गुरुवार, 9 फ़रवरी 2023

परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 08)


 


(२) मनुष्य अपना अभाव कभी नहीं देखता, वह यह कभी नहीं सोचता कि एक दिन मैं नहीं रहूँगा अथवा मैं पहले नहीं था। अपने अभाव के  बारे में आत्मा की ओर से उसे कभी गवाही नहीं मिलती। वह यही सोचता है कि मैं सदा से हूँ और सदा रहूंगा। इससे भी आत्मा की नित्यता सिद्ध होती है।

(३) बालक जन्मते ही रोने लगता है और जन्मने के बाद कभी हँसता है, कभी रोता है, कभी सोता है; जब माता उसके मुख में स्तन देती है तो वह उसमें से दूध खींचने लगता है और धमकाने आदि पर भय से काँपता हुआ भी देखा जाता है। बालक के ये सब आचरण पूर्वजन्म का लक्ष्य कराते हैं; क्योंकि इस जन्म में तो उसने ये सब बातें सीखीं नहीं। पूर्वजन्म के अभ्यास से ही ये सब बातें उसके अंदर स्वाभाविक ही होने लगती हैं। पूर्वजन्म में अनुभव किये हुए सुख-दुःख का स्मरण करके ही वह हँसता और रोता है, पूर्व में अनुभव किये हुए मृत्यु-भय के कारण ही वह काँपने लगता है तथा पूर्वजन्म में किये हुए स्तनपान के अभ्यास से ही वह माता के स्तन का दूध खींचने लगता है।

(४) जीवों में जो सुख-दुःख का भेद, प्रकृति अर्थात् स्वभाव और गुण-कर्मका भेद-काम-क्रोध, राग-द्वेष आदि की न्यूनाधिकतातथा क्रिया का भेद एवं बुद्धि का भेद दृष्टिगोचर होता है, उससे भी पूर्वजन्म की सिद्धि होती है। एक ही माता-पिता से उत्पन्न हुई सन्तान यहाँ तक कि एक ही साथ पैदा हुए बच्चे भी इन सब बातों में एक-दूसरे से विलक्षण पाये जाते हैं। पूर्वजन्म के संस्कारों के अतिरिक्त इस विचित्रता में कोई हेतु नहीं हो सकता। जिस प्रकार ग्रामोफोन की चूड़ी पर उतरे हुए किसी गाने को सुनकर हम यह अनुमान करते हैं कि इसी प्रकार किसी मनुष्य ने इस गाने को कहीं अन्यत्र गाया होगा, तभी उसकी प्रतिध्वनि को आज हम इस रूप में सुन पाते हैं, उसी प्रकार आज हम किसी को सुखी अथवा दुःखी देखते हैं अथवा अच्छे-बुरे स्वभाव और बुद्धिवाला पाते हैं तो उससे यही अनुमान होता है कि उसने पूर्वजन्म में वैसे ही कर्म किये होंगे, जिनके संस्कार उसके अन्त:करण में संगृहीत हैं, जिन्हें वह अपने साथ लेता आया है। यदि किसी को वर्तमान जीवन में हम सुखी पाते हैं तो इसका मतलब यही है कि उसने पूर्वजन्म में अच्छे कर्म किये होंगे और दुःखी पाते हैं तो इसका मतलब यह होता है। कि उसने पूर्वजन्म में अशुभकर्म किये होंगे। यही बात स्वभाव, गुण और बुद्धि आदि के सम्बन्ध में समझनी चाहिये।

 

शेष आगामी पोस्ट में

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

# क्या है परलोक?



परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 07)


   

अब हम युक्तियों से भी परलोक एवं पुनर्जन्म को सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं |

 

