|| श्री परमात्मने नम: ||
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिञ्च तुरीयावस्थितं सदा ।
सोऽहं
मनो विलीयेत जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १९ ॥
जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीयावस्था में रहते हुए भी
जिसका मन सदा सोऽहं (मैं वही परमात्मतत्त्व हूँ) - के भाव में मग्न रहता है,
वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ १९ ॥
सोऽहं
स्थितं ज्ञानमिदं सूत्रेषु मणिवत्परम् ।
सोऽहं
ब्रह्म निराकारं जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ २० ॥
मैं वही
निराकार ब्रह्म हूँ - इस सोऽहं ज्ञानधारा में जो उसी प्रकार निरन्तर स्थित रहता है, जैसे पिरोयी गयी मणिमाला में सूत्र निरन्तर विद्यमान रहता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ २० ॥
मन एव
मनुष्याणां भेदाभेदस्य कारणम् ।
विकल्पनैव
संकल्पो जीवन्मुक्तः स उच्यते॥२१॥
विकल्प और
संकल्पात्मक मन ही मनुष्यों के भेद और
ऐक्य का हेतु है, जो ऐसा जानता है (और मन के पार चला जाता है), वही
वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ २१ ॥
मन
एव विदुः प्राज्ञाः सिद्धसिद्धान्त एव च ।
सदा
दृढं तदा मोक्षो जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ २२ ॥
विद्वानों ने
मन को ही जान लिया है। सिद्ध-सिद्धान्त भी यही है कि (साधना) मन की दृढ़ता से ही
मोक्ष प्राप्त होता है। जिसने इस सत्य
को जान लिया, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ २२ ॥
योगाभ्यासी
मनः श्रेष्ठो अन्तस्त्यागी बहिर्जडः ।
अन्तस्त्यागी
बहिस्त्यागी जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ २३ ॥
मन से
अन्तर्वृत्तियों का त्याग और बाह्यवृत्तियों की उपेक्षा करने वाला योगाभ्यासी
श्रेष्ठ है,
किंतु अन्तः और बाह्य - दोनों वृत्तियों का मन से त्याग करनेवाला ही
वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ २३ ॥
॥ इति
श्रीमद्दत्तात्रेयकृता जीवन्मुक्तगीता सम्पूर्णा ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958)
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