गुरुवार, 5 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 05)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

‘अगुन अनूपम गुन निधान सो’‒यह ‘राम’ नाम निर्गुण अर्थात् गुण रहित है । सत्त्व, रज और तमसे अतीत है, उपमारहित है और गुणोंका भण्डार है, दया,क्षमा, सन्तोष आदि सद्‌गुणोंका खजाना है, नाम लेनेसे ये सभी आप-से-आप आ जाते हैं । यह ‘राम’ नाम सगुण और निर्गुण दोनोंका वाचक है । आगेके प्रकरणमें आयेगा‒

अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी ।
उभय  प्रबोधक  चतुर  दुभाषी ॥
                                 …….  (मानस, बालकाण्ड, दोहा २१ । ८)

यह  ‘राम’ नाम सगुण और निर्गुण‒दोनोंको जनाने-वाला है । इसलिये सगुण उपासक भी ‘राम’ नाम जपते और निर्गुण उपासक भी ‘राम’ नाम जपते हैं । सगुण-साकारके उपासक हों, चाहे निर्गुण-निराकारके उपासक हों । ‘राम’ नामका जप सबको करना चाहिये । यह दोनोंकी प्राप्ति करा देता है ।

‘राम’ नाम अमृतके समान है; जैसे, बढ़िया भोजनमें घी और दूध मिला दो तो वह भोजन बहुत बढ़िया बनता है । ऐसे ही ‘राम’ नामको दूसरे साधनोंके साथ करो, चाहे केवल ‘राम’ नामका जप करो, यह हमें निहाल कर देगा ।

‘राम’ नामके समान तो केवल ‘राम’ नाम ही है । यह सब साधनोंसे श्रेष्ठ है । नामके दस अपराधोंमें बताया गया है‒‘धर्मान्तरैः साम्यम्’[1] नामके साथ किसीकी उपमा दी जायगी तो वह नामापराध हो जायगा । मानो नाम अनुपम है । इसमें उपमा नहीं लग सकती । इसलिये ‘नाम’ को किसीके बराबर नहीं कह सकते ।

भगवान् श्रीराम शबरीके आश्रमपर पधारे और शबरीको कहने लगे‒

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं ।
सावधान सुनु  धरु  मन  माहीं ॥
                                     ………. (मानस, अरण्यकाण्ड, दोहा ३५ । ७)

--‒‘मैं तुझे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ । तू सावधान होकर सुन और मनमें धारण कर ।’ नवधा भक्ति कहकर अन्तमें कहते हैं‒‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ॥’ (मानस, अरण्यकाण्ड, दोहा ३६ । ७) ‘तेरेमें सब प्रकारकी भक्ति दृढ़ है ।’शबरीको भक्तिके प्रकारोंका पता ही नहीं; परंतु नवधा भक्ति उसके भीतर आ गयी । किस प्रभावसे ?  ‘राम’ नामके प्रभावसे ! ऐसी उसकी लगन लगी कि ‘राम’ नाम जपते हुए रामजीके आनेकी प्रतीक्षा निरन्तर करती ही रही । इस कारण ऋषि-मुनियोंको छोड़कर शबरीके आश्रमपर भगवान् खुद पधारते हैं ।
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[1] सन्निन्दाऽसति नामवैभवकथा श्रीशेशयो-
र्भेदधीरश्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकगिरां नाम्न्यर्थवादभ्रमः ।
नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहितत्यागौ हि
धर्मान्तरैः साम्यं नामजपे शिवस्य च हरेर्नामापराधा दश ॥

राम !   राम !!   राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥ ३१॥
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा॥ ३२॥

हे केशव! मैं लक्षणों (शकुनों)-को भी विपरीत देख रहा हूँ और युद्धमें स्वजनोंको मारकर श्रेय (लाभ) भी नहीं देख रहा हूँ। हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ, न राज्य चाहता हूँ और न सुखोंको ही चाहता हूँ। हे गोविन्द! हमलोगोंको राज्यसे क्या लाभ? भोगोंसे क्या लाभ? अथवा जीनेसे भी क्या लाभ?

