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गुरुवार, 2 मई 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)
बुधवार, 1 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
चौदहवाँ
अध्याय (पोस्ट 03)
शकटभञ्जन;
उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के
पूर्वजन्मों का वर्णन
श्रीनारद
उवाच -
तस्मादुत्कदैत्यस्तु मुक्तो लोमशतेजसा ।
सद्भ्यो नमोऽस्तु ये नूनं समर्था वरशापयोः ॥२४॥
उत्संगे क्रीडितं बालं लालयंत्येकदा नृप ।
गिरिभारं न सेहे सा वोढुं श्रीनंदगेहिनी ॥२५॥
अहो गिरिसमो बालः कथं स्यादिति विस्मिता ।
भूमौ निधाय तं सद्यो नेदं कस्मै जगाद ह ॥२६॥
कंसप्रणोदितो दैत्यस्तृणावर्तो महाबलः ।
जहार बालं क्रीडन्तं वातावर्तेन सुंदरम् ॥२७॥
रजोऽन्धकारोऽभूत्तत्र घोरशब्दश्च गोकुले ।
रजस्वलानि चक्षूंषि बभूवुर्घटिकाद्वयम् ॥२८॥
ततो यशोदा नापश्यत्पुत्रं तं मंदिराजिरे ।
मोहिता रुदती घोरान् पश्यंती गृहशेखरान् ॥२९॥
अदृष्टे च यदा पुत्रे पतिता भुवि मूर्छिता ।
उच्चै रुरोद करुणं मृतवत्सा यथा हि गौः ॥३०॥
रुरुदुश्च तदा गोप्यः प्रेमस्नेहसमाकुलाः ।
अश्रुमुख्यो नंदसूनुं पश्यंत्यस्ता इतस्ततः ॥३१॥
तृणावर्तो नभः प्राप्त ऊर्ध्वं वै लक्षयोजनम् ।
स्कंधे सुमेरुवद्बालं मन्यमानः प्रपीडितः ॥३२॥
अथ कृष्णं पातयितुं दैत्यस्तत्र समुद्यतः ।
गलं जग्राह तस्यापि परिपूर्णतमः स्वयम् ॥३३॥
मुंच मुंचेति गदिते दैत्ये कृष्णोऽद्भुतोऽर्भकः ।
गलग्राहेण महता व्यसुं दैत्यं चकार ह ॥३४॥
तज्ज्योतिः श्रीघनश्यामे लीनं सौदामिनी यथा ।
दैत्योऽम्बरान्निपतितः शिलायां शिशुना सह ॥३५॥
विशीर्णावयवस्यापि पतितस्य स्वनेन वै ।
विनेदुश्च दिशः सर्वाः कंपितं भूमिमंडलम् ॥३६॥
तत्पृष्ठस्थं शिशुं तूष्णीं रुदंत्यो गोपिकास्ततः ।
ददृशुर्युगपत्सर्वा नीत्वा मात्रे ददुर्जगुः ॥३७॥
गोप्य ऊचुः -
न योग्यासि यशोदे त्वं बालं लालयितुं मनाक् ।
न घृणा ते क्वचिद्दृष्टा क्रुद्धासि कथितेन वै ॥३८॥
प्राप्तेऽन्धकारे स्वारोहात्कोऽपि बालं जहाति हि ।
त्वया निर्घृणया भूमौ धृतो बालो महाभये ॥३९॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! उक्त वरद शापके कारण लोमशजीके प्रतापसे दानव उत्कच भी भगवान्
के परम धामका अधिकारी हो गया। जो वर और शाप देने में पूर्ण स्वतन्त्र हैं,
उन श्रेष्ठ संतोंके लिये मेरा नमस्कार है ॥ २४ ॥
राजन्
! एक दिन नन्दरानी यशोदाजीकी गोदमें बालक श्रीकृष्ण खेल रहे थे और नन्दरानी उन्हें
लाड़ लड़ा रही थीं। थोड़ी ही देरमें बालक पर्वतके समान भारी प्रतीत होने लगा। वे
उसे गोदमें उठाये रखने में असमर्थ हो गयीं और मन-ही-मन सोचने लगीं— 'अहो ! इस बालकमें पहाड़-सा भारीपन कहाँसे आ गया ?' फिर
उन्होंने बालगोपालको भूमिपर रख दिया, किंतु यह रहस्य किसी को
बतलाया नहीं । उसी समय कंस का भेजा हुआ महाबली दैत्य 'तृणावर्त'
वहाँ आकर आँगन में खेलते हुए सुन्दर बालक श्रीकृष्ण को बवंडररूप से
उठा ले गया ।।२५-२७।।
तब
गोकुलमें ऐसी धूल उठी, जिसके कारण अँधेरा छा
गया और भयंकर शब्द होने लगा। दो घड़ीतक सबकी आँखोंमें धूल भरी रही। उस समय यशोदाजी
नन्द-मन्दिरके आँगनमें अपने लालाको न देखकर घबरा गयीं। रोती हुई महलके शिखरोंकी ओर
