॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--सातवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)
अश्वत्थामाद्वारा द्रौपदी के पुत्रोंका मारा जाना और
अर्जुनके द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
मत्तं प्रमत्तमुन्मत्तं सुप्तं बालं स्त्रियं जडम् ।
प्रपन्नं विरथं भीतं न रिपुं हन्ति धर्मवित् ॥ ३६ ॥
स्वप्राणान्यः परप्राणैः प्रपुष्णात्यघृणः खलः ।
तद् वधस्तस्य हि श्रेयो यद् दोषाद्यात्यधः पुमान् ॥ ३७ ॥
प्रतिश्रुतं च भवता पाञ्चाल्यै श्रृण्वतो मम ।
आहरिष्ये शिरस्तस्य यस्ते मानिनि पुत्रहा ॥ ३८ ॥
तदसौ वध्यतां पाप आतताय्यात्मबंधुहा ।
भर्तुश्च विप्रियं वीर कृतवान् कुलपांसनः ॥ ३९ ॥
सूत उवाच ।
एवं परीक्षता धर्मं पार्थः कृष्णेन चोदितः ।
नैच्छद् हन्तुं गुरुसुतं यद्यप्यात्महनं महान् ॥ ४० ॥
अथोपेत्य स्वशिबिरं गोविंदप्रियसारथिः ।
न्यवेदयत् तं प्रियायै शोचन्त्या आत्मजान् हतान् ॥ ४१ ॥
धर्मवेत्ता पुरुष असावधान, मतवाले, पागल, सोये हुए, बालक, स्त्री, विवेकज्ञानशून्य, शरणागत, रथहीन और भयभीत शत्रुको कभी नहीं मारते ॥ ३६ ॥ परन्तु जो दुष्ट और क्रूर पुरुष दूसरोंको मारकर अपने प्राणोंका पोषण करता है, उसका तो वध ही उसके लिये कल्याणकारी है; क्योंकि वैसी आदतको लेकर यदि वह जीता है तो और भी पाप करता है और उन पापोंके कारण नरकगामी होता है ॥ ३७ ॥ फिर मेरे सामने ही तुमने द्रौपदी से प्रतिज्ञा की थी कि ‘मानवती ! जिसने तुम्हारे पुत्रों का वध किया है, उसका सिर मैं उतार लाऊँगा’ ॥ ३८ ॥ इस पापी कुलाङ्गार आततायी ने तुम्हारे पुत्रों का वध किया है और अपने स्वामी दुर्योधन को भी दु:ख पहुँचाया है। इसलिये अर्जुन ! इसे मार ही डालो ॥ ३९ ॥ भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनके धर्मकी परीक्षा लेनेके लिये इस प्रकार प्रेरणा की, परन्तु अर्जुनका हृदय महान् था। यद्यपि अश्वत्थामा ने उनके पुत्रोंकी हत्या की थी, फिर भी अर्जुनके मनमें गुरुपुत्र को मारनेकी इच्छा नहीं हुई ॥ ४० ॥
इसके बाद अपने मित्र और सारथि श्रीकृष्णके साथ वे अपने युद्ध-शिविरमें पहुँचे। वहाँ अपने मृत पुत्रोंके लिये शोक करती हुई द्रौपदीको उसे सौंप दिया ॥ ४१ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --