शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

परीक्षित् का जन्म

युधिष्ठिर उवाच ।

अप्येष वंश्यान् राजर्षीन् पुण्यश्लोकान् महात्मनः ।
अनुवर्तिता स्विद्यशसा साधुवादेन सत्तमाः ॥ १८ ॥

ब्राह्मणा ऊचुः ।

पार्थ प्रजाविता साक्षात् इक्ष्वाकुरिव मानवः ।
ब्रह्मण्यः सत्यसन्धश्च रामो दाशरथिर्यथा ॥ १९ ॥
एष दाता शरण्यश्च यथा ह्यौशीनरः शिबिः ।
यशो वितनिता स्वानां दौष्यन्तिरिव यज्वनाम् ॥ २० ॥
धन्विनामग्रणीरेष तुल्यश्चार्जुनयोर्द्वयोः ।
हुताश इव दुर्धर्षः समुद्र इव दुस्तरः ॥ २१ ॥
मृगेन्द्र इव विक्रान्तो निषेव्यो हिमवानिव ।
तितिक्षुर्वसुधेवासौ सहिष्णुः पितराविव ॥ २२ ॥
पितामहसमः साम्ये प्रसादे गिरिशोपमः ।
आश्रयः सर्वभूतानां यथा देवो रमाश्रयः ॥ २३ ॥
सर्वसद्‍गुणमाहात्म्ये एष कृष्णमनुव्रतः ।
रन्तिदेव इवोदारो ययातिरिव धार्मिकः ॥ २४ ॥

युधिष्ठिरने कहा—महात्माओ ! यह बालक क्या अपने उज्ज्वल यशसे हमारे वंशके पवित्रकीर्ति महात्मा राजर्षियोंका अनुसरण करेगा ? ॥ १८ ॥
ब्राह्मणोंने कहा—धर्मराज ! यह मनुपुत्र इक्ष्वाकु के समान अपनी प्रजाका पालन करेगा तथा दशरथनन्दन भगवान्‌ श्रीरामके समान ब्राह्मणभक्त और सत्यप्रतिज्ञ होगा ॥ १९ ॥ यह उशीनर- नरेश शिबिके समान दाता और शरणागतवत्सल होगा तथा याज्ञिकोंमें दुष्यन्तके पुत्र भरतके समान अपने वंशका यश फैलायेगा ॥ २० ॥ धनुर्धरोंमें यह सहस्रबाहु अर्जुन और अपने दादा पार्थके समान अग्रगण्य होगा। यह अग्निके समान दुर्धर्ष और समुद्रके समान दुस्तर होगा ॥ २१ ॥ यह सिंहके समान पराक्रमी, हिमाचलकी तरह आश्रय लेनेयोग्य, पृथ्वीके सदृश तितिक्षु और माता- पिताके समान सहनशील होगा ॥ २२ ॥ इसमें पितामह ब्रह्माके समान समता रहेगी, भगवान्‌ शङ्करकी तरह यह कृपालु होगा और सम्पूर्ण प्राणियोंको आश्रय देनेमें यह लक्ष्मीपति भगवान्‌ विष्णुके समान होगा ॥ २३ ॥ यह समस्त सद्गुणोंकी महिमा धारण करनेमें श्रीकृष्णका अनुयायी होगा, रन्तिदेवके समान उदार होगा और ययातिके समान धार्मिक  होगा ॥ २४ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

श्रीकृष्ण जन्मोत्सव की धूम; गोप-गोपियों का उपायन लेकर आना; नन्द और यशोदा-रोहिणीद्वारा सबका यथावत् सत्कार; ब्रह्मादि देवताओंका भी श्रीकृष्णदर्शनके लिये आगमन

 

श्रीनन्दराजसुतसंभवमद्‌भुतं च
श्रुत्वा विसृज्य गृहकर्म तदैव गोप्यः ।
तूर्णं ययुः सबलयो व्रजराजगेहा-
नुद्यत्प्रमोदपरिपूरितहृन्महोऽङ्‌गाः ॥२३॥
आनन्दमंदिरपुरात्स्वगृहोन् व्रजन्त्यः
सर्वा इतस्तत उत त्वरमाव्रजन्त्यः ।
यानश्लथद्‌वसनभूषणकेशबन्धा
रेजुर्नरेन्द्र पथि भूपरिमुक्तमुक्ताः ॥२४॥
झंकारनूपुरनवांगदहेमचीर-
मञ्जीरहारमणिकुंडलमेखलाभिः ।
श्रीकंठसूत्रभुजकंकणबिंदुकाभिः
पूर्णेन्दुमंडलनवद्युतिभिर्विरेजुः ॥२५॥
श्रीराजिकालवणरात्रिविशेषचूर्णै-
र्गोधूमसर्षपयवैः करलालनैश्च ।
उत्तार्य बालकमुखोपरि चाशिषस्ताः
सर्वा ददुर्नृप जगुर्जगदुर्यशोदाम् ॥२६॥


गोप्य ऊचुः -
साधु साधु यशोदे ते दिष्ट्या दिष्ट्या व्रजेश्वरि ।
धन्या धन्या परा कुक्षिर्ययाऽयं जनितः सुतः ॥२७॥
इच्छा युक्तं कृतं ते वै देवेन बहुकालतः ।
रक्ष बालं पद्मनेत्रं सुस्मितं श्यामसुन्दरम् ॥२८॥


श्रीयशोदा उवाच -
भवदीयदयाशीर्भिर्जातः सौख्यं परं च मे ।
भवतीनामपि परं दिष्ट्या भूयादतः परम् ॥२९॥
हे रोहिणि महाबुद्धे पूजनं तु व्रजौकसाम् ।
आगतानां सत्कुलानां यथेष्टं हीप्सितं कुरु ॥३०॥


