शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 10)

 

श्रीमद्भागवत में भगवान् उद्धव से कहते हैं-

नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं

प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्।

मयानुकूलेन नभस्वतेरितम्

पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा॥

...(११।२०। १७)

'यह मनुष्यशरीर समस्त शुभ फलों की प्राप्ति का आदिकारण तथा अत्यन्त दुर्लभ होने पर भी ईश्वर की कृपा से हमारे लिये सुलभ हो गया है; वह इस संसाररूपी समुद्र से पार होने के लिये सुदृढ़ नौका है, जिसे गुरुरूप नाविक चलाता है और मैं (श्रीकृष्ण) वायुरूप होकर उसे आगे बढ़ानेमें सहायता देता हूँ। ऐसी सुन्दर नौका को पाकर भी जो मनुष्य इस भवसागर को नहीं तरता, वह निश्चय ही आत्माका हनन करनेवाला अर्थात् पतन करनेवाला है।

गोस्वामी तुलसीदासजी भी कहते हैं-

जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाई।

सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥

...(रामचरित०उत्तर० ४४)

यहाँ यह प्रश्न होता है कि इसके लिये हमें क्या करना चाहिये। इसका उत्तर हमें स्वयं भगवान् के शब्दों में इस प्रकार मिलता है। वे कहते हैं-

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।

..(गीता ६।५)

मनुष्य को चाहिये कि वह अपने द्वारा अपना संसारसमुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले।

उद्धार का अर्थ है उत्तम गुणों एवं उत्तम भावों का संग्रह एवं उत्तम आचरणों का अनुष्ठान और पतन का अर्थ है दुर्गुण एवं दुराचारों का ग्रहण; क्योंकि इन्हीं से क्रमशः मनुष्य की उत्तम एवं अधम गति होती है। इन्हीं को भगवान् ने क्रमशः दैवी सम्पत्ति एवं आसुरी सम्पत्ति के नाम से गीता के सोलहवें अध्याय में वर्णन किया है और यह भी बतलाया है कि दैवी सम्पत्ति मोक्ष की ओर ले जानेवाली है 'दैवी सम्पद्विमोक्षाय', और आसुरी सम्पत्ति बाँधनेवाली अर्थात् बार-बार संसारचक्र में गिरानेवाली है- निबन्धायासुरी मता’ यही नहीं, आसुरी सम्पदावालों के आचरणों का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि उन अशुभ आचरणवाले द्वेषी, क्रूर (निर्दय) एवं मनुष्यों में अधम पुरुषों को मैं संसार में बार-बार पशु-पक्षी आदि तिर्यक् योनियों में गिराता हूँ और जन्म-जन्म में उन योनियों को प्राप्त हुए वे मूढ़ पुरुष मुझे न पाकर उससे भी अधम

गति (घोर नरकों)-को प्राप्त होते हैं।'*

{* तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान्।

क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।

मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥}

...(१६। १९-२०)

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्तम गुण, भाव और आचरण ही ग्रहण करनेयोग्य हैं और दुर्गुण, दुर्भाव तथा दुराचार त्यागनेयोग्य हैं। गीताके १३ वें अध्याय के ७ वें से ११ वें श्लोक तक भगवान् ने इन्हीं को ज्ञान और अज्ञान के नाम से वर्णन किया है। ज्ञान के नाम से वहाँ जिन गुणों का वर्णन किया गया है, वे आत्मा का उद्धार करनेवाले-ऊपर उठानेवाले हैं और इससे विपरीत जो अज्ञान है--'अज्ञानं यदतोऽन्यथा', वह गिरानेवाला-पतन करनेवाला है। | सद्गुण और सदाचार कौन हैं तथा दुर्गुण एवं दुराचार कौन-से हैं, ग्रहण करनेयोग्य आचरण कौन हैं तथा त्याग ने योग्य कौन-से हैं इसका निर्णय हम शास्त्रों द्वारा ही कर सकते हैं। शास्त्र ही इस विषय में प्रमाण हैं।

शेष आगामी पोस्ट में

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

# क्या है परलोक?

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परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 09)

