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रविवार, 2 जून 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)
शनिवार, 1 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
उन्नीसवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
दामोदर
कृष्णका उलूखल-बन्धन तथा उनके द्वारा यमलार्जुन-वृक्षोंका उद्धार
श्रीनारद
उवाच -
इत्युक्तायां यशोदायां व्यग्रायां गृहकर्मसु ।
कर्षन्नुलूखलं कृष्णो बालैः श्रीयमुनां ययौ ॥१४॥
तत्तटे च महावृक्षौ पुराणौ यमलार्जुनौ ।
तयोर्मध्ये गतः कृष्णो हसन् दामोदरः प्रभुः ॥१५॥
चकर्ष सहसा कृष्णस्तिर्यग्गतमुलूखलम् ।
कर्षणेन समूलौ द्वौ पेततुर्भूमिमंडले ॥१६॥
पातनेनापि शब्दोऽभूत्प्रचंडो वज्रपातवत् ।
विनिर्गतौ च वृक्षाभ्यां देवौ द्वावेधसोऽग्निवत् ॥१७॥
दामोदरं परिक्रम्य पादौ स्पृष्टौ स्वमौलिना ।
कृतांजली हरिं नत्वा तौ तु तत्संमुखे स्थितौ ॥१८॥
देवावूचतुः -
आवां मुक्तौ ब्रह्मदण्डात्सद्यस्तेऽच्युत दर्शनात् ।
माभूत्ते निजभक्तानां हेलनं ह्यावयोर्हरे ॥१९॥
करुणानिधये तुभ्यं जगन्मंगलशीलिने ।
दामोदराय कृष्णाय गोविंदाय नमो नमः ॥२०॥
श्रीनारद उवाच -
इति नत्वा हरिं तौ द्वावुदीचीं च दिशं गतौ ।
तदैव ह्यागताः सर्वे नंदाद्या भयकातराः ॥२१॥
कथं वृक्षौ प्रपतितौ विना वातं व्रजार्भकाः ।
वदताशु तदा बाला ऊचुः सर्वे व्रजौकसः ॥२२॥
श्रीनारदजी
कहते हैं-नरेश्वर ! उन गोपियोंके यों कहनेपर यशोदाजी कुछ नहीं बोलीं । वे घरके
काम- धंधोंमें लग गयीं। इसी बीच मौका पाकर श्रीकृष्ण ग्वाल-बालोंके साथ वह ओखली
खींचते हुए श्रीयमुनाजीके किनारे चले गये। यमुनाजीके तटपर दो पुराने विशाल वृक्ष
थे,
जो एक-दूसरेसे जुड़े हुए खड़े थे। वे दोनों ही अर्जुन-वृक्ष थे।
दामोदर भगवान् कृष्ण हँसते हुए उन दोनों वृक्षोंके बीचमेंसे निकल गये । ओखली वहाँ
टेढ़ी हो गयी थी, तथापि श्रीकृष्णने सहसा उसे खींचा।
खींचनेसे दबाव पाकर वे दोनों वृक्ष जड़सहित उखड़कर पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ १४ - १६॥
वृक्षोंके
गिरनेसे जो धमाकेकी आवाज हुई, वह वज्रपातके
समान भयंकर थी। उन वृक्षोंसे दो देवता निकले - ठीक उसी तरह जैसे काष्ठसे अग्नि
प्रकट हुई हो। उन दोनों देवताओंने दामोदरकी परिक्रमा करके अपने मुकुटसे उनके पैर
छुए और दोनों हाथ जोड़े। वे उन श्रीहरिके समक्ष नतमस्तक खड़े हो इस प्रकार बोले ।
१७ - १८ ॥
दोनों
देवता कहने लगे-अच्युत ! आपके दर्शन से हम दोनों को इसी क्षण ब्रह्मदण्ड से मुक्ति
