रविवार, 4 जून 2023

श्रीमद्भागवत की महिमा (पोस्ट.०२) _{मदनमोहन मालवीय}

|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

ईश्वर का ज्ञान और उनमें भक्ति का परम साधन – ये दो पदार्थ किसी प्राणी को प्राप्त हो गए तो कौन- सा पदार्थ रह गया, जिसके लिए मनुष्य कामना करे और ये दोनों पदार्थ श्रीमद्भागवत से पूरी मात्रा में प्राप्त होते हैं | इसीलिए यह ग्रन्थ मनुष्यमात्र का उपकारी है | जब तक मनुष्य भागवत को पढ़े नहीं और उसकी इसमें श्रद्धा न हो, तब  तक वह समझ नहीं सकता कि ज्ञान-भक्ति-वैराग्य का यह कितना विशाल समुद्र है | भागवत के पढ़ने से उसको यह विमल ज्ञान हो जाता है कि एक ही परमात्मा  प्राणी-प्राणी में बैठा हुआ है और जब उसको यह ज्ञान हो जाता है, तब वह अधर्म करने का मन नहीं करता; क्योंकि दूसरों को चोट पहुंचाना अपने को चोट पहुंचाने के समान हो जाता है | इसका ज्ञान हो जाने से मनुष्य सत्य धर्म में स्थिर हो जाता है, स्वभाव ही से दया-धर्म का पालन करने लगता है और किसी अहिंसक प्राणी के ऊपर वार करने की इच्छा नहीं करता | मनुष्यों में परस्पर प्रेम और प्राणिमात्र के प्रति दया का भाव स्थापित करने के लिए इससे बढ़कर कोई साधन नहीं |

वर्तमान समय में,जब संसार के बहुत अधिक भागों में भयंकर युद्ध छिड़ा हुआ है, मनुष्यमात्र को इस  पवित्र धर्म का उपदेश अत्यन्त कल्याणकारी  होगा | जो  भगवद्भक्त हैं  और श्रीमद्भागवत के महत्त्व को जानते हैं, उनका यह कर्त्तव्य है कि मनुष्य के लोक और परलोक दोनों के बनाने वाले इस पवित्र ग्रन्थ का सब देशों की भाषाओं में अनुवाद कर इसका प्रचार करें |

|| ॐ तत्सत् ||


शनिवार, 3 जून 2023

श्रीमद्भागवत की महिमा (पोस्ट.०१) __{मदनमोहन मालवीय}

|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||


श्रीमद्भागवत की महिमा मैं क्या लिखूं ? उसके आदि के तीन श्लोकों में जो महिमा कह दी गयी है, उसके बराबर कौन कह सकता है ? उन तीनों श्लोकों को कितनी ही बार पढ़ चुकने पर भी जब उनका स्मरण होता है, मन में अद्भुत भाव उदित होते हैं | कोई अनुवाद उन श्लोकों की गंभीरता और मधुरता को पा नहीं सकता | उन तीनों श्लोकों से मन को निर्मल करके फिर इस प्रकार भगवान् का ध्यान कीजिये—

ध्यायतश्चरणाम्भोजं भावनिर्जितचेतसा |
औत्कण्ठ्याश्रुकलाक्षस्य हृद्यासीन्मे शनैर्हरिः||
प्रेमातिभरनिर्भिन्न पुलकाङ्गोऽतिनिर्वृतः |
आनन्दसम्प्लवे लीनो नापश्यमुभयं मुने ||
रूपं भगवतो यत्तन्मनःकान्तं शुचापहम् |
अपश्यन्सहसोत्तस्थे वैक्लव्याद्दुर्मना इव ||

मुझको श्रीमद्भागवत से अत्यंत प्रेम है | मेरा विश्वास और अनुभव है कि इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य को ईश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त हो जाता है और उनके चरणकमलों में अचल भक्ति होती है | इसके पढ़ने से मनुष्य दृढनिश्चय होजाता है कि इस संसार को रचने और पालन करने वाली कोई सर्वव्यापक शक्ति है –

