्धि जाती रही। उस दुर्बुद्धिने भूलकर अपने ही सिरपर हाथ रख लिया ॥ ३५ ॥ बस, उसी क्षण उसका सिर फट गया और वह वहीं धरतीपर गिर पड़ा, मानो उसपर बिजली गिर पड़ी हो। उस समय आकाशमें देवतालोग जय-जय, नमो नम:, साधु-साधु !के नारे लगाने लगे ॥ ३६ ॥ पापी वृकासुरकी मृत्युसे देवता, ऋषि, पितर और गन्धर्व अत्यन्त प्रसन्न होकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे और भगवान्‌ शङ्कर उस विकट सङ्कट से मुक्त हो गये ॥ ३७ ॥ अब भगवान्‌ पुरुषोत्तमने भयमुक्त शङ्करजीसे कहा कि देवाधिदेव ! बड़े हर्षकी बात है कि इस दुष्टको इसके पापोंने ही नष्ट कर दिया। परमेश्वर ! भला, ऐसा कौन प्राणी है जो महापुरुषोंका अपराध करके कुशलसे रह सके ? फिर स्वयं जगद्गुरु विश्वेश्वर ! आपका अपराध करके तो कोई सकुशल रह ही कैसे सकता है ?’ ॥ ३८-३९ ॥

भगवान्‌ अनन्त शक्तियोंके समुद्र हैं। उनकी एक-एक शक्ति मन और वाणीकी सीमाके परे है। वे प्रकृतिसे अतीत स्वयं परमात्मा हैं। उनकी शङ्करजीको सङ्कटसे छुड़ानेकी यह लीला जो कोई कहता या सुनता है, वह संसारके बन्धनों और शत्रुओंके भयसे मुक्त हो जाता है ॥ ४० ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुद्र मोक्षणं नामाष्टाशीतितमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

शिवजी का सङ्कटमोचन

 

श्रीराजोवाच

देवासुरमनुष्येसु ये भजन्त्यशिवं शिवम्

प्रायस्ते धनिनो भोजा न तु लक्ष्म्याः पतिं हरिम् १

एतद्वेदितुमिच्छामः सन्देहोऽत्र महान्हि नः

विरुद्धशीलयोः प्रभ्वोर्विरुद्धा भजतां गतिः २

 

श्रीशुक उवाच

शिवः शक्तियुतः शश्वत्त्रिलिङ्गो गुणसंवृतः

वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिधा ३

ततो विकारा अभवन्षोडशामीषु कञ्चन

उपधावन्विभूतीनां सर्वासामश्नुते गतिम् ४

हरिर्हि निर्गुणः साक्षात्पुरुषः प्रकृतेः परः

स सर्वदृगुपद्र ष्टा तं भजन्निर्गुणो भवेत् ५

निवृत्तेष्वश्वमेधेषु राजा युष्मत्पितामहः

शृण्वन्भगवतो धर्मानपृच्छदिदमच्युतम् ६

स आह भगवांस्तस्मै प्रीतः शुश्रूषवे प्रभुः

नृणां निःश्रेयसार्थाय योऽवतीर्णो यदोः कुले ७

 

श्रीभगवानुवाच

यस्याहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनैः

ततोऽधनं त्यजन्त्यस्य स्वजना दुःखदुःखितम् ८

स यदा वितथोद्योगो निर्विण्णः स्याद्धनेहया

मत्परैः कृतमैत्रस्य करिष्ये मदनुग्रहम् ९

तद्ब्रह्म परमं सूक्ष्मं चिन्मात्रं सदनन्तकम्

विज्ञायात्मतया धीरः संसारात्परिमुच्यते १०

अतो मां सुदुराराध्यं हित्वान्यान्भजते जनः

ततस्त आशुतोषेभ्यो लब्धराज्यश्रियोद्धताः

मत्ताः प्रमत्ता वरदान्विस्मयन्त्यवजानते ११

 