 यदि कोई कहे कि संस्कारों के भेद के लिये पूर्वजन्म को मानने की क्या आवश्यकता है, ईश्वर की इच्छा को ही इसमें हेतु क्यों न मान लिया जाय तो इसका उत्तर यह है कि इस वैचित्र्य का कारण ईश्वर को मानने से उनमें वैषम्य एवं नैर्घण्य (निर्दयता)-का दोष आवेगा। वैषम्य का दोष तो इस बात को लेकर आवेगा कि उन्होंने अपने मन से किसी को सुखी और किसी को दुःखी बनाया और निर्दयता का दोष इसलिये आवेगा कि उन्होंने कुछ जीवों को बेमतलब ही दुःखी बना दिया। ईश्वर में कोई दोष घट नहीं सकता, इसलिये पूर्वकृत कर्मो को ही लोगों के स्वभाव के भेद तथा भोग के वैषम्य में हेतु मानना पड़ेगा। | इन सब युक्तियों से यह सिद्ध होता है कि प्राणियों का पुनर्जन्म होता है। अब जब यह सिद्ध हो गया कि पुनर्जन्म होता है, तब दूसरा प्रश्न यह होता है कि ऐसी स्थिति में मनुष्य को क्या करना चाहिये । विचार करने पर मालूम होता है कि शाश्वत एवं निरतिशय सुख की प्राप्ति तथा दुःखों से सदा के लिये छुटकारा पा जाना ही जीवमात्र का ध्येय है और उसीके लिये मनुष्य को यत्नवान् होना चाहिये। शास्त्रों में पुनर्जन्म को ही दुःखका घर बतलाया है और परमात्मा की प्राप्ति ही इस दुःख से छूटने का एकमात्र उपाय है। भगवान् श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं-

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।

नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धि परमां गताः॥

...(८। १५)

परम सिद्धि को प्राप्त महात्माजन मुझ को प्राप्त होकर दुःखोंके  घर एवं क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते। | इससे यह सिद्ध हुआ कि परमात्मा की प्राप्ति ही दुःखों से सदा के लिये छूटने का एकमात्र उपाय है और यह मनुष्यजन्म में ही सम्भव है। अतः जो इस जन्म को पाकर परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं, वे ही संसार में धन्य हैं और वे ही बुद्धिमान् एवं चतुर हैं। मनुष्य-जन्म को पाकर जो इसे विषय-भोग में ही गंवा देते हैं, वे अत्यन्त जड़मति हैं और शास्त्रों ने उनको कृतघ्न एवं आत्महत्यारा बतलाया है।

शेष आगामी पोस्ट में

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

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गुरुवार, 9 फ़रवरी 2023

परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 08)


 


(२) मनुष्य अपना अभाव कभी नहीं देखता, वह यह कभी नहीं सोचता कि एक दिन मैं नहीं रहूँगा अथवा मैं पहले नहीं था। अपने अभाव के  बारे में आत्मा की ओर से उसे कभी गवाही नहीं मिलती। वह यही सोचता है कि मैं सदा से हूँ और सदा रहूंगा। इससे भी आत्मा की नित्यता सिद्ध होती है।

(३) बालक जन्मते ही रोने लगता है और जन्मने के बाद कभी हँसता है, कभी रोता है, कभी सोता है; जब माता उसके मुख में स्तन देती है तो वह उसमें से दूध खींचने लगता है और धमकाने आदि पर भय से काँपता हुआ भी देखा जाता है। बालक के ये सब आचरण पूर्वजन्म का लक्ष्य कराते हैं; क्योंकि इस जन्म में तो उसने ये सब बातें सीखीं नहीं। पूर्वजन्म के अभ्यास से ही ये सब बातें उसके अंदर स्वाभाविक ही होने लगती हैं। पूर्वजन्म में अनुभव किये हुए सुख-दुःख का स्मरण करके ही वह हँसता और रोता है, पूर्व में अनुभव किये हुए मृत्यु-भय के कारण ही वह काँपने लगता है तथा पूर्वजन्म में किये हुए स्तनपान के अभ्यास से ही वह माता के स्तन का दूध खींचने लगता है।