देखने लगीं। वे बड़े भयंकर दीखते थे ।। ३८-३९ ।।
जब
कहीं भी अपना लाला नहीं दिखायी दिया, तब
वे मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर
पड़ीं
और होश में आनेपर उच्चस्वर से इस प्रकार करुण-विलाप करने लगीं,
मानो बछड़े के मर जानेपर गौ क्रन्दन कर रही हो । प्रेम और स्नेहसे
व्याकुल हुई गोपियाँ भी रो रहीं थीं। उन सबके मुखपर आँसुओं की धारा बह रहीं थी ।
वे इधर-उधर देखती हुई नन्द- नन्दन की खोज में लग गयीं ।। ३०-३१ ।।
उधर
तृणावर्त आकाश में दस योजन ऊपर जा पहुँचा। बालक श्रीकृष्ण उसके कंधे पर थे। उनका
शरीर उसे सुमेरु पर्वत की भाँति भारी प्रतीत होने लगा। उसे अत्यन्त पीड़ा होने लगी
। तब वह दानव श्रीकृष्ण को वहाँ नीचे पटकनेकी चेष्टामें लग गया। यह जानकर
परिपूर्णतम भगवान् ने स्वयं उसका गला पकड़ लिया ।। ३२-३३ ।।
निशाचर
के 'छोड़ दे, छोड़ दे ।' कहने पर
अद्भुत बालक श्रीकृष्ण ने बड़े जोरसे उसका गला दबाया, इससे
उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। उसकी देहसे ज्योति निकली और घनश्याम में उसी प्रकार
विलीन हो गयी, जैसे बादल में बिजली । तब आकाश से दैत्य का
शरीर बालक के साथ ही एक शिला पर गिर पड़ा। गिरते ही उसकी बोटी-बोटी छितरा गयी।
गिरनेके धमाके से सम्पूर्ण दिशाएँ
प्रतिध्वनित हो उठीं, भूमण्डल काँपने लगा । उस समय रोती हुई
सब गोपियोंने राक्षसकी पीठपर चुपचाप बैठे बालक श्रीकृष्णको एक साथ ही देखा और
दौड़कर उन्हें उठा लिया। फिर माता यशोदाको देकर वे कहने लगीं-- ॥। ३४–३७ ॥
गोपियाँ
बोलीं- यशोदे ! तुममें बालकके लालनपालनकी रत्तीभर भी योग्यता नहीं है। कहने से तो
तुम बुरा मान जाती हो; किंतु सच बात यह है
कि कहीं, कभी तुमसे दया देखी नहीं गयी। भला कहो तो, इस प्रकार अन्धकार आ जानेपर कोई भी अपने बच्चेको गोदसे अलग करता है ! तू
ऐसी निर्दय है कि ऐसे महान् भय के अवसरपर भी बालक को जमीन पर रख दिया ? ॥ ३८-३९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)
मंगलवार, 30 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
चौदहवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
शकटभञ्जन;
उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के
पूर्वजन्मों का वर्णन
बाला
ऊचुः -
प्रेंखस्थोऽयं क्षिपन्पादौ रुदन्दुग्धार्थमेव हि ।
तताड पादं शकटे तेनेदं पतितं खलु ॥१४॥
श्रद्धां न चक्रुर्बालोक्ते गोपा गोप्यश्च विस्मिताः ।
त्रैमासिकः क्व बालोऽयं क्व चैतद्भारभृत्त्वनः ॥१५॥
बालमंके सा गृहित्वा यशोदा ग्रहशंकिता ।
कारयामास विधिवद्यज्ञं विप्रैः सुतर्पितैः ॥१६॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
कोऽयं पूर्वं तु कुशली दैत्य उत्कचनामभाक् ।
अहो कृष्णपदस्पर्शाद्गतो मोक्षं महामुने ॥१७॥
श्रीनारद उवाच -
हिरण्याक्षसुतो दैत्य उत्कचो नाम मैथिल ।
लोमशस्याश्रमे गच्छन् वृक्षांश्चूर्णीचकार ह ॥१८॥
तं दृष्ट्वा स्थूलदेहाढ्यमुत्कचाख्यं महाबलम् ।
शशाप रोषयुग्विप्रो विदेहो भव दुर्मते ॥१९॥
सर्पकंचुकवद्देहोऽपतत्कर्मविपाकतः ।
सद्यस्तच्चरणोपांते पतित्वा प्राह दैत्यराट् ॥२०॥
उत्कच उवाच -
