।। श्रीहरिः ।।
कामना और आवश्यकता (पोस्ट 06)
भोग और संग्रह का, शरीर का त्याग तो अपने-आप हो रहा है । जैसे बालकपना चला गया, ऐसे ही जवानी भी
चली जायगी, वृद्धावस्था भी
चली जायगी, व्यक्ति भी चले
जायँगे, पदार्थ भी चले
जायेंगे । केवल उनकी इच्छा का त्याग करना है, उनको अस्वीकार करना है । परन्तु परमात्मा निरन्तर हमारे साथ
रहते हैं । वे हमारी स्वीकृति-अस्वीकृतिपर निर्भर नहीं हैं । परमात्मा को मानें तो
भी वे हैं, न मानें तो भी
वे हैं, स्वीकार करें तो
भी वे हैं, अस्वीकार करें
तो भी वे हैं । परन्तु संसार हमारी स्वीकृति-अस्वीकृतिपर निर्भर करता है । संसार को
स्वीकार करें तो वह है, अस्वीकार करें तो वह नहीं है । अगर संसार मनुष्य की
स्वीकृति-अस्वीकृति पर निर्भर नहीं होता तो फिर कोई भी मनुष्य संसार से असंग नहीं
हो सकता, साधु नहीं बन
सकता । संसार निरन्तर अलग हो रहा है और परमात्मा कभी अलग नहीं होते । केवल संसार की
इच्छा का त्याग करना है और परमात्मा की आवश्यकता का अनुभव करना है । फिर संसार का
त्याग और परमात्मा की प्राप्ति स्वतः-सिद्ध है ।
किसी की भी ताकत नहीं है कि वह शरीर-संसार को अपने साथ रख सके अथवा खुद उनके
साथ रह सके । न हम उनके साथ रह सकते हैं, न वे हमारे साथ रह सकते हैं क्योंकि वे हमारे नहीं हैं ।
संसार का कोई भी सुख सदा नहीं रहता; क्योंकि वह सुख हमारा नहीं है । उसकी इच्छा का त्याग करना
ही पड़ेगा । संसार को सत्ता भी हमने ही दी है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) ।
वास्तव में संसार की सत्ता है नहीं‒‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६) ।
संसार एक क्षण भी टिकता नहीं है । हमें वहम होता है कि हम जी रहे हैं, पर वास्तव में
हम मर रहे हैं । मान लें, हमारी कुल आयु अस्सी वर्ष की है और उसमें से बीस वर्ष बीत
गये तो अब हमारी आयु अस्सी वर्षकी नहीं रही, प्रत्युत साठ वर्ष की रह गयी । हम सोचते हैं कि हम इतने
वर्ष बड़े हो गये हैं पर वास्तव में छोटे हो गये हैं । जितनी उम्र बीत रही है, उतनी ही मौत
नजदीक आ रही है । जितने वर्ष बीत गये, उतने तो हम मर ही गये । अतः जो निरन्तर छूट रहा है, उसको ही छोड़ना
है और जो निरन्तर विद्यमान है, उसको ही प्राप्त करना है ।
हमने जिद कर ली है कि हम संसार को पकड़ेंगे, छोड़ेंगे नहीं तो भगवान् ने भी जिद कर ली है कि मैं छुड़ा
दूँगा, रहने दूँगा नहीं
। हम बालकपना पकड़ते हैं तो भगवान् उसको नहीं रहने देते, हम जवानी पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते, हम वृद्धावस्था
पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते, हम धनवत्ता पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते, हम नीरोगता
पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते ।
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘सत्संग
मुक्ताहार’ पुस्तक’ से