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

तान्समीक्ष्य स कौन्तेय: सर्वान्बन्धूनवस्थितान्॥ २७॥
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

अर्जुन उवाच

दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥ २८॥
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते॥ २९॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन:॥ ३०॥

अपनी-अपनी जगहपर स्थित उन सम्पूर्ण बान्धवोंको देखकर वे कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त कायरतासे युक्त होकर विषाद करते हुए ऐसा बोले ।

अर्जुन बोले—

हे कृष्ण! युद्धकी इच्छावाले इस कुटुम्ब-समुदायको अपने सामने उपस्थित देखकर मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा मेरे शरीरमें कँपकँपी आ रही है एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं। हाथसे गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है और मैं खड़े रहनेमें भी असमर्थ हो रहा हूँ।

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


बुधवार, 4 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 04)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

अग्निवंशमें परशुरामजी, सूर्यवंशमें रामजी और चन्द्रवंशमें बलरामजी‒इस प्रकार तीनों वंशोंमें ही भगवान्‌ने अवतार लिये । ये तीनों अवतार ‘राम’ नामवाले हैं | इन तीनोंका हेतु ‘राम’ नाम ही है । इस प्रकार सब अक्षरोंमें ‘राम’ नाम प्राण है । कृसानु, भानु और हिमकर‒इन तीनोंमेंसे ‘राम’ नाम निकाल देनेपर वे कुछ कामके नहीं रहते हैं, उनमें कुछ भी तथ्य नहीं रहता । यहाँ नामके तीनों अवयवोंको बतानेका तात्पर्य यह है कि ‘राम’ नाम जपनेसे साधकके पापोंका नाश होता है, अज्ञानका नाश होता है और अन्धकार दूर होकर प्रकाश हो जाता है । अशान्ति, सन्ताप, जलन आदि मिटकर शान्तिकी प्राप्ति हो जाती है । ऐसा जो रघुनाथजी महाराजका ‘राम’ नाम है, उसकी मैं वन्दना करता हूँ । अब आगे गोस्वामीजी महाराज कहते हैं‒

बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो ।
अगुन अनूपम गुन निधान  सो ॥

                                                    (मानस, बालकाण्ड दोहा १९ । २)
यह ‘राम’ नाम ब्रह्मा, विष्णु और महेशमय है । विधि, हरि, हर‒सृष्टिमात्रकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाली, ये तीन शक्तियों हैं । इनमें ब्रह्माजी सृष्टिकी रचना करते हैं, विष्णुभगवान् पालन करते हैं और शंकरभगवान् संहार करते हैं ।
संसारमें ‘राम’ नामसे बढ़कर कुछ नहीं है । सब कुछ  शक्ति इसमें भरी हुई है । इसलिये सन्तोंने कहा है‒
“रामदास सुमिरण करो रिध सिध याके माँय ।“
ऋद्धि-सिद्धि सब इसके भीतर भरी हुई है । विश्वास न हो तो रात-दिन जप करके देखो । सब काम हो जायगा, कोई काम बाकी नहीं रहेगा ।
यह ‘राम’ नाम वेदोंके प्राणके समान है, शास्त्रोंका और वर्णमालाका भी प्राण है । प्रणवको वेदोंका प्राण माना गया है । प्रणव तीन मात्रावाला ‘ॐ’ कार पहले-ही-पहले प्रकट हुआ, उससे त्रिपदा गायत्री बनी और उससे वेदत्रय बना । ऋक्, साम, यजुः‒ये तीनों मुख्य वेद हैं । इन तीनोंका प्राकट्य गायत्रीसे,गायत्रीका प्राकट्य तीन मात्रावाले ‘ॐ’ कारसे और यह ‘ॐ’ कार‒प्रणव सबसे पहले हुआ । इस प्रकार यह ‘ॐ’ कार (प्रणव) वेदोंका प्राण है ।
यहाँपर ‘राम’ नामको वेदोंका प्राण कहनेमें तात्पर्य है कि ‘राम’ नामसे‘प्रणव’ होता है । प्रणवमेंसे ‘र’ निकाल तो ‘पणव’ हो जायगा और ‘पणव’ का अर्थ ढोल हो जायगा । ऐसे ही ‘ॐ’ मेंसे ‘म’ निकालकर उच्चारण करो वह शोकका वाचक हो जायगा । प्रणवमें ‘र’ और ‘ॐ’ में ‘म’ कहना आवश्यक है । इसलिये यह ‘राम’ नाम वेदोंका प्राण भी है ।
राम !   राम !!   राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

सञ्जय उवाच

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥ २४॥
भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान्कुरूनिति॥ २५॥
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थ: पितॄनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥ २६॥
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।