हे मुने हे कृपासिंधो कृपां कुरु ममोपरि ।
ते प्रभावं न जानामि देहं मे देहि हे प्रभो ॥२१॥
श्रीनारद उवाच -
तदा प्रसन्नः स मुनिर्दृष्टं नयशतं विधेः ।
सतां रोषोऽपि वरदो वरो मोक्षार्थदः किमु ॥२२॥
श्रीलोमश उवाच -
वातदेहस्तु ते भूयातद्व्यतीते चाक्षुषांतरे ।
वैवस्वतांतरे मुक्तिः भविता च पदा हरेः ॥२३॥
बालकोंने
कहा- पालनेपर सोया हुआ यह बालक दूध पीनेके लिये रोते-रोते ही पैर फेंक रहा था। वही
पैर छकड़ेसे टकराया, इसीसे यह छकड़ा उलट
गया । व्रजबालकोंकी इस बातपर गोप और गोपियोंको विश्वास नहीं हुआ। वे सभी
आश्चर्यमग्न होकर सोचने लगे- 'कहाँ तो तीन महीनेका यह
छोटा-सा बालक और कहाँ इतने विशाल बोझवाला यह छकड़ा !' यशोदाको
यह शङ्का हो गयी कि बच्चेको कोई बालग्रह लग गया है। अतः उन्होंने बालकको गोदमें
लेकर ब्राह्मणोंद्वारा विधिपूर्वक ग्रहयज्ञ करवाया। उसमें उन्होंने ब्राह्मणोंको
धन आदिसे पूर्णतया तृप्त कर दिया ॥। १४ – १६ ॥
श्रीबहुलाश्वने
पूछा- महामुने ! इस 'उत्कच' नामके राक्षसने पूर्वजन्ममें कौन-सा पुण्यकर्म किया था, जिसके फलस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णके चरणका स्पर्श पाकर वह तत्काल मोक्षका
भागी हो गया ? ॥ १७ ॥
श्रीनारदजीने
कहा- मिथिलेश्वर ! यह उत्कच पूर्वजन्ममें हिरण्याक्षका पुत्र था। एक दिन वह
लोमशजीके आश्रमपर गया और वहाँ उसने आश्रमके वृक्षोंको चूर्ण कर दिया । स्थूलदेहसे
युक्त महाबली उत्कचको खड़ा देख ब्राह्मण ऋषिने रोष- युक्त होकर उसे शाप दे दिया- 'दुर्मते ! तू देह- रहित हो जा।' उसी कर्मके परिपाकसे
उसका वह शरीर सर्प- शरीरसे केंचुलकी भाँति छूटकर गिर पड़ा। यह देख वह महान् दानव
मुनिके चरणों में गिर पड़ा और बोला ॥। १८ - २० ॥
उत्कचने
कहा- मुने ! आप कृपाके सागर हैं। मेरे ऊपर अनुग्रह कीजिये । भगवन् ! मैंने आपके
प्रभावको नहीं जाना । आप मेरी देह मुझे दे दीजिये ॥ २१ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर वे मुनि लोमश प्रसन्न हो गये। जिन्होंने विधाताकी सौ
नीतियाँ देखी हैं, अर्थात् जिनके सामने
सौ ब्रह्मा बीत चुके हैं, ऐसे संतोंका रोष भी वरदायक होता
है। फिर उनका वरदान मोक्षप्रद हो, इसके लिये तो कहना ही क्या
है ॥२२॥
लोमशजी
बोले - चाक्षुष - मन्वन्तरतक तो तेरा शरीर वायुमय रहेगा। इसके बीत जानेपर वैवस्वत-
मन्वन्तर आयेगा । उसी समयमें (अट्ठाईसवें द्वापरके अन्तमें) भगवान् श्रीकृष्णके
चरणोंका स्पर्श होनेसे तेरी मुक्ति होगी ।। २३ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)
सोमवार, 29 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट
01)
शकटभञ्जन; उत्कच और
तृणावर्त का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन
इत्येवं
कथितं दिव्यं श्रीकृष्णचरितं वरम् ।
यं शृणोति नतो भक्त्या स कृतार्थो न संशयः ॥१॥
श्रीशौनक उवाच -
सुधाखंडात्परं मिष्टं श्रीकृष्णचरितं शुभम् ।
श्रुत्वा त्वन्मुखतः साक्षात्कृतार्थाः स्मो वयं मुने ॥२॥
श्रीकृष्णभक्तः शांतात्मा बहुलाश्वः सतां वरः ।
अथो मुनिं किं पप्रच्छ तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥३॥
श्रीगर्ग उवाच -
अथ राजा मैथिलेंद्रो हर्षितः प्रेमविह्वलः ।