एक अनन्त त्रिकाल सच, चेतन शक्ति दिखात |
सिरजत,पालत, हरत, जग,महिमा बरनी न जात ||

इसी एक शक्ति को लोग ईश्वर, ब्रह्म, परमात्मा आदि अनेक नामों से पुकारते हैं | भागवत के पहले ही श्लोक में वेदव्यास जी ने ईश्वर के स्वरूप का वर्णन किया है कि जिससे इस संसार की सृष्टि, पालन और संहार होते हैं, जो त्रिकाल सत्य है---अर्थात् जो सदा रहा भी, है भी और रहेगा भी –और जो अपने प्रकाश से अन्धकार को सदा दूर रखता है, उस परम सत्य का हम ध्यान करते हैं | उसी स्थान में श्रीमद्भागवत का स्वरूप भी इस प्रकार से संक्षेप में वर्णित है कि इस भागवत में—जो दूसरों की बढती देखकर डाह नहीं करते, ऐसे साधुजनों का सब प्रकार के स्वार्थ से रहित परम धर्म और वह जानने के योग्य ज्ञान वर्णित है जो वास्तव में सब कल्याण का देने वाला और आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक—इन तीनों प्रकार के तापों को मिटाने वाला है | और ग्रंथों से क्या, जिन सुकृतियों ने पुण्य के कर्म कर रखे हैं और जो श्रद्धा से भागवत को पढते या सुनते हैं वे इसका सेवन करने के समय से ही अपनी भक्ति से ईश्वर को अपने हृदय में अविचलरूप से स्थापित कर लेते हैं |

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवत महापुराण–विशिष्ट संस्करण(कोड १५३५) से


चतु: श्लोकी भागवत

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

अहमेवासमेवाऽग्रे नान्यद् यत्सदसत्परम् ।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥ १ ॥
ऋतेऽर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।
तद्विद्याद् आत्मनो मायां यथाभासो यथा तमः ॥ २ ॥
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।
प्रविष्टानि अप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ॥ ३ ॥
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः ।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात् सर्वत्र सर्वदा ॥ ४ ॥

सृष्टिके पूर्व केवल मैं-ही-मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनोंका कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और इस सृष्टिके रूपमें जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ ॥ १ ॥ वास्तवमें न होनेपर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मामें दो चन्द्रमाओंकी तरह मिथ्या ही प्रतीत हो रही है, अथवा विद्यमान होनेपर भी आकाश-मण्डलके नक्षत्रोंमें राहुकी भाँति जो मेरी प्रतीति नहीं होती, इसे मेरी माया समझना चाहिये ॥ २ ॥ जैसे प्राणियोंके पञ्चभूतरचित छोटे-बड़े शरीरोंमें आकाशादि पञ्चमहाभूत उन शरीरोंके कार्यरूपसे निर्मित होनेके कारण प्रवेश करते भी हैं और पहलेसे ही उन स्थानों और रूपोंमें कारणरूपसे विद्यमान रहनेके कारण प्रवेश नहीं भी करते, वैसे ही उन प्राणियोंके शरीरकी दृष्टिसे मैं उनमें आत्माके रूपसे प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टिसे अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होनेके कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ ॥ ३ ॥ यह ब्रह्म नहीं, यह ब्रह्म नहीं—इस प्रकार निषेधकी पद्धतिसे, और यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म है—इस अन्वयकी पद्धतिसे यही सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान्‌ ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित हैं, वही वास्तविक तत्त्व हैं। जो आत्मा अथवा परमात्मा का तत्त्व जानना चाहते हैं, उन्हें केवल इतना ही जाननेकी आवश्यकता है||४|| 

............(श्रीमद्भा०२|९|३२-३५)


शुक्रवार, 2 जून 2023

ठगो मत, चाहे ठगे जाओ !