मिली है। हरे ! अब हम दोनों से आपके निज भक्तों- की अवहेलना न हो। आप करुणा की
निधि हैं । जगत् का मङ्गल करना आपका स्वभाव है । आप 'दामोदर', 'कृष्ण' और 'गोविन्द' को हमारा बारंबार नमस्कार है ॥। १९-२० ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार श्रीहरिको नमस्कार करके वे दोनों देवकुमार उत्तर
दिशाकी ओर चल दिये। उसी समय भयसे कातर हुए नन्द आदि समस्त गोप वहाँ आ पहुँचे। वे
पूछने लगे — 'व्रजबालको ! बिना आँधी-पानीके ये
दोनों वृक्ष कैसे गिर पड़े ? शीघ्र बताओ ।' तब उन समस्त व्रजवासी बालकोंने कहा ।। २१-२२ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)
शुक्रवार, 31 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट
01)
दामोदर कृष्णका
उलूखल-बन्धन तथा उनके द्वारा यमलार्जुन-वृक्षोंका उद्धार
श्रीनारद
उवाच -
एकदा गोकुले गोप्यो ममंथुर्दधि सर्वतः ।
गृहे गृहे प्रगायन्त्यो गोपालचरितं परम् ॥१॥
यशोदापि समुत्थाय प्रातः श्रीनंदमंदिरे ।
भांडे रायं विनिक्षिप्य ममंथ दधि सुंदरी ॥२॥
मंजीररावं संकुर्वन्बालः श्रीनंदनंदनः ।
ननर्त्त नवनीतार्थं रायःशब्दकुतूहलात् ॥३॥
बालकेलिर्बभौ नृत्यन्मातुः पार्श्वमनुभ्रमन् ।
सुनादिकिंकिणीसंघ झंकारं कारयन्मुहुः ॥४॥
हैयंगवीनं सततं नवीनं
याचन्स मातुर्मधुरं ब्रुवन्सः ।
आदाय हस्तेऽश्मसुतं रुषा सुधी-
र्बिभेद कृष्णो दधिमंथपात्रम् ॥५॥
पलायमानं स्वसुतं यशोदा
प्रभावती प्राप न हस्तमात्रात् ।
योगीश्वराणामपि यो दुरापः
कथं स मातुर्ग्रहणे प्रयाति ॥६॥
तथापि भक्तेषु च भक्तवश्यता
प्रदर्शिता श्रीहरिणा नृपेश्वर ।
बालं गृहीत्वा स्वसुतं यशोमती
बबंध रज्ज्वाथ रुषा ह्युलूखले ॥७॥
आदाय यद्यद्बहुदाम तत्त-
त्स्वल्पं प्रभूतं स्वसुते यशोदा ।
गुणैर्न बद्धः प्रकृतेः परो यः
कथं स बद्धो भवतीह दाम्ना ॥८॥
यदा यशोदा गतबन्धनेच्छा
खिन्ना निषण्णा नृप खिन्नमानसा ।
आसीत्तदायं कृपया स्वबंधे
स्वच्छंदयानः स्ववशोऽपि कृष्णः ॥९॥
एष प्रसादो न हि वीरकर्मणां
न ज्ञानिनां कर्मधियां कुतः पुनः ।
मातुर्यथाऽभून्नृप एषु तस्मा-
न्मुक्तिं व्यधाद्भक्तिमलं न माधवः ॥१०॥
तदैव गोप्यस्तु समागतास्त्वरं
दृष्ट्वाथ भग्नं दधिमंथभाजनम् ।
उलूखले बद्धमतीव दामभि-
र्भीतं शिशुं वीक्ष्य जगुर्घृणातुराः ॥११॥
गोप्य ऊचुः -
अस्मद्गृहेषु पात्राणि भिनत्ति सततं शिशुः ।
तदप्येनं नो वदामः कारुण्यान्नंदगेहिनि ॥१२॥
गतव्यथे ह्यकरुणे यशोदे हे व्रजेश्वरि ।
यष्ट्या निर्भर्त्सितो बालस्त्वया बद्धो घटक्षयात् ॥१३॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! एक समय गोपाङ्गनाएँ घर-घरमें गोपालकी लीलाएँ गाती हुई गोकुलमें