नारदं प्राह धर्मात्मा परिपूर्णतमं स्मरन् ॥४॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
धन्योऽहं च कृतार्थोऽहं भवता भूरिकर्मणा ।
संगो भगवदीयानां दुर्लभो दुर्घटोऽस्ति हि ॥५॥
श्रीकृष्णस्त्वर्भकः साक्षादद्भुतो भक्तवत्सलः ।
अग्रे चकार किं चित्रं चरित्रं वद मे मुने ॥६॥
श्रीनारद उवाच -
साधु पृष्टं त्वया राजन् भवता कृष्णधर्मिणा ।
संगमः खलु साधूनां सर्वेषां वितनोति शम् ॥७॥
एकदा कृष्णजन्मर्क्षे यशोदा नंदगेहिनी ।
गोपीगोपान्समाहूय मंगलं चाकरोद्द्विजैः ॥८॥
रक्तांबरं कनकभूषणभूषिताङ्गं
बालं प्रगृह्य कलितांजनपद्मनेत्रम् ।
श्यामं स्फुरद्धरिनखावृतचंद्रहारं
देवान् प्रणम्य सुधनं प्रददौ द्विजेभ्यः ॥९॥
प्रेंखे निधाय निजमात्मजमाशु गोपी
संपूज्य मंगलदिने प्रतिगोपिकास्ताः ।
नैवाशृणोत्सुरुदितस्य सुतस्य शब्दं
गोपेषु मंगलगृहेषु गतागतेषु ॥१०॥
तत्रैव कंसखलनोदित उत्कचाख्यो
दैत्यः प्रभंजनतनुः शकटं स एत्य ।
बालस्य मूर्ध्नि परिपातयितुं प्रवृत्तः
कृष्णोऽपि तं किल तताड पदारुणेन ॥११॥
चूर्ण गतेथ शकटे पतिते च दैत्ये
त्यक्त्वा प्रभंजनतनुं विमलो बभूव ।
नत्वा हरिं शतहयेन रथेन युक्तो
गोलोकधाम निजलोकमलं जगाम ॥१२॥
नंदादयो व्रजजना व्रजगोपिकाश्च
सर्वे समेत्य युगपत्पृथुकान् तदाहुः ।
एष स्वयं च पतितः शकटः कथं हि
जानीथ हे व्रजसुताः सुगताश्च यूयम् ॥१३॥
श्रीगर्गजीने
कहा- शौनक ! इस प्रकार मैंने भगवान् श्रीकृष्णके सर्वोत्कृष्ट दिव्य चरित्रका
वर्णन किया। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका श्रवण करता है,
वह कृतार्थ है, उसे परम पुरुषार्थ प्राप्त हो
गया—इसमें संशय नहीं है ॥ १ ॥
श्रीशौनकजी
बोले- मुने ! भगवान् श्रीकृष्ण- का मङ्गलमय चरित्र अमृत रससे तैयार की हुई परम
मधुर खाँड़ है। इसे साक्षात् आपके मुखसे सुनकर हम कृतार्थ हो गये। तपोधन !
संतोंमें श्रेष्ठ राजा बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्णके परम भक्त थे । उनके मनमें सदा
शान्ति बनी रहती थी। इसके बाद उन्होंने मुनिवर नारदजीसे कौन-सी बात पूछी,
यह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ॥ २-३ ॥
श्रीगर्गजीने
कहा— शौनक ! तदनन्तर मिथिलाके महाराज बहुलाश्व हर्षसे उत्फुल्ल और प्रेमसे विह्वल
हो गये। फिर उन धर्मात्मा नरेशने परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णका चिन्तन करते हुए
नारदजीसे कहा ॥ ४ ॥
राजा
बहुलाश्व बोले- मुने ! आपने भूरि-भूरि पुण्यकर्म किये हैं। आपके सम्पर्कसे मैं
धन्य और कृतार्थ हो गया; क्योंकि भगवान्के
भक्तोंका सङ्ग दुर्लभ और दुस्साध्य है । मुने! अद्भुत भक्तवत्सल साक्षात् भगवान्
श्रीकृष्णने बाल्यावस्थामें आगे चलकर कौन-सी विचित्र लीला की, यह मुझे बताइये ॥ ५-६ ।।
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! तुम श्रीकृष्ण- सम्मत धर्मके पालक हो,
तुमने यह बहुत उत्तम प्रश्न किया है। निश्चय ही संत पुरुषोंका सङ्ग
सबके कल्याणका विस्तार करनेवाला होता है ॥ ७ ॥
एक
दिन,
जब भगवान् श्रीकृष्णके जन्मका नक्षत्र प्राप्त हुआ था, नन्दरानी श्रीयशोदाजीने गोप और गोपियोंको अपने यहाँ बुलाकर ब्राह्मणोंके
