सोमवार, 3 जुलाई 2023

जीवन्मुक्तगीता (पोस्ट.. 05)


 

|| श्री परमात्मने नम: ||


जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिञ्च तुरीयावस्थितं सदा ।

सोऽहं मनो विलीयेत जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १९ ॥

 

जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीयावस्था में रहते हुए भी जिसका मन सदा सोऽहं (मैं वही परमात्मतत्त्व हूँ) - के भाव में मग्न रहता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ १९ ॥

 

सोऽहं स्थितं ज्ञानमिदं सूत्रेषु मणिवत्परम् ।

सोऽहं ब्रह्म निराकारं जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ २० ॥

 

मैं वही निराकार ब्रह्म हूँ - इस सोऽहं ज्ञानधारा में जो उसी प्रकार निरन्तर स्थित रहता है, जैसे पिरोयी गयी मणिमाला में सूत्र निरन्तर विद्यमान रहता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ २० ॥

 

मन एव मनुष्याणां भेदाभेदस्य कारणम् ।

विकल्पनैव संकल्पो जीवन्मुक्तः स उच्यते॥२१॥

 

विकल्प और संकल्पात्मक मन ही मनुष्यों के  भेद और ऐक्य का हेतु  है, जो ऐसा जानता है (और मन के पार चला जाता है), वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ २१ ॥

 

मन एव विदुः प्राज्ञाः सिद्धसिद्धान्त एव च ।

सदा दृढं तदा मोक्षो जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ २२ ॥

 

विद्वानों ने मन को ही जान लिया है। सिद्ध-सिद्धान्त भी यही है कि (साधना) मन की दृढ़ता से ही मोक्ष प्राप्त होता है। जिसने इस सत्य

को जान लिया, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ २२ ॥

 

योगाभ्यासी मनः श्रेष्ठो अन्तस्त्यागी बहिर्जडः ।

अन्तस्त्यागी बहिस्त्यागी जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ २३ ॥

 

मन से अन्तर्वृत्तियों का त्याग और बाह्यवृत्तियों की उपेक्षा करने वाला योगाभ्यासी श्रेष्ठ है, किंतु अन्तः और बाह्य - दोनों वृत्तियों का मन से त्याग करनेवाला ही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ २३ ॥

 

॥ इति श्रीमद्दत्तात्रेयकृता जीवन्मुक्तगीता सम्पूर्णा ॥

 

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



पार ब्रह्म परमेश्वर तुम सबके स्वामी (पोस्ट 01)

# जय श्रीराम #

एक दिन जब श्रीरघुनाथ जी एकांत में ध्यानमग्न थे, प्रियभाषिणी श्री कौसल्या जी ने उन्हें साक्षात् नारायण जानकर अति भक्तिभाव से उनके पास आ उन्हें प्रसन्न जान अतिहर्ष से विनयपूर्वक  कहा—

“ हे राम ! तुम संसार के आदिकारण  हो तथा स्वयं आदि,अंत और मध्य से रहित  हो | तुम परमात्मा, परानन्दस्वरूप.सर्वत्र पूर्ण, जीवरूप से शरीररूप पुर में शयन करने वाले सबके स्वामी हो; मेरे प्रबल पुण्य के उदय होने से ही तुमने मेरे गर्भ से जन्म लिया है | हे रघुश्रेष्ठ ! अब अन्त समय में मुझे आज ही (कुछ पूछने का) समय मिला है , अब तक मेरा अज्ञानजन्य संसारबन्धन पूर्णतया नहीं टूटा | हे विभो ! मुझे संक्षेप में कोई ऐसा उपदेश दीजिये जिससे अब भी मुझे भवबन्धन काटने वाला ज्ञान हो जाए |”

तब मातृभक्त,दयामय, धर्मपरायण भगवान् राम ने इस प्रकार वैराग्यपूर्ण वचन कहने वाली अपनी जराजर्जरित शुभलक्षणा माता से कहा—