(४) जीवों में जो सुख-दुःख का भेद, प्रकृति अर्थात् स्वभाव और गुण-कर्मका भेद-काम-क्रोध, राग-द्वेष आदि की न्यूनाधिकतातथा क्रिया का भेद एवं बुद्धि का भेद दृष्टिगोचर होता है, उससे भी पूर्वजन्म की सिद्धि होती है। एक ही माता-पिता से उत्पन्न हुई सन्तान यहाँ तक कि एक ही साथ पैदा हुए बच्चे भी इन सब बातों में एक-दूसरे से विलक्षण पाये जाते हैं। पूर्वजन्म के संस्कारों के अतिरिक्त इस विचित्रता में कोई हेतु नहीं हो सकता। जिस प्रकार ग्रामोफोन की चूड़ी पर उतरे हुए किसी गाने को सुनकर हम यह अनुमान करते हैं कि इसी प्रकार किसी मनुष्य ने इस गाने को कहीं अन्यत्र गाया होगा, तभी उसकी प्रतिध्वनि को आज हम इस रूप में सुन पाते हैं, उसी प्रकार आज हम किसी को सुखी अथवा दुःखी देखते हैं अथवा अच्छे-बुरे स्वभाव और बुद्धिवाला पाते हैं तो उससे यही अनुमान होता है कि उसने पूर्वजन्म में वैसे ही कर्म किये होंगे, जिनके संस्कार उसके अन्त:करण में संगृहीत हैं, जिन्हें वह अपने साथ लेता आया है। यदि किसी को वर्तमान जीवन में हम सुखी पाते हैं तो इसका मतलब यही है कि उसने पूर्वजन्म में अच्छे कर्म किये होंगे और दुःखी पाते हैं तो इसका मतलब यह होता है। कि उसने पूर्वजन्म में अशुभकर्म किये होंगे। यही बात स्वभाव, गुण और बुद्धि आदि के सम्बन्ध में समझनी चाहिये।

 

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......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

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परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 07)


   

अब हम युक्तियों से भी परलोक एवं पुनर्जन्म को सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं |

 

(१)  शरीर की तरह आत्मा का परिवर्तन नहीं होता | शरीर में तो हम सभी के अवस्थानुसार परिवर्तन होता देखा जाता है | आज जो हमारा शरीर है कुछ वर्ष बाद वह बिल्कुल बदल जाएगा, उसके स्थान में दूसरा ही शरीर बन जाएगा –जैसे नख और केश पहले के कटते जाते हैं और नए आते रहते हैं | बाल्यावस्था में हमारे सभी अंग कोमल और छोटे होते हैं, कद छोटा होता है , स्वर मीठा होता है, वजन भी कम होता है तथा मुख पर रोएँ नहीं होते | जवान होने पर हमारे अंग पहले से कठोर और बड़े हो जाते हैं, आवाज भारी हो जाती है, कद लंबा हो जाता है | वजन बढ़ जाता है तथा दाढी-मूंछ आजाती है | इसी प्रकार बुढापे में हमारे अंग शिथिल हो जाते हैं, शरीर की सुन्दरता नष्ट हो जाती  है, चमडा ढीला पड जाता है , बाल  पक जाते हैं, दाँत ढीले हो जाते हैं तथा गिर जाते हैं एवं शरीर तथा इन्द्रियोंकी शक्ति क्षीण हो जाती है। यही कारण है कि बालकपन में देखे हुए किसी व्यक्तिको उसके युवा हो जाने पर हम सहसा नहीं पहचान पाते। परन्तु शरीर बदल जानेपर भी हमारा आत्मा नहीं बदलता। दस वर्ष पहले जो हमारा आत्मा था; वही आत्मा इस समय भी है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। यदि होता तो आज से दस वर्ष अथवा बीस वर्ष पहले हमारे जीवन में घटी हुई घटना का हमें स्मरण नहीं होता। दूसरे के द्वारा अनुभव किये हुए सुख-दुःख का जिस प्रकार हमें स्मरण नहीं होता, उसी प्रकार यदि हमारा आत्मा बदल गया होता तो हमें अपने जीवन की बातों का भी कालान्तर में स्मरण नहीं रहता। परन्तु आज की घटना का हमें दस वर्ष बाद अथवा बीस वर्ष बाद भी स्मरण होता है, इससे मालूम होता है कि अनुभव करनेवाला और स्मरण करनेवाला दो व्यक्ति नहीं, बल्कि एक ही व्यक्ति है। जिस प्रकार वर्तमान शरीर में इतना परिवर्तन होने पर भी आत्मा नहीं बदला, उसी प्रकार मरने के बाद दूसरा शरीर मिलने पर भी यह नहीं बदलने का। इससे आत्मा की नित्यता सिद्ध होती है।