(१)  शरीर की तरह आत्मा का परिवर्तन नहीं होता | शरीर में तो हम सभी के अवस्थानुसार परिवर्तन होता देखा जाता है | आज जो हमारा शरीर है कुछ वर्ष बाद वह बिल्कुल बदल जाएगा, उसके स्थान में दूसरा ही शरीर बन जाएगा –जैसे नख और केश पहले के कटते जाते हैं और नए आते रहते हैं | बाल्यावस्था में हमारे सभी अंग कोमल और छोटे होते हैं, कद छोटा होता है , स्वर मीठा होता है, वजन भी कम होता है तथा मुख पर रोएँ नहीं होते | जवान होने पर हमारे अंग पहले से कठोर और बड़े हो जाते हैं, आवाज भारी हो जाती है, कद लंबा हो जाता है | वजन बढ़ जाता है तथा दाढी-मूंछ आजाती है | इसी प्रकार बुढापे में हमारे अंग शिथिल हो जाते हैं, शरीर की सुन्दरता नष्ट हो जाती  है, चमडा ढीला पड जाता है , बाल  पक जाते हैं, दाँत ढीले हो जाते हैं तथा गिर जाते हैं एवं शरीर तथा इन्द्रियोंकी शक्ति क्षीण हो जाती है। यही कारण है कि बालकपन में देखे हुए किसी व्यक्तिको उसके युवा हो जाने पर हम सहसा नहीं पहचान पाते। परन्तु शरीर बदल जानेपर भी हमारा आत्मा नहीं बदलता। दस वर्ष पहले जो हमारा आत्मा था; वही आत्मा इस समय भी है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। यदि होता तो आज से दस वर्ष अथवा बीस वर्ष पहले हमारे जीवन में घटी हुई घटना का हमें स्मरण नहीं होता। दूसरे के द्वारा अनुभव किये हुए सुख-दुःख का जिस प्रकार हमें स्मरण नहीं होता, उसी प्रकार यदि हमारा आत्मा बदल गया होता तो हमें अपने जीवन की बातों का भी कालान्तर में स्मरण नहीं रहता। परन्तु आज की घटना का हमें दस वर्ष बाद अथवा बीस वर्ष बाद भी स्मरण होता है, इससे मालूम होता है कि अनुभव करनेवाला और स्मरण करनेवाला दो व्यक्ति नहीं, बल्कि एक ही व्यक्ति है। जिस प्रकार वर्तमान शरीर में इतना परिवर्तन होने पर भी आत्मा नहीं बदला, उसी प्रकार मरने के बाद दूसरा शरीर मिलने पर भी यह नहीं बदलने का। इससे आत्मा की नित्यता सिद्ध होती है।

 

शेष आगामी पोस्ट में

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

# क्या है परलोक?

# लोक परलोक

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बुधवार, 8 फ़रवरी 2023

परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 06)


   

मनुस्मृति में भी पुनर्जन्म के प्रतिपादक अनेकों वचन मिलते हैं। उनमें से कुछ चुने हुए वचन नीचे उद्धृत किये जाते हैं। किन-किन कर्मों से जीव किन-किन योनियों को प्राप्त होते हैं, इस विषय में भगवान् मनु कहते हैं-

 

देवत्वं सात्त्विका यान्ति मनुष्यत्वं च राजसाः।

तिर्यक्त्वं तामसा नित्यमित्येषा त्रिविधा गतिः ॥

...(१२ । ४०)

अर्थात्सत्त्वगुणी लोग देवयोनि को, रजोगुणी मनुष्ययोनि को और तमोगुणी तिर्यग्योनि को प्राप्त होते हैं। जीवों की सदा यही तीन प्रकार की गति होती है।

 

इन्द्रियाणां प्रसंगेन धर्मस्यासेवनेन च।

पापा संयान्ति संसारानविद्वांसो नराधमाः॥

...(१२। ५२)

जो लोग इन्द्रियों को तृप्त करने में ही लगे रहते हैं। तथा धर्माचरण से विमुख रहते हैं, उनके विषय में भगवान् मनु कहते हैं कि वे मूर्ख और नीच मनुष्य मरने पर निन्दित गति को पाते हैं।'