संजय बोले—

हे भरतवंशी राजन्! निद्रा-विजयी अर्जुनके द्वारा इस तरह कहनेपर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने दोनों सेनाओं के मध्यभाग में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने श्रेष्ठ रथको खड़ा करके इस प्रकार कहा कि 'हे पार्थ ! इन इकट्ठे हुए कुरुवंशियों को देख। उसके बाद पृथानन्दन अर्जुनने उन दोनों ही सेनाओंमें स्थित पिताओं को, पितामहों को, आचार्यों को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा।

व्याख्या—

‘युद्ध के लिए एकत्र हुए इन कुरुवंशियों को देख’—ऐसा कहने में भगवान् की यह गूढ़ाभिसंधि थी कि इन कुरुवंशियों को देखकर अर्जुन के भीतर छिपा कौटुम्बिक ममतायुक्त मोह जाग्रत हो जाय और मोह जाग्रत होनेसे अर्जुन जिज्ञासु बन जाय, जिससे अर्जुन का तथा उनके निमित्त से भावी मनुष्यों का भी मोहनाश करने के लिए गीता का महान उपदेश दिया जा सके |

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वज:।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डव:॥ २०॥
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

अर्जुन उवाच

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥ २१॥
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे॥ २२॥
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागता:।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षव:॥ २३॥

हे महीपते धृतराष्ट्र! अब शस्त्र चलनेकी तैयारी हो ही रही थी कि उस समय अन्यायपूर्वक राज्यको धारण करनेवाले राजाओं और उनके साथियोंको व्यवस्थितरूपसे सामने खड़े हुए देखकर कपिध्वज पाण्डुपुत्र अर्जुनने अपना गाण्डीव धनुष उठा लिया और अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णसे यह वचन बोले।

अर्जुन बोले—

हे अच्युत ! दोनों सेनाओंके मध्यमें मेरे रथको (आप तबतक) खड़ा कीजिये, जबतक मैं (युद्धक्षेत्रमें) खड़े हुए इन युद्धकी इच्छावालोंको देख न लूँ कि इस युद्धरूप उद्योगमें मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है। दुष्टबुद्धि दुर्योधन का युद्ध में प्रिय करने की इच्छावाले जो ये राजालोग इस सेनामें आये हुए हैं, युद्ध करनेको उतावले हुए (इन सबको) मैं देख लूँ।

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिता:।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्त: सर्व एव हि॥ ११॥
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्ध: पितामह:।
सिंहनादं विनद्योच्चै: शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्॥ १२॥
तत: शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखा:।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्॥ १३॥
तत: श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधव: पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतु:॥ १४॥
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय:।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदर:॥ १५॥
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर:।
नकुल: सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ॥ १६॥
काश्यश्च परमेष्वास: शिखण्डी च महारथ:।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजित:॥ १७॥
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वश: पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहु: शङ्खान्दध्मु: पृथक्पृथक्॥ १८॥
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्॥ १९॥

दुर्योधन बाह्यदृष्टिसे अपनी सेनाके महारथियोंसे बोला—आप सब-के-सब लोग सभी मोर्चोंपर अपनी-अपनी जगह दृढ़तासे स्थित रहते हुए निश्चितरूपसे पितामह भीष्मकी ही चारों ओरसे रक्षा करें। उस (दुर्योधन)-के हृदयमें हर्ष उत्पन्न करते हुए कौरवोंमें वृद्ध प्रभावशाली पितामह भीष्मने सिंहके समान गरजकर जोरसे शंख बजाया।उसके बाद शंख और भेरी (नगाड़े) तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।उसके बाद सफेद घोड़ोंसे युक्त महान् रथपर बैठे हुए लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण और पाण्डुपुत्र अर्जुनने भी दिव्य शंखोंको बड़े जोरसे बजाया।अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने पांचजन्य नामक तथा धनंजय अर्जुनने देवदत्त नामक शंख बजाया और भयानक कर्म करनेवाले वृकोदर भीमने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया।कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरने अनन्तविजय नामक शंख बजाया तथा नकुल और सहदेवने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये। हे राजन्! श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और महारथी शिखण्डी तथा धृष्टद्युम्न एवं राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद और द्रौपदी के पाँचों पुत्र तथा लम्बी-लम्बी भुजाओंवाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु—इन सभी ने सब ओर से अलग-अलग (अपने-अपने) शंख बजाये । और (पाण्डवसेना के शंखों के) उस भयंकर शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुँजाते हुए अन्यायपूर्वक राज्य हड़पने वाले दुर्योधन आदि के हृदय विदीर्ण कर दिये।

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


मंगलवार, 3 अक्तूबर 2023

गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्॥ १०॥

(द्रोणाचार्य को चुप देखकर दुर्योधन के मन में विचार हुआ कि वास्तवमें) हमारी वह सेना (पाण्डवोंपर विजय करनेमें) अपर्याप्त है, असमर्थ है; क्योंकि उसके संरक्षक (उभय-पक्षपाती) भीष्म हैं । परन्तु इन पाण्डवोंकी यह सेना (हमपर विजय करनेमें) पर्याप्त है, समर्थ है; क्योंकि इसके संरक्षक (निजसेना-पक्षपाती) भीमसेन हैं।

व्याख्या—

इस श्लोक से ऐसा प्रतीत है कि दुर्योधन पांडवों से संधि करना चाहता है | परन्तु वास्तव में ऐसी बात है नहीं | दुर्योधन ने कहा है—

जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जनाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः |
केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ||
....................(गर्गसंहिता, अश्वमेध०५० | ३६)

‘मैं धर्म को जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को भी जानता हूँ, पर उसमें मेरी निवृत्ति नहीं होती | मेरे हृदय में स्थित कोई देव है, जो मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ |’

दुर्योधन हृदय में स्थित जिस देव की बात कहता है, वह वास्तव में ‘कामना’ ही है | जब वह कामना के वशीभूत होकर उसके अनुसार चलता है तो फिर वह पाण्डवों से संधि कैसे कर सकता है ? पाण्डव मन के अनुसार नहीं चलते थे, प्रत्युत धर्म के तथा भगवान् की आज्ञा के अनुसार चलते थे | इसलिए जब गन्धर्वों ने दुर्योधन को बन्दी बना लिया था, तब युधिष्ठिर ने ही उसे छुड़वाया | वहाँ युधिष्ठिर के वचन हैं—

परै: परिभावे प्राप्ते वयं पञ्चोतरं शतम् |
परस्परविरोधे तु वयं पञ्च शतं तु ते ||
...................(महाभारत, वन० २४३)

‘दूसरों के द्वारा पराभव प्राप्त होनेपर उसका सामना करने के लिए हमलोग एक सौ पाँच भाई हैं | आपस में विरोध होनेपर ही हम पाँच भाई अलग हैं और वे सौ भाई अलग हैं |’

कामना मनुष्यों को पापों में लगाती है (गीता ३ | ३६-३७); परन्तु धर्म मनुष्यों को पुण्यकर्मों में लगाता है |

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 03)

 


|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

  

जब लग गज अपनो बल बरत्यो नेक सरयो नहीं काम ।

निरबल ह्वै  बलराम  पुकार्‌यो   आयो   आधे   नाम ॥

 

जैसे, गजराजने पूरा नाम भी उच्चारण नहीं किया, उसने केवल हे ना......(थ)आधा नाम लेकर पुकारा । उतनेमें भगवान्‌ने आकर रक्षा कर दी । शास्त्रीय विधियोंकी उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी इस तरह आर्त होकर पुकारनेकी है । इसलिये आर्त होकर, दुःखी होकर, भगवान्‌को अपना मानकर पुकारें और केवल उनका ही भरोसा, उनकी ही आशा, उनका ही विश्वास रखें और सब तरफसे मन हटाकर उनका ही नाम लें और उनको ही पुकारेंहे राम ! राम !! राम !!! आर्तका भाव तेज होता है, इससे भगवान् उसकी तरफ खिंच जाते हैं और उसके सामने प्रकट हो जाते हैं । तभी तो भगवान् प्रह्लादके लिये खम्भेमेंसे प्रकट हो गये । भीतरका जो आर्तभाव होता है, वही मुख्य होता है । रामनाम उच्चारण करनेकी बड़ी भारी महिमा है । उस रामनामका प्रकरण रामचरितमानसमें बड़े विलक्षण ढंगसे आया है ।

 

नाम-वन्दना

 

 बंदउँ नाम  राम  रघुबर  को ।

हेतु कृसानु भानु हिमकर को ॥

 

                                …………(मानस, बालकाण्ड, दोहा १९ । १)

 