“मैंने  पूर्वकाल में मोक्षप्राप्ति के साधनरूप तीन मार्ग बतलाये हैं –कर्मयोग, ज्ञानयोग और  सनातन भक्तियोग | हे मात: ! (साधक के) गुणानुसार भक्ति के तीन भेद हैं | जिसका जैसा स्वभाव होता है उसकी भक्ति भी वैसे ही भेद वाली होती है | जो पुरुष हिंसा, दंभ या मात्सर्य के उद्देश्य से भक्ति करता है तथा जो भेददृष्टि वाला और क्रोधी होता है वह तामस भक्त माना गया है | जो फल की इच्छा वाला, भोग चाहने वाला तथा धन और यश की कामना वाला होता है  और भेदबुद्धि से अर्चा आदि में मेरी पूजा करता है वह रजोगुणी होता है | तथा जो पुरुष परमात्मा को अर्पण किये हुए कर्म-सम्पादन करने के लिए अथवा ‘करना चाहिए’ इस लिए भेदबुद्धि से कर्म करता है वह सात्त्विक है | जिसप्रकार गंगाजी का जल समुद्र में लीन होजाता है उसी प्रकार जब मनोवृत्ति मेरे गुणों के आश्रय से मुझ अनन्त गुणधाम में निरन्तर लगी रहे, तो वही मेरे निर्गुण भक्तियोग का लक्षण है | मेरे प्रति जो निष्काम और अखण्ड भक्ति उत्पन्न होती है वह साधक को सालोक्य, सामीप्य, सार्ष्टि और सायुज्य * -चार प्रकार की मुक्ति देती है; किन्तु उसके देने पर भी वे भक्तजन मेरी सेवा के अतिरिक्त और कुछ ग्रहण नहीं करते | हे मात: ! भक्तिमार्ग का आत्यंतिक योग यही है | इसके द्वारा भक्त तीनों गुणों को पारकर मेरा ही रूप हो जाता है |
.....................................
*वैकुंठादि भगवान् के लोकों को प्राप्त करना ‘सालोक्य’ मुक्ति है | हर समय भगवान् ही के निकट रहना ‘सामीप्य’ है, भगवान् के समान ऐश्वर्य लाभ करना ‘सार्ष्टि’ है और भगवान् में लीन हो जाना ‘सायुज्य’ है |

जय सियाराम जय सियाराम  !

(शेष आगामी पोस्ट में) 
-----गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “अध्यात्मरामायण” पुस्तक (कोड 74) से उत्तरकाण्ड सर्ग ७-श्लोक ५३-६७


रविवार, 2 जुलाई 2023

जीवन्मुक्तगीता (पोस्ट.. 04)

 

|| श्री परमात्मने नम: ||

 


ऊर्ध्वध्यानेन पश्यन्ति विज्ञानं मन उच्यते ।

शून्यं लयं च विलयं जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १४ ॥

 

उच्चध्यान में स्थित होकर जिस चैतन्य का दर्शन योगीजन करते हैं, वह 'मन' कहा जाता है । उस मन को शून्य, लय तथा विलय की प्रक्रिया से जो युक्त कर लेता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ १४ ॥

 

अभ्यासे रमते नित्यं मनो ध्यानलयङ्गतम्।

बन्धमोक्षद्वयं नास्ति जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १५ ॥

 

मन को ध्यान से लय करके जो नित्य अभ्यास में लगा रहता है और जिसे यह ज्ञान हो गया है कि बन्धन और मोक्ष दोनों की ही सत्ता वास्तविक नहीं है (मायिक है), वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥१५॥

 

एकाकी रमते नित्यं स्वभावगुणवर्जितम्।

ब्रह्मज्ञानरसास्वादी जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १६ ॥

 

स्वभावसिद्ध गुणों से रहित होकर (ऊपर उठकर) जो एकान्त में मग्न रहता है, वह ब्रह्मज्ञान के रस का आनन्द लेनेवाला ही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥१६॥

 

हृदि ध्यानेन पश्यन्ति प्रकाशं क्रियते मनः ।

सोऽहं हंसेति पश्यन्ति जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १७ ॥

 