श्रीशुक उवाच

शापप्रसादयोरीशा ब्रह्मविष्णुशिवादयः

सद्यः शापप्रसादोऽङ्ग शिवो ब्रह्मा न चाच्युतः १२

अत्र चोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्

वृकासुराय गिरिशो वरं दत्त्वाप सङ्कटम् १३

वृको नामासुरः पुत्रः शकुनेः पथि नारदम्

दृष्ट्वाशुतोषं पप्रच्छ देवेषु त्रिषु दुर्मतिः १४

स आह देवं गिरिशमुपाधावाशु सिद्ध्यसि

योऽल्पाभ्यां गुणदोषाभ्यामाशु तुष्यति कुप्यति १५

दशास्यबाणयोस्तुष्टः स्तुवतोर्वन्दिनोरिव

ऐश्वर्यमतुलं दत्त्वा तत आप सुसङ्कटम् १६

इत्यादिष्टस्तमसुर उपाधावत्स्वगात्रतः

केदार आत्मक्रव्येण जुह्वानो ग्निमुखं हरम् १७

देवोपलब्धिमप्राप्य निर्वेदात्सप्तमेऽहनि

शिरोऽवृश्चत्सुधितिना तत्तीर्थक्लिन्नमूर्धजम् १८

तदा महाकारुणिको स धूर्जटि-

र्यथा वयं चाग्निरिवोत्थितोऽनलात्

निगृह्य दोर्भ्यां भुजयोर्न्यवारय-

त्तत्स्पर्शनाद्भूय उपस्कृताकृतिः १९

तमाह चाङ्गालमलं वृणीष्व मे

यथाभिकामं वितरामि ते वरम्

प्रीयेय तोयेन नृणां प्रपद्यता-

महो त्वयात्मा भृशमर्द्यते वृथा २०

देवं स वव्रे पापीयान्वरं भूतभयावहम्

यस्य यस्य करं शीर्ष्णि धास्ये स म्रियतामिति २१

तच्छ्रुत्वा भगवान्रुद्रो दुर्मना इव भारत

ॐ इति प्रहसंस्तस्मै ददेऽहेरमृतं यथा २२

 

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवन् ! भगवान्‌ शङ्करने समस्त भोगोंका परित्याग कर रखा है; परन्तु देखा यह जाता है कि जो देवता, असुर अथवा मनुष्य उनकी उपासना करते हैं, वे प्राय: धनी और भोगसम्पन्न हो जाते हैं। और भगवान्‌ विष्णु लक्ष्मीपति हैं, परन्तु उनकी उपासना करनेवाले प्राय: धनी और भोग-सम्पन्न नहीं होते ॥ १ ॥ दोनों प्रभु त्याग और भोगकी दृष्टिसे एक-दूसरेसे विरुद्ध स्वभाववाले हैं, परंतु उनके उपासकोंको उनके स्वरूपके विपरीत फल मिलता है। मुझे इस विषयमें बड़ा सन्देह है कि त्यागीकी उपासनासे भोग और लक्ष्मीपतिकी उपासनासे त्याग कैसे मिलता है ? मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ ॥ २ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! शिवजी सदा अपनी शक्तिसे युक्त रहते हैं। वे सत्त्व आदि गुणोंसे युक्त तथा अहङ्कारके अधिष्ठाता हैं। अहङ्कारके तीन भेद हैंवैकारिक, तैजस और तामस ॥ ३ ॥ त्रिविध अहङ्कारसे सोलह विकार हुएदस इन्द्रियाँ, पाँच महाभूत और एक मन। अत: इन सबके अधिष्ठातृ-देवताओंमेंसे किसी एककी उपासना करनेपर समस्त ऐश्वर्योंकी प्राप्ति हो जाती है ॥ ४ ॥ परन्तु परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीहरि तो प्रकृतिसे परे स्वयं पुरुषोत्तम एवं प्राकृत गुणरहित हैं। वे सर्वज्ञ तथा सबके अन्त:करणोंके साक्षी हैं। जो उनका भजन करता है, वह स्वयं भी गुणातीत हो जाता है ॥ ५ ॥ परीक्षित्‌ ! जब तुम्हारे दादा धर्मराज युधिष्ठिर अश्वमेध यज्ञ कर चुके, तब भगवान्‌से विविध प्रकारके धर्मोंका वर्णन सुनते समय उन्होंने भी यही प्रश्र किया था ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण सर्वशक्तिमान् परमेश्वर हैं। मनुष्योंके कल्याणके लिये ही उन्होंने यदुवंशमें अवतार धारण किया था। राजा युधिष्ठिरका प्रश्र सुनकर और उनकी सुननेकी इच्छा देखकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार उत्तर दिया था ॥ ७ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाराजन् ! जिसपर मैं कृपा करता हूँ उसका सब धन धीरे-धीरे छीन लेता हूँ। जब वह निर्धन हो जाता है, तब उसके सगे-सम्बन्धी उसके दु:खाकुल चित्तकी परवा न करके उसे छोड़ देते हैं ॥ ८ ॥ फिर वह धनके लिये उद्योग करने लगता है, तब मैं उसका वह प्रयत्न भी निष्फल कर देता हूँ। इस प्रकार बार-बार असफल होनेके कारण जब धन कमानेसे उसका मन विरक्त हो जाता है, उसे दु:ख समझकर वह उधरसे अपना मुँह मोड़ लेता है और मेरे प्रेमी भक्तोंका आश्रय लेकर उनसे मेल-जोल करता है, तब मैं उसपर अपनी अहैतुक कृपाकी वर्षा करता हूँ ॥ ९ ॥ मेरी कृपासे उसे परम सूक्ष्म अनन्त सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार मेरी प्रसन्नता, मेरी आराधना बहुत कठिन है। इसीसे साधारण लोग मुझे छोडक़र मेरे ही दूसरे रूप अन्यान्य देवताओंकी आराधना करते हैं ॥ १० ॥ दूसरे देवता आशुतोष हैं। वे झटपट पिघल पड़ते हैं और अपने भक्तोंको साम्राज्य-लक्ष्मी दे देते हैं। उसे पाकर वे उच्छृङ्खल, प्रमादी और उन्मत्त हो उठते हैं और अपने वरदाता देवताओंको भी भूल जाते हैं तथा उनका तिरस्कार कर बैठते हैं ॥ ११ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! ब्रह्मा, विष्णु और महादेवये तीनों शाप और वरदान देनेमें समर्थ हैं; परन्तु इनमें महादेव और ब्रह्मा शीघ्र ही प्रसन्न या रुष्ट होकर वरदान अथवा शाप दे देते हैं। परन्तु विष्णु भगवान्‌ वैसे नहीं हैं ॥ १२ ॥ इस विषयमें महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। भगवान्‌ शङ्कर एक बार वृकासुरको वर देकर सङ्कटमें पड़ गये थे ॥ १३ ॥ परीक्षित्‌ ! वृकासुर शकुनिका पुत्र था। उसकी बुद्धि बहुत बिगड़ी हुई थी। एक दिन कहीं जाते समय उसने देवर्षि नारदको देख लिया और उनसे पूछा कि तीनों देवताओंमें झटपट प्रसन्न होनेवाला कौन है ?’ ॥ १४ ॥ परीक्षित्‌ ! देवर्षि नारदने कहा—‘तुम भगवान्‌ शङ्करकी आराधना करो। इससे तुम्हारा मनोरथ बहुत जल्दी पूरा हो जायगा। वे थोड़े ही गुणोंसे शीघ्र-से-शीघ्र प्रसन्न और थोड़े ही अपराधसे तुरन्त क्रोध कर बैठते हैं ॥ १५ ॥ रावण और बाणासुरने केवल वंदीजनोंके समान शङ्करजीकी कुछ स्तुतियाँ की थीं। इसीसे वे उनपर प्रसन्न हो गये और उन्हें अतुलनीय ऐश्वर्य दे दिया। बादमें रावणके कैलास उठाने और बाणासुरके नगरकी रक्षाका भार लेनेसे वे उनके लिये सङ्कटमें भी पड़ गये थे॥ १६ ॥