श्रीनारद उवाच -
रोहिणी राजकन्याऽपि तत्करौ दानशीलिनौ ।
तत्रापि नोदिता दाने ददावतिमहामनाः ॥३१॥
गौरवर्णा दिव्यवासा रत्‍नाभरणभूषिता ।
व्यचरद्रोहिणी साक्षात्पूजयंती व्रजौकसः ॥३२॥
परिपूर्णतमे साक्षाच्छ्रीकृष्णे व्रजमागते ।
नदत्सु नरतूर्येषु जयध्वनिरभून्महान् ॥३३॥
दधिक्षीरघृतैर्गोपा गोप्यो हैयंगवैर्नवैः ।
सिषिचुर्हर्षितास्तत्र जगुरुच्चैः परस्परम् ॥३४॥
बहिरन्तपुरेः जाते सर्वतो दधिकर्दमे ।
वृद्धाश्च स्थूलदेहाश्च पेतुर्हास्यं कृतं परैः ॥३५॥
सूताः पौराणिकाः प्रोक्ता मागधा वंशशंसकाः ।
वन्दिनस्त्वमलप्रज्ञाः प्रस्तावसदृशोक्तयः ॥३६॥
तेभ्यो नंदो महाराजः सहस्रं गाः पृथक् पृथक् ।
वासोऽलंकाररत्‍नानि हयेभानखिलान्ददौ ॥३७॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीनन्दरायजीके यहाँ पुत्र होनेका अद्भुत समाचार सुनकर गोपियोंके हर्षकी सीमा न रही। उनके हृदय, उनके तन-मन परमानन्द से परिपूर्ण हो गये। वे घर के सारे काम-काज तत्काल छोड़कर भेंट-सामग्री लिये तुरंत व्रजराज के भवन में जा पहुँचीं । नरेन्द्र ! अपने घरसे नन्दमन्दिर तक इधर-उधर बड़ी उतावली के साथ आती जातीं सब गोपियाँ रास्ते की भूमिपर मोती लुटाती चलती थीं। शीघ्रतापूर्वक आने-जानेसे उनके वस्त्र, आभूषण तथा केशोंके बन्धन भी ढीले पड़ गये थे; उस दशामें उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। झनकारते हुए नूपुर, नये बाजूबंद, सुनहरे लहँगे, मञ्जीर, हार, मणिमय कुण्डल, करधनी, कण्ठसूत्र, हाथोंके कंगन तथा भालदेशमें लगी हुई बेंदियोंकी नयी-नयी छटाओंसे उनकी छवि देखते ही बनती थी। नरेश्वर ! वे सब की सब राई - नोन, हल्दीके विशेष चूर्ण, गेहूंके आटे, पीली सरसों तथा जौ आदि हाथोंमें लेकर बड़े लाड़से लालाके मुखपर उतारती हुई उसे आशीर्वाद देती थीं। यह सब करके उन्होंने यशोदाजी से कहा – ॥ २३–२६॥

गोपियाँ बोलीं- यशोदाजी ! बहुत उत्तम, बहुत अच्छा हुआ । अहोभाग्य ! आज परम सौभाग्यका दिन है। आप धन्य हैं और आपकी कोख धन्य है, जिसने ऐसे बालकको जन्म दिया। दीर्घकालके बाद दैवने आज आपकी इच्छा पूरी की है। कैसे कमल- जैसे नेत्र हैं इस श्यामसुन्दर बालकके ! कितनी मनोहर मुसकान है इसके होठोंपर बड़ी सँभालके साथ इसका लालन-पालन कीजिये ।। २७-२८ ॥

श्रीयशोदा ने कहा - बहिन ! आप सबकी दया और आशीर्वादसे ही मेरे घरमें यह सुख आया है, यह आनन्दोत्सव प्राप्त हुआ है। मेरे ऊपर आपकी सदा ही बड़ी दया रही है। इसके बाद आप सबको भी दैव- कृपासे ऐसा ही परम सुख प्राप्त हो – यह मेरी मङ्गल- कामना है । बहिन रोहिणी ! तुम बड़ी बुद्धिमती हो । सब कार्य बड़े अच्छे ढंगसे करती हो। अपने घर आयी हुई ये व्रजवासिनी गोपियाँ बड़े उत्तम कुलकी हैं। तुम इनका पूजन — स्वागतसत्कार करो। अपनी इच्छाके अनुसार इन सबकी मनोवाञ्छा पूर्ण करो ।। २९-३० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! रोहिणी जी भी राजा की बेटी थीं। उनके हाथ तो स्वभाव से ही दानशील थे, उसपर भी यशोदाजी ने दान करनेकी प्ररेणा दे दी। फिर क्या था ? उन्होंने अत्यन्त उदारचित्त होकर दान देना आरम्भ किया। उनकी अङ्गकान्ति गौर वर्णकी थी शरीर पर दिव्य वस्त्र शोभा पाते थे और वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थीं । रोहिणी जी साक्षात् लक्ष्मी की भाँति व्रजाङ्गनाओं का सत्कार करती हुई सब ओर विचरने लगीं ।। ३१-३२ ॥   

साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णके व्रजमें पधारनेपर सब ओर मानव - वाद्य बजने लगे ।

बड़े जोर-जोरसे जै-जैकारकी ध्वनि होने लगी। उस समय गोप दही, दूध और घीसे तथा गोपाङ्गनाएँ ताजे माखनके लौंदों से एक-दूसरेको हर्षोल्लाससे भिगोने और उच्चस्वरसे गीत गाने लगीं। नन्दभवनके बाहर और भीतर सब ओर दहीकी कीच मच गयी । उसमें बूढ़े और मोटे शरीरवाले लोग फिसलकर गिर पड़ते थे और दूसरे लोग खूब ताली पीट-पीटकर हँसते थे ।। ३३-३५ ॥   

महाराज ! वहाँ जो पौराणिक सूत, वंशोंके प्रशंसक मागध और निर्मल बुद्धिवाले तथा अवसरके अनुरूप बातें कहनेवाले बंदीजन पधारे थे, उन सबको नन्द- रायजीने प्रत्येकके लिये अलग-अलग एक-एक हजार गौएँ प्रदान कीं । वस्त्र, आभूषण, रत्न, घोड़े और हाथी आदि सब कुछ दिये ।। ३६-३७ ॥   

