सोमवार, 24 जुलाई 2023

नारद गीता पहला अध्याय (पोस्ट 06)

 



शुकदेवजी को नारदजीद्वारा वैराग्य और

ज्ञान का उपदेश देना

 

न हि त्वां प्रस्थितं कश्चित् पृष्ठतोऽनुगमिष्यति ।

सुकृतं दुष्कृतं च त्वां यास्यन्तमनुयास्यति ॥ ३५ ॥

 

जब तुम परलोककी राह लोगे, उस समय तुम्हारे पीछे कोई नहीं जायगा। केवल तुम्हारा किया हुआ पुण्य या पाप ही वहाँ जाते समय तुम्हारा अनुसरण करेगा ॥ ३५ ॥

 

विद्या कर्म च शौचं च ज्ञानं च बहुविस्तरम् ।

अर्थार्थमनुसार्यन्ते सिद्धार्थश्च विमुच्यते ॥ ३६ ॥

 

अर्थ (परमात्मा) - की प्राप्तिके लिये ही विद्या, कर्म, पवित्रता और अत्यन्त विस्तृत ज्ञानका सहारा लिया जाता है । जब कार्यकी सिद्धि ( परमात्माकी प्राप्ति) हो जाती है, तब मनुष्य मुक्त हो जाता है ॥ ३६ ॥

 

निबन्धनी रज्जुरेषा या ग्रामे वसतो रतिः ।

छित्त्वैतां सुकृतो यान्ति नैनां छिन्दन्ति दुष्कृतः॥३७॥

 

गाँवोंमें रहनेवाले मनुष्यकी विषयोंके प्रति जो आसक्ति होती है, वह उसे बाँधनेवाली रस्सी के समान है। पुण्यात्मा पुरुष उसे काटकर

आगे - परमार्थके पथपर बढ़ जाते हैं; किंतु जो पापी हैं, वे उसे नहीं

काट पाते ॥ ३७ ॥

 

रूपकूलां मनः स्त्रोतां स्पर्शद्वीपां रसावहाम् ।

गन्धपङ्कां शब्दजलां स्वर्गमार्गदुरावहाम् ॥ ३८ ॥

क्षमारित्रां सत्यमयीं धर्मस्थैर्यवटारकाम्।

त्यागवाताध्वगां शीघ्रां नौतार्यां तां नदीं तरेत् ॥ ३९ ॥

 

यह संसार एक नदीके समान है, जिसका उपादान या उद्गम सत्य है, रूप इसका किनारा, मन स्रोत, स्पर्श द्वीप और रस ही प्रवाह है, गन्ध उस नदीका कीचड़, शब्द जल और स्वर्गरूपी दुर्गम घाट है | शरीररूपी नौकाकी सहायतासे उसे पार किया जा सकता है। क्षमा इसको खेनेवाली लग्गी और धर्म इसको स्थिर करनेवाली रस्सी ( लंगर) है। यदि त्यागरूपी अनुकूल पवनका सहारा मिले तो इस शीघ्रगामिनी नदीको पार किया जा सकता है। इसे पार करनेका अवश्य प्रयत्न करे ॥ ३८-३९ ॥

 

त्यज धर्ममधर्मं च तथा सत्यानृते त्यज ।

उभे सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजसि तं त्यज ॥ ४० ॥

 

धर्म और अधर्मको छोड़ो। सत्य और असत्यको भी त्याग दो और उन दोनोंका त्याग करके जिसके द्वारा त्याग करते हो, उसको भी त्याग दो ॥ ४० ॥

 

त्यज धर्ममसङ्कल्पादधर्मं चाप्यलिप्सया |

उभे सत्यानृते बुद्धया बुद्धिं परमनिश्चयात् ॥ ४१ ॥

 