इसके आगे भगवान् मनु ब्रह्महत्या, सुरापान, गुरुपत्नीगमन आदि कुछ महापातकों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि इन पापों को करने वाले अनेक वर्ष तक नरक भोगकर फिर नीच योनियों को प्राप्त होते हैं। उदाहरणतः ब्रह्महत्या करनेवाला कुत्ते, सूअर, गदहे, चाण्डाल आदि योनियों को प्राप्त होता है; ब्राह्मण होकर मदिरापान करनेवाला कृमि-कीट-पतंगादि तथा हिंसक योनियों में जन्म लेता है; गुरुपत्नीगामी तृण, गुल्म, लता आदि स्थावर योनियों में सैकड़ों बार जन्म ग्रहण करता है तथा अभक्ष्य का भक्षण करने वाला कृमि होता हैं |    (देखिये मनुस्मृति १२|५४-५६,५८,५९) |

 

इस प्रकार परलोक एवं पुनर्जन्म के प्रतिपादक  अनेकों प्रमाण शास्त्रों में भरे पड़े हैं | उनको कहाँ तक लिखा जाए |

 

शेष आगामी पोस्ट में

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

# क्या है परलोक?

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परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 05)


  

गीता में स्वर्गादि लोकों का भी कई जगह उल्लेख आता है; पुनर्जन्म, परलोक, आवृत्ति-अनावृत्ति, गतागत (गमनागमन) आदि शब्द भी कई जगह आये हैं। छठे अध्याय के ४१-४२ वें श्लोकों में योगभ्रष्ट पुरुष के दीर्घकालतक स्वर्गादि लोकों में निवास कर शुद्ध आचरणवाले श्रीमान् पुरुषों के घर में अथवा ज्ञानवान् योगियों के ही कुल में जन्म लेने की बात आयी है तथा ४५ वें श्लोक में अनेक जन्मों की बात भी आयी है। इसी प्रकार १३ वें अध्याय के २१ वें श्लोक में पुरुष के सत्-असत् योनियों में जन्म लेने की बात कही गयी है, १४ वें अध्याय के १४-१५ तथा १८वें श्लोकों में गुणों के अनुसार मनुष्य के उच्च, मध्य तथा अधोगति को प्राप्त होने की बात आयी है तथा १५ वें अध्याय के श्लोक ७-८में एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाने का स्पष्टरूप में उल्लेख हुआ है। १६ वें अध्याय के श्लोक १६, १९ और २० में

भगवान ने आसुरी सम्पदावालों को बारम्बार तिर्यक योनियों और नरक में  गिराने की बात कही है। इन सब प्रसंगों से भी पुनर्जन्म तथा परलोक की पुष्टि होती है।

योगसूत्र में भी पुनर्जन्म का विषय आया है। महर्षि पतंजलि कहते हैं-

 क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः।

......(साधन०१२)

अर्थात् ' क्लेश* जिनकी जड़ हैं, वे कर्माशय (कर्मो की वासनाएँ) वर्तमान अथवा आगे के जन्मों में भोगे जा सकते हैं। उन वासनाओं का फल किस रूप में मिलता है, इसके विषय में महर्षि पतंजलि कहते हैं-

 सति मूले तद्विपाको जात्यायुगाः।

.....(साधन० १३)

अर्थात् ' क्लेशरूपी कारणके रहते हुए उन वासनाओंका फल जाति (योनि), आयु (जीवन की अवधि) और भोग (सुख-दुःख) होते हैं।'

....................................

* योगशास्त्र में अविद्या,अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश (मृत्युभय)-इनको 'क्लेश' नाम से कहा गया है।

 

शेष आगामी पोस्ट में

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

# क्या है परलोक?

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मंगलवार, 7 फ़रवरी 2023

परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 04)


 

कठोपनिषद् का  नाचिकेतोपाख्यान इस सिद्धान्त का जीता-जागता प्रमाण है। उपनिषद् का  पहला श्लोक ही परलोक के अस्तित्व को सूचित करता है। नचिकेता ने जब देखा कि उसके पिता वाजश्रवस ऋत्विजों को बूढी और निकम्मी गायें दान में दे रहे हैं तो उससे न रहा गया। वह सोचने लगा कि ऐसी गायें देनेवाले को तो आनन्दरहित लोकों की प्राप्ति होती है |

 पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरिन्द्रियाः।

अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता ददत्॥*

....(१।१। ३)

अर्थात् जो जल पी चुकी हैं, जिनका घास खाना समाप्त हो चुका है,जिनका दूध भी दुह लिया गया है और जिनमें बछड़ा देने की शक्ति भी नहीं रह गयी है, उन गौओं का दान करने से वह दाता आनन्दशून्य लोकों को जाता है।

 अतएव उसने पिता को उस काम से रोकने का प्रयत्न किया, पर इसमें वह सफल न हो सका। इसके बाद उसके पिता ने कुपित होकर जब उसे मृत्यु को सौंप देने की बात कही तो वह प्रसन्नतापूर्वक पिता की आज्ञा को शिरोधार्य कर यमलोक में चला गया। इसके बाद उसके और यमराज के बीच में जो संवाद हुआ है, वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यमराज ने उसे तीन वर देने को कहा। उनमें से तीसरा वर माँगता हुआ नचिकेता यमराज से यह प्रश्न करता है—

 

येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये

ऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।

एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं

वराणामेष वरस्तृतीयः॥

....(१।१। २०)

अर्थात् मरे हुए मनुष्य के विषय में जो यह शंका है। कि कोई तो कहते हैं मरने के अनन्तर आत्मा रहता है। और कोई कहते हैं नहीं रहता'-इस सम्बन्ध में मैं आपसे उपदेश चाहता हूँ, जिससे मैं इस विषय का ज्ञान प्राप्त कर सकें। मेरे माँगे हुए वरों में यह तीसरा वर है ।।

यमराज ने इस विषय को टालना चाहा और नचिकेता से कहा कि तू कोई दूसरा वर माँग ले; क्योंकि यह विषय अत्यन्त गूढ़ है और देवताओं को भी इस विषय में शंका हो जाया करती है। नचिकेता कोई सामान्य जिज्ञासु नहीं था। अतः विषयकी गूढ़ता को सुनकर उसका उत्साह कम नहीं हुआ, बल्कि उसकी जिज्ञासा और भी प्रबल हो उठी। वह बोला कि इसीलिये तो इस विषय को मैं आपसे जानना चाहता हूँ; क्योंकि इस विषय का उपदेश करनेवाला आपके समान और कौन मिलेगा। इसपर यमराज ने पुत्र-पौत्र, हाथी-घोड़े, सुवर्ण, विशाल भूमण्डल, दीर्घ जीवन, इच्छानुकूल भोग, अनुपम रूप-लावण्यवाली स्त्रियाँ तथा और भी बहुत-से भोग जो मनुष्यलोक में दुर्लभ हैं, उसे देने चाहे; परन्तु नचिकेता अपने निश्चय से नहीं टला। वह बोला----

 श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैत्

त्सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः।

अपि सर्वं जीवितमल्पमेव

तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ॥

............(१।१।२६)

हे यमराज! ये भोगकल रहेंगे या नहीं?—इस प्रकार के सन्देह से युक्त हैं अर्थात् अस्थिर हैं और सम्पूर्ण इन्द्रियों के तेज को जीर्ण कर देते हैं। यह सारा जीवन भी स्वल्प ही है। अतः आप के वाहन (हाथी-घोड़े) और नाच-गान आपही के पास रहें, मुझे उनकी आवश्यकता नहीं है।' । नचिकेता के इस आदर्श निष्कामभाव और दृढ़ निश्चय को देखकर यमराज बहुत ही प्रसन्न हुए और उसकी प्रशंसा करते हुए बोले—

 स त्वं प्रियान् प्रियरूपाश्च कामा

नभिध्यायन्नचिकेतोऽत्यस्त्राक्षीः ।

नैता सङ्कको वित्तमयीमवाप्तो

यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः॥

........(१। २। ३)

हे नचिकेता ! तूने प्रिय अर्थात् पुत्र, धन आदि इष्ट पदार्थों को और प्रियरूप-अप्सरा आदि लुभानेवाले भोगों को असार समझकर त्याग दिया और जिसमें अधिकांश मनुष्य डूब (फँस) जाते हैं, उस धनिकों की निन्दित गति को तूने स्वीकार नहीं किया। धन्य है तेरी निष्ठा!'