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

परीक्षित् का जन्म

ततः सर्वगुणोदर्के सानुकूल ग्रहोदये ।
जज्ञे वंशधरः पाण्डोः भूयः पाण्डुरिवौजसा ॥ १२ ॥
तस्य प्रीतमना राजा विप्रैर्धौम्य कृपादिभिः ।
जातकं कारयामास वाचयित्वा च मङ्‌गलम् ॥ १३ ॥
हिरण्यं गां महीं ग्रामान् हस्त्यश्वान् नृपतिर्वरान् ।
प्रादात्स्वन्नं च विप्रेभ्यः प्रजातीर्थे स तीर्थवित् ॥ १४ ॥
तमूचुर्ब्राह्मणास्तुष्टा राजानं प्रश्रयान्वितम् ।
एष ह्यस्मिन् प्रजातन्तौ पुरूणां पौरवर्षभ ॥ १५ ॥
दैवेनाप्रतिघातेन शुक्ले संस्थामुपेयुषि ।
रातो वोऽनुग्रहार्थाय विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ १६ ॥
तस्मान्नाम्ना विष्णुरात इति लोके बृहच्छ्रवाः ।
भविष्यति न सन्देहो महाभागवतो महान् ॥ १७ ॥

तदनन्तर अनुकूल ग्रहोंके उदयसे युक्त समस्त सद्गुणोंको विकसित करनेवाले शुभ समयमें पाण्डुके वंशधर परीक्षित्‌का जन्म हुआ। जन्मके समय ही वह बालक इतना तेजस्वी दीख पड़ता था, मानो स्वयं पाण्डुने ही फिरसे जन्म लिया हो ॥ १२ ॥ पौत्रके जन्मकी बात सुनकर राजा युधिष्ठिर मनमें बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने धौम्य, कृपाचार्य आदि ब्राह्मणोंसे मङ्गलवाचन और जातकर्म-संस्कार करवाये ॥ १३ ॥ महाराज युधिष्ठिर दानके योग्य समयको जानते थे। उन्होंने प्रजातीर्थ [*] नामक कालमें अर्थात् नाल काटनेके पहले ही ब्राह्मणोंको सुवर्ण, गौएँ, पृथ्वी, गाँव, उत्तम जातिके हाथी- घोड़े और उत्तम अन्नका दान दिया ॥ १४ ॥ ब्राह्मणोंने सन्तुष्ट होकर अत्यन्त विनयी युधिष्ठिरसे कहा—‘पुरुवंश-शिरोमणे ! कालकी दुर्निवार गतिसे यह पवित्र पुरुवंश मिटना ही चाहता था, परन्तु तुमलोगोंपर कृपा करनेके लिये भगवान्‌ विष्णुने यह बालक देकर इसकी रक्षा कर दी ॥ १५-१६ ॥ इसीलिये इसका नाम विष्णुरात होगा। निस्सन्देह यह बालक संसारमें बड़ा यशस्वी, भगवान्‌का परम भक्त और महापुरुष होगा’ ॥ १७ ॥
.....................................................
[*] नालच्छेदनसे पहले सूतक नहीं होता, जैसे कहा है—‘यावन्न छिद्यते नालं तावन्नाप्नोति सूतकम्। छिन्ने नाले तत: पश्चात् सूतकं तु विधीयते ॥’ इसी समयको ‘प्रजातीर्थ’ काल कहते हैं। इस समय जो दान दिया जाता है, वह अक्षय होता है। स्मृति कहती है—‘पुत्रे जाते व्यतीपाते दत्तं भवति चाक्षयम्।’ अर्थात् ‘पुत्रोत्पत्ति और व्यतीपातके समय दिया हुआ दान अक्षय होता है।’

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बुधवार, 24 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

श्रीकृष्ण जन्मोत्सव की धूम; गोप-गोपियों का उपायन लेकर आना; नन्द और यशोदा-रोहिणीद्वारा सबका यथावत् सत्कार; ब्रह्मादि देवताओंका भी श्रीकृष्णदर्शनके लिये आगमन

 

श्रुत्वा पुत्रोत्सवं तस्य वृषभानुवरस्तथा ।
कलावत्या गजारूढो नन्दमंदिरमाययौ ॥११॥
नन्दा नवोपनन्दाश्च तथा षड्वृषभानवः ।
नानोपायनसंयुक्ताः सर्वे तेऽपि समाययुः ॥१२॥
उष्णीषोपरि मालाढ्याः पीतकंचुकशोभिताः ।
बर्हगुंजाबद्धकेशा वनमालाविभूषणाः ॥१३॥
वंशीधरा वेत्रहस्ताः सुपत्रतिलकार्चिताः ।
बद्धवर्णाः परिकरा गोपास्तेऽपि समाययुः ॥१४॥
नृत्यन्तः परिगायंतो धुन्वंतो वसनानि च ।
नानोपायनसंयुक्ताः श्मश्रुलाः शिशवः परे ॥१५॥
हैयंगवीनदुग्धानां दध्याज्यानां बलीन्बहून् ।
नीत्वा वृद्धा यष्टिहस्ता नन्दमंदिरमाययुः ॥१६॥
पुत्रोत्सवं व्रजेशस्य कथयन्तः परस्परम् ।
प्रेमविह्वलभावैः स्वैरानन्दाश्रुसमाकुलाः ॥१७॥
जाते पुत्रोत्सवे नन्दः स्वानंदाश्रुकुलेक्षणः ।
पूजयामास तान् सर्वांस्तिलकाद्यैर्विधानतः ॥१८॥


गोपा ऊचुः -
हे व्रजेश्वर हे नन्द जातः पुत्रोत्सवस्तथा ।
अनपत्यस्येच्छतोऽलमतः किं मंगलं परम् ॥१९॥
दैवेन दर्शितं चेदं दिनं वो बहुभिर्दिनैः ।
कृतकृत्याश्च भूताः स्मो दृष्ट्वा श्रीनन्दनन्दनम् ॥२०॥
हे मोहनेति दुरात्तमंकं नीत्व गदिष्यसि ।
यदा लालनभावेब भविता नस्तदा सुखम् ॥२१॥