संकल्प के त्याग द्वारा धर्म को और लिप्सा के अभावद्वारा अधर्म को भी त्याग दो। फिर बुद्धि के द्वारा सत्य और असत्य का त्याग करके परमतत्त्व के निश्चयद्वारा बुद्धिको भी त्याग दो ॥ ४१ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



नारद गीता पहला अध्याय (पोस्ट 05)

 


शुकदेवजी को नारदजीद्वारा वैराग्य और

ज्ञान का उपदेश देना

 

संवेष्ट्यमानं बहुभिर्मोहात् तन्तुभिरात्मजैः ।

कोषकार इवात्मानं वेष्टयन् नावबुध्यसे ॥ २८ ॥

 

जैसे रेशमका कीड़ा अपने ही शरीरसे उत्पन्न हुए तन्तुओं द्वारा

अपने-आपको आच्छादित कर लेता है, उसी प्रकार तुम भी मोहवश अपनेहीसे उत्पन्न सम्बन्धके बन्धनोंद्वारा अपने-आपको बाँधते जा रहे हो तो भी यह बात तुम्हारी समझमें नहीं आ रही है॥ २८ ॥

 

अलं परिग्रहेणेह दोषवान् हि परिग्रहः ।

कृमिर्हि कोषकारस्तु बध्यते स परिग्रहात् ॥ २९ ॥

 

यहाँ विभिन्न वस्तुओंके संग्रहकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि संग्रहसे महान् दोष प्रकट होता है। रेशमका कीड़ा अपने संग्रह- दोषके कारण ही बन्धनमें पड़ता है॥ २९ ॥

 

पुत्रदारकुटुम्बेषु सक्ताः सीदन्ति जन्तवः ।

सरः पङ्कार्णवे मग्ना जीर्णा वनगजा इव ॥ ३० ॥

 

स्त्री- पुत्र और कुटुम्बमें आसक्त रहनेवाले प्राणी उसी प्रकार कष्ट

पाते हैं, जैसे जंगलके बूढ़े हाथी तालाब के दलदलमें फँसकर दुःख

उठाते हैं ॥ ३० ॥

 

महाजालसमाकृष्टान् स्थले मत्स्यानिवोद्धृतान् ।

स्नेहजालसमाकृष्टान् पश्य जन्तून् सुदुःखितान् ॥ ३१ ॥

 

जिस प्रकार महान् जालमें फँसकर पानीसे बाहर आये हुए मत्स्य तड़पते हैं, उसी प्रकार स्नेहजालसे आकृष्ट होकर अत्यन्त कष्ट उठाते हुए इन प्राणियोंकी ओर दृष्टिपात करो ॥ ३१॥

 

कुटुम्बं पुत्रदारांश्च शरीरं सञ्चयाश्च ये ।

पारक्यमध्रुवं सर्वं किं स्वं सुकृतदुष्कृतम् ॥ ३२ ॥

संसारमें कुटुम्ब, स्त्री, पुत्र, शरीर और संग्रह - सब कुछ पराया है । सब नाशवान् है । इसमें अपना क्या है, केवल पाप और पुण्य ॥ ३२ ॥

 

यदा सर्वं परित्यज्य गन्तव्यमवशेन ते।

अनर्थे किं प्रसक्तस्त्वं स्वमर्थं नानुतिष्ठसि ॥ ३३ ॥

 

जब सब कुछ छोड़कर तुम्हें यहाँसे विवश होकर चल देना है, तब इस अनर्थमय जगत् में क्यों आसक्त हो रहे हो ? अपने वास्तविक अर्थ - मोक्षका साधन क्यों नहीं करते हो ? ॥ ३३ ॥

 

अविश्रान्तमनालम्बमपाथेयमदैशिकम्

तमःकान्तारमध्वानं कथमेको गमिष्यसि ॥ ३४ ॥

 

जहाँ ठहरनेके लिये कोई स्थान नहीं, कोई सहारा देनेवाला नहीं, राहखर्च नहीं तथा अपने देशका कोई साथी अथवा राह बतानेवाला नहीं है, जो अन्धकारसे व्याप्त और दुर्गम है, उस मार्गपर तुम अकेले कैसे चल सकोगे ? ॥ ३४ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



