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रविवार, 11 फ़रवरी 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०३)
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०२)
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०१)
गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023
गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.२१)
॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: शृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥
२९॥
कोई इस शरीरीको आश्चर्यकी तरह देखता
(अनुभव करता) है और वैसे ही दूसरा कोई इसका आश्चर्यकी तरह वर्णन करता है तथा अन्य
कोई इसको आश्चर्यकी तरह सुनता है और इसको सुनकर भी कोई नहीं जानता अर्थात् यह दुर्विज्ञेय
है।
व्याख्या—
यह शरीरी इतना विलक्षण है कि इसका
अनुभव भी आश्चर्यजनक होता है, वर्णन
भी आश्चर्यजनक होता है और इसका वर्णन सुनना भी आश्चर्यजनक होता है । परन्तु शरीरी का अनुभव सुननेमात्र से अर्थात्
अभ्याससे नहीं होता, प्रत्युत
स्वीकार करने से होता है । इसका उपाय है-
चुप होना, शान्त होना, कुछ
न करना ।
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.२०)
॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि
भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥
२८॥
हे भारत ! सभी प्राणी जन्मसे पहले
अप्रकट थे और मरनेके बाद अप्रकट हो जायँगे, केवल बीचमें ही प्रकट दीखते हैं। अत: इसमें शोक करनेकी बात ही क्या
है ?
व्याख्या—
शरीरी स्वयं अविनाशी है, शरीर विनाशी है । स्थूलदृष्टि से केवल शरीरों को ही देखें तो वे जन्म
से पहले भी हमारे साथ नहीं थे और मरने के बाद भी वे हमारे साथ नहीं रहेंगे । वर्तमान में वे हमारे साथ मिल हुए-से दीखते हैं, पर वास्तवमें हमारा उनसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है । इस तरह मिले हुए और बिछुड़ने वाले प्राणियों के
लिये शोक करने से क्या लाभ ?
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.१९)
॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं
शोचितुमहर्सि॥ २६॥
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म
मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं
शोचितुमहर्सि॥ २७॥
हे महाबाहो ! अगर तुम इस देही को
नित्य पैदा होने वाला अथवा नित्य मरनेवाला भी मानो, तो भी तुम्हें इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये । कारण कि पैदा हुए की
जरूर मृत्यु होगी और मरे हुए का जरूर जन्म होगा। अत: (इस जन्म-मरणरूप परिवर्तन के
प्रवाह का) निवारण नहीं हो सकता। अत: इस विषय में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।
व्याख्या—
जो मिला है और बिछुड़ने वाला है, उस पर किसी का स्वतन्त्र अधिकार नहीं चलता । कारण कि मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तु अपनी
और अपने लिये नहीं होती, प्रत्युत
संसार की और संसार के लिये ही होती है ।
उसका उपयोग केवल संसार की सेवा के लिये ही हो सकता है, अपने लिये नहीं ।
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.१८)
॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं
नानुशोचितुमहर्सि॥ २५॥
यह देही प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिन्तनका विषय नहीं है और यह
निर्विकार कहा जाता है। अत: इस देहीको ऐसा जानकर शोक नहीं करना चाहिये।
व्याख्या—
साधकका स्वरूप अव्यक्त है; परन्तु शरीर रूपसे वह अपनेको व्यक्त मानता है-यह साधककी मूल भूल है
। इस भूलका प्रायश्चित्त करनेके लिये तीन
बातें हैं-(१) साधक अपनी भूलको स्वीकार
करे कि अपनेको शरीर मानकर मैंने भूल की, (२) साधक अपनी भूलका पश्चात्ताप करे कि साधक होकर मैने ऐसी भूल की और
(३) साधक यह निश्चय कए कि अबागे मैं कभी ऐसी भूल नहीं करूँगा ।
शरीरी (सत्-तत्त्व)- का अनुभव तो किया
जा सकता है, पर वर्णन नहीं किया जा सकता ।
उसका जो भी वर्णन या चिन्तन किया जाता है,
वह वास्तवमें प्रकृतिका ही होता है । एक बार शरीरीका अनुभव होनेपर फिर मनुष्य सदाके
लिये शोकरहित होजाता है ।
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.१७)
॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य
एव च।
नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन:॥
२४॥
यह शरीरी काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा सकता, यह गीला नहीं किया जा सकता और यह
सुखाया भी नहीं जा सकता। कारण कि यह नित्य रहनेवाला, सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर
स्वभाववाला और अनादि है।
व्याख्या—
जड़ वस्तु शरीरीमें कोई भी विकार
उत्पन्न नहीं कर सकती; क्योंकि
शरीरी स्वतः-स्वाभाविक निर्विकार है ।
निर्विकारता इसका स्वरूप है ।
शरीरी सर्वगत है, शरीरगत नहीं । जो चौरासी लाख
योनियोंसे होकर आया, वह
शरीरगत कैसे हो सकता है ? जो सर्वगत है, वह शरीरगत (एकदेशीय) नहीं हो सकता और जो शरीरगत है, वह सर्वगत नहीं हो सकता ।
ॐ
तत्सत् !
शेष आगामी
पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.१६)
॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति
मारुत:॥ २३॥
शस्त्र इस शरीरी को काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु
इसको सुखा नहीं सकती।
व्याख्या—
पृथ्वी,
जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि
तथा अहंकार-यह अपरा प्रकृति (जड़-विभाग) है और
स्वरूप परा प्रकृति (चेतन-विभाग) है (गीता ७।४-५) । अपरा प्रकृति परा प्रकृति तक पहुँच ही नहीं
सकती । जड़ पदार्थ चेतन-तत्त्वतक कैसे
पहुँच सकता है ? इसलिये
जड़ वस्तु चेतन शरीरी में किन्चिन्मात्र कोई विकार उत्पन्न नहीं कर सकती ।
ॐ
तत्सत् !
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.१५)
॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ २२॥
मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर
दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता
है।
व्याख्या—
जैसे कपड़े बदलनेसे मनुष्य बदल नहीं
जाता, ऐसे
ही अनेक शरीरोंको धारण करने और छोड़नेपर भी शरीरी वही-का-वही रहता है,
बदलता
नहीं । तात्पर्य है कि शरीरके परिवर्तन
तथा नाशसे स्वयंका परिवर्तन तथा नाश नहीं होता ।
यह सबका अनुभव है कि हम रहते हैं, बचपन
आता और चला जाता है । हम रहते हैं, जवानी
आती और चली जाती है । हम रहते हैं, बुढ़ापा
आता और चला जाता है । वास्तवमें न बचपन है,
न
जवानी है, न
बुढ़ापा है, न
मृत्यु है, प्रत्युत
केवल हमारी सत्ता ही है ।
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- पहला अध्याय परीक्षित् और वज्रनाभ का समागम , शाण्डिल...