श्रीनन्द उवाच -
भवतामाशिषः पुण्याज्जातं सौख्यमिदं शुभम् ।
आज्ञावर्ती ह्यहं गोपा गोपानां व्रजवासिनाम् ॥२२॥

नन्दरायजीके यहाँ पुत्रोत्सवका समाचार सुनकर वृषभानुवर रानी कलावती (कीर्तिदा) के साथ हाथीपर चढ़कर नन्दमन्दिरमें आये । व्रजमें जो नौ नन्द, नौ उपनन्द तथा छः वृषभानु थे, वे सब भी नाना प्रकारकी भेंट-सामग्री के साथ वहाँ आये। वे सिरपर पगड़ी तथा उसके ऊपर माला धारण किये, पीले रंगके जामे पहने, केशोंमें मोरपंख और गुञ्जा बाँधे तथा वनमालासे विभूषित थे। हाथोंमें वंशी और बेंतकी छड़ी लिये, सुन्दर पत्ररचनाके साथ तिलक लगाये, कमर में मोरपंख बाँधे गोपालगण भी वहाँ आ गये। वे नाचते-गाते और वस्त्र हिलाते थे । मूँछवाले तरुण और बिना मूँछके बालक भी भाँति-भाँतिकी भेंट लेकर वहाँ आये ।। ११-१५ ॥   

बूढ़े लोग हाथ में डंडा लिये अपने साथ माखन, दूध, दही और घीकी भेंट लेकर नन्दभवनमें उपस्थित हुए। वे आपसमें व्रजराज के यहाँ पुत्रोत्सव का संवाद सुनाते हुए प्रेम से विह्वल हो नेत्रों से आनन्द के आँसू बहाते थे । पुत्रोत्सव होनेपर श्रीनन्दरायजी का आनन्द चरम सीमाको पहुँच गया था, उनके नेत्र हर्षके आँसुओंसे भरे हुए थे । उन्होंने अपने द्वारपर आये हुए समस्त गोपोंका तिलक आदिके द्वारा विधिवत् सत्कार किया ।। १६ – १८ ॥

गोप बोले- हे व्रजेश्वर ! हे नन्दराज ! आपके यहाँ जो पुत्रोत्सव हुआ है, यह संतानहीनता के कलङ्क- को मिटानेवाला है। इससे बढ़कर परम मङ्गल की बात और क्या हो सकती है ? दैवने बहुत दिनों के बाद आज आपको यह दिन दिखाया है, हमलोग श्रीनन्द- नन्दनका दर्शन करके कृतार्थ हो जायँगे। जब आप दूरसे आकर पुत्रको गोदमें लेकर मोदपूर्वक लाड़ लड़ाते हुए 'हे मोहन !' कहकर पुकारेंगे, उस समय हमें बड़ा सुख मिलेगा ॥ १९–२१ ॥

श्रीनन्द ने कहा— बन्धुओ ! आपलोगोंके आशीर्वाद और पुण्यसे आज यह आनन्ददायक शुभ दिवस प्राप्त हुआ है, मैं तो व्रजवासी गोप-गोपियोंका आज्ञापालक सेवक हूँ ॥ २२ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

परीक्षित् का जन्म

मातुर्गर्भगतो वीरः स तदा भृगुनन्दन ।
ददर्श पुरुषं कञ्चिद् दह्यमानोऽस्त्रतेजसा ॥ ७ ॥
अङ्‌गुष्ठमात्रममलं स्फुरत् पुरट मौलिनम् ।
अपीव्यदर्शनं श्यामं तडिद् वाससमच्युतम् ॥ ८ ॥
श्रीमद् दीर्घचतुर्बाहुं तप्तकाञ्चन कुण्डलम् ।
क्षतजाक्षं गदापाणिं आत्मनः सर्वतो दिशम् ।
परिभ्रमन्तं उल्काभां भ्रामयन्तं गदां मुहुः ॥ ९ ॥
अस्त्रतेजः स्वगदया नीहारमिव गोपतिः ।
विधमन्तं सन्निकर्षे पर्यैक्षत क इत्यसौ ॥ १० ॥
विधूय तदमेयात्मा भगवान् धर्मगुब् विभुः ।
मिषतो दशमासस्य तत्रैवान्तर्दधे हरिः ॥ ११ ॥

(सूतजी कहते हैं) शौनकजी ! उत्तरा के गर्भमें स्थित वह वीर शिशु परीक्षित्‌ जब अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्रके तेजसे जलने लगा, तब उसने देखा कि उसकी आँखोंके सामने एक ज्योतिर्मय पुरुष है ॥ ७ ॥ वह देखनेमें तो अँगूठेभर का है, परन्तु उसका स्वरूप बहुत ही निर्मल है। अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, बिजलीके समान चमकता हुआ पीताम्बर धारण किये हुए है, सिरपर सोने का मुकुट झिलमिला रहा है। उस निर्विकार पुरुषके बड़ी ही सुन्दर लंबी-लंबी चार भुजाएँ हैं। कानोंमें तपाये हुए स्वर्णके सुन्दर कुण्डल हैं, आँखोंमें लालिमा है, हाथमें लूके के समान जलती हुई गदा लेकर उसे बार-बार घुमाता जा रहा है और स्वयं शिशुके चारों ओर घूम रहा है ॥ ८-९ ॥ जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे कुहरे को भगा देते हैं, वैसे ही वह उस गदाके द्वारा ब्रह्मास्त्रके तेजको शान्त करता जा रहा था। उस पुरुषको अपने समीप देखकर वह गर्भस्थ शिशु सोचने लगा कि यह कौन है ॥ १० ॥ इस प्रकार उस दस मासके गर्भस्थ शिशु के सामने ही धर्मरक्षक अप्रमेय भगवान्‌ श्रीकृष्ण ब्रह्मास्त्रके तेजको शान्त करके वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ११ ॥

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मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

श्रीकृष्ण जन्मोत्सव की धूम; गोप-गोपियों का उपायन लेकर आना; नन्द और यशोदा-रोहिणीद्वारा सबका यथावत् सत्कार; ब्रह्मादि देवताओंका भी श्रीकृष्णदर्शनके लिये आगमन