 न साम्परायः प्रतिभाति बालं

प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।

अयं लोको नास्ति पर इति मानी।

पुनः पुनर्वशमापद्यते मे॥

........(१। २। ६)

जो मूर्ख धनके मोह से अंधे होकर प्रमाद में लगे रहते हैं, उन्हें परलोक का साधन नहीं सूझता। यही लोक है, परलोक नहीं है---ऐसा मानने वाला पुरुष बारम्बार मेरे चंगुल में फँसता है (जन्मता और मरता है) ।

 नैषा तर्केण मतिरापयेना।

प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ।

यां त्वमापः सत्यधृतिर्बतासि

त्वादृङ् नो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा॥

.....(१। २। ९)

'हे प्रियतम! सम्यक् ज्ञान के लिये कोरा तर्क करनेवालों से भिन्न किसी शास्त्रज्ञ आचार्यद्वारा कही हुई यह बुद्धि, जिसको तुमने पाया है, तर्क द्वारा प्राप्त नहीं होती। अहा! तेरी धारणा बड़ी सच्ची है। हे नचिकेता ! हमें तेरे समान जिज्ञासु सदा प्राप्त हों।'

कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठां

क्रतोरनन्त्यमभयस्य पारम्।

स्तोममहदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्ट्वा

धृत्या धीरो नचिकेतोऽत्यस्राक्षीः॥

.........(१। २। ११)

हे नचिकेता ! तूने बुद्धिमान् होकर भोगों की परम अवधि, जगत् की प्रतिष्ठा, यज्ञ का अनन्त फल, अभय की पराकाष्ठा, स्तुत्य और महती गति तथा प्रतिष्ठा को देखकर भी उसे धैर्यपूर्वक त्याग दिया । शाबाश!'

उपर्युक्त वचनों से इस विषय की महत्ता तथा उसे जानने के लिये कितने ऊँचे अधिकार की आवश्यकता है, यह बात द्योतित होती है। | इस प्रकार नचिकेता की कठिन परीक्षा लेकर और उसे उसमें उत्तीर्ण पाकर यमराज उसे आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में उपदेश देते हैं। वे कहते हैं

 न जायते म्रियते वा विपश्चि

न्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् ।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो

न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥

..........(१।२। १८)

{यही मन्त्र कुछ हेर-फेर से गीता में भी आया है (देखिये २।२०)}

 'यह नित्य चिन्मय आत्मा न जन्मता है, न मरता है; यह न तो किसी वस्तु से उत्पन्न हुआ है और न स्वयं ही कुछ बना है (अर्थात् न तो यह किसी का कार्य है, न कारण है, न विकार है, न विकारी है) । यह अजन्मा, नित्य (सदा से वर्तमान, अनादि), शाश्वत (सदा रहनेवाला, अनन्त) और पुरातन है तथा शरीर के विनाश किये जाने पर भी नष्ट नहीं होता।'

 उपर्युक्त वर्णन से आत्मा की अमरता सिद्ध होती है । वे फिर कहते हैं

 हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्‌।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥

            .............(१|२|१९)

 

‘यदि मरनेवाला आत्मा को मारने का विचार करता है और मारा जाने वाला उसे मरा हुआ समझता है तो वे दोनों हे उसे नहीं जानते; क्योंकि यह न तो मारता है और न मारा जाता है |’*

.....................................................