 

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बुधवार, 8 फ़रवरी 2023

परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 06)


   

मनुस्मृति में भी पुनर्जन्म के प्रतिपादक अनेकों वचन मिलते हैं। उनमें से कुछ चुने हुए वचन नीचे उद्धृत किये जाते हैं। किन-किन कर्मों से जीव किन-किन योनियों को प्राप्त होते हैं, इस विषय में भगवान् मनु कहते हैं-

 

देवत्वं सात्त्विका यान्ति मनुष्यत्वं च राजसाः।

तिर्यक्त्वं तामसा नित्यमित्येषा त्रिविधा गतिः ॥

...(१२ । ४०)

अर्थात्सत्त्वगुणी लोग देवयोनि को, रजोगुणी मनुष्ययोनि को और तमोगुणी तिर्यग्योनि को प्राप्त होते हैं। जीवों की सदा यही तीन प्रकार की गति होती है।

 

इन्द्रियाणां प्रसंगेन धर्मस्यासेवनेन च।

पापा संयान्ति संसारानविद्वांसो नराधमाः॥

...(१२। ५२)

जो लोग इन्द्रियों को तृप्त करने में ही लगे रहते हैं। तथा धर्माचरण से विमुख रहते हैं, उनके विषय में भगवान् मनु कहते हैं कि वे मूर्ख और नीच मनुष्य मरने पर निन्दित गति को पाते हैं।'

इसके आगे भगवान् मनु ब्रह्महत्या, सुरापान, गुरुपत्नीगमन आदि कुछ महापातकों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि इन पापों को करने वाले अनेक वर्ष तक नरक भोगकर फिर नीच योनियों को प्राप्त होते हैं। उदाहरणतः ब्रह्महत्या करनेवाला कुत्ते, सूअर, गदहे, चाण्डाल आदि योनियों को प्राप्त होता है; ब्राह्मण होकर मदिरापान करनेवाला कृमि-कीट-पतंगादि तथा हिंसक योनियों में जन्म लेता है; गुरुपत्नीगामी तृण, गुल्म, लता आदि स्थावर योनियों में सैकड़ों बार जन्म ग्रहण करता है तथा अभक्ष्य का भक्षण करने वाला कृमि होता हैं |    (देखिये मनुस्मृति १२|५४-५६,५८,५९) |

 

इस प्रकार परलोक एवं पुनर्जन्म के प्रतिपादक  अनेकों प्रमाण शास्त्रों में भरे पड़े हैं | उनको कहाँ तक लिखा जाए |

 

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परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 05)


  

गीता में स्वर्गादि लोकों का भी कई जगह उल्लेख आता है; पुनर्जन्म, परलोक, आवृत्ति-अनावृत्ति, गतागत (गमनागमन) आदि शब्द भी कई जगह आये हैं। छठे अध्याय के ४१-४२ वें श्लोकों में योगभ्रष्ट पुरुष के दीर्घकालतक स्वर्गादि लोकों में निवास कर शुद्ध आचरणवाले श्रीमान् पुरुषों के घर में अथवा ज्ञानवान् योगियों के ही कुल में जन्म लेने की बात आयी है तथा ४५ वें श्लोक में अनेक जन्मों की बात भी आयी है। इसी प्रकार १३ वें अध्याय के २१ वें श्लोक में पुरुष के सत्-असत् योनियों में जन्म लेने की बात कही गयी है, १४ वें अध्याय के १४-१५ तथा १८वें श्लोकों में गुणों के अनुसार मनुष्य के उच्च, मध्य तथा अधोगति को प्राप्त होने की बात आयी है तथा १५ वें अध्याय के श्लोक ७-८में एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाने का स्पष्टरूप में उल्लेख हुआ है। १६ वें अध्याय के श्लोक १६, १९ और २० में

भगवान ने आसुरी सम्पदावालों को बारम्बार तिर्यक योनियों और नरक में  गिराने की बात कही है। इन सब प्रसंगों से भी पुनर्जन्म तथा परलोक की पुष्टि होती है।