नारदजीका उपदेश पाकर वृकासुर केदारक्षेत्रमें गया और अग्रिको भगवान्‌ शङ्करका मुख मानकर अपने शरीरका मांस काट-काटकर उसमें हवन करने लगा ॥ १७ ॥ इस प्रकार छ: दिनतक उपासना करनेपर भी जब उसे भगवान्‌ शङ्करके दर्शन न हुए, तब उसे बड़ा दु:ख हुआ। सातवें दिन केदारतीर्थमें स्नान करके उसने अपने भीगे बालवाले मस्तकको कुल्हाड़ेसे काटकर हवन करना चाहा ॥ १८ ॥ परीक्षित्‌ ! जैसे जगत्में कोई दु:खवश आत्महत्या करने जाता है तो हमलोग करुणावश उसे बचा लेते हैं, वैसे ही परम दयालु भगवान्‌ शङ्करने वृकासुरके आत्मघातके पहले ही अग्निकुण्डसे अग्रिदेवके समान प्रकट होकर अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों हाथ पकड़ लिये और गला काटनेसे रोक दिया। उनका स्पर्श होते ही वृकासुरके अङ्ग ज्यों-के-त्यों पूर्ण हो गये ॥ १९ ॥ भगवान्‌ शङ्कर ने वृकासुरसे कहा—‘प्यारे वृकासुर ! बस करो, बस करो; बहुत हो गया। मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। तुम मुँहमाँगा वर माँग लो। अरे भाई ! मैं तो अपने शरणागत भक्तोंपर केवल जल चढ़ानेसे ही सन्तुष्ट हो जाया करता हूँ। भला, तुम झूठमूठ अपने शरीरको क्यों पीड़ा दे रहे हो ?’ ॥ २० ॥ परीक्षित्‌ ! अत्यन्त पापी वृकासुरने समस्त प्राणियोंको भयभीत करनेवाला यह वर माँगा कि मैं जिसके सिरपर हाथ रख दूँ, वही मर जाय॥ २१ ॥ परीक्षित्‌ ! उसकी यह याचना सुनकर भगवान्‌ रुद्र पहले तो कुछ अनमनेसे हो गये, फिर हँसकर कह दिया— ‘अच्छा, ऐसा ही हो।ऐसा वर देकर उन्होंने मानो साँपको अमृत पिला दिया ॥ २२ ॥

 

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

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