रविवार, 23 जुलाई 2023

नारद गीता पहला अध्याय (पोस्ट 04)

 



शुकदेवजी को नारदजीद्वारा वैराग्य और

ज्ञान का उपदेश देना

 

निरामिषा न शोचन्ति त्यजेदामिषमात्मनः ।

परित्यज्यामिषं सौम्य दुःखतापाद् विमोक्ष्यसे ॥ २१ ॥

 

जिन्होंने भोगोंका परित्याग कर दिया है, वे कभी शोकमें नहीं पड़ते, इसलिये प्रत्येक मनुष्यको भोगासक्तिका त्याग करना चाहिये । सौम्य ! भोगोंका त्याग कर देनेपर तुम दुःख और सन्तापसे छूट जाओगे ॥ २१ ॥

 

तपोनित्येन दान्तेन मुनिना संयतात्मना ।

अजितं जेतुकामेन भाव्यं सङ्गेष्वसङ्गिना॥२२॥

 

जो अजित (परमात्मा ) - को जीतनेकी इच्छा रखता हो, उसे

तपस्वी, जितेन्द्रिय, मननशील, संयतचित्त और विषयोंमें अनासक्त रहना चाहिये ॥ २२॥

 

गुणसङ्गेष्वनासक्त एकचर्यारतः सदा ।

ब्राह्मणो नचिरादेव सुखमायात्यनुत्तमम् ॥ २३ ॥

 

जो ब्राह्मण त्रिगुणात्मक विषयोंमें आसक्त न होकर सदा एकान्तवास करता है, वह शीघ्र ही सर्वोत्तम सुखरूप मोक्षको प्राप्त कर लेता है ॥ २३ ॥

 

द्वन्द्वारामेषु भूतेषु य य एको रमते मुनिः

विद्धि प्रज्ञानतृप्तं तं ज्ञानतृप्तो न शोचति ॥ २४ ॥

 

जो मुनि मैथुन में सुख माननेवाले प्राणियोंके बीच में रहकर भी अकेले रहनेमें ही आनन्द मानता है, उसे विज्ञानसे परितृप्त समझना चाहिये। जो ज्ञानसे तृप्त होता है, वह कभी शोक नहीं करता ॥ २४ ॥

 

शुभैर्लभति देवत्वं व्यामिश्रैर्जन्म मानुषम् ।

अशुभैश्चाप्यधो जन्म कर्मभिर्लभतेऽवशः ॥ २५ ॥

 

जीव सदा कर्मों के अधीन रहता है । वह शुभ कर्मों के अनुष्ठान से देवता होता है, दोनों के सम्मिश्रण से मनुष्य जन्म पाता है और केवल अशुभ कर्मों से पशु-पक्षी आदि नीच योनियों में जन्म लेता है ॥ २५ ॥

 

तत्र मृत्युजरादुःखैः सततं समभिद्रुतः ।

संसारे पच्यते जन्तुस्तत्कथं नावबुद्ध्यसे ॥ २६॥

 

उन-उन योनियोंमें जीवको सदा जरा - मृत्यु और नाना प्रकारके दु:खोंसे सन्तप्त होना पड़ता है। इस प्रकार संसारमें जन्म लेनेवाला प्रत्येक प्राणी सन्तापकी आगमें पकाया जाता है— इस बातकी ओर तुम क्यों नहीं ध्यान देते ? ॥ २६ ॥

 

अहिते हितसंज्ञस्त्वमध्रुवे ध्रुवसंज्ञकः ।

अनर्थे चार्थसंज्ञस्त्वं किमर्थं नावबुद्ध्यसे॥ २७॥

 