योगसूत्र में भी पुनर्जन्म का विषय आया है। महर्षि पतंजलि कहते हैं-

 क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः।

......(साधन०१२)

अर्थात् ' क्लेश* जिनकी जड़ हैं, वे कर्माशय (कर्मो की वासनाएँ) वर्तमान अथवा आगे के जन्मों में भोगे जा सकते हैं। उन वासनाओं का फल किस रूप में मिलता है, इसके विषय में महर्षि पतंजलि कहते हैं-

 सति मूले तद्विपाको जात्यायुगाः।

.....(साधन० १३)

अर्थात् ' क्लेशरूपी कारणके रहते हुए उन वासनाओंका फल जाति (योनि), आयु (जीवन की अवधि) और भोग (सुख-दुःख) होते हैं।'

....................................

* योगशास्त्र में अविद्या,अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश (मृत्युभय)-इनको 'क्लेश' नाम से कहा गया है।

 

शेष आगामी पोस्ट में

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

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मंगलवार, 7 फ़रवरी 2023

परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 04)


 

कठोपनिषद् का  नाचिकेतोपाख्यान इस सिद्धान्त का जीता-जागता प्रमाण है। उपनिषद् का  पहला श्लोक ही परलोक के अस्तित्व को सूचित करता है। नचिकेता ने जब देखा कि उसके पिता वाजश्रवस ऋत्विजों को बूढी और निकम्मी गायें दान में दे रहे हैं तो उससे न रहा गया। वह सोचने लगा कि ऐसी गायें देनेवाले को तो आनन्दरहित लोकों की प्राप्ति होती है |

 पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरिन्द्रियाः।

अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता ददत्॥*

....(१।१। ३)

अर्थात् जो जल पी चुकी हैं, जिनका घास खाना समाप्त हो चुका है,जिनका दूध भी दुह लिया गया है और जिनमें बछड़ा देने की शक्ति भी नहीं रह गयी है, उन गौओं का दान करने से वह दाता आनन्दशून्य लोकों को जाता है।

 अतएव उसने पिता को उस काम से रोकने का प्रयत्न किया, पर इसमें वह सफल न हो सका। इसके बाद उसके पिता ने कुपित होकर जब उसे मृत्यु को सौंप देने की बात कही तो वह प्रसन्नतापूर्वक पिता की आज्ञा को शिरोधार्य कर यमलोक में चला गया। इसके बाद उसके और यमराज के बीच में जो संवाद हुआ है, वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यमराज ने उसे तीन वर देने को कहा। उनमें से तीसरा वर माँगता हुआ नचिकेता यमराज से यह प्रश्न करता है—

 

येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये

ऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।

एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं

वराणामेष वरस्तृतीयः॥

....(१।१। २०)

अर्थात् मरे हुए मनुष्य के विषय में जो यह शंका है। कि कोई तो कहते हैं मरने के अनन्तर आत्मा रहता है। और कोई कहते हैं नहीं रहता'-इस सम्बन्ध में मैं आपसे उपदेश चाहता हूँ, जिससे मैं इस विषय का ज्ञान प्राप्त कर सकें। मेरे माँगे हुए वरों में यह तीसरा वर है ।।

यमराज ने इस विषय को टालना चाहा और नचिकेता से कहा कि तू कोई दूसरा वर माँग ले; क्योंकि यह विषय अत्यन्त गूढ़ है और देवताओं को भी इस विषय में शंका हो जाया करती है। नचिकेता कोई सामान्य जिज्ञासु नहीं था। अतः विषयकी गूढ़ता को सुनकर उसका उत्साह कम नहीं हुआ, बल्कि उसकी जिज्ञासा और भी प्रबल हो उठी। वह बोला कि इसीलिये तो इस विषय को मैं आपसे जानना चाहता हूँ; क्योंकि इस विषय का उपदेश करनेवाला आपके समान और कौन मिलेगा। इसपर यमराज ने पुत्र-पौत्र, हाथी-घोड़े, सुवर्ण, विशाल भूमण्डल, दीर्घ जीवन, इच्छानुकूल भोग, अनुपम रूप-लावण्यवाली स्त्रियाँ तथा और भी बहुत-से भोग जो मनुष्यलोक में दुर्लभ हैं, उसे देने चाहे; परन्तु नचिकेता अपने निश्चय से नहीं टला। वह बोला----