 

श्रीनारद उवाच -
अथ पुत्रोत्सवं जातं श्रुत्वा नन्द उषःक्षणे ।
ब्राह्मणांश्च समाहूय कारयामास मंगलम् ॥१॥
सविधिं जातकं कृत्वा नन्दराजो महामनाः ।
विप्रेभ्यो दक्षिणाभिश्च मुदा लक्षं गवां ददौ ॥२॥
क्रोशमात्रं रत्‍नसानून्सुवर्णखिखरान् गिरीन् ।
सरसान्सप्तधान्यानां ददौ विप्रेभ्य आनतः ॥३॥
मृदंगवीणाशंखाद्या नेदुर्दुंदुभयो मुहुः ।
गायकाश्च जगुर्द्वारे ननृतुर्वारयोषितः ॥४॥
पताकैर्हेमकलशैर्वितानैस्तोरणैः शुभैः ।
अनेकवर्णैश्चित्रैश्च बभौ श्रीनन्दमन्दिरम् ॥५॥
रथ्या वीथ्यश्च देहल्यो भित्तिप्रांगणवेदिकाः ।
तोलिकामंडपसभा रेजुर्गन्धिजलांबरैः ॥६॥
गावः सुवर्णशृङ्ग्यश्च हेममालालसद्‌गलाः ।
घंटामंजीरझंकारा रक्तकंबलमंडिताः ॥७॥
पीतपुच्छाः सवत्साश्च तरुणीकरचिह्निताः ।
हरिद्राकुंकुमैर्युक्ताः चित्रधातुविचित्रिताः ॥८॥
बर्हिपुच्छैर्गन्धजलैर्वृषा धर्मदुरंधराः ।
इतस्ततो विरेजुः श्रीनन्दद्वारि मनोहराः ॥९॥
गोवत्सा हेममालाढ्या मुक्ताहारविराजिताः ।
इतस्ततो विलंघन्तो मंजीरचरणां सिताः ॥१०॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर गोष्ठमें विद्यमान नन्दजीने अपने घरमें पुत्रोत्सव होनेका समाचार सुनकर प्रातःकाल ब्राह्मणोंको बुलवाया और स्वस्तिवाचनपूर्वक मङ्गल कार्य कराया। विधिपूर्वक जातकर्म - संस्कार सम्पन्न करके महामनस्वी नन्दराजने ब्राह्मणोंको आनन्दपूर्वक दक्षिणा देनेके साथ ही एक लाख गौएँ दान कीं। एक कोस लंबी भूमि में सप्त- धान्यों के पर्वत खड़े किये गये। उनके शिखर रत्नों और सुवर्णों से सज्जित किये गये। उनके साथ सरस एवं स्निग्ध पदार्थ भी थे। वे सब पर्वत नन्दजी ने विनीतभाव से ब्राह्मणों को दिये ।। १-३ ॥  

मृदङ्ग, वीणा, शङ्ख और दुन्दुभि आदि बाजे बारंबार बजाये जाने लगे । नन्दद्वारपर गायक मङ्गल गीत गाने लगे। वाराङ्गनाएँ नृत्य करने लगीं। पताकाओं, सोनेके कलशों, चंदोवों,

सुन्दर बंदनवारों तथा अनेक रंगके चित्रोंसे नन्द-मन्दिर उद्भासित होने लगा । सड़कें, गलियाँ, द्वार देहलियाँ, दीवारें, आँगन और वेदियाँ (चबूतरे) – इनपर सुगन्धित जलका छिड़काव करके सब ओरसे वस्त्रों और झंडियोंद्वारा सजावट कर दी गयी थी, जिससे ये सब चित्रमण्डप या चित्रशालाके समान शोभा पा रहे थे। गौओंके सींगोंमें सोना मढ़ दिया गया था। उनके गलेमें सुवर्णकी माला पहना दी गयी थी। उनके गलेमें घंटी और पैरोंमें मञ्जीरकी झंकार होती थी। उनकी पीठपर कुछ-कुछ लाल रंगकी झूलें ओढ़ायी गयी थीं । इस प्रकार समस्त गौओंका शृङ्गार किया गया था। उनकी पूँछें पीले रंगमें रँग दी गयी थीं। उनके साथ बछड़े भी थे, उनके अङ्गोंपर तरुणी स्त्रियोंके हाथोंकी छाप लगी थी। हल्दी, कुङ्कुम तथा विचित्र धातुओंसे वे चित्रित की गयी थीं। ।। ४-८ ॥ 

मोरपंख और पुष्पोंसे अलंकृत तथा सुगन्धित जलसे अभिषिक्त धर्मधुरंधर मनोहर वृषभ श्रीनंन्दरायजीके द्वारपर इधर-उधर सुशोभित थे। गौओंके सफेद बछड़े सोनेकी मालाओं और मोतियोंके हारोंसे विभूषित हो, इधर-उधर उछलते-कूदते फिर रहे थे। उनके पैरोंमें भी मञ्जीर बँधे थे ॥ १ बँधे थे ॥ ९ - १० ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

परीक्षित् का जन्म

शौनक उवाच ।

अश्वत्थाम्नोपसृष्टेन ब्रह्मशीर्ष्णोरुतेजसा ।
उत्तराया हतो गर्भ ईशेनाजीवितः पुनः ॥ १ ॥
तस्य जन्म महाबुद्धेः कर्माणि च महात्मनः ।
निधनं च यथैवासीत् स प्रेत्य गतवान् यथा ॥ २ ॥
तदिदं श्रोतुमिच्छामो गदितुं यदि मन्यसे ।
ब्रूहि नः श्रद्दधानानां यस्य ज्ञानमदाच्छुकः ॥ ३ ॥

सूत उवाच ।

अपीपलद्धर्मराजः पितृवद् रञ्जयन् प्रजाः ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यः कृष्णपादानुसेवया ॥ ४ ॥
सम्पदः क्रतवो लोका महिषी भ्रातरो मही ।
जम्बूद्वीपाधिपत्यं च यशश्च त्रिदिवं गतम् ॥ ५ ॥
किं ते कामाः सुरस्पार्हा मुकुन्दमनसो द्विजाः ।
अधिजह्रुर्मुदं राज्ञः क्षुधितस्य यथेतरे ॥ ६ ॥

