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सोमवार, 12 फ़रवरी 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०७)
रविवार, 11 फ़रवरी 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०६)
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०५)
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०४)
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०३)
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०२)
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०१)
गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023
गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.२१)
॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: शृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥
२९॥
कोई इस शरीरीको आश्चर्यकी तरह देखता
(अनुभव करता) है और वैसे ही दूसरा कोई इसका आश्चर्यकी तरह वर्णन करता है तथा अन्य
कोई इसको आश्चर्यकी तरह सुनता है और इसको सुनकर भी कोई नहीं जानता अर्थात् यह दुर्विज्ञेय
है।
व्याख्या—
यह शरीरी इतना विलक्षण है कि इसका
अनुभव भी आश्चर्यजनक होता है, वर्णन
भी आश्चर्यजनक होता है और इसका वर्णन सुनना भी आश्चर्यजनक होता है । परन्तु शरीरी का अनुभव सुननेमात्र से अर्थात्
अभ्याससे नहीं होता, प्रत्युत
स्वीकार करने से होता है । इसका उपाय है-
चुप होना, शान्त होना, कुछ
न करना ।
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.२०)
॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि
भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥
२८॥
हे भारत ! सभी प्राणी जन्मसे पहले
अप्रकट थे और मरनेके बाद अप्रकट हो जायँगे, केवल बीचमें ही प्रकट दीखते हैं। अत: इसमें शोक करनेकी बात ही क्या
है ?
व्याख्या—
शरीरी स्वयं अविनाशी है, शरीर विनाशी है । स्थूलदृष्टि से केवल शरीरों को ही देखें तो वे जन्म
से पहले भी हमारे साथ नहीं थे और मरने के बाद भी वे हमारे साथ नहीं रहेंगे । वर्तमान में वे हमारे साथ मिल हुए-से दीखते हैं, पर वास्तवमें हमारा उनसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है । इस तरह मिले हुए और बिछुड़ने वाले प्राणियों के
लिये शोक करने से क्या लाभ ?
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.१९)
॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं
शोचितुमहर्सि॥ २६॥
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म
मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं
शोचितुमहर्सि॥ २७॥
हे महाबाहो ! अगर तुम इस देही को
नित्य पैदा होने वाला अथवा नित्य मरनेवाला भी मानो, तो भी तुम्हें इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये । कारण कि पैदा हुए की
जरूर मृत्यु होगी और मरे हुए का जरूर जन्म होगा। अत: (इस जन्म-मरणरूप परिवर्तन के
प्रवाह का) निवारण नहीं हो सकता। अत: इस विषय में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।
व्याख्या—
जो मिला है और बिछुड़ने वाला है, उस पर किसी का स्वतन्त्र अधिकार नहीं चलता । कारण कि मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तु अपनी
और अपने लिये नहीं होती, प्रत्युत
संसार की और संसार के लिये ही होती है ।
उसका उपयोग केवल संसार की सेवा के लिये ही हो सकता है, अपने लिये नहीं ।
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान् की पूजाविधि ...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- पहला अध्याय परीक्षित् और वज्रनाभ का समागम , शाण्डिल...