* यही मन्त्र कुछ हेर-फेर से गीता में भी आया है (देखिये २।१९) ।

 

आगे चलकर यमराज उन मनुष्यों की गति बतलाते हैं, जो आत्मा को बिना जाने ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं | वे कहते हैं --

 योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः।

स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्‌ ॥

.......(२|२|७)

 ‘अपने कर्म और ज्ञान के अनुसार कितने ही देहधारी तो शरीर धारण करने के लिए किसी देव,मनुष्य,पशु, पक्षी आदि योनि को प्राप्त होते हैं और कितने ही स्थावरभाव (वृक्षादि योनि)- को प्राप्त होते हैं |’

 ऊपर के मन्त्र से भी पुनर्जन्म की सिद्धि होती है |

 गीता में भी परलोक तथा पुनर्जन्म का प्रतिपादन करने वाले अनेक वचन मिलते हैं | उनमें से कुछ यहाँ उद्धृत किये जाते हैं -----

 न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।

.............(२|१२)

 ‘न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तू नहीं था अथवा ये राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।‘

 देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ।।

.............(२|१३)

  ‘जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन,जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता |’

 

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

............(२|२२)

 “जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।“

 चौथे अध्याय में भगवान् अर्जुन से कहते हैं—

 बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥

.......(गीता ४। ५)

'हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सब को तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ।

शेष आगामी पोस्ट में

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

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परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 03)


 

 संसार में जो पापों की वृद्धि हो रही है-झूठ, कपट, चोरी, हिंसा, व्यभिचार एवं अनाचार बढ़ रहे हैं, व्यक्तियों की भाँति राष्ट्रों में भी परस्पर द्वेष और कलह की वृद्धि हो रही है, बलवान्, दुर्बलों को सता रहे हैं, लोग नीति और धर्म के मार्ग को छोड़कर अनीति और अधर्म के मार्गपर आरूढ़ हो रहे हैं, लौकिक उन्नति और भौतिक सुख को ही लोगों ने अपना ध्येय बना लिया है और उसी की प्राप्ति के लिये सब लोग यत्नवान् हैं, विलासिता और इन्द्रियलोलुपता बढ़ती जा रही है, भक्ष्याभक्ष्य का विचार उठता जा रहा है, जीभ के स्वाद और शरीर के आराम के लिये दूसरों के कष्ट की तनिक भी परवा नहीं की जाती, मादक द्रव्यों का प्रचार बढ़ रहा है, बेईमानी और घूसखोरी उन्नति पर है,एक-दूसरे के प्रति लोगों का विश्वास कम होता जा रहा है,मुकदमेबाजी बढ़ रही है, अपराधों की संख्या बढ़ती जा रही है, दम्भ और पाखण्ड की वृद्धि हो रही है---इन सब का कारण यही है कि लोगों ने वर्तमान जीवन को ही अपना जीवन मान रखा है; इसके आगे भी कोई जीवन है, इसमें उनका विश्वास नहीं है। इसीलिये वे वर्तमान जीवन को ही सुखी बनाने के प्रयत्न में लगे हुए हैं। जब तक जियो, सुख से जियो; कर्जा लेकर भी अच्छे-अच्छे पदार्थों का उपभोग करो। मरने के बाद क्या होगा, किसने देख रखा है।'*

{* यावज्जीवेत् सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिबेत् । ।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ (चार्वाक)}

 

इसी सर्वनाशकारी मान्यता की ओर आज प्रायः सारा संसार जा रहा है। यही कारण है कि वह सुख के बदले अधिकाधिक दुःख में  ही फंसता जा रहा है। परलोक और पुनर्जन्म को न मानने का यह अवश्यम्भावी फल है। आज हम इसी परलोक और पुनर्जन्म के सिद्धान्त की कुछ चर्चा करते हैं और इस सिद्धान्त को माननेवालों का क्या कर्तव्य है-इसपर भी विचार कर रहे हैं।

जैसा कि हम पहले  कह आये हैं, परलोक और पुनर्जन्म के सिद्धान्त का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्षरूप से हमारे परलोक और पुनर्जन्म सभी शास्त्रों ने समर्थन किया है। वेदों से लेकर आधुनिक दार्शनिक ग्रन्थों तक सभी ने एक स्वर से इस सिद्धान्त की पुष्टि की है। स्मृतियों, पुराणों तथा महाभारतादि इतिहासग्रन्थों में तो इस विषय के इतने प्रमाण भरे हैं कि उन सब को यदि संगृहीत किया जाय तो एक बहुत बड़ी पुस्तक तैयार हो सकती है। इसके लिये न तो अवकाश है और न इसकी उतनी आवश्यकता ही प्रतीत होती है। प्रस्तुत निबन्ध में उपनिषद्, गीता, मनुस्मृति, योगसूत्र आदि कुछ थोड़े-से चुने हुए प्रामाणिक ग्रन्थोंमें  से ही कुछ प्रमाण लेकर इस सिद्धान्त की पुष्टि की जायगी और युक्तियों के द्वारा भी इसे सिद्ध करनेकी चेष्टा की जायगी।

 

शेष आगामी पोस्ट में

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

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सोमवार, 6 फ़रवरी 2023

परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 02)

 

आज संसार में, विशेषकर पाश्चात्य देशों में आत्महत्याओं की संख्या जो दिनोंदिन बढ़ रही हैआये दिन लोगों के जीवन से निराश होकर अथवा असफलता से दुःखी होकर, अपमान एवं अपकीर्ति से बचने के लिये अथवा इच्छा की पूर्ति न होने के  दुःख से डूबकर, फाँसी लगाकर, जलकर, विषपान करके अथवा गोली खाकर प्राणत्याग करने की बातें पढ़ीसुनी और देखी जाती हैं---उसका एकमात्र प्रधान कारण आत्मा की अमरता में तथा परलोक में अविश्वास है। यदि हमें यह निश्चय हो जाय कि हमारा जीवन इस शरीर तक ही सीमित नहीं है, इसके पहले भी हम थे और इसके बाद भी हम रहेंगे, इस शरीर का अन्त कर देने से हमारे कष्टों का अन्त नहीं हो जायगा, बल्कि इस शरीर के भोगों को भोगे बिना ही प्राणत्याग कर देने से तथा आत्महत्यारूप नया घोर पाप करने से हमारा भविष्य जीवन और भी अधिक कष्टमय होगा तो हम कभी आत्महत्या करने का साहस नहीं करेंगे। अत्यन्त खेद का विषय है कि पाश्चात्य जडवादी सभ्यता के सम्पर्क में आने से यह पाप हमारे आधुनिक परलोक और पुनर्जन्म शिक्षाप्राप्त नवयुवकों में भी घर कर रहा है और आजकल ऐसी बातें हमारे देशमें भी देखी-सुनी जाने लगी हैं। हमारे शास्त्रों ने आत्महत्या को बहुत बड़ा पाप माना है और उसका फल सूकर, कूकर आदि अन्धकारमय योनियोंकी प्राप्ति बतलाया है।

 

श्रुति कहती है:-

 

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः।

तास्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्मनो जनाः ॥

.....................(ईशोपनिषद् ३)

 

अर्थात् वे असुर-सम्बन्धी लोक [अथवा आसुरी योनियाँ] आत्मा के अदर्शनरूप अज्ञान से आच्छादित हैं। जो कोई भी आत्मा का हनन करनेवाले लोग हैं, वे मरने के अनन्तर उन्हीं में जाते हैं।

 

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रविवार, 5 फ़रवरी 2023

परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 01)


परलोक और पुनर्जन्म का सिद्धांत हिंदूधर्म की ख़ास संपत्ति है | जैन और बौद्धमत भी एक प्रकार से हिन्दूधर्म की ही शाखाएँ मानी जा सकती हैं; क्योंकि वे इस सिद्धांत को मानते हैं | इसलिये वे हिन्दू धर्म के अंतर्गत हैं | मुसलमान और ईसाईमत इस सिद्धांत को नहीं मानते ; परन्तु थियासफी सम्प्रदाय के उद्योगों तथा  प्रेतविद्या  (Spiritualism)- के चमत्कारों ने (जिसका इधर कुछ वर्षों में पाश्चात्यदेशों में काफी प्रचार हुआ है ) इस और लोगों का काफी ध्यान आकृष्ट किया है और अब तो हजारों-लाखों की संख्या में योरोप और अमेरिका के लोग भी ईसाई होते हुए भी परलोक में विश्वास करने लगे हैं | हमारे भारतवर्ष का तो बच्चा-बच्चा इस सिद्धान्त को मानता और उसपर अमल करता है | यही नहीं, यह सिद्धान्त हमारे जीवन के प्रत्येक अंग के साथ सम्बद्ध हो गया है; हमारा कोई धार्मिक कृत्य ऐसा नहीं है, जिसका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्षरूप से परलोक से सम्बन्ध न हो और हमारा कोई  धार्मिक ऐसा नहीं है, जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्षरूप से परलोक एवं पुनर्जन्म का समर्थ न करता हो | इधर तो कई स्थानों में ऐसी घटनाएँ प्रकाश में आयी हैं जिनमें अबोध बालक- बालिकाओं ने अपने पूर्वजन्म की बातें कही हैं, जो जाँचपड़ताल करने पर सच निकली हैं। । आत्मा की उन्नति तथा जगत् में  धार्मिक भाव, सुखशान्ति तथा प्रेम के विस्तार के लिये तथा पाप-ताप से बचने के लिये परलोक एवं पुनर्जन्म को मानना आवश्यक भी है।