जो साधक अपने हृदय में उस परमतत्त्व का 'सोऽहं-हंसः ' रूप से ध्यान करते हैं तथा अपने चित्त को उस से प्रकाशित करते हैं, वे जीवन्मुक्त कहे जाते हैं॥१७॥

 

शिवशक्तिसमात्मानं पिण्डब्रह्माण्डमेव च।

चिदाकाशं हृदं मोहं जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १८ ॥

 

अपनी आत्मा को शिव - शक्तिरूप परमात्मतत्त्व जानकर और अपने शरीर तथा ब्रह्माण्ड को समान जानता हुआ जो हृदयस्थित मोह को चिदाकाश में विलीन कर देता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ १८ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



शनिवार, 1 जुलाई 2023

जीवन्मुक्तगीता (पोस्ट.. 03)

 

|| श्री परमात्मने नम: ||

 



कर्म सर्वत्र आदिष्टं न जानाति च किञ्चन ।

कर्म ब्रह्म विजानाति जीवन्मुक्तः स उच्यते॥९॥ 

 

शास्त्रविहित कर्म के अतिरिक्त जो अन्य कुछ नहीं जानता तथा कर्म को ब्रह्मस्वरूप जानता हुआ सम्पादित करता रहता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ ९

 

चिन्मयं व्यापितं सर्वमाकाशं जगदीश्वरम्

सहितं सर्वभूतानां जीवन्मुक्त: स  उच्यते ॥ १० ॥

 

सभी प्राणियों के हृदयाकाश में व्याप्त चिन्मय परमात्मतत्त्व को जो जानता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ १० ॥

 

अनादिवर्ती भूतानां जीवः शिवो न हन्यते ।

निर्वैरः सर्वभूतेषु जीवन्मुक्तः स उच्यते॥११॥

 

प्राणियों में स्थित शिवस्वरूप जीवात्मा अनादि है और इसका नाश नहीं हो सकता - ऐसा जानकर जो सभी प्राणियों के प्रति वैर- रहित हो जाता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ ११ ॥

 

आत्मा गुरुस्त्वं विश्वं च चिदाकाशो न लिप्यते ।

गतागतं द्वयोर्नास्ति जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १२ ॥

 

आत्मा ही गुरुरूप और विश्वरूप है, इस चैतन्य आकाश को कुछ भी मलिन नहीं कर सकता । भूतकाल और वर्तमान दोनों ही काल के अंश होने से एक ही हैं, दो नहीं, जो ऐसा जानता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ १२ ॥

 

गर्भध्यानेन पश्यन्ति ज्ञानिनां मन उच्यते ।

सोऽहं मनो विलीयन्ते जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १३ ॥

 

अन्तःध्यान के द्वारा जिसे ज्ञानीजन देख पाते हैं,वह 'मन' कहा जाता है । उस मन को सोऽहं ( वह परमतत्त्व मैं ही हूँ) - की भावना में जो विलीन कर लेता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ १३ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 

 



शुक्रवार, 30 जून 2023

जीवन्मुक्तगीता (पोस्ट.. 02)


 

|| श्री परमात्मने नम: ||

  

सर्वभूते स्थितं ब्रह्म भेदाभेदो न विद्यते ।

एकमेवाभिपश्यँश्च जीवन्मुक्तः स उच्यते॥५॥

 

सभी प्राणियों में स्थित ब्रह्म (परमात्मा) भेद और अभेद से परे है । (एक होने के कारण भेद से परे और अनेक रूपों में  दीखने के कारण अभेद से परे है) इस प्रकार अद्वितीय परमतत्त्व को सर्वत्र व्याप्त देखने वाला मनुष्य ही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥५॥

 

तत्त्वं क्षेत्रं व्योमातीतमहं क्षेत्रज्ञ उच्यते ।

अहं कर्ता च भोक्ता च जीवन्मुक्तः स उच्यते॥६॥

 