 श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैत्

त्सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः।

अपि सर्वं जीवितमल्पमेव

तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ॥

............(१।१।२६)

हे यमराज! ये भोगकल रहेंगे या नहीं?—इस प्रकार के सन्देह से युक्त हैं अर्थात् अस्थिर हैं और सम्पूर्ण इन्द्रियों के तेज को जीर्ण कर देते हैं। यह सारा जीवन भी स्वल्प ही है। अतः आप के वाहन (हाथी-घोड़े) और नाच-गान आपही के पास रहें, मुझे उनकी आवश्यकता नहीं है।' । नचिकेता के इस आदर्श निष्कामभाव और दृढ़ निश्चय को देखकर यमराज बहुत ही प्रसन्न हुए और उसकी प्रशंसा करते हुए बोले—

 स त्वं प्रियान् प्रियरूपाश्च कामा

नभिध्यायन्नचिकेतोऽत्यस्त्राक्षीः ।

नैता सङ्कको वित्तमयीमवाप्तो

यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः॥

........(१। २। ३)

हे नचिकेता ! तूने प्रिय अर्थात् पुत्र, धन आदि इष्ट पदार्थों को और प्रियरूप-अप्सरा आदि लुभानेवाले भोगों को असार समझकर त्याग दिया और जिसमें अधिकांश मनुष्य डूब (फँस) जाते हैं, उस धनिकों की निन्दित गति को तूने स्वीकार नहीं किया। धन्य है तेरी निष्ठा!'

 न साम्परायः प्रतिभाति बालं

प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।

अयं लोको नास्ति पर इति मानी।

पुनः पुनर्वशमापद्यते मे॥

........(१। २। ६)

जो मूर्ख धनके मोह से अंधे होकर प्रमाद में लगे रहते हैं, उन्हें परलोक का साधन नहीं सूझता। यही लोक है, परलोक नहीं है---ऐसा मानने वाला पुरुष बारम्बार मेरे चंगुल में फँसता है (जन्मता और मरता है) ।

 नैषा तर्केण मतिरापयेना।

प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ।

यां त्वमापः सत्यधृतिर्बतासि

त्वादृङ् नो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा॥

.....(१। २। ९)

'हे प्रियतम! सम्यक् ज्ञान के लिये कोरा तर्क करनेवालों से भिन्न किसी शास्त्रज्ञ आचार्यद्वारा कही हुई यह बुद्धि, जिसको तुमने पाया है, तर्क द्वारा प्राप्त नहीं होती। अहा! तेरी धारणा बड़ी सच्ची है। हे नचिकेता ! हमें तेरे समान जिज्ञासु सदा प्राप्त हों।'

कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठां

क्रतोरनन्त्यमभयस्य पारम्।

स्तोममहदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्ट्वा

धृत्या धीरो नचिकेतोऽत्यस्राक्षीः॥

.........(१। २। ११)

हे नचिकेता ! तूने बुद्धिमान् होकर भोगों की परम अवधि, जगत् की प्रतिष्ठा, यज्ञ का अनन्त फल, अभय की पराकाष्ठा, स्तुत्य और महती गति तथा प्रतिष्ठा को देखकर भी उसे धैर्यपूर्वक त्याग दिया । शाबाश!'

उपर्युक्त वचनों से इस विषय की महत्ता तथा उसे जानने के लिये कितने ऊँचे अधिकार की आवश्यकता है, यह बात द्योतित होती है। | इस प्रकार नचिकेता की कठिन परीक्षा लेकर और उसे उसमें उत्तीर्ण पाकर यमराज उसे आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में उपदेश देते हैं। वे कहते हैं

 न जायते म्रियते वा विपश्चि

न्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् ।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो

न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥

..........(१।२। १८)