बताये अनुसार मङ्गल-विधान सम्पन्न किया। उस समय श्याम सलोने बालक श्रीकृष्णको लाल
रंगका वस्त्र पहनाया गया। अङ्गोंको सुवर्णमय भूषणोंसे भूषित किया गया। उन्हें
गोदमें लेकर मैयाने उनके विकसित कमल-सदृश कमनीय नेत्रोंमें काजल लगाया और गलेमें
बघनखायुक्त चन्द्रहार धारण कराया तथा देवताओंको नमस्कार करके ब्राह्मणोंके लिये
उत्तम धनका दान दिया ॥ ८- ९ ॥
तदनन्तर
गोपी यशोदाजीने शीघ्र ही अपने लालाको पालनेपर लिटा दिया और मङ्गल- दिवसपर
गोपियोंमेंसे प्रत्येकका अलग-अलग स्वागत किया । उस मङ्गल-भवनमें उस दिन बहुत-से
गोपोंका आना-जाना लगा रहा, अतः उन्हींके
सत्कारमें व्यस्त रहनेके कारण वे अपने रोते हुए बालकका रुदन - शब्द सुन न सकीं।
उसी क्षण पापात्मा कंसका भेजा हुआ एक राक्षस आया। उसका नाम 'उत्कच'
था। वह वायुमय शरीर धारण किये रहता था। वह आकर छकड़ेपर ( जिसपर
बड़े-बड़े वजनदार दही-दूधके मटके रखे जाते थे) बैठ गया और बालकके मस्तक- पर उस
शकटको उलटकर गिरानेके प्रयासमें लगा। इतनेमें ही श्रीकृष्णने रोते-रोते ही उस
शकटपर पैरसे प्रहार कर दिया। फिर तो वह बड़ा छकड़ा टूक-टूक हो गया और दैत्य मरकर
नीचे आ गिरा। ऐसी स्थितिमें वह वायुमय शरीर छोड़कर निर्मल दिव्य देहसे सम्पन्न हो
गया और भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम करके सौ घोड़ोंसे जुते हुए दिव्य विमानपर बैठकर
भगवान् के निजी परमधाम गोलोकको चला गया ॥ १०- १२ ॥
उस
समय व्रजवासी नन्द आदि गोप तथा गोपियाँ सब-के-सब एक साथ वहाँ आ गये और बालकोंसे
पूछने लगे- 'व्रजकुमारो ! यह शकट अपने आप ही
गिर पड़ा या किसीने इसे गिराया है? कैसे इसकी यह दशा हुई है,
तुम जानते हो तो बताओ ॥ १३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)
रविवार, 28 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
तेरहवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
पूतनाका
उद्धार
गोप्य
ऊचुः -
श्रीकृष्णस्ते शिरः पातु वैकुण्ठः कण्ठमेव हि ।
श्वेतद्वीपपतिः कर्णौ नासिकां यज्ञरूपधृक् ॥१५॥
नृसिंहो नेत्रयुग्मं च जिह्वां दशरथात्मजः ।
अधराववतां ते तु नरनाराणावृषी ॥१६॥
कपोलौ पातु ते साक्षात्सनकाद्याः कला हरेः ।
भालं ते श्वेतवाराहो नारदो भ्रूलतेऽवतु ॥१७॥
चिबुकं कपिलः पातु दत्तात्रेय उरोऽवतु ।
स्कंधौ द्वावृषभः पातु करौ मत्स्यः प्रपातु ते ॥१८॥
दोर्दण्डं सततं रक्षेत्पृथुः पृथुलविक्रमः ।
उदरं कमठः पातु नाभिं धन्वन्तरिश्च ते ॥१९॥
मोहिनी गुह्यदेशं च कटिं ते वामनोऽवतु ।
पृष्ठं परशुरामश्च तवोरू बादरायणः ॥२०॥
बलो जानुद्वयं पातु जंघे बुद्धः प्रपातु ते ।
पादौ पातु सगुल्फौ च कल्किर्धर्मपतिः प्रभुः ॥२१॥
सर्वरक्षाकरं दिव्यं श्रीकृष्णकवचं परम् ।
इदं भगवता दत्तं ब्रह्मणे नाभिपंकजे ॥२२॥
ब्रह्मणा शंभवे दत्तं शंभुर्दुर्वाससे ददौ ।
दुर्वासाः श्रीयशोमत्यै प्रादाच्छ्रीनन्दमन्दिरे ॥२३॥
अनेन रक्षां कृत्वास्य गोपीभिः श्रीयशोमती ।
पाययित्वा स्तनं दानं विप्रेभ्यः प्रददौ महत् ॥२४॥
तदा नंदादयो गोपा आगता मथुरापुरात् ।
दृष्ट्वा घोरां पूतनाख्यां बभूवुर्भयविह्वलाः ॥२५॥
छित्वा कुठारैस्तद्देहं गोपाः श्रीयमुनातटे ।