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश – इन पंचतत्त्वों से बना यह शरीर ही क्षेत्र है तथा आकाश से परे अहंकार ('मैं' ) ही क्षेत्रज्ञ ( शरीररूपी क्षेत्र को जाननेवाला) कहा जाता है । यह 'मैं' (अहंकार) ही समस्त कर्मों का कर्ता और कर्मफलों का भोक्ता है । (चिदानन्दस्वरूप आत्मा नहीं)—इस ज्ञान को धारण करनेवाला ही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥६॥

 

कर्मेन्द्रियपरित्यागी ध्यानावर्जितचेतसः ।

आत्मज्ञानी तथैवैको जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ ७ ॥

 

ध्यान से भरे एकाग्र चित्तवाला और कर्मेन्द्रियों की हलचल से रहित, अद्वितीय आत्मतत्त्व में लीन ज्ञानी ही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ ७ ॥

 

शारीरं केवलं कर्म शोकमोहादिवर्जितम् ।

शुभाशुभपरित्यागी जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ ८ ॥

 

जो मनुष्य शोक और मोहसे रहित होकर यथाप्राप्त शरीरधर्म का पालन करता हुआ कर्म करता रहता है और शुभ–अशुभ के भेद से ऊपर उठ गया है, ऐसा ज्ञानी ही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ ८ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 

 



गुरुवार, 29 जून 2023

जीवन्मुक्तगीता (पोस्ट.. 01)

 

|| श्री परमात्मने नम: ||

 


 [ वेदान्तसार से ओत-प्रोत अत्यन्त लघुकलेवर वाली जीवन्मुक्तगीता श्रीदत्तात्रेय जी की रचना है, जिसमें अत्यन्त संक्षिप्त, पर सारगर्भित ढंग से सहज- सुबोध दृष्टान्तों द्वारा जीव तथा ब्रह्म के एकत्व का प्रतिपादन किया गया है, साथ ही जीवन्मुक्त-अवस्था को भी सम्यक् रूप से परिभाषित किया गया है। इसी साधकोपयोगी गीता को यहाँ सानुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है-— ]

 

जीवन्मुक्तिश्च या मुक्तिः सा मुक्तिः पिण्डपातने ।

या मुक्तिः पिण्डपातेन सा मुक्ति: शुनि शूकरे ॥ १ ॥

 

अपने शरीर की आसक्ति का त्याग (देहबुद्धि का त्याग) ही वस्तुत: जीवन्मुक्ति है | शरीर के नाश होने पर शरीर से जो मुक्ति (मृत्यु) होती है, वह तो कूकर-शूकर आदि समस्त प्राणियों को भी प्राप्त ही है ॥ १ ॥

 

जीव:शिवः सर्वमेव भूतेष्वेवं व्यवस्थितः ।

एवमेवाभिपश्यन् हि जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ २ ॥

 

शिव (परमात्मा) ही सभी प्राणियों में जीवरूप से विराजमान हैं-

इस प्रकार देखनेवाला अर्थात् सर्वत्र भगवद्दर्शन करनेवाला मनुष्य ही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥२॥

 

एवं ब्रह्म जगत्सर्वमखिलं भासते रविः ।

संस्थितं सर्वभूतानां जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ ३ ॥

 

जिस प्रकार सूर्य समस्त ब्रह्माण्डमण्डल को प्रकाशित करता रहता

है, उसी प्रकार चिदानन्दस्वरूप ब्रह्म समस्त प्राणियों में प्रकाशित होकर सर्वत्र व्याप्त है। इस ज्ञान से परिपूर्ण मनुष्य ही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ ३ ॥

 

एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत्।

आत्मज्ञानी तथैवैको जीवन्मुक्तः स उच्यते॥४॥

 

जैसे एक ही चन्द्रमा अनेक जलाशयों में प्रतिबिम्बित होकर अनेक रूपों में दिखायी देता है, उसी प्रकार यह अद्वितीय आत्मा अनेक देहों में

भिन्न-भिन्न रूप से दीखनेपर भी एक ही है - इस आत्मज्ञान को प्राप्त

मनुष्य ही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है॥४॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 

 

 



मंगलवार, 27 जून 2023

भगवान्‌ की आवश्यकता का अनुभव करना(पोस्ट १)

