शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023

देवता कौन ?.... (पोस्ट 11)


प्रश्न‒भक्तों के सामने भगवान् किस रूपसे आते हैं ?

उत्तर‒सामान्य भक्त (आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी आदि) के सामने भगवान् देवरूपसे आते हैं और विशेष भक्ति- (अनन्यभाव-) वाले भक्त के सामने भगवान् सच्चिदानन्दमय (महाविष्णु आदि) रूप से आते हैं । परंतु भक्त उन दोनों रूपोंको अलग-अलग नहीं जान सकता । यदि भगवान् जना दें, तभी वह जान सकता है ।

वास्तव में देखा जाय तो दोनों रूपों में तत्त्वसे कोई भेद नहीं है, केवल अधिकार में भेद है । भगवान् देवरूप में सीमित शक्ति से प्रकट होते हैं और सच्चिदानन्दमयरूप में असीम शक्तिसे ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


गुरुवार, 27 अप्रैल 2023

श्रीराम जय राम जय जय राम !

“जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं॥
जासु नाम बल संकर कासी। देत सबहि सम गति अबिनासी॥“

( मुनिगण जन्म-जन्म में अनेकों प्रकार का साधन करते रहते हैं। फिर भी अंतकाल में उनके मुख से राम नाम नहीं निकलता, जिनके नाम के बल से शंकरजी काशी में सबको समान रूप से अविनाशिनी गति (मुक्ति) देते हैं)


तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 03


अब ‘परमात्मज्ञान’ का वर्णन किया जाता है । सृष्टिमात्रमें ‘है’ के समान कोई सार चीज है ही नहीं । लोक-परलोक, चौदह भुवन, सात द्वीप, नौ खण्ड आदि जो कुछ है, उसमें सत्ता (‘है’) एक ही है । यह सब संसार प्रतिक्षण बदलता है, इतनी तेजीसे बदलता है कि इसको दो बार नहीं देख सकते । जैसे, नया मकान कई वर्षोंके बाद पुराना हो जाता है तो वह प्रतिक्षण बदलता है, तभी पुराना होता है । इस प्रतिक्षण बदलनेको ही भूत-भविष्य-वर्तमान, उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय, सत्य-त्रेता-द्वापर-कलियुग आदि नामोंसे कहते हैं । प्रतिक्षण बदलनेपर भी यह हमें ‘है’-रूपसे इसलिये दीखता है कि हमने इस बदलनेवालेके ऊपर ‘है’ (परमात्मतत्त्व) का आरोप कर लिया कि ‘यह है’ । वास्तवमें यह है नहीं, प्रत्युत ‘है’ में ही यह सब है । यह तो निरन्तर बदलता है, पर ‘है’ ज्यों-का-त्यों रहता है । ‘है’ जितना प्रत्यक्ष है, उतना यह संसार प्रत्यक्ष नहीं है । जो निरन्तर बदलता है, वह प्रत्यक्ष कहाँ है ? ‘है’ इतना प्रत्यक्ष है कि यह कभी बदला नहीं, कभी बदलेगा नहीं, कभी बदल सकता नहीं, बदलनेकी कभी सम्भावना ही नहीं । इसलिये गीतामें आया है‒

“नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।“
.................(२ । १६)

‘असत्‌का भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है ।’

तात्पर्य है कि जो निरन्तर बदलता है, उसका भाव कभी नहीं हो सकता और जो कभी नहीं बदलता, उसका अभाव कभी नहीं हो सकता । ‘नहीं’ कभी ‘है’ नहीं हो सकता और ‘है’ कभी ‘नहीं’ नहीं हो सकता । असत् कभी विद्यमान नहीं है और ‘है' सदा विद्यमान है । जिसका अभाव है, उसीका त्याग करना है और जिसका भाव है, उसीको प्राप्त करना है‒इसके सिवाय और क्या बात हो सकती है ! ‘है’ को स्वीकार करना है और ‘नहीं’ को अस्वीकार करना है‒यही वेदान्त है, वेदोंका खास निष्कर्ष है ।