अनेकाश्च चिताः कृत्वा दाहयामासुरेव ताम् ॥२६॥
एलालवंगश्रीखंडतगरागरुगंधिभृत् ।
धूमो दग्धस्य देहस्य पवित्रस्य समुत्थितः ॥२७॥
अहो कृष्णमृते कं वा व्रजाम शरणं त्विह ।
पूतनायै मोक्षगतिं ददौ पतितपावनः ॥२८॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
केयं वा राक्षसी पूर्वं पूतना बालघातिनी ।
विषस्तना दुष्टभावा परं मोक्षं कथं गता ॥२९॥
श्रीनारद उवाच -
बलियज्ञे वामनस्य दृष्ट्वा रूपमतः परम् ।
बलिकन्या रत्नमाला पुत्रस्नेहं चकार ह ॥३०॥
एतादृशो यदि भवेद्बालस्तं हि शुचिस्मितम् ।
पाययामि स्तनं तेन प्रसन्नं मे मनस्तदा ॥३१॥
बलेः परमभक्तस्य सुतायै वामनो हरिः ।
मनोरथस्तु ते भूयान् मनस्यपि वरं ददौ ॥३२॥
यः पूतनामोक्षमिमं शृणोति
कृष्णस्य देवस्य परात्परस्य ।
भक्तिर्भवेत्प्रेमयुतापि तस्य
त्रिवर्गशुद्धिः किमु मैथिलेंद्र ॥३४॥
श्रीगोपियाँ
बोलीं- मेरे लाल ! श्रीकृष्ण तेरे सिरकी रक्षा करें और भगवान् वैकुण्ठ कण्ठकी।
श्वेतद्वीप के स्वामी दोनों कानों की, यज्ञरूपधारी
श्रीहरि नासिका की, भगवान् नृसिंह दोनों नेत्रों की, दशरथ- नन्दन श्रीराम जिह्वा की और नर-नारायण ऋषि तेरे अधरों की रक्षा करें
।। १५-१६ ॥
साक्षात्
श्रीहरिके कलावतार सनक सनन्दन आदि चारों महर्षि तेरे दोनों कपोलोंकी रक्षा करें।
भगवान् श्वेतवाराह तेरे भालदेशकी तथा नारद दोनों भ्रूलताओंकी रक्षा करें। भगवान्
कपिल तेरी ठोढ़ीको और दत्तात्रेय तेरे वक्षःस्थलको सुरक्षित रखें। भगवान् ऋषभ तेरे
दोनों कंधोंकी और मत्स्य- भगवान् तेरे दोनों हाथोंकी रक्षा करें ।। १७-१८ ॥
पृथुल-पराक्रमी
राजा पृथु सदा तेरे बाहुदण्डोंको सुरक्षित रखें। भगवान् कच्छप उदरको और धन्वन्तरि
तेरी नाभिकी रक्षा करें। मोहिनी रूपधारी भगवान् तेरे गुह्यदेशको और वामन तेरी
कटिको हानिसे बचायें । परशुरामजी तेरे पृष्ठभागकी और बादरायण व्यासजी तेरी दोनों
जाँघोंकी रक्षा करें ।। १९-२० ॥
बलभद्र
दोनों घुटनोंकी और बुद्ध- देव तेरी पिंडलियोंकी रक्षा करें। धर्मपालक भगवान् कल्कि
गुल्फोंसहित तेरे दोनों पैरोंको सकुशल रखें। यह सबकी रक्षा करनेवाला परम दिव्य 'श्रीकृष्ण- कवच' है। इसका उपदेश भगवान् विष्णुने
अपने नाभि-कमलमें विद्यमान ब्रह्माजीको दिया था ।। २१-२२ ॥
ब्रह्माजी
ने शम्भु को शम्भु ने दुर्वासा को और दुर्वासा ने नन्द – मन्दिर में आकर
श्रीयशोदाजी को इसका उपदेश दिया था । इस कवचके द्वारा गोपियोंसहित श्रीयशोदा- ने
नन्दनन्दनकी रक्षा करके उन्हें अपना स्तन पिलाया और ब्राह्मणों को प्रचुर धन दिया ॥ २३ – २४ ॥
उसी
समय नन्द आदि गोप मथुरापुरी से गोकुल में लौट आये। पूतना के भयानक शरीर को देखकर
वे सब- के-सब भयसे व्याकुल हो गये। गोपों ने कुठारों से उसके शरीर को काट-काटकर
यमुनाजी के किनारे कई चिताएँ बनायीं और उसका दाह संस्कार किया । पूतना का शरीर परम
पवित्र हो गया था। जलाने पर उससे जो धुआँ निकला, उसमें इलाइची - लवङ्ग, चन्दन, तगर
और अगर की सुगन्ध भरी हुई थी। अहो ! जिन पतित- पावन ने पूतना को मोक्षगति प्रदान
की, उन श्रीकृष्ण को छोड़कर हम यहाँ किसकी शरण में जायँ ।।
२५-२८ ॥
बहुलाश्व
ने पूछा- देवर्षे ! यह बालघातिनी राक्षसी पूतना पूर्वजन्ममें कौन थी ?
