शुकदेवजी
को नारदजीद्वारा वैराग्य और
ज्ञान का उपदेश देना
भीष्म
उवाच
एतस्मिन्नन्तरे
शून्ये नारदः समुपागमत्।
शुकं
स्वाध्यायनिरतं वेदार्थान् वक्तुमीप्सितान् ॥ १ ॥
भीष्मजी कहते
हैं- युधिष्ठिर ! व्यासजीके चले जानेके बाद उस सूने आश्रम में स्वाध्यायपरायण
शुकदेवसे अपना इच्छित वेदोंका अर्थ कहनेके लिये देवर्षि नारदजी पधारे ॥ १ ॥
देवर्षि
तु शुको दृष्ट्वा नारदं समुपस्थितम् ।
अर्घ्यपूर्वेण
विधिना वेदोक्तेनाभ्यपूजयत्॥ २ ॥
देवर्षि नारद
को उपस्थित देखकर शुकदेव ने वेदोक्त विधि से अर्घ्य आदि निवेदन करके उनका पूजन
किया ॥ २ ॥
नारदोऽथाब्रवीत्
प्रीतो ब्रूहि धर्मभृतां वर ।
केन
त्वां श्रेयसा वत्स योजयामीति हृष्टवत् ॥ ३॥
उस समय
नारदजी ने प्रसन्न होकर कहा - ' वत्स ! तुम धर्मात्माओं में
श्रेष्ठ हो। बताओ, तुम्हें किस श्रेष्ठ वस्तु की प्राप्ति
कराऊँ ?' यह बात उन्होंने बड़े हर्ष के साथ कही ॥ ३ ॥
नारदस्य
वचः श्रुत्वा शुकः प्रोवाच भारत ।
अस्मिँल्लोके
हितं यत् स्यात् तेन मां योक्तुमर्हसि ॥ ४ ॥
भरतनन्दन!
नारदजी की यह बात सुनकर शुकदेव ने कहा - ' इस लोक में जो परम
कल्याण का साधन हो, उसी का मुझे उपदेश देनेकी कृपा करें'
॥४॥
नारद
उवाच
तत्त्वं
जिज्ञासतां पूर्वमृषीणां भावितात्मनाम् ।
सनत्कुमारो
भगवानिदं वचनमब्रवीत्॥५॥
नारदजी ने
कहा – वत्स ! पूर्वकाल की बात है, पवित्र अन्तःकरण वाले ऋषियों ने
तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से प्रश्न किया। उसके उत्तर में भगवान्
सनत्कुमार ने यह उपदेश दिया ॥ ५ ॥
नास्ति
विद्यासमं चक्षुर्नास्ति सत्यसमं तपः ।
नास्ति
रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम् ॥ ६ ॥
विद्या के
समान कोई नेत्र नहीं है । सत्य के समान कोई तप नहीं है । राग के समान कोई दुःख
नहीं है और त्याग के सदृश कोई सुख नहीं है ॥६॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड
1958) से