जो सत्ता (‘है’) है, वह ‘सत्’ है, उसका जो ज्ञान है, वह ‘चित्’ (चेतन) है तथा उसमें जो दुःख, सन्ताप, विक्षेपका अत्यन्त अभाव है, वह ‘आनन्द’ है । सत्‌के साथ ज्ञान और ज्ञानके साथ आनन्द स्वतः भरा हुआ है । ज्ञानके बिना सत् जड है और सत्‌के बिना ज्ञान शून्य है । किसी भी बातका ज्ञान होते ही एक प्रसन्नता होती है‒यह ज्ञानके साथ आनन्द है । परमात्मतत्त्व सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है । वह सच्चिदानन्द परमात्मतत्त्व ‘है’-रूपसे सब जगह ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


देवता कौन ?....(पोस्ट 10)


 मनु और शतरूपा तप कर रहे थे तो ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा,विष्णु और महेश कई बार उनके पास आये, पर उन्होंने अपना तप नहीं छोड़ा । अन्त में जब परब्रह्म परमात्मा उनके पास आये, तब उन्होंने अपना तप छोड़ा और उनसे वरदान माँगा ।

वास्तव में भगवान्‌ का सच्चिदानन्दमयरूप और देवरूप-दोनों एक ही हैं । मनु-शतरूपा भगवान्‌के सच्चिदानन्दमयरूप (महाविष्णु) को देखना चाहते थे,इसलिये भगवान् उनके सामने उसी रूपसे आये, अन्यथा ब्रह्माण्डके विष्णु तथा महाविष्णु में कोई भेद नहीं है । अवतार के समय भी भगवान् सब को सच्चिदानन्दमयरूप से अर्थात् भगवत्स्वरूपसे नहीं दीखते‒‘नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः’ (गीता ७ । २५) । अर्जुन को भगवान् जैसे दीखते थे, वैसे दुर्योधन को नहीं दीखते थे । परशुराम को भगवान् राम पहले राजकुमारके रूपमें दीखते थे, पीछे भगवत्स्वरूप से दीखने लगे ! तात्पर्य है कि भगवान् एक होते हुए भी दूसरे के भाव के अनुसार अलग-अलग रूप से प्रकट होते हैं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


बुधवार, 26 अप्रैल 2023

तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 02



पुस्तकों की पढ़ाई करनेका, शास्त्रोंकी बातें सीखने का उद्देश्य न हो, प्रत्युत केवल तत्त्व को समझनेका उद्देश्य हो तो हम श्रुति विप्रतिपत्तिसे तर गये ! तात्पर्य है कि हमें न तो मोहकी मुख्यता रखनी है और न शास्त्रीय मतभेदकी मुख्यता रखनी है । किसी मत, सम्प्रदाय का भी कोई आग्रह नहीं रखना है [*] । इतना हो जाय तो हम योगके, तत्त्वज्ञानके अधिकारी हो गये ! इससे अधिक किसी अधिकार-विशेषकी जरूरत नहीं है । अब इस बातपर विचार करना है कि तत्त्वज्ञान क्या है ?

तत्त्वज्ञान सबसे सरल है, सबसे सुगम है और सबके प्रत्यक्ष अनुभवकी बात है । तात्पर्य है कि इसको करनेमें, समझनेमें और पानेमें कोई कठिनता है ही नहीं । इसमें करना, समझना और पाना लागू होता ही नहीं । कारण कि यह नित्यप्राप्त है और जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति आदि सम्पूर्ण अवस्थाओंमें सदा ज्यों-का-त्यों मौजूद है । तत्त्वज्ञान जितना प्रत्यक्ष है, उतना प्रत्यक्ष यह संसार कभी नहीं है । तात्पर्य है कि हमारे अनुभवमें तत्त्वज्ञान जितना स्पष्ट आता है, उतना स्पष्ट संसार नहीं आता । इस बातको इस प्रकार समझना चाहिये । जीव अनेक योनियोंमें जाता है । वह कभी मनुष्य बनता है, कभी पशु-पक्षी बनता है, कभी देवता बनता है, कभी राक्षस बनता है, कभी असुर बनता है, कभी भूत-प्रेत-पिशाच बनता है तो शरीर वही नहीं रहता, पर जीव स्वयं सत्तारूपसे वही रहता है । स्वभाव वही नहीं रहा, आदत वही नहीं रही, भाषा वही नहीं रही, व्यवहार वही नहीं रहा, लोक (स्थान) वही नहीं रहा, समय वही नहीं रहा; सब कुछ बदल गया, पर स्वयंकी सत्ता नहीं बदली । अगर सत्ता वही नहीं रहेगी तो तरह-तरहके नाम तथा रूप कौन धारण करेगा ? इसलिये गीतामें आया है‒

“भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।“
...........(८ । १९)

‘वही यह प्राणिसमुदाय उत्पन्न हो-होकर लीन होता है ।’ जो उत्पन्न हो-होकर लीन होता है, वह शरीर है और जो वही रहता है, वह जीवका असली स्वरूप अर्थात् चिन्मय सत्ता (होनापन) है । यह ‘आत्मज्ञान’ का वर्णन हुआ ।

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[*] नारायण अरु नगरके, रज्जब राह अनेक ।
भावे आवो किधर से, आगे अस्थल एक ॥
पहुँचे पहुँचे एक मत, अनपहुँचे मत और ।
संतदास घड़ी अरठ की, ढुरे एक ही ठौर ॥
जब लगि काची खीचड़ी, तब लगि खदबद होय ।
संतदास सीज्यां पछे, खदबद करै न कोय ॥

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


देवता कौन ?....(पोस्ट 09)


प्रश्न‒भगवान्‌ के दर्शन करने पर भी देवता मुक्त क्यों नहीं होते ?

उत्तर‒मुक्ति भाव के अधीन है, क्रिया के अधीन नहीं । देवता केवल भोग भोगने के लिये ही स्वर्गादि लोकों में गये हैं । अतः भोगपरायणता के कारण उनमें मुक्ति की इच्छा नहीं होती । इसके सिवा देवलोक में मुक्ति का अधिकार भी नहीं है ।

भगवान्‌के दो रूप होते हैं‒सच्चिदानन्दमयरूप और देवरूप । प्रत्येक ब्रह्माण्ड के जो अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और महेश होते हैं, वह भगवान्‌ का देवरूप है और जो सबका मालिक, सर्वोपरि परब्रह्म परमात्मा है, वह भगवान्‌का सच्चिदानन्दमयरूप है । इस सच्चिदानन्दमय-रूपको ही शास्त्रोंमें महाविष्णु आदि नामोंसे कहा गया है । भगवान्‌ को भक्ति के वश में होकर भक्तों के सामने तो सच्चिदानन्दमयरूप से प्रकट होना पड़ता है, पर देवताओं के सामने वे देवरूप से ही प्रकट होते हैं । कारण कि देवता केवल अपनी रक्षा के लिये ही भगवान्‌ को पुकारते हैं, मुक्त होने के लिये नहीं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


मंगलवार, 25 अप्रैल 2023

तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 01


तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिमें दो मुख्य बाधाएँ हैं :‒  मोह और शास्त्रीय मतभेद ।

गीतामें आया है‒

“यदा  ते  मोहकलिलं    बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं   श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला  बुद्धिस्तदा  योगमवाप्स्यसि ॥“
                                            ..................(गीता २ । ५२-५३)

‘जिस समय तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको तर जायगी, उसी समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले भोगोंसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा ।’
‘जिस कालमें शास्त्रीय मतभेदोंसे विचलित हुई तेरी बुद्धि निश्चल हो जायगी और परमात्मामें अचल हो जायगी, उस कालमें तू योगको प्राप्त हो जायगा ।’
अज्ञान, अविवेकको ‘मोह’ कहते हैं । अविवेकका अर्थ विवेकका अभाव नहीं है, प्रत्युत विवेकका अनादर है । अतः विवेकका आदर नहीं करना, उसको महत्व नहीं देना, उसकी तरफ खयाल नहीं करना ‘अविवेक’ है । विवेक स्वतःसिद्ध है । विवेकज्ञान साधन है और तत्त्वज्ञान साध्य है । जैसे साध्यरूप तत्त्वज्ञान स्वतःसिद्ध है, ऐसे ही साधनरूप विवेकज्ञान भी स्वतःसिद्ध है ।

अज्ञानका चिह्न ‘राग’ हैं‒‘रागो लिङ्गमबोधस्य चित्तव्यायामभूमिषु ।’ शरीर, धन-सम्पत्ति, परिवार, मान-बड़ाई आदि किसीमें भी राग होना अज्ञानका, मोहका लक्षण है । जितना राग है, उतना ही मोह है, उतना ही अज्ञान है, उतनी ही मूढ़ता है, उतनी ही गलती है, उतनी ही बाधा है । इस रागके ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि अनेक रूप हैं ।