शौनकजीने कहा—अश्वत्थामा ने जो अत्यन्त तेजस्वी ब्रह्मास्त्र चलाया था, उससे उत्तरा का गर्भ नष्ट हो गया था; परन्तु भगवान्‌ने उसे पुन: जीवित कर दिया ॥ १ ॥ उस गर्भसे पैदा हुए महाज्ञानी महात्मा परीक्षित्‌के, जिन्हें शुकदेवजीने ज्ञानोपदेश दिया था, जन्म, कर्म, मृत्यु और उसके बाद जो गति उन्हें प्राप्त हुई, वह सब यदि आप ठीक समझें तो कहें; हमलोग बड़ी श्रद्धाके साथ सुनना चाहते हैं ॥ २-३ ॥
सूतजीने कहा—धर्मराज युधिष्ठिर अपनी प्रजाको प्रसन्न रखते हुए पिताके समान उसका पालन करने लगे। भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरण-कमलों के सेवन से वे समस्त भोगों से नि:स्पृह हो गये थे ॥ ४ ॥  शौनकादि ऋषियो ! उनके पास अतुल सम्पत्ति थी, उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ किये थे तथा उनके फलस्वरूप श्रेष्ठ लोकोंका अधिकार प्राप्त किया था। उनकी रानियाँ और भाई अनुकूल थे, सारी पृथ्वी उनकी थी, वे जम्बूद्वीप के स्वामी थे और उनकी कीर्ति स्वर्गतक फैली हुई थी ॥ ५ ॥ उनके पास भोग की ऐसी सामग्री थी, जिसके लिये देवतालोग भी लालायित रहते हैं। परन्तु जैसे भूखे मनुष्यको भोजनके अतिरिक्त दूसरे पदार्थ नहीं सुहाते, वैसे ही उन्हें भगवान्‌ के सिवा दूसरी कोई वस्तु सुख नहीं देती थी ॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


सोमवार, 22 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 06)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

ग्यारहवाँ अध्याय  (पोस्ट 06)

 

भगवान्‌ का वसुदेव-देवकीमें आवेश; देवताओंद्वारा उनका स्तवन; आविर्भावकाल; अवतार-विग्रहकी झाँकी; वसुदेव-देवकीकृत भगवत्-स्तवन; भगवान् द्वारा  उनके पूर्वजन्मके वृत्तान्तवर्णनपूर्वक अपनेको नन्दभवनमें पहुँचानेका आदेश; कंसद्वारा नन्दकन्या योगमायासे कृष्णके प्राकट्यकी बात जानकर पश्चात्ताप पूर्वक वसुदेव- देवकीको बन्धनमुक्त करना, क्षमा माँगना और दैत्योंको बाल-वध का आदेश देना

 

श्रीनारद उवाच -
इत्थं कंसस्तदंघ्र्योश्च पतितोऽश्रुमुखो रुदन् ।
चकार सेवां परमां सौहृदं दर्शयंस्तयोः ॥६५॥
अहो श्रीकृष्णचन्द्रस्य परिपूर्णतमप्रभोः ।
दानदक्षैः कटाक्षैश्च किन्न स्याद्‌भूमिमंडले ॥६६॥
प्रातःकाले तदा कंसः प्रलंबादीन्महासुरान् ।
समाहूय खलस्तेभ्योऽवददुक्तं च मायया ॥६७॥


कंस उवाच -
जातो मे ह्यंतकृतद्‌भूमौ कथितो योगमायया ।
अनिर्दशान्निर्दशांश्च शिशून्यूयं हनिष्यथ ॥६८॥


दैत्या ऊचुः -
सज्जस्य धनुषो युद्धे भवता द्वंद्वयोधिना ।
टंकारेणोद्‌गता देवा मन्यसे तैः कथं भयम् ॥६९॥
गोविप्रसाधुश्रुतयो देवा धर्मादयः परे ।
विष्णोश्च तनवो ह्येषां नाशे दैत्यबलं स्मृतम् ॥७०॥
जातो यदि महाविष्णुस्ते शत्रुर्यो महीतले ।
अयं चैतद्‌वधोपायो गवादीनां विहिंसनम् ॥७१॥
इत्थं महोद्‌भटा दुष्टा दैतेयाः कंसनोदिताः ।
दुद्रुवुः खं गवादिभ्यो जघ्नुर्जातांश्च बालकान् ॥७२॥
आसमुद्राद्‌भूमितले विशंतश्च गृहे गृहे ।
कामरूपधरा दैत्याश्चेरुः सर्पा इवाभवन् ॥७३॥
उत्पथा उद्‌भटा दैत्यास्तत्रापि कंसनोदिताः ।
कपिः सुरापोऽलिहतो भूतग्रस्त इवाभवन् ॥७४॥
वैदेह मैथिल नरेन्द्र उपेन्द्रभक्त
धर्मिष्ठमुख्य सुतपो जनक प्रतापिन् ।
एतत्सतां च भुवि हेलनमंग राजन्
सर्वं छिनत्ति बहुलाश्व चतुष्पदार्थान् ॥७५॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! यों कहकर कंस बहिन और बहनोईके चरणोंपर गिर पड़ा और फूट-फूटकर रोने लगा। उसके मुँहपर अश्रुधारा बह चली । उसने उन दोनोंके प्रति सौहार्द (अत्यन्त स्नेह) दिखाते हुए उनकी बड़ी सेवा की। अहो ! परिपूर्णतम प्रभु श्रीकृष्णचन्द्रके दया दान-दक्ष कटाक्षोंसे भूतल - पर क्या नहीं हो सकता ? तदनन्तर प्रातः काल दुरात्मा कंसने प्रलम्ब आदि बड़े-बड़े असुरोंको बुलाया और योगमायाने जो कुछ कहा था, वह सब उनसे कह सुनाया ॥ ६५ – ६७ ॥