: श्रीहरि :

जब मनुष्य इस बात को जान लेता है कि इतने बड़े संसारमें, अनन्त ब्रह्माण्डों में कोई भी वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत जिसके एक अंशमें अनन्त ब्रह्माण्ड हैं, वही अपना है, तब उसके भीतर भगवान्‌ की आवश्यकता का अनुभव होता है । कारण कि अपनी वस्तु वही हो सकती है, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहें । जो कभी हमारेसे अलग न हो और हम कभी उससे अलग न हों । ऐसी वस्तु भगवान् ही हो सकते हैं ।
अब प्रश्न यह उठता है कि जब मनुष्य को भगवान्‌ की आवश्यकता है, तो फिर भगवान् मिलते क्यों नहीं ? इसका कारण यह है कि मनुष्य भगवान्‌ की प्राप्तिके बिना सुख-आरामसे रहता है, वह अपनी आवश्यकता को भूले रहता है । वह मिली हुई वस्तु, योग्यता और सामर्थ्यमें ही सन्तोष कर लेता है । अगर वह भगवान्‌ की आवश्यकताका अनुभव करे, उनके बिना चैनसे न रह सके तो भगवान्‌ की प्राप्तिमें देरी नहीं है । कारण कि जो नित्यप्राप्त है, उसकी प्राप्तिमें क्या देरी ? भगवान् कोई वृक्ष तो हैं नहीं कि आज बोयेंगे और वर्षोंके बाद फल मिलेगा ! वे तो सब देशमें सब समयमें, सब वस्तुओंमें, सब अवस्थाओंमें, सब परिस्थितियों में ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं । हम ही उनसे विमुख हुए हैं, वे हमसे कभी विमुख नहीं हुए ।

शेष आगामी पोस्ट में....... 
‒गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘लक्ष्य अब दूर नहीं !’ पुस्तक से


सोमवार, 26 जून 2023

मुक्ति और प्रेम (पोस्ट 03)

।। जय श्रीहरिः ।।

अगर मनुष्य चाहे तो वह शास्त्रोंके अध्ययनके बिना भी यह अनुभव कर सकता है कि जो वस्तु मिली है और बिछुड़ जायगी, वह अपनी और अपने लिये नहीं है । उसको अपनी और अपने लिये न मानने पर ममता और कामना नहीं रहती । ममता और कामना न रहने पर बुद्धि सम हो जाती है । बुद्धि सम होने से असत्‌ से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् शरीर-संसार की सत्ता, महत्ता और अपनापन सर्वथा नहीं रहता ।

जब मनुष्य अपने को अधिक महत्त्व देता है, तब वह मुक्त हो जाता है । मुक्त होनेपर ‘मैं मुक्त हूँ’ ऐसा एक सूक्ष्म अहम्‌ (अभिमानशून्य अहम्) रह जाता है, जिससे दार्शनिक मतभेद पैदा होते हैं । परन्तु जब वह अपने से भी परमात्मा को अधिक महत्त्व देता है, तब उसका वह सूक्ष्म अहम् प्रेम  परिणत हो जाता है, आत्मरति भगवद्‌रति में परिणत हो जाती है[*] । प्रेमकी प्राप्ति होनेपर सभी भेद मिट जाते हैं । मुक्ति तो साधन है, पर प्रेम साध्य है । प्रेम की प्राप्ति में ही मानव-जीवन की वास्तविक पूर्णता है, सफलता है ।