तुमने अहितमें ही हित - बुद्धि कर ली है, जो अध्रुव (विनाशशील) वस्तुएँ हैं, उन्हींको 'ध्रुव' (अविनाशी) नाम दे रखा है और अनर्थमें ही तुम्हें अर्थका बोध हो रहा है। यह बात तुम्हारी समझमें क्यों नहीं आती है ? ॥ २७ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



नारद गीता पहला अध्याय (पोस्ट 03)

 


 

शुकदेवजी को नारदजीद्वारा वैराग्य और

ज्ञान का उपदेश देना

 

आनृशंस्यं परो धर्मः क्षमा च परमं बलम् ।

आत्मज्ञानं परं ज्ञानं न सत्याद् विद्यते परम् ॥ १२ ॥

 

क्रूर स्वभावका परित्याग सबसे बड़ा धर्म है | क्षमा सबसे बड़ा बल है। आत्माका ज्ञान ही सबसे उत्कृष्ट ज्ञान है और सत्यसे बढ़कर

तो कुछ है ही नहीं ॥ १२ ॥

 

सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत् ।

यद् भूतहितमत्यन्तमेतत् सत्यं मतं मम ॥ १३ ॥

 

सत्य बोलना सबसे श्रेष्ठ है; परंतु सत्यसे भी श्रेष्ठ है हितकारक वचन बोलना । जिससे प्राणियोंका अत्यन्त हित होता हो, वही मेरे विचारसे सत्य है ॥ १३ ॥

 

सर्वारम्भपरित्यागी निराशीर्निष्परिग्रहः ।

येन सर्वं परित्यक्तं स विद्वान् स च पण्डितः ॥ १४ ॥

 

जो कार्य आरम्भ करनेके सभी संकल्पोंको छोड़ चुका है, जिसके मनमें कोई कामना नहीं है, जो किसी वस्तुका संग्रह नहीं करता तथा जिसने सब कुछ त्याग दिया है, वही विद्वान् है और वही पण्डित ॥ १४ ॥

 

इन्द्रियैरिन्द्रियार्थान् यश्चरत्यात्मवशैरिह।

असज्जमानः शान्तात्मा निर्विकारः समाहितः ॥ १५ ॥

आत्मभूतैरतद्भूतः सह चैव विनैव च।

स विमुक्तः परं श्रेयो नचिरेणाधितिष्ठति ॥ १६ ॥

 

जो अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा यहाँ अनासक्त- भावसे विषयोंका अनुभव करता है, जिसका चित्त शान्त, निर्विकार और एकाग्र है तथा जो आत्मस्वरूप प्रतीत होनेवाले देह और इन्द्रियाँ हैं, उनके साथ रहकर भी उनसे तद्रूप न हो अलग - सा ही रहता है, वह मुक्त है और उसे बहुत शीघ्र परम कल्याण की प्राप्ति होती है ॥ १५-१६॥

 

अदर्शनमसंस्पर्शस्तथासम्भाषणं सदा ।

यस्य भूतैः सह मुने स श्रेयो विन्दते परम् ॥ १७ ॥

 

मुने! जिसकी किसी प्राणीकी ओर दृष्टि नहीं जाती, जो किसीका स्पर्श तथा किसी से बातचीत नहीं करता, वह परम कल्याण को प्राप्त होता है॥१७॥

 

न हिंस्यात् सर्वभूतानि मैत्रायणगतश्चरेत् ।

नेदं जन्म समासाद्य वैरं कुर्वीत केनचित् ॥ १८ ॥

 

किसी भी प्राणीकी हिंसा न करे। सबके प्रति मित्रभाव रखते हुए विचरे तथा यह मनुष्य - जन्म पाकर किसीके साथ वैर न करे ॥ १८ ॥

 

आकिञ्चन्यं सुसन्तोषो निराशीस्त्वमचापलम्।

एतदाहुः परं श्रेय आत्मज्ञस्य जितात्मनः॥१९॥

 