{यही मन्त्र कुछ हेर-फेर से गीता में भी आया है (देखिये २।२०)}

 'यह नित्य चिन्मय आत्मा न जन्मता है, न मरता है; यह न तो किसी वस्तु से उत्पन्न हुआ है और न स्वयं ही कुछ बना है (अर्थात् न तो यह किसी का कार्य है, न कारण है, न विकार है, न विकारी है) । यह अजन्मा, नित्य (सदा से वर्तमान, अनादि), शाश्वत (सदा रहनेवाला, अनन्त) और पुरातन है तथा शरीर के विनाश किये जाने पर भी नष्ट नहीं होता।'

 उपर्युक्त वर्णन से आत्मा की अमरता सिद्ध होती है । वे फिर कहते हैं

 हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्‌।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥

            .............(१|२|१९)

 

‘यदि मरनेवाला आत्मा को मारने का विचार करता है और मारा जाने वाला उसे मरा हुआ समझता है तो वे दोनों हे उसे नहीं जानते; क्योंकि यह न तो मारता है और न मारा जाता है |’*

.....................................................

* यही मन्त्र कुछ हेर-फेर से गीता में भी आया है (देखिये २।१९) ।

 

आगे चलकर यमराज उन मनुष्यों की गति बतलाते हैं, जो आत्मा को बिना जाने ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं | वे कहते हैं --

 योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः।

स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्‌ ॥

.......(२|२|७)

 ‘अपने कर्म और ज्ञान के अनुसार कितने ही देहधारी तो शरीर धारण करने के लिए किसी देव,मनुष्य,पशु, पक्षी आदि योनि को प्राप्त होते हैं और कितने ही स्थावरभाव (वृक्षादि योनि)- को प्राप्त होते हैं |’

 ऊपर के मन्त्र से भी पुनर्जन्म की सिद्धि होती है |

 गीता में भी परलोक तथा पुनर्जन्म का प्रतिपादन करने वाले अनेक वचन मिलते हैं | उनमें से कुछ यहाँ उद्धृत किये जाते हैं -----

 न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।

.............(२|१२)

 ‘न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तू नहीं था अथवा ये राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।‘

 देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ।।

.............(२|१३)

  ‘जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन,जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता |’

 

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

............(२|२२)

 “जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।“

 चौथे अध्याय में भगवान् अर्जुन से कहते हैं—

 बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥

.......(गीता ४। ५)

'हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सब को तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ।

शेष आगामी पोस्ट में

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# परलोक



परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 03)


 

 संसार में जो पापों की वृद्धि हो रही है-झूठ, कपट, चोरी, हिंसा, व्यभिचार एवं अनाचार बढ़ रहे हैं, व्यक्तियों की भाँति राष्ट्रों में भी परस्पर द्वेष और कलह की वृद्धि हो रही है, बलवान्, दुर्बलों को सता रहे हैं, लोग नीति और धर्म के मार्ग को छोड़कर अनीति और अधर्म के मार्गपर आरूढ़ हो रहे हैं, लौकिक उन्नति और भौतिक सुख को ही लोगों ने अपना ध्येय बना लिया है और उसी की प्राप्ति के लिये सब लोग यत्नवान् हैं, विलासिता और इन्द्रियलोलुपता बढ़ती जा रही है, भक्ष्याभक्ष्य का विचार उठता जा रहा है, जीभ के स्वाद और शरीर के आराम के लिये दूसरों के कष्ट की तनिक भी परवा नहीं की जाती, मादक द्रव्यों का प्रचार बढ़ रहा है, बेईमानी और घूसखोरी उन्नति पर है,एक-दूसरे के प्रति लोगों का विश्वास कम होता जा रहा है,मुकदमेबाजी बढ़ रही है, अपराधों की संख्या बढ़ती जा रही है, दम्भ और पाखण्ड की वृद्धि हो रही है---इन सब का कारण यही है कि लोगों ने वर्तमान जीवन को ही अपना जीवन मान रखा है; इसके आगे भी कोई जीवन है, इसमें उनका विश्वास नहीं है। इसीलिये वे वर्तमान जीवन को ही सुखी बनाने के प्रयत्न में लगे हुए हैं। जब तक जियो, सुख से जियो; कर्जा लेकर भी अच्छे-अच्छे पदार्थों का उपभोग करो। मरने के बाद क्या होगा, किसने देख रखा है।'*

{* यावज्जीवेत् सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिबेत् । ।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ (चार्वाक)}

 

