# श्रीहरि:
#
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
चौथा
अध्याय (पोस्ट 03)
नन्द
आदि के लक्षण; गोपीयूथ का परिचय;
श्रुति आदि के गोपीभाव की प्राप्ति में कारणभूत पूर्वप्राप्त
वरदानों का विवरण
श्रीभगवानुवाच
-
ताश्च गोप्यो भविष्यन्ति पूर्वकल्पवरान्मम ।
अन्यासां चैव गोपीनां लक्षणं शृणु तद्विधे ॥३४॥
सुराणां रक्षणार्थाय राक्षसानां वधाय च ।
त्रेतायां रामचंद्रोऽभूद्वीरो दशरथात्मजः ॥३५॥
सीतास्वयंवरं गत्वा धनुर्भङ्गं चकार सः ।
उवाह जानकीं सीतां रामो राजीवलोचनः ॥३६॥
तं दृष्ट्वा मैथिलाः सर्वाः पुरन्ध्र्यो मुमुहुर्विधे ।
रहस्यूचुर्महात्मानं भर्ता नो भव हे प्रभो ॥३७॥
तामाह राघवेन्द्रस्तु मा शोकं कुरुत स्त्रियः ।
द्वापरान्ते करिष्यामि भवतीनां मनोरथम् ॥३८॥
तीर्थं दानं तपः शौचं समाचरत तत्त्वतः ।
श्रद्धया परया भक्त्या व्रजे गोप्यो भविष्यथ ॥३९॥
इति ताभ्यो वरं दत्त्वा श्रीरामः करुणानिधिः ।
कोसलान् प्रययौ धन्वी तेजसा जितभार्गवः ॥४०॥
मार्गे च कौसला नार्यो रामं दृष्ट्वातिसुंदरम् ।
मनसा वव्रिरे तं वै पतिं कन्दर्पमोहनम् ॥४१॥
मनसापि वरं रामो ददौ ताभ्यो ह्यशेषवित् ।
मनोरथं करिष्यामि व्रजे गोप्यो भविष्यथ ॥४२॥
आगतं सीतया सार्धं सैनिकैः सहितं रघुम् ।
अयोध्यापुरवासिन्यः श्रुत्वा द्रष्टुं समाययुः ॥४३॥
वीक्ष्य तं मोहमापन्ना मूर्छिताः प्रेमविह्वलाः ।
तेपुस्तपस्ताः सरयूतीरे रामधृतव्रताः ॥४४॥
आकाशवागभूत्तासां द्वापरान्ते मनोरथः ।
भविष्यति न संदेहः कालिंदीतीरजे वने ॥४५॥
पितुर्वाक्याद्यदा रामो दंडकाख्यं वनं गतः ।
चचार सीतया सार्धं लक्ष्मणेन धनुष्मता ॥४६॥
गोपालकोपासकाः सर्वे दंडकारण्यवासिनः ।
ध्यायन्तः सततं मां वै रासार्थं ध्यानतत्पराः ॥४७॥
येषामाश्रममासाद्य धनुर्बाणधरो युवा ।
तेषां ध्याने गतो रामो जटामुकुटमंडितः ॥४८॥
अन्याकृतिं ते तं वीक्ष्य परं विस्मितमानसाः ।
ध्यानादुत्थाय ददृशुः कोटिकन्दर्पसन्निभम् ॥४९॥
ऊचुस्तेऽयं तु गोपालो वंशीवेत्रे विना प्रभुः ।
इत्थं विचार्य मनसा नेमुश्चक्रुः स्तुतिं पराम् ॥५०॥
श्रीभगवान्
कहते हैं - ब्रह्माजी ! पूर्व कल्प- में मैंने वर दे दिया है,
उसीके प्रभावसे वे श्रुतियाँ व्रजमें गोपियाँ होंगी। अब अन्य
गोपियोंके लक्षण सुनो ॥ ३४ ॥
त्रेतायुगमें
देवताओंकी रक्षा और राक्षसोंका संहार करनेके लिये मेरे स्वरूपभूत महापराक्रमी
श्रीरामचन्द्रजी अवतीर्ण हुए थे। कमललोचन श्रीरामने सीताके स्वयंवरमें जाकर धनुष
तोड़ा और उन जनकनन्दिनी श्रीसीताजीके साथ विवाह किया ॥ ३५-३६ ॥
ब्रह्माजी
! उस अवसरपर जनकपुर की स्त्रियाँ श्रीराम को देखकर प्रेमविह्वल हो गयीं। उन्होंने