||जय श्री हरि ||

ठगो मत,चाहे ठगे जाओ; क्योंकि संसार में हमेशा नहीं रहना है, जाना अवश्य है और साथ कुछ नहीं जाएगा –यह भी निश्चित है | यदि किसी को ठग लोगे तो ठगी हुई वस्तु तो नष्ट हो जायेगी या यहीं पडी रह जायेगी; पर उसका पाप तुम्हारे साथ जाएगा और उसका फल भोगना ही पड़ेगा | यदि तुमको कोई ठगले तो तुम्हारा भाग्य तो वह नहीं ले जाएगा—विचार करलो कि उसी के भाग्य की चीज थी, धोखे से तुम्हारे पास आ गयी थी, अब ठीक अपनी जगह पहुँच गयी या ऐसा सोच लो कि किसी समय का पिछला ऋण उसका तुम्हारे ऊपर था सो अब चुक गया | इस विचार से ठगाने में ज्यादा हानि नहीं, ठगने में ही ज्यादा है !!

......(कल्याण-- नीतिसार अंक)


बुधवार, 31 मई 2023

।। श्रीहरि :।।

सच्चिदानंदरूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः।।

प्रलयपयोधि में मार्कण्डेयजी को भगवद्विग्रह का दर्शन 

महामुनि मार्कण्डेय जी की अनन्य भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् नारायण ने उनसे वर माँगने को कहा | मुनि ने कहा- हे प्रभो !  आपने कृपा करके अपने मनोहर रूप का दर्शन कराया है, फिर भी आपकी आज्ञा के अनुसार मैं आपकी माया का दर्शन करना चाहता हूँ | तब ‘तथास्तु’ कहकर भगवान् बदरीवन को चले गए | एक दिन मार्कण्डेयजी पुष्पभद्रा नदी के तट पर भगवान् की उपासना में तन्मय थे | उसी समय एकाएक उनके समक्ष प्रलयकाल का दृश्य उपस्थित हो गया | भगवान् की माया के प्रभाव से उस प्रलयकालीन समुद्र में भटकते-भटकते उन्हें करोड़ों वर्ष बीत गए और –--

“एकार्णव की उस अगाध जलराशि-बीच वटबृक्ष विशाल ,
दीख पडा उसकी शाखा पर बिछा पलंग एक तत्काल |
उसपर रहा विराज एक था कमलनेत्र एक सुन्दर बाल,
देख प्रफुल्ल कमल-मुख मुनि मार्कण्डेय हो गए चकित निहाल ||
...............(पदरत्नाकर)

---अकस्मात् एक दिन उन्हें उस प्रलय-पयोधि के मध्य एक विशाल वटवृक्ष दिखाई पडा | उस वटवृक्ष की एक शाखा पर एक सुन्दर-सा पलंग बिछा हुआ था | उस पलंग पर कमल-जैसे नेत्र वाला एक सुन्दर बालक विराज रहा था | उसके प्रफुल्लित कमल-जैसे मुख को देखकर मार्कण्डेय मुनि विस्मित तथा  सफल-मनोरथ हो गए |

---{कल्याण वर्ष ९०,सं०६..जून,२०१६}


सोमवार, 15 मई 2023

जय भोलेनाथ

शिव पञ्चाक्षर स्तोत्रम्

नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय । 
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै ‘न’काराय नमः शिवाय ॥१॥ 
मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय । 
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय तस्मै ‘म’काराय नमः शिवाय ॥२॥ 
शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्दसूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय ।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै ‘शि’काराय नमः शिवाय ॥३॥ 
वसिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्य मुनीन्द्रदेवार्चितशेखराय ।
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय तस्मै ‘व’काराय नमः शिवाय ॥४॥ 
यक्षस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय ।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै ‘य’काराय नमः शिवाय ॥५॥
पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसन्निधौ । 
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥६॥

भावार्थ: जिनके कंठ में साँपों का हार है,जिनके तीन नेत्र हैं, भस्म ही जिनका अंगराग(अनुलेपन) है;दिशाएँ ही जिनका वस्त्र है [अर्थात् जो नग्न हैं] , उन शुद्ध अविनाशी महेश्वर ‘न’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है || गंगाजल और चन्दन से जिनकी अर्चना हुई है, मंदार पुष्प तथा अन्यान्य कुसुमों से जिनकी सुन्दर पूजा हुई है, उन नंदी के अधिपति प्रथमगणों के स्वामी महेश्वर ‘म’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है || जो कल्याणस्वरूप हैं, पार्वती के मुखकमल को विकसित(प्रसन्न) करने के लिए जो सूर्यस्वरूप हैं,जो दक्ष के यज्ञ का नाश करने वाले हैं.जिनकी ध्वजा में बैल का चिन्ह है, उन शोभाशाली नीलकंठ ‘शि’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है || वसिष्ठ,अगस्त्य,और गौतम आदि श्रेष्ठ मुनियों ने तथा इन्द्रादि देवताओं ने जिनके मस्तक की पूजा की है, चन्द्रमा,सूर्य और अग्नि जिनके नेत्र हैं, उन ‘व’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है || जिन्होंने यक्षरूप धारण किया है, जो जटाधारी हैं, जिनके हाथ में पिनाक है. जो दिव्य सनातनपुरुष हैं,उन दिगंबर देव ‘य’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है || जो शिव के समीप इस शिवपञ्चाक्षर- स्तोत्र का पाठ करता है, वह शिवलोक को प्राप्त करता है और वहाँ शिवजी के साथ आनंदित होता है ||

----गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “शिवस्तोत्ररत्नाकर” (कोड 1417) से


जय जय अम्बे !

मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु॥

महादेवि ! मेरे समान कोई पातकी नहीं है और तुम्हारे समान दूसरी कोई पापहारिणी नहीं है ; ऐसा जानकर जो उचित जान पड़े , वह करो ॥


शुक्रवार, 12 मई 2023

# श्रीहरि: #

“ नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये न च | 
मद्भक्ता यत्र गायंति तत्र तिष्ठामि नारद ||”          ........( पद्मपुराण उ. १४/२३)

                                                                                                                                                                                           

 (  हे नारद ! मैं न तो बैकुंठ में ही रहता हूँ और न योगियों के हृदय में ही रहता हूँ । मैं तो वहीं रहता हूँ, जहाँ प्रेमाकुल होकर मेरे भक्त मेरे नाम का कीर्तन किया करते हैं  ।  मैं सर्वदा लोगों के अन्तःकरण में विद्यमान रहता हूं  )  | 

श्रद्धापूर्वक की गई प्रार्थना ही स्वीकार होती है । अतः भावना जितनी सच्ची, गहरी और पूर्ण होगी, उतना ही उसका सत्परिणाम होगा |


सोमवार, 8 मई 2023

जय श्री राम

यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनं,
तत्र तत्र कृतमस्तकांजलिम् |
वाष्पवारिपरिपूर्णलोचनं,
मारुतिम् नमत राक्षसान्तकम् ||

( जहां भगवान श्रीराम (रघुनाथ ) की स्तुति या संकीर्तन होता है, वहां राक्षसों का संहार करनेवाले श्री हनुमान, शरणागत मस्तक, श्रीराम के सम्मुख अपने हस्त कमल को जोड़कर और नेत्रोंमें भावपूर्ण आनंद के अश्रुओं के साथ उपस्थित रहते हैं , ऐसे श्रीहनुमान जी को हमारा बारम्बार प्रणाम !!!!)