इसी सर्वनाशकारी मान्यता की ओर आज प्रायः सारा संसार जा रहा है। यही कारण है कि वह सुख के बदले अधिकाधिक दुःख में  ही फंसता जा रहा है। परलोक और पुनर्जन्म को न मानने का यह अवश्यम्भावी फल है। आज हम इसी परलोक और पुनर्जन्म के सिद्धान्त की कुछ चर्चा करते हैं और इस सिद्धान्त को माननेवालों का क्या कर्तव्य है-इसपर भी विचार कर रहे हैं।

जैसा कि हम पहले  कह आये हैं, परलोक और पुनर्जन्म के सिद्धान्त का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्षरूप से हमारे परलोक और पुनर्जन्म सभी शास्त्रों ने समर्थन किया है। वेदों से लेकर आधुनिक दार्शनिक ग्रन्थों तक सभी ने एक स्वर से इस सिद्धान्त की पुष्टि की है। स्मृतियों, पुराणों तथा महाभारतादि इतिहासग्रन्थों में तो इस विषय के इतने प्रमाण भरे हैं कि उन सब को यदि संगृहीत किया जाय तो एक बहुत बड़ी पुस्तक तैयार हो सकती है। इसके लिये न तो अवकाश है और न इसकी उतनी आवश्यकता ही प्रतीत होती है। प्रस्तुत निबन्ध में उपनिषद्, गीता, मनुस्मृति, योगसूत्र आदि कुछ थोड़े-से चुने हुए प्रामाणिक ग्रन्थोंमें  से ही कुछ प्रमाण लेकर इस सिद्धान्त की पुष्टि की जायगी और युक्तियों के द्वारा भी इसे सिद्ध करनेकी चेष्टा की जायगी।

 

शेष आगामी पोस्ट में

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

# क्या है परलोक?

# लोक परलोक

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सोमवार, 6 फ़रवरी 2023

परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 02)

 

आज संसार में, विशेषकर पाश्चात्य देशों में आत्महत्याओं की संख्या जो दिनोंदिन बढ़ रही हैआये दिन लोगों के जीवन से निराश होकर अथवा असफलता से दुःखी होकर, अपमान एवं अपकीर्ति से बचने के लिये अथवा इच्छा की पूर्ति न होने के  दुःख से डूबकर, फाँसी लगाकर, जलकर, विषपान करके अथवा गोली खाकर प्राणत्याग करने की बातें पढ़ीसुनी और देखी जाती हैं---उसका एकमात्र प्रधान कारण आत्मा की अमरता में तथा परलोक में अविश्वास है। यदि हमें यह निश्चय हो जाय कि हमारा जीवन इस शरीर तक ही सीमित नहीं है, इसके पहले भी हम थे और इसके बाद भी हम रहेंगे, इस शरीर का अन्त कर देने से हमारे कष्टों का अन्त नहीं हो जायगा, बल्कि इस शरीर के भोगों को भोगे बिना ही प्राणत्याग कर देने से तथा आत्महत्यारूप नया घोर पाप करने से हमारा भविष्य जीवन और भी अधिक कष्टमय होगा तो हम कभी आत्महत्या करने का साहस नहीं करेंगे। अत्यन्त खेद का विषय है कि पाश्चात्य जडवादी सभ्यता के सम्पर्क में आने से यह पाप हमारे आधुनिक परलोक और पुनर्जन्म शिक्षाप्राप्त नवयुवकों में भी घर कर रहा है और आजकल ऐसी बातें हमारे देशमें भी देखी-सुनी जाने लगी हैं। हमारे शास्त्रों ने आत्महत्या को बहुत बड़ा पाप माना है और उसका फल सूकर, कूकर आदि अन्धकारमय योनियोंकी प्राप्ति बतलाया है।

 

श्रुति कहती है:-

 

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः।

तास्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्मनो जनाः ॥

.....................(ईशोपनिषद् ३)

 

अर्थात् वे असुर-सम्बन्धी लोक [अथवा आसुरी योनियाँ] आत्मा के अदर्शनरूप अज्ञान से आच्छादित हैं। जो कोई भी आत्मा का हनन करनेवाले लोग हैं, वे मरने के अनन्तर उन्हीं में जाते हैं।

 

 शेष आगामी पोस्ट में

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...