जो आत्मतत्त्व का ज्ञाता तथा मनको वशमें रखनेवाला है, उसके लिये यही परम कल्याणका साधन बताया गया है कि वह किसी वस्तुका संग्रह न करे, सन्तोष रखे तथा कामना और चंचलताको त्याग दे ॥ १९ ॥

 

परिग्रहं परित्यज्य भव तात जितेन्द्रियः ।

अशोकं स्थानमातिष्ठ इह चामुत्र चाभयम् ॥ २० ॥

 

तात शुकदेव ! तुम संग्रहका त्याग करके जितेन्द्रिय हो जाओ

तथा उस पदको प्राप्त करो, जो इस लोक और परलोकमें भी निर्भय

एवं सर्वथा शोकरहित है ॥ २० ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से



शनिवार, 22 जुलाई 2023

नारद गीता पहला अध्याय (पोस्ट 02)

 


 

शुकदेवजी को नारदजीद्वारा वैराग्य और

ज्ञान का उपदेश देना

 

निवृत्तिःकर्मणः पापात् सततं पुण्यशीलता ।

सद्वृत्तिः समुदाचारः श्रेय एतदनुत्तमम् ॥ ७ ॥

 

पापकर्मों से दूर रहना, सदा पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करना, श्रेष्ठ पुरुषों के से बर्ताव और सदाचार का पालन करना - यही सर्वोत्तम श्रेय (कल्याण) -का साधन है ॥७॥

 

मानुष्यमसुखं प्राप्य यः सज्जति स मुह्यति ।

नालं स दुःखमोक्षाय संयोगो दुःखलक्षणम् ॥ ८ ॥

 

जहाँ सुखका नाम भी नहीं है, ऐसे इस मानव – शरीर को पाकर जो विषयों में आसक्त होता है, वह मोह को प्राप्त होता है। विषयों का संयोग दुःखरूप ही है, अतः दुःखों से छुटकारा नहीं दिला सकता ॥ ८ ॥

 

सक्तस्य बुद्धिश्चलति मोहजालविवर्धनी ।

मोहजालावृतो दुःखमिह चामुत्र सोऽश्नुते ॥ ९ ॥

विषयासक्त पुरुषकी बुद्धि चंचल होती है। वह मोहजालको बढ़ानेवाली है, मोहजालसे बँधा हुआ पुरुष इस लोक तथा परलोकमें दुःख ही भोगता है ॥ ९ ॥

 

सर्वोपायात् तु कामस्य क्रोधस्य च विनिग्रहः ।

कार्यः श्रेयोऽर्थिना तौ हि श्रेयोघातार्थमुद्यतौ ॥ १० ॥

 

जिसे कल्याणप्राप्तिकी इच्छा हो, उसे सभी उपायोंसे काम और क्रोधको दबाना चाहिये; क्योंकि ये दोनों दोष कल्याणका नाश करनेके लिये उद्यत रहते हैं ॥ १० ॥


नित्यं क्रोधात् तपो रक्षेच्छ्रियं रक्षेच्च मत्सरात् ।

विद्यां मानावमानाभ्यामात्मानं तु प्रमादतः ॥ ११॥

 

मनुष्यको चाहिये कि सदा तपको क्रोधसे, लक्ष्मीको डाहसे, विद्याको मानापमानसे और अपने-आपको प्रमादसे बचाये ॥ ११ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



नारद गीता पहला अध्याय (पोस्ट 01)

 