एकान्त में उन महाभाग से अपना अभिप्राय प्रकट किया- 'राघव ! आप हमारे परम प्रियतम बन जायें ।' तब
श्रीरामने कहा- 'सुन्दरियो ! तुम शोक मत करो। द्वापरके
अन्तमें मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा ॥ ३७-३८ ॥
तुमलोग
परम श्रद्धा और भक्तिके साथ तीर्थ, दान,
तप, शौच एवं सदाचार का भलीभाँति पालन करती
रहो। तुम्हें व्रजमें गोपी होने का सुअवसर प्राप्त होगा' ॥ ३९
॥
इस
प्रकार वर देकर धनुर्धारी करुणानिधि श्रीराम ने अयोध्याके लिये प्रस्थान कर दिया।
उस समय मार्ग में अपने प्रताप से उन्होंने भृगुकुलनन्दन परशुरामजी को परास्त कर
दिया था । कोसल जनपद की स्त्रियों ने भी राजपथ से जाते हुए उन कमनीय- कान्ति राम को
देखा। उनकी सुन्दरता कामदेवको मोहित कर रही थी। उन स्त्रियोंने श्रीरामको मन-ही-मन
पतिके रूपमें वरण कर लिया। उस समय सर्वज्ञ श्रीरामने उन समस्त स्त्रियोंको
मन-ही-मन वर दिया — 'तुम सभी व्रजमें
गोपियाँ होओगी और उस समय मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा ।। ४०-४२ ॥
फिर
सीता और सैनिकोंके साथ रघुनाथजी अयोध्या पधारे। यह सुनकर अयोध्यामें रहनेवाली
स्त्रियाँ उन्हें देखनेके लिये आयीं। श्रीरामको देखकर उनका मन मुग्ध हो गया। वे
प्रेमसे विह्वल हो मूर्च्छित सी हो गयीं। फिर वे श्रीरामके व्रतमें परायण होकर
सरयू के तटपर तपस्या करने लगीं। तब उनके सामने आकाशवाणी हुई- 'द्वापरके अन्तमें यमुनाके किनारे वृन्दावनमें तुम्हारे मनोरथ पूर्ण होंगे,
इसमें संदेह नहीं है । ४३ – ४५॥
जिस
समय श्रीरामने पिताकी आज्ञासे दण्डकवन- की यात्रा की,
सीता तथा लक्ष्मण भी उनके साथ थे और वे हाथमें धनुष लेकर इधर-उधर
विचर रहे थे। वहीं बहुत-से मुनि थे। उनकी गोपाल वेषधारी भगवान् के स्वरूपमें
निष्ठा थी। रासलीलाके निमित्त वे भगवान् का ध्यान करते थे। उस समय श्रीरामकी युवा
अवस्था थी - वे हाथमें धनुष-बाण धारण किये हुए थे । जटाओंके मुकुटसे उनकी विचित्र
शोभा थी। अपने आश्रमपर पधारे हुए श्रीराममें उन मुनियोंका ध्यान लग गया। (वे
ऋषिलोग गोपाल-वेषधारी भगवान् के उपासक थे) अतः दूसरे ही स्वरूपमें आये हुए
श्रीरामको देखकर सबके मनमें अत्यन्त आश्चर्य हो गया। उनकी समाधि टूट गयी और देखा
तो करोड़ों कामदेवोंके समान सुन्दर श्रीराम दृष्टिगोचर हुए।
तब
वे बोल उठे- 'अहो ! आज हमारे गोपालजी वंशी एवं
बेंतके बिना ही पधारे हैं। -इस प्रकार मन-ही- मन विचारकर सबने श्रीरामको प्रणाम
किया और उनकी उत्तम स्तुति करने लगे । ४६ - ५० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से