नामकी वन्दना करते हुए श्रीगोस्वामीजी महाराज कहते हैं कि मैं रघुवंशमें श्रेष्ठ श्रीरघुनाथजीके उस रामनामकी वन्दना करता हूँ, जो कृसानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात् बीज है । बीजमें क्या होता है ?बीजमें सब गुण होते हैं । वृक्षके फलमें जो रस होता है, वह सब रस बीजमें ही होता है । बीजसे ही सारे वृक्षको तथा फलोंको रस मिलता है । अग्निवंशमें परशुरामजी, सूर्यवंशमें रामजी और चन्द्रवंशमें बलरामजीइस प्रकार तीनों वंशोंमें ही भगवान्‌ने अवतार लिये । ये तीनों अवतार रामनामवाले हैं, पर श्रीरघुनाथजी महाराजका जो रामनाम है, वह इन सबका कारण है । मैं रघुनाथजी महाराजके उसी रामनामकी वन्दना करता हूँ, जो अग्निका बीज ’,सूर्यका बीज और चन्द्रमाका बीज है । रामनाममें ’, ‘और ’‒ये तीन अवयव हैं । इन अवयवोंका वर्णन करनेके लिये कृसानु, भानु और हिमकरये तीन शब्द दिये हैं ।

 

यहाँ ये तीनों शब्द बड़े विचित्र एवं विलक्षण रीतिसे दिये गये हैं । कृसानुमें’, भानुमें और हिमकर में है । कृसानुशब्दमेंसे को निकाल दें तोक्सानुशब्द बचेगा, जिसका कोई अर्थ नहीं होगा । भानुशब्दमेंसे निकाल दें तो भ्नुका भी कोई अर्थ नहीं होगा । ऐसे ही हिमकरशब्दमेंसे को निकाल दें तो हिकरका भी कोई अर्थ नहीं निकलेगा; अर्थात् कृसानु भानु और हिमकरये तीनों मुर्देकी तरह हो जायँगे; क्योंकि इनमेंसे रामही निकल गया । इनके साथरामनाम रहनेसे कृसानुमें कृका अर्थ करना, ‘सानुका अर्थ शिखर है, ऐसे हीभानुमें भानाम प्रकाशका है, ‘नुनाम निश्चयका है और हिमकरमें हिमनाम बर्फका है और करनाम हाथका है ।

 

राम !   राम !!   राम !!!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की मानस में नाम-वन्दनापुस्तकसे



गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०२)


 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

  

सञ्जय उवाच


दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।

आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्॥ २॥

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।

व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता॥ ३॥

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।

युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ:॥ ४॥

धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजश्च वीर्यवान्।

पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गव:॥ ५॥

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।

सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथा:॥ ६॥

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।

नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते॥ ७॥

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जय:।

अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च॥ ८॥

अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे त्यक्तजीविता:।

नानाशस्त्रप्रहरणा: सर्वे युद्धविशारदा:॥ ९॥

 

 संजय बोले

 उस समय वज्रव्यूह से खड़ी हुई पाण्डव-सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर राजा दुर्योधन यह वचन बोला । हे आचार्य! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्नके द्वारा व्यूहरचना से खड़ी की हुई पाण्डवों की इस बड़ी भारी सेनाको देखिये। यहाँ (पाण्डवोंकी सेनामें) बड़े-बड़े शूरवीर हैं, जिनके बहुत बड़े-बड़े धनुष हैं तथा जो युद्धमें भीम और अर्जुनके समान हैं। उनमें युयुधान (सात्यकि), राजा विराट और महारथी द्रुपद भी हैं। धृष्टकेतु और चेकितान तथा पराक्रमी काशिराज भी हैं। पुरुजित् और कुन्तिभोजये (दोनों भाई) तथा मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य भी हैं। पराक्रमी युधामन्यु और पराक्रमी उत्तमौजा भी हैं। सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र भी हैं। ये सब-के-सब महारथी हैं। हे द्विजोत्तम! हमारे पक्षमें भी जो मुख्य हैं, उनपर भी आप ध्यान दीजिये। आपको याद दिलाने के लिये मेरी सेना के जो नायक हैं, उनको मैं कहता हूँ। आप (द्रोणाचार्य) और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्रभूरिश्रवा । इनके अतिरिक्त बहुत-से शूरवीर हैं, जिन्होंने मेरे लिये अपने जीने की इच्छा का भी त्याग कर दिया है, और जो अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने वाले हैं तथा जो सब-के-सब युद्धकला में अत्यन्त चतुर हैं।

 

ॐ तत्सत् !

 

शेष आगामी पोस्ट में .........

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...