 [ महाभारत के शान्तिपर्व में तीन अध्याय वाली नारदगीता प्राप्त होती है। इसमें देवर्षि नारद द्वारा श्रीशुकदेवजी को ज्ञान तथा वैराग्य का उपदेश दिया गया है तथा इसी क्रम में सदाचार की प्रेरणा देते हुए धैर्य तथा अनासक्ति पर विशेष बल दिया गया है । तदनन्तर मनुष्य को प्रारब्धानुसार प्राप्त सुख-दु:ख आदिका वर्णन है। प्रारब्ध स्वयं उसी के पूर्वकृत कर्मों के परिणामस्वरूप बनता है तथा मनुष्य परवश-सा होकर उन्हें भोगने को विवश होता है । अतः अहंबुद्धि का सर्वथा त्याग करके, बन्धनमुक्त हो सनातन – पद को प्राप्त करना चाहिये । यही तथ्य इस गीत में बहुत रोचक ढंग से बताया गया है। इसकी भाषा अत्यन्त सुबोध, दृष्टान्त अत्यन्त रोचक तथा उपदेश सभी के लिये उपयोगी है। सहज बोधगम्य इस नारदगीता को यहाँ सानुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है- ]

 

शुकदेवजी को नारदजीद्वारा वैराग्य और

ज्ञान का उपदेश देना

 

भीष्म उवाच

 

एतस्मिन्नन्तरे शून्ये नारदः समुपागमत्।

शुकं स्वाध्यायनिरतं वेदार्थान् वक्तुमीप्सितान् ॥ १ ॥

 

भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! व्यासजीके चले जानेके बाद उस सूने आश्रम में स्वाध्यायपरायण शुकदेवसे अपना इच्छित वेदोंका अर्थ कहनेके लिये देवर्षि नारदजी पधारे ॥ १ ॥

 

देवर्षि तु शुको दृष्ट्वा नारदं समुपस्थितम् ।

अर्घ्यपूर्वेण विधिना वेदोक्तेनाभ्यपूजयत्॥ २ ॥

 

देवर्षि नारद को उपस्थित देखकर शुकदेव ने वेदोक्त विधि से अर्घ्य आदि निवेदन करके उनका पूजन किया ॥ २ ॥

 

नारदोऽथाब्रवीत् प्रीतो ब्रूहि धर्मभृतां वर ।

केन त्वां श्रेयसा वत्स योजयामीति हृष्टवत् ॥ ३॥

 

उस समय नारदजी ने प्रसन्न होकर कहा - ' वत्स ! तुम धर्मात्माओं में श्रेष्ठ हो। बताओ, तुम्हें किस श्रेष्ठ वस्तु की प्राप्ति कराऊँ ?' यह बात उन्होंने बड़े हर्ष के साथ कही ॥ ३ ॥

 

नारदस्य वचः श्रुत्वा शुकः प्रोवाच भारत ।

अस्मिँल्लोके हितं यत् स्यात् तेन मां योक्तुमर्हसि ॥ ४ ॥

 

भरतनन्दन! नारदजी की यह बात सुनकर शुकदेव ने कहा - ' इस लोक में जो परम कल्याण का साधन हो, उसी का मुझे उपदेश देनेकी कृपा करें' ॥४॥

 

नारद उवाच

 

तत्त्वं जिज्ञासतां पूर्वमृषीणां भावितात्मनाम् ।

सनत्कुमारो भगवानिदं वचनमब्रवीत्॥५॥

 

नारदजी ने कहा – वत्स ! पूर्वकाल की बात है, पवित्र अन्तःकरण वाले ऋषियों ने तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से प्रश्न किया। उसके उत्तर में भगवान् सनत्कुमार ने यह उपदेश दिया ॥ ५ ॥

 

नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति सत्यसमं तपः ।

नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम् ॥ ६ ॥

 

विद्या के समान कोई नेत्र नहीं है । सत्य के समान कोई तप नहीं है । राग के समान कोई दुःख नहीं है और त्याग के सदृश कोई सुख नहीं है ॥६॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से