कंसने कहा- मित्रो ! जैसा कि योगमायाने बताया है, मेरा विनाश करनेवाला शत्रु पृथ्वीपर कहीं उत्पन्न हो चुका है । अतः तुमलोग जो दस दिनके भीतर उत्पन्न हुए हैं और जिनको जन्म लिये दससे अधिक दिन निकल गये हैं, उन समस्त बालकोंको मार डालो || ६८ ॥

दैत्योंने कहा – महाराज ! जब आप द्वन्द्व-युद्धमें उतरे थे, उस समय रणभूमिमें आपके चढ़ाये हुए धनुषकी टंकार सुनकर सब देवता भाग खड़े हुए थे, फिर उन्हींसे आप भय क्यों मान रहे हैं ? गौ, ब्राह्मण, साधु, वेद, देवता तथा धर्म और यज्ञ आदि जो दूसरे- दूसरे तत्त्व हैं, वे ही भगवान् विष्णुके शरीर माने गये हैं; इन सबके विनाशमें दैत्योंका बल ही समर्थ माना गया है। यदि महाविष्णु, जो आपका शत्रु है, इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुआ है तो उसके वधका यही उपाय है कि गौ-ब्राह्मण आदिकी विशेषरूपसे हिंसाका अभियान चलाया जाय ।। ६९–७१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! कंसने दैत्योंको यह करनेकी आज्ञा दे दी। इस प्रकार उसका आदेश पाकर वे महान् उद्भट दुष्ट दैत्य आकाशमें उड़ चले और गौ, ब्राह्मण आदिको पीड़ा देने तथा नवजात बालकोंकी हत्या करने लगे । समुद्रपर्यन्त समस्त भूमण्डलमें वे इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले दैत्य सर्पों और चूहोंकी तरह घर-घरमें घुसने और विचरने लगे । उद्भट दैत्य तो स्वभावसे ही कुमार्गगामी होते हैं, उसपर भी उन्हें कंसकी ओरसे प्रेरणा प्राप्त हो गयी थी। एक तो बंदर, फिर वह शराब पी ले और उसपर भी उसे बिच्छु डंक मार दे तो उसकी चपलताके लिये क्या कहना ? यही दशा उन दैत्योंकी थी, वे भूतग्रस्तसे हो गये थे। विदेहकुलनन्दन, मैथिलनरेश, विष्णुभक्त, धर्मात्माओंमें मुख्य, परम तपस्वी, प्रतापी, अङ्गराज, बहुलाश्व जनक! भूमण्डलपर साधु-संतोंकी यह अवहेलना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थोंका सम्पूर्णतया नाश कर देती है ।। ७२–७५॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'श्रीकृष्ण जन्म वृत्तान्तका वर्णन' नामक ग्यारवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

उद्दामभाव पिशुनामल वल्गुहास ।
     व्रीडावलोकनिहतो मदनोऽपि यासाम् ॥
सम्मुह्य चापमजहात् प्रमदोत्तमास्ता ।
     यस्येन्द्रियं विमथितुं कुहकैर्न शेकुः ॥ ३६ ॥
तमयं मन्यते लोको ह्यसङ्‌गमपि सङ्‌गिनम् ।
आत्मौपम्येन मनुजं व्यापृण्वानं यतोऽबुधः ॥ ३७ ॥
एतत् ईशनमीशस्य प्रकृतिस्थोऽपि तद्‍गुणैः ।
न युज्यते सदाऽत्मस्थैः यथा बुद्धिस्तदाश्रया ॥ ३८ ॥
तं मेनिरेऽबला मूढाः स्त्रैणं चानुव्रतं रहः ।
अप्रमाणविदो भर्तुः ईश्वरं मतयो यथा ॥ ३९ ॥

जिनकी निर्मल और मधुर हँसी उनके हृदयके उन्मुक्त भावोंको सूचित करनेवाली थी, जिनकी लजीली चितवनकी चोटसे बेसुध होकर विश्वविजयी कामदेवने भी अपने धनुषका परित्याग कर दिया था—वे कमनीय कामिनियाँ अपने काम-विलासोंसे जिनके मनमें तनिक भी क्षोभ नहीं पैदा कर सकीं, उन असङ्ग भगवान्‌ श्रीकृष्णको संसारके लोग अपने ही समान कर्म करते देखकर आसक्त मनुष्य समझते हैं—यह उनकी मूर्खता है ॥ ३६-३७ ॥ यही तो भगवान्‌की भगवत्ता है कि वे प्रकृतिमें स्थित होकर भी उसके गुणोंसे कभी लिप्त नहीं होते, जैसे भगवान्‌की शरणागत बुद्धि अपनेमें रहनेवाले प्राकृत गुणोंसे लिप्त नहीं होती ॥ ३८ ॥ वे मूढ़ स्त्रियाँ भी श्रीकृष्णको अपना एकान्तसेवी, स्त्रीपरायण भक्त ही समझ बैठी थीं; क्योंकि वे अपने स्वामीके ऐश्वर्यको नहीं जानती थीं—ठीक वैसे ही जैसे अहंकारकी वृत्तियाँ ईश्वरको अपने धर्मसे युक्त मानती हैं ॥ ३९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने श्रीकृष्णद्वारकाप्रवेशो नाम एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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रविवार, 21 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

ग्यारहवाँ अध्याय  (पोस्ट 05)

 

भगवान्‌ का वसुदेव-देवकीमें आवेश; देवताओंद्वारा उनका स्तवन; आविर्भावकाल; अवतार-विग्रहकी झाँकी; वसुदेव-देवकीकृत भगवत्-स्तवन; भगवान् द्वारा उनके पूर्वजन्मके वृत्तान्तवर्णनपूर्वक अपनेको नन्दभवनमें पहुँचानेका आदेश; कंसद्वारा नन्दकन्या योगमायासे कृष्णके प्राकट्यकी बात जानकर पश्चात्ताप पूर्वक वसुदेव- देवकीको बन्धनमुक्त करना, क्षमा माँगना और दैत्योंको बाल-वध का आदेश देना

 

श्रीदेवक्युवाच -
सुतामेकां देहि मे त्वं पुत्रेषु प्रमृतेषु च ।
स्त्रियं हन्तुं न योग्योऽसि भ्रातस्त्वं दीनवत्सलः ॥५३॥
तेऽनुजाहं हतसुता कारागारे निपातिता ।
दातुमर्हसि कल्याण कल्याणीं तनुजां च मे ॥५४॥


श्रीनारद उवाच -
अश्रुमुख्या मोहितया समाच्छाद्यात्मजां बहु ।
प्रार्थितोऽङ्‌काद्विनिर्भर्त्स्य तां स आचिच्छिदे खलः ॥५५॥
कुसङ्गनिरतः पापः खलो यदुकुलाधमः ।
स्वसुः सुतां शिलापृष्ठे गृहीत्वांघ्र्योर्न्यपातयत् ॥५६॥
कंसहस्तात्समुत्पत्य त्वरं सा चांबरे गता ।
शतपत्रे रथे दिव्ये सहस्रहयसेविते ॥५७॥
चामरांदोलिते शुभ्रे स्थितादृश्यत दिव्यदृक् ।
सायुधाष्टभुजा माया पार्षदैः परिसेविता ।
शतसूर्यप्रतीकाशा कंसमाह घनस्वना ॥५८॥


श्रीयोगमायोवाच -
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ।
जातः क्व वा तु ते हन्ता वृथा दीनां दुनोषि वै ॥५९॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा तं ततो देवी गता विन्ध्याचले गिरौ ।
योगमाया भगवती बहुनामा बभूव ह ॥६०॥
अथ कंसो विस्मितोऽभूच्छ्रुत्वा मायावचः परम् ।
देवकीं वसुदेवं च मोचयामास बन्धनात् ॥६१॥


कंस उवाच -
पापोऽहं पापकर्माहं खलो यदुकुलाधमः ।
युष्मत्पुत्रप्रहन्तारं क्षमध्वं मे कृतं भुवि ॥६२॥
हे स्वसः शृणु मे शौरे मन्ये कालकृतं त्विदम् ।
येन निश्चाल्यमानो वा वायुनेव घनावलेः ॥६३॥
विश्वस्तोऽहं देववाक्ये देवास्तेऽपि मृषागिरः ।
न जानामि क्व मे शत्रुर्जातः कौ कथितोऽनया ॥६४॥

देवकीने कहा- भैया ! आप दीन-दुःखियोंके प्रति स्नेह और दया करनेवाले हैं। मैं आपकी बहिन हूँ, तथापि कारागारमें डाल दी गयी हूँ। मेरे सभी पुत्र मार डाले गये हैं। मैं वह अभागिनी मा हूँ, जिसके बेटोंका वध कर दिया गया है। एकमात्र यह बेटी बची है, इसे मुझे भीखमें दे दीजिये। यह स्त्री है, इसका वध करना आप जैसे वीरके योग्य नहीं है। कल्याणकारी भाई ! इस कल्याणी कन्याको तो मेरी गोदमें दे ही दीजिये । यही आपके योग्य कार्य होगा ।। ५३-५४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! देवकीके मुँहपर आँसुओंकी धारा बह रही थी। उसने मोहके कारण बेटीको आँचलमें छिपाकर बहुत विनती की बहुत रोयी - गिड़गिड़ायी; तो भी उस दुष्टने बहिनको डाँट-डपटकर उसकी गोदसे वह कन्या छीन ली। वह यदुकुलका कलङ्क एवं महानीच था । सदा कुसङ्गमें रहनेके कारण उसका जीवन पापमय हो गया था । उस दुरात्माने अपनी बहिनकी बच्चीके दोनों पैर पकड़कर उसे शिलापर दे मारा ।। ५५ – ५६ ॥

वह कन्या साक्षात् योगमायाका अवतार देवी अनंशा थी। कंसके हाथसे छूटते ही वह उछलकर आकाशमें चली गयी। सहस्र अश्वोंसे जुते हुए दिव्य 'शतपत्र' रथपर जा बैठी। वहाँ चँवर डुलाये जा रहे थे। उस शुभ्र रथपर बैठकर वह दिव्य रूप धारण किये दृष्टिगोचर हुई। उसके आठ भुजाएँ थीं और सबमें आयुध शोभा पा रहे थे। वह मायादेवी अपने पार्षदोंसे परिसेवित थी। उसका तेज सौ सूर्योके समान दिखायी देता था । उसने मेघगर्जनातुल्य गम्भीर

वाणीमें कहा ।। ५७-५८ ॥

श्रीयोगमाया बोलीं- कंस ! तुझे मारनेवाले परिपूर्णतम परमात्मा साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण तो कहीं और जगह अवतीर्ण हो गये। इस दीन देवकीको तू व्यर्थ दुःख दे रहा है ॥ ५९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! उससे यों कहकर भगवती योगमाया विन्ध्यपर्वतपर चली गयीं। वहाँ वे अनेक नामोंसे प्रसिद्ध हुईं। योगमायाकी उत्तम बात सुनकर कंसको बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने देवकी और वसुदेवको तत्काल बन्धनमुक्त कर दिया ।। ६०-६१ ॥

कंसने कहा- बहिन और बहनोई वसुदेवजी ! मैं पापात्मा हूँ। मेरे कर्म पापमय हैं। मैं इस यदुवंशमें महानीच और दुष्ट हूँ। मैं ही इस भूतलपर आप दोनोंके पुत्रोंका हत्यारा हूँ। आप दोनों मेरे द्वारा किये गये इस अपराधको क्षमा कर दें। मेरी बात सुनें। मैं समझता हूँ, यह सब काल ने किया कराया है। जैसे वायु मेघमालाको जहाँ चाहे उड़ा ले जाती है, उसी तरह कालने मुझे भी स्वेच्छानुसार चलाया है। मैंने देव- वाक्यपर विश्वास कर लिया, किंतु देवता भी असत्य- वादी ही निकले। इस योगमायाने बताया है कि 'तेरा शत्रु भूतलपर अवतीर्ण हो गया है। किंतु वह कहाँ उत्पन्न हुआ है, यह मैं नहीं जानता ॥ ६२—६४ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...