इसके स्तनमें विष लगा हुआ था तथा उसके भीत रका भाव भी दूषित ही था;
तथापि इसे उत्तम मोक्ष की प्राप्ति कैसे हुई ? ॥ २९ ॥
श्रीनारदजी
बोले- पूर्वकाल में राजा बलि के यज्ञ में भगवान् वामन के परम उत्तम रूप को देखकर
बलि-कन्या रत्नमाला ने उनके प्रति पुत्रोचित स्नेह किया था। उसने मन-ही-मन यह
संकल्प किया था कि 'यदि मेरे भी ऐसा ही
बालक उत्पन्न हो और उस पवित्र मुसकानवाले शिशुको मैं अपना स्तन पिला सकूँ तो उससे
मेरा चित्त प्रसन्न हो जायगा ।' बलि भगवान्के परम भक्त हैं,
अतः उनकी पुत्री को वामन- भगवान् ने यह वर दिया कि 'तेरे मनमें जो मनोरथ है, वह पूर्ण हो ' ॥ ३०-३२ ॥
वही
रत्नमाला द्वापरके अन्तमें पूतना नामसे विख्यात राक्षसी हुई। भगवान् श्रीकृष्णके
स्पर्शसे उसका उत्तम मनोरथ सफल हो गया। मिथिलानरेश ! जो मनुष्य परात्पर भगवान्
श्रीकृष्णके इस पूतनोद्धारसम्बन्धी प्रसङ्गको सुनता है,
उसको भगवान् की प्रेमपूर्ण भक्ति प्राप्त हो जाती है; फिर उसे धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्गकी उपलब्धि हो
जाय इसके लिये तो कहना ही क्या है । ३३ - ३४ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'पूतना-मोक्ष' नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)
शनिवार, 27 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
तेरहवाँ
अध्याय (पोस्ट 01)
पूतनाका
उद्धार
शौर्यनामयपृच्छार्थं
करं दातुं नृपस्य च ।
पुत्रोत्सवं कथयितुं नंदे श्रीमथुरां गते ॥१॥
कंसेन प्रेषिता दुष्टा पूतना घातकारिणी ।
पुरेषु ग्रामघोषेषु चरंती घर्घरस्वना ॥२॥
अथ गोकुलमासाद्य गोपगोपीगणाकुलम् ।
रूपं दधार सा दिव्यं वपुः षोडशवार्षिकम् ॥३॥
न केऽपि रुरुधुर्गोपाः सुंदरीं तां च गोपिकाः ।
शचीं वाणीं रमां रंभां रतिं च क्षिपतीमिव ॥४॥
रोहिण्यां च यशोदायां धर्षितायां स्फुरत्कुचा ।
अंकमादाय तं बालं लालयंती पुनः पुनः ॥५॥
ददौ शिशोर्महाघोरा कालकूटावृतं स्तनम् ।
प्राणैः सार्द्धं पपौ दुग्धं कटुं रोषावृतो हरिः ॥६॥
मुंच मुंच वदंतीत्थं धावन्ती पीडितस्तना ।
नीत्वा बहिर्गता तं वै गतमाया बभूव ह ॥७॥
पतन्नेत्रा श्वेतगात्रा रुदन्ती पतिता भुवि ।
ननाद तेन ब्रह्माण्डं सप्तलोकैर्बिलैः सह ॥८॥
चचाल वसुधा द्वीपैः तदद्भुतमिवाभवत् ।
षट्क्रोशं सा दृढान् दीर्घान् वृक्षान् पृष्ठतले गतान् ॥९॥
चूर्णीचकार वपुषा वज्रांगेण नृपेश्वर ।
वदन्तस्ते गोपगणा वीक्ष्य घोरं वपुर्महत् ॥१०॥
अस्या अङ्गुलिगो बालो न जीवति कदाचन ।
तस्या उरसि सानन्दं क्रीडन्तं सुस्मितं शिशुम् ॥११॥
दुग्धं पीत्वा जृंभमाणं तं दृष्ट्वा जगृहुः स्त्रियः ।
यशोदया च रोहिण्या निधायोरसि विस्मिताः ॥१२॥
सर्वतो बालकं नीत्वा रक्षां चक्रुर्विधानतः ।
कालिंदीपुण्यमृत्तोयैर्गोपुच्छभ्रमणादिभिः ॥१३॥