बुधवार, 12 जुलाई 2023

रावण कृत शिव तांडव स्तोत्र { हिन्दी भावार्थ } ..पोस्ट..०२




|| ॐ नम: शिवाय ||

जिन्होंने जटारूपी अटवी(वन)-से निकलती हुई गंगाजी के गिरते हुए प्रवाहों से पवित्र किये गए गले में सर्पों की लटकती हुई विशाल माला को धारण कर, डमरू के दम-दम शब्दों से मंडित प्रचंड तांडव(नृत्य) किया, वे शिवजी हमारे कल्याण का विस्तार करें ||१||
जिनका मस्तक जतारूपी कड़ाह में वेग से घूमती हुई गंगा की चंचल तरंग-लताओं से सुशोभित हो रहा है, ललाटाग्नि धक्-धक् जल रही है, सर पर बाल चन्द्रमा विराजमान हैं, उन (भगवान् शिव)-में मेरा निरंतर अनुराग हो ||२||
गिरिराजकिशोरी पार्वती के विलासकालोपयोगी शिरोभूषण से समस्त दिशाओं को प्रकाशित होते देख जिनका मन आनंदित हो रहा है,जिनकी निरन्तर कृपादृष्टि से कठिन आपत्ति का भी निवारण होजाता है, ऐसे किसी दिगंबर तत्त्व में मेरा मन विनोद करे ||३||
जिनके जटाजूटवर्ती भुजंगमों के फणों की मणियों का फैलता हुआ पिंगल प्रभापुंज दिशारूपिणी अंगनाओं के मुखपर कुंकुमराग का अनुलेपन कर रहा है, मतवाले हाथी के हिलते हुए चमड़े का उत्तरीय वस्त्र(चादर) धारण करने से स्निग्धवर्ण हुए उन भूतनाथ में मेरा चित्त अद्भुत विनोद करे ||४||
जिनकी चरणपादुकाएं इन्द्र समस्त देवताओं के (प्रणाम करते समय) मस्तकवर्ती कुसुमों की धूली से धूसरित हो रही हैं; नागराज (शेष)- के हार से बंधी हुई जटा वाले वे भगवान् चन्द्रशेखर मेरे लिए मेरे चिरस्थायिनी समाप्ति के साधक हों ||५||
जिसने ललाट-वेदी पर प्रज्वलित हुई अग्नि के स्फुलिंगों के तेज से कामदेव को नष्ट कर डाला था, जिसे इन्द्र नमस्कार किया करते हैं, सुधाकर की कला से सुशोभित मुकुटवाला वह [श्रीमहादेवजी का] उन्नत विशाल ललाट वाला जटिल मस्तक हमारी सम्पत्ति का साधक हो ||६||
जिन्होंने अपने विकराल भालपट्ट पर धक्-धक् जलती हुई अग्नि में प्रचंड कामदेव को हवं कर दिया था, गिरिराजकिशोरी के स्तनों पर पत्रभंग रचना करने के एकमात्र कारीगर उन भगवान् त्रिलोचन में मेरी धारणा लगी रहे ||७||
जिनके कंठ में नवीन मेघमाला से घिरी हुई अमावस्या की आधी रात के समय फैलाते हुए दुरूह अन्धकार के समान श्यामता अंकित है; जो गजचर्म लपेटे हुए हैं. वे संसारभार को धारण करने वाले चन्द्रमा [-के संपर्क]- से मनोहर कांटी वाले भगवान् गंगाधर मेरी सम्पत्ति का विस्तार करें ||८||
जिनका कंठदेश खिले हुए नील कमलसमूह की श्याम प्रभा का अनुकरण करने वाली हरिणी की-सी छविवाले चिन्ह से सुशोभित है तथा जो कामदेव, त्रिपुर, भव(संसार), दक्षयज्ञ, हाथी, अंधकासुर और यमराज का भी उच्छेदन (संहार) करने वाले हैं, उन्हें मैं भजता हूँ ||९||
जो अभिमानरूप पार्वती की कलारूप कदम्बमंजरी के मकरन्दस्रोत की बढती हुई माधुरी के पान करने वाले मधुप हैं तथा कामदेव, त्रिपुर, भव, दक्षयज्ञ, हाथी, अंधकासुर और यमराज का भी अंत करने वाले हैं, उन्हें मैं भजता हूँ ||१०||
जिनके मस्तक पर बड़े वेग के साथ घूमते हुए भुजंग के फुफकारने से ललाट के भयंकर अग्नि क्रमश: धधकती हुई फ़ैल रही है, धिमि-धिमि बजते हुए मृदंग के गंभीर मंगल घोष के क्रमानुसार जिनका प्रचंड तांडव हो रहा है, उन भगवान् शंकर की जय हो ||११||
पत्थर और सुन्दर बिछोनों में, साँप और मुक्ता की माला में,बहुमूल्य रत्न तथा मिट्टी के ढेले में, मित्र या शत्रुपक्ष में, तृण अथवा कमललोचना तरुणी में, प्रजा और पृथ्वी के महाराज में समानभाव रखता हुआ मैं कब सदाशिव को भजूंगा ? ||१२||
सुन्दर ललाटवाले भगवान् चन्द्रशेखर में दत्तचित्त हो अपने कुविचारों को त्यागकर गंगाजी के तटवर्ती निकुंज के भीतर रहता हुआ सर पर हाथ जोड़ डबडबाई हुई विह्वल आँखों से ‘शिव’ मंत्र का उच्चारण करता हुआ मैं कब सुखी होऊँगा ?||१३||
जो मनुष्य इसप्रकार से उक्त इस उत्तमोत्तम स्तोत्र का नित्य पाठ, स्मरण और वर्णन करता रहता है, वह सदा शुद्ध रहता है और शीघ्र ही सुरगुरु शंकरजी की अच्छी भक्ति प्राप्त कर लेता है, वह विरुद्ध गति को नहीं प्राप्त होता; क्योंकि श्रीशिवजी का अच्छी प्रकार का चिंतन प्राणीवर्ग के मोह का नाश करने वाला है ||१४||
सायंकाल में पूजा समाप्त होने पर रावण के गाये हुए इस शम्भु-पूजन-संबंधी स्तोत्र का जो पाठ करता है, भगवान् शंकर उस मनुष्य को रथ, हाथी, घोड़ों से युक्त सदा स्थिर रहने वाली अनुकूल सम्पत्ति देते हैं ||१५||
-------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “शिवस्तोत्ररत्नाकर” (कोड 1417) से