दूसरी बाधा है‒श्रुतिविप्रतिपत्ति अर्थात् शास्त्रीय मतभेद । कोई कहते हैं कि अद्वैत है, कोई कहते हैं कि द्वैत है, कोई कहते हैं कि विशिष्टाद्वैत है, कोई कहते हैं कि शुद्धाद्वैत है, कोई कहते हैं कि द्वैताद्वैत है कोई कहते हैं कि अचिन्त्यभेदाभेद है‒इस प्रकार अनेक मतभेद हैं । इन मतभेदोंके कारण साधककी बुद्धि भ्रमित हो जाती है और उसके लिये यह निश्चय करना बड़ा कठिन हो जाता है कि कौन-सा मत ठीक है, कौन-सा बेठीक है !

‒इस प्रकार मोह और शास्त्रीय मतभेद अर्थात् सांसारिक मोह और शास्त्रीय मोह‒दोनों से तरने पर ही तत्त्वज्ञान का, नित्ययोग का अनुभव होता है । केवल अपने कल्याण का उद्देश्य हो और रुपये-पैसे, कुटुम्ब-परिवार आदिसे कोई स्वार्थका सम्बन्ध न हो तो हम मोहरूपी दलदल से तर गये ! 

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


देवता कौन ?....(पोस्ट 08)


प्रश्न‒ मनुष्य स्वर्ग पाने की और देवता मर्त्यलोक में मनुष्यजन्म पानेकी अभिलाषा क्यों करते हैं ?

उत्तर‒मनुष्य सुख-भोग के लिये ही स्वर्गलोक की इच्छा करते हैं । मनुष्य-शरीर से सब अधिकार प्राप्त होते हैं । मोक्ष, स्वर्ग आदि भी मनुष्य-शरीर से ही प्राप्त होते हैं । देवता भोगयोनि हैं । वे नया कर्म नहीं कर सकते । अतः वे नया कर्म करके ऊँचा उठने के लिये मर्त्यलोक में मनुष्यजन्म चाहते हैं । जैसे राजस्थान के लोग धन कमाने के लिये दूसरे नगरों में तथा विदेश में जाते हैं, ऐसे ही देवता ऊँचा पद प्राप्त करने के लिये मृत्युलोक में आना चाहते हैं ।

प्रश्न‒मनुष्यजन्म देवताओं को भी दुर्लभ क्यों है ?

उत्तर‒मनुष्य शरीर में नये कर्म करने का, नयी उन्नति करने का अधिकार है । इसमें मुक्ति, ज्ञान, वैराग्य, भक्ति आदि सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है । परंतु देवता भोगपरायण रहते हैं और केवल पुण्यकर्मों का फल भोगते हैं । उनको नये कर्म करने का अधिकार नहीं है । अतः मनुष्य शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


सोमवार, 24 अप्रैल 2023

देवता कौन ?....(पोस्ट 07)



 प्रश्न‒देवता और भगवान्‌ के शरीर में क्या अन्तर है ?

उत्तर‒देवताओं का शरीर भौतिक और भगवान्‌ का अवतारी शरीर चिन्मय होता है । भगवान्‌ का शरीर सत्-चित्-आनन्दमय, नित्य रहनेवाला, अलौकिक और अत्यन्त दिव्य होता है । अतः देवता भी भगवान्‌ को देखने के लिये लालायित रहते हैं ( गीता ११ । ५२) ।

प्रश्न‒देवलोक और भगवान्‌ के लोक में क्या अन्तर है ?

उत्तर‒देवलोक क्षय होनेवाला, अवधि वाला और कर्म-साध्य है । परन्तु भगवान्‌ का लोक (धाम) अक्षय,अवधिरहित और भगवत्कृपासाध्य है ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


रविवार, 23 अप्रैल 2023

देवता कौन ?.... (पोस्ट 06)



प्रश्न‒देवताओं को कौन-से रोग होते हैं, जिनका इलाज अश्विनीकुमार करते हैं ?

उत्तर‒हमारे शरीर में जैसे रोग (व्याधि) होते हैं, वैसे रोग देवताओं को नहीं होते । देवताओं को चिन्ता, भय, ईर्ष्या,जलन आदि मानसिक रोग (आधि) होते हैं और उन्हीं का इलाज अश्विनीकुमार करते हैं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...