मुक्ति होनेपर जिज्ञासाकी पूर्ति हो जाती है और दुःखोंकी सर्वथा निवृत्ति हो जाती है; परन्तु प्रेमकी प्राप्ति होनेपर न तो प्रेमकी पूर्ति होती है, न क्षति होती है और न निवृत्ति ही होती है, प्रत्युत उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है‒‘प्रतिक्षणवर्धमानम्’ (नारद॰ ५४) । इस प्रेमकी प्राप्ति भगवान्‌ में अपनापन करनेसे होती है‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ।’ कारण कि भगवान्‌ ने भोग और मोक्ष तो मनुष्यके लिये बनाये हैं, पर मनुष्यको अपने लिये बनाया है कि वह मेरेसे प्रेम करे, मैं उससे प्रेम करूँ । भगवान्‌ ने भोगके लिये क्रिया-शक्ति दी है, मोक्षके लिये विवेक दिया है और अपने लिये प्रेम दिया है । प्रेमकी भूख भगवान्‌में भी है‒‘एकाकी न रमते ।’ प्रेम भगवान्‌ को भी तृप्त करनेवाला है । इसलिये प्रेम सबसे ऊँची चीज है । प्रेमसे आगे कुछ नहीं है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे !


रविवार, 25 जून 2023

मुक्ति और प्रेम (पोस्ट 02)

।। जय श्रीहरिः ।।

मुक्ति और प्रेम (पोस्ट 02)

जब जीव परमात्माको अपनेसे भी अधिक महत्त्व देता है अर्थात् वह जिस सच्चाईसे, दृढ़तासे, विश्वाससे और निःसन्देहतासे शरीरको अपना और अपने लिये मानता है, उसी सच्चाईसे, दृढ़तासे, विश्वाससे और निःसन्देहतासे परमात्माको अपना और अपने लिये मान लेता है तब वह भक्त (प्रेमी) हो जाता है । परमात्माको अपनेसे भी अधिक महत्त्व देनेसे मुक्तिका रस भी फीका हो जाता है ! परमात्मा सम्पूर्ण संसारके परम प्रकाशक, परम आधार, परम आश्रय और परम अधिष्ठान हैं । जीव उस परमात्माका ही अंश है । जो अपनेसे अभिन्न है, उस परमात्माको अपनेसे अलग मानना और जो अपनेसे भिन्न है, उस शरीर-संसारको अपना और अपने लिये मानना सम्पूर्ण दोषोंका मूल है । परमात्माको अपना मानना सत्‌का संग है और शरीर-संसारको अपना मानना असत्‌का संग है । जो मिला है और बिछुड़ जायगा, उस शरीर-संसारको अपना माननेसे ही जो वास्तवमें अपना है, वह अपना नहीं दीखता । इसीका परिणाम है कि मनुष्यको अपने जीवनमें अशान्ति, दुःख, अभाव, नीरसता, पराधीनता, बन्धन आदि अनेक दोषोंका अनुभव होता है । जबतक मनुष्यको शरीर अपना और अपने लिये प्रतीत होता रहेगा, तबतक वह कितना ही साधन कर ले, तपस्या कर ले, अभ्यास कर ले, श्रवण-मनन-निदिध्यासन कर ले, उसको परमशान्ति नहीं मिलेगी, उलटे उसमें अभिमान पैदा हो जायगा कि मैं इतना जानकार हूँ, मैं तपस्वी हूँ, मैं ऊँचा साधक हूँ आदि । अभिमानसे सब दोष उत्पन्न होते हैं और पुष्ट होते हैं । तात्पर्य है कि शरीरको अपना मानकर वह कुछ भी करेगा, उससे उसके अभावकी पूर्ति नहीं होगी । इसलिये यह सिद्धान्त है कि जो मिला है और बिछुड़ जायगा, वह हमारे कुछ काम नहीं आ सकता । हाँ, उसके द्वारा दूसरोंकी सेवा कर सकते हैं; क्योंकि वह दूसरोंका तथा दूसरोंके लिये ही है । सेवा अथवा त्यागके सिवाय उसका और कोई उपयोग नहीं है ।

अनेक शास्त्रोंका अध्ययन करनेसे, बहुत व्याख्यान सुननेसे, बहुत-सी बातें जान लेनेसे ही जीवनमें दुःख, अशान्ति, अभाव, पराधीनता आदिका नाश नहीं हो सकता । उससे मनुष्यकी बुद्धि बलवती बन सकती है, पर सम (स्थिर) नहीं हो सकती । बुद्धि बलवती होनेसे मनुष्य अच्छा व्याख्यान दे सकता है, पुस्तकें लिख सकता है, अनेक विद्याएँ सीख सकता है, शास्त्रार्थमें दूसरेको हरा सकता है, बड़े-बड़े प्रश्रोंका उत्तर दे सकता है, पर पराधीनतासे नहीं छूट सकता ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
‒गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे !


शनिवार, 24 जून 2023

मुक्ति और प्रेम (पोस्ट 01)

।। जय श्रीहरिः ।।


परमात्मा के अन्तर्गत जीव है और जीवके अन्तर्गत संसार है । कारण कि संसार की सत्ता जीव के अधीन है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) और जीवकी सत्ता परमात्माके अधीन है‒‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः’ (गीता १५ । ७) । जब जीव संसार को अपनेसे अधिक महत्व देता है, तब वह बँध जाता है और जब अपनेको संसारसे अधिक महत्त्व देता है तब वह मुक्त (स्वरूपमें स्थित) हो जाता है । परन्तु जब वह अपनेसे भी अधिक परमात्माको महत्त्व देता है तब वह भक्त (प्रेमी) हो जाता है ।

जबतक जीव शरीर-संसार को अपनेसे भी अधिक महत्त्व देता है, तबतक उसका अभाव (दारिद्र्य) नहीं मिटता । उसको अनन्त ब्रह्माण्डों का आधिपत्य मिल जाय तो भी उसका अभाव बना रहता है । अभाव होनेसे उसके जीवन में दो बातें रहती हैं‒मिली हुई वस्तुमें ममता और जो नहीं मिली है, उसकी कामना । ममता और कामनाके रहते हुए मुक्ति नहीं होती और मुक्ति हुए बिना अभाव नहीं मिटता । जब जीव अपनेको संसारसे अधिक महत्त्व देता है अर्थात् उसने जितनी सच्चाईसे, दृढ़तासे, विश्वाससे और निःसन्देहतासे शरीरकी सत्ता-महत्ता मानी है, उतनी ही सच्चाईसे, दृढ़तासे, विश्वास से और निःसन्देहता से स्वयं-(स्वरूप-) की सत्ता-महत्ता मान लेता है और अनुभव कर लेता है, तब उसके जीवनमें अभावका सर्वथा अभाव हो जाता है । अभाव का अभाव होनेपर प्राप्त वस्तु परिस्थिति आदिमें ममता नहीं रहती । अप्राप्त की कामना मिट जाती है । भोग और संग्रहकी रुचिका नाश हो जाता है । प्राप्त वस्तु का दुरुपयोग नहीं होता । मृत्युका भय मिट जाता है । फिर जीवन-निर्वाह की आवश्यक वस्तुएँ उसको समयसे पहले ही प्राप्त होने लगती हैं; जैसे‒जन्मसे पहले माँ का दूध प्राप्त होता है । लोभ न रहनेसे वस्तुएँ उसके पास आनेके लिये लालायित रहती हैं ।

एक ही दोष अथवा गुण स्थानभेदसे अनेक रूपसे प्रकट होता है । शरीर-(अनित्य, नाशवान्-) को अपनेसे अधिक महत्त्व देना अर्थात् शरीरको अपना स्वरूप मानना मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण आसुरी-सम्पत्ति उत्पन्न होती है । अपने चेतनस्वरूप-(नित्य, अविनाशी-) को शरीरसे अधिक महत्त्व देना मूल गुण है, जिससे सम्पूर्ण दैवी-सम्पत्ति प्रकट होती है । अपनेको शरीरसे अधिक महत्त्व देनेका तात्पर्य है कि हमारी सत्ता शरीरके अधीन नहीं है अर्थात् शरीरके बिना भी हम रह सकते हैं और रहते हैं, जी सकते हैं और जीते हैं । शरीरके सम्बन्धसे हम बँधते हैं और सम्बन्ध-विच्छेदसे मुक्त होते हैं । शरीर संसारसे अभिन्न है; अतः एक शरीरके साथ सम्बन्ध होनेसे संसारमात्रके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है ।

नारायण !     नारायण !!     

(शेष आगामी पोस्ट में )
‒गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे !


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...