गोमूत्रगोरजोभिश्च स्नापयित्वा त्विदं जगुः ॥१४॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! नन्दजी राजा कंसका कर चुकाने, वसुदेवजीकी कुशल पूछने और उन्हें अपने यहाँके पुत्रोत्सवका समाचार देनेके
लिये मथुरा चले गये। उसी समय कंसकी भेजी हुई बाल- घातिनी 'घर्घर' ध्वनि वाली
दुष्टा
राक्षसी पूतना नगरों, गाँवों और गोष्ठों में
विचरती हुई गोप और गोपियों से भरे हुए गोकुल में आ पहुँची ।। १-२ ॥
गोकुल
के निकट आनेपर उसने मायासे दिव्य रूप धारण कर लिया। वह सोलह वर्षकी अवस्थावाली
तरुणी बन गयी। उसका सौन्दर्य इतना दिव्य था कि वह अपनी अङ्गकान्ति से शची,
सरस्वती, लक्ष्मी, रम्भा
तथा रतिको भी तिरस्कृत कर रही थी, इसलिए उसे वहां के गोपों और गोपियों ने रोका भी
नहीं ।। ३-४ ॥
चलते
समय उसके उन्नत कुच दिव्य आभासे झलकते और हिलते थे। उसे देखकर रोहिणी तथा यशोदा भी
हतप्रतिभ हो गयीं। उसने आते ही बालगोपाल को गोद में ले लिया और बारंबार लाड़
लड़ाती हुई उस महाघोर दानवीने शिशुके मुखमें हलाहल विषसे लिप्त अपना स्तन दे दिया।
यह देख तीक्ष्ण रोषसे आवृत हो श्रीहरिने उसका सारा दूध उसके प्राणोंसहित पी लिया ।।
५-६ ॥
उसके
स्तनोंमें जब असह्य पीड़ा हुई, तब 'छोड़ो-छोड़ो' कहते हुए वह उठकर भागी । बच्चेको लिये
लिये घरसे बाहर निकल गयी। बाहर जानेपर उसकी माया नष्ट हो गयी और वह अपने असली
रूपमें दिखायी देने लगी। उसके नेत्र बाहर निकल आये। सारा शरीर सफेद पड़ गया और वह
रोती- चिल्लाती हुई पृथ्वीपर गिर पड़ी। उसकी चिल्लाहटसे सातों लोक और सातों पाताल
सहित सारा ब्रह्माण्ड गूँज उठा ।। ७-८ ॥
द्वीपोंसहित
सारी पृथ्वी डोलने लगी। वह एक अद्भुत-सी घटना हुई। नृपेश्वर ! पूतनाका विशाल शरीर
छः कोस लंबा और वज्रके समान सुदृढ़ था। उसके गिरनेसे उसकी पीठके नीचे आये हुए
बड़े-बड़े वृक्ष पिसकर चकनाचूर हो गये। उस समय गोपगण उस दानवीके भयंकर और विशाल
शरीरको देखकर परस्पर कहने लगे- 'इसकी गोदमें गया
हुआ बालक कदाचित् जीवित नहीं होगा ।' परंतु वह अद्भुत बालक
उसकी छातीपर बैठा हुआ आनन्दसे खेलता और मुसकराता था ।। ९-११ ॥
वह
पूतना का दूध पीकर जम्हाई ले रहा था । उसे उस अवस्थामें देखकर यशोदा तथा रोहिणीके
साथ जाकर स्त्रियोंने उठा लिया और छातीसे लगाकर वे सब की सब बड़े विस्मयमें पड़
गयीं। बच्चेको ले जाकर गोपियोंने सब ओरसे विधिपूर्वक उसकी रक्षा की । यमुनाजीकी
पवित्र मिट्टी लगाकर उसके ऊपर यमुना-जलका छींटा दिया,
फिर उसके ऊपर गायकी पूँछ घुमायी । गोमूत्र और गोरजमिश्रित जलसे उसको
नहलाया और निम्नाङ्कित रूपसे कवचका पाठ किया - ॥ १२-१४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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