॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो-
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ २०॥
यह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता
है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला नहीं है। यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शाश्वत और अनादि है। शरीरके मारे
जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।
व्याख्या—
उत्पन्न होना,
सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना
और नष्ट होना-ये छः विकार शरीरमें ही होते हैं ।
शरीरीमें ये विकार कभी हुए ही नहीं,
कभी होंगे नहीं, कभी
हो सकते ही नहीं ।
शरीरी कभी उत्पन्न नहीं होता-‘न जायते’, ‘अजः’; उत्पन्न होकर विकारी सत्तावाला नहीं होता-‘अयं भूत्वा भविता वा न भूय:’;
यह बदलता नहीं- ‘शाश्वतः’; यह बढ़ता नहीं-‘पुराणः’, यह क्षीण नहीं होता-‘नित्यः’; और यह मरता नहीं-‘न
म्रियते’, न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ ।
मुख्य विकार दो ही हैं-उत्पन्न होना और
नष्ट होना । अतः प्रस्तुत श्लोकमें इस
दोनों विकारोंका दो-दो बार निषेध किया गया है;
जैसे-‘न
जायते म्रियते’ और ‘अजः’, ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ ।
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)