 

शेष आगामी पोस्ट में

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

# क्या है परलोक?

# लोक परलोक

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शनिवार, 4 फ़रवरी 2023

भगवान् शिवकृत सुप्रभातस्तोत्र



ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च ।

गुरुश्च शुक्रः सह भानुजेन कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्  ॥१॥    

भृगुर्वसिष्ठः क्रतुरङ्गिराश्च मनुः पुलस्त्यः पुलहः सगौतमः ।

रैभ्यो मरीचिश्च्यवनो ऋभुश्च कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥२॥

सनत्कुमारः सनकः सनन्दनः सनातनोऽप्यासुरिपिङ्गलौ च।

सप्त स्वराः सप्त रसातलाश्च कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥३॥

पृथ्वी सगन्धा सरसास्तथाऽऽपः स्पर्शश्च वायुर्ज्वलनः सतेजाः।

नभः सशब्दं महता सहैव यच्छन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥४॥

सप्तार्णवाः सप्त कुलाचलाश्च सप्तर्षयो द्वीपवराश्च सप्त।

भूरादि कृत्वा भुवनानि सप्त ददन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥५॥

इत्थं प्रभाते परमं पवित्रं पठेत् स्मरेद्वा श्रृणुयाच्च भक्त्या।

दुःस्वप्ननाशोऽनघ सुप्रभातं भवेच्च सत्यं भगवत्प्रसादात् ॥६॥

 

'ब्रह्मा, विष्णु, शंकर ये देवता तथा सूर्य, चन्द्रमा, मङ्गल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनैश्वर ग्रह - ये सभी मेरे प्रातः काल को मङ्गलमय बनायें । भृगु, वसिष्ठ, क्रतु, अङ्गिरा, मनु, पुलस्त्य, पुलह, गौतम, रैभ्य, मरीचि, च्यवन तथा ऋभु - ये सभी ( ऋषि ) मेरे प्रातः काल को मङ्गलमय बनायें । सनत्कुमार, सनक, सनन्दन, सनातन, आसुरि, पिङ्गल, सातों स्वर एवं सातों रसातल -- ये सभी मेरे प्रातःकाल को मङ्गलमय बनायें '         

'गन्धगुणवाली पृथ्वी, रसगुणवाला जल, स्पर्शगुणवाली वायु, तेजोगुणवाली अग्नि, शब्दगुणवाला आकाश वें महत्तत्व - ये सभी मेरे प्रातःकाल को मङ्गलमय बनायें । सातों समुद्र, सातों कुलपर्वत, सप्तर्षि, सातों श्रेष्ठ द्वीप और भू आदि सातों लोक - ये सभी प्रभातकाल में मुझे मङ्गल प्रदान करें । ' इस प्रकार प्रातः काल में परम पवित्र सुप्रभातस्तोत्र को भक्तिपूर्वक पढ़े, स्मरण करे अथवा सुने । ऐसा करने से भगवान की कृपा से निश्चय ही उसके दुःस्वप्न का नाश होता है तथा सुन्दर प्रभात होता है ।

 

(गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीवामन पुराण १४/२३-२८ )




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