 



रावण कृत शिव तांडव स्तोत्र



|| ॐ नम: शिवाय ||


जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥1॥
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।
विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्द्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥2॥
धरा धरेंद्रनंदिनीविलासबंधुवंधुर-
स्फुरदृगंतसंतति प्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥
जटा भुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदंबकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदांध सिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर-
प्रसूनधूलिधोरणीविधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः
श्रियै चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिङ्गभा-
निपीतपंचसायकं नमन्निलिंपनायकम्‌ ।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालि संपदे शिरोजटालमस्तु नः ॥6॥
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनंजयाहुतीकृतप्रचंडपंचसायके ।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥7॥
नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहूनिशीथिनीतमः प्रबंधबद्धकंधरः ।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगद्धुरंधरः ॥8॥
प्रफुल्लनीलपञ्कजप्रपंचकालिमप्रभा-
वलम्बिकंठकंदलीरुचिप्रबद्धकंधरम्‌
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमञ्जरी-
रसप्रवाहमाधुरी विजृम्भणामधुव्रतम्‌ ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥10॥
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजङ्गमश्वस-
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्-
धिमिद्धिमिद्धिमिद्ध्वनन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समप्रवृत्तिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥12॥
कदा निलिंपनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन्‌
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन्‌ ।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥13॥
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तमं स्तवं
पठन् स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌ ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिंतनम ॥14॥
पूजाऽवसानसमये दशवक्त्रगीतं
यः शम्भुपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥15॥
-------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “शिवस्तोत्ररत्नाकर” (कोड 1417) से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

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