गुरुवार, 4 मई 2023

ज्ञान योग ....... तत्त्वज्ञान का सहज उपाय ….पोस्ट 03


एक प्रकाश्य (संसार) है और एक प्रकाशक (परमात्मा) है अथवा एक ‘यह’ है और एक उसका आधार, प्रकाशक, अधिष्ठान ‘सत्ता’ है । अहम् न तो प्रकाश्य (‘यह’) में है और न प्रकाशक (सत्ता) में ही है, प्रत्युत केवल माना हुआ है । जिसमें संसार (‘यह’) की इच्छा भी है और परमात्मा (सत्ता) की इच्छा भी है, उसका नाम ‘अहम्’ है और वही ‘जीव’ है । तात्पर्य है कि जड के सम्बन्ध से संसार की इच्छा अर्थात् ‘भोगेच्छा’ है और चेतन के सम्बन्धसे परमात्मा की इच्छा अर्थात् ‘जिज्ञासा’ है । अतः अहम् (जड-चेतनकी ग्रंथि) में जड-अंश की प्रधानता से हम परमात्मा को चाहते है * । माने हुए अहम् का नाश होनेपर भोगेच्छा मिट जाती है और जिज्ञासा पूरी हो जाती है अर्थात् तत्व रह जाता है । वास्तवमें परमात्माकी इच्छा भी संसारकी इच्छाके कारण ही है । संसारकी इच्छा न हो तो तत्वज्ञान स्वतःसिद्ध है ।
साधनकी ऊँची अवस्थामें ‘मेरेको तत्वज्ञान हो जाय, मैं मुक्त हो जाऊँ’—यह इच्छा भी बाधक होती है । जब तक अंतःकरणमें असत् की सत्ता दृढ़ रहती है, तब तक तो जिज्ञासा सहायक होती है, पर असत् की सत्ता शिथिल होने पर जिज्ञासा भी तत्वज्ञान में बाधक होती है । कारण कि जैसे प्यास जलसे दूरी सिद्ध करती है, ऐसे ही जिज्ञासा तत्वसे दूरी सिद्ध करती है, जब कि तत्व वास्तवमें दूर नहीं है, प्रत्युत नित्यप्राप्त है । दूसरी बात, तत्वज्ञानकी इच्छासे व्यक्तित्व (अहम्) दृढ़ होता है, जो तत्वज्ञानमें बाधक है । वास्तवमें तत्वज्ञान, मुक्ति स्वतःसिद्ध है । तत्वज्ञानकी इच्छा करके हम अज्ञानको सत्ता देते है, अपनेमें अज्ञानकी मान्यता करते है, जब कि वास्तवमें अज्ञानकी सत्ता है नहीं । इसलिए तत्वज्ञान होनेपर फिर मोह नहीं होता —‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’ (गीता ४/३५); क्योंकि वास्तवमें मोह है ही नहीं । मिटता वही है, जो नहीं होता और मिलता वही है, जो होता है ।
साधकको स्वतःस्वाभाविक एकमात्र ‘है’ (सत्ता) का अनुभव हो जाय —इसीका नाम जीवन्मुक्ति है, तत्वबोध है । कारण कि अन्तमें सबका निषेध होनेपर एक ‘है’ ही शेष रह जाता है । वह ‘है’ अपेक्षावाले ‘नहीं’ और ‘है’ —दोनोंसे रहित है अर्थात् उस सत्तामें ‘नहीं’ भी नहीं है और ‘है’ भी नहीं है । वह सत्ता ज्ञानस्वरूप है, चिन्मयमात्र है । वह सत्ता नित्य जाग्रत् रहती है । सुषुप्तिमें अहंसहित सब करण लीन हो जाते है, पर अपनी सत्ता लीन नहीं होती—यह सत्ताकी नित्यजागृति है । वह सत्ता कभी पुरानी नहीं होती, प्रत्युत नित्य नयी ही बनी रहती है; क्योंकि उसमें काल नहीं है । उस सत्तामात्रका ज्ञान होना ही तत्वज्ञान है और सत्तामें कुछ भी मिलाना अज्ञान है ।

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* मैं सदा जीता रहूँ, कभी मरुँ नहीं—यह ‘सत्’ की इच्छा है; मैं सब कुछ जान लूँ, कभी अज्ञानी न रहूँ—यह ‘चित्’ की इच्छा है और मैं सदा सुखी रहूँ, कभी दुःखी न होऊ—यह ‘आनंद’ की इच्छा है । इस प्रकार सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्माकी इच्छा जीवमात्रमें रहती है । परन्तु जड़से सम्बन्ध माननेके कारण उससे भूल यह होती है कि वह इन इच्छओंको नाशवान् संसारसे ही पूरी करना चाहता है; जैसे—वह शरीरको लेकर जीना चाहता है, बुद्धि लेकर जानकार बनना चाहता है और इन्द्रियोंको लेकर सुखी होना चाहता है।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “साधन-सुधा-सिन्धु” पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...