सब ओर दधि-मन्थन कर रही थीं। श्रीनन्द - मन्दिरमें सुन्दरी यशोदाजी भी प्रातःकाल
उठकर दहीके भाण्डमें रई डालकर उसे मथने लगीं ।। १-२ ॥
मथानी
की आवाज सुनकर बालक श्रीनन्दनन्दन भी नवनीतके लिये कौतूहलवश मञ्जीरकी मधुर ध्वनि
प्रकट करते हुए नाचने लगे। माताके पास बाल- क्रीडापरायण श्रीकृष्ण बार-बार चक्कर
लगाते और नाचते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे और बजती हुई करधनीके घुघुरुओंकी मधुर
झंकार बारंबार फैला रहे थे ।। ३-४ ॥
वे
माता से मीठे वचन बोलकर ताजा निकाला हुआ माखन माँग रहे थे। जब वह उन्हें नहीं मिला,
तब वे कुपित हो उठे और एक पत्थर का टुकड़ा लेकर उसके द्वारा दही
मथने का पात्र फोड़ दिया। ऐसा करके वे भाग चले । यशोदाजी भी अपने पुत्रको पकड़ने के
लिये पीछे- पीछे दौड़ीं। वे उनसे एक ही हाथ आगे थे, किंतु वे
उन्हें पकड़ नहीं पाती थीं। जो योगीश्वरों के लिये भी दुर्लभ हैं, वे माता की पकड़ में कैसे आ सकते थे ॥ ५-६॥
नृपेश्वर
! तथापि श्रीहरिने भक्तोंके प्रति अपनी भक्तवश्यता दिखायी,
इसलिये वे जान-बूझकर माता के हाथ आ गये। अपने बालक- पुत्र को पकड़कर
यशोदा ने रोषपूर्वक ऊखलमें बाँधना आरम्भ किया। वे जो-जो बड़ी से बड़ी रस्सी उठातीं,
वही वही उनके पुत्रके लिये कुछ छोटी पड़ जाती थी। जो प्रकृतिके
तीनों गुणोंसे न बँध सके, वे प्रकृतिसे परे विद्यमान
परमात्मा यहाँके गुणसे (रस्सीसे) कैसे बँध सकते थे ? ॥ ७-८ ॥
हे
राजन् ! जब यशोदा बाँधते- बाँधते थक गयीं और हतोत्साह होकर बैठ रहीं तथा बाँधनेकी
इच्छा भी छोड़ बैठीं, तब ये स्वच्छन्दगति
भगवान् श्रीकृष्ण स्ववश होते हुए भी कृपा करके माताके बन्धनमें आ गये। भगवान् की
ऐसी कृपा कर्मत्यागी ज्ञानियोंको भी नहीं मिल सकी; फिर जो
कर्ममें आसक्त हैं, उनको तो मिल ही कैसे सकती है। यह भक्तिका
ही प्रताप है कि वे माताके बन्धनमें आ गये। नरेश्वर ! इसीलिये भगवान् ज्ञानके साधक
आराधकोंको मुक्ति तो दे देते हैं, किंतु भक्ति नहीं देते।
उसी समय बहुत-सी गोपियाँ भी शीघ्रतापूर्वक वहाँ आ पहुँचीं। उन्होंने देखा कि दही
मथनेका भाण्ड फूटा हुआ है और भयभीत नन्द- शिशु बहुत-सी रस्सियोंद्वारा ओखलीमें
बँधे खड़े हैं। यह देखकर उन्हें बड़ी दया आयी और वे यशोदाजीसे बोलीं ॥ ९ - ११॥
गोपियोंने
कहा - नन्दरानी ! तुम्हारा यह नन्हा सा बालक सदा ही हमारे घरोंमें जाकर बर्तन-
भाँड़े फोड़ा करता है, तथापि हम करुणावश इसे
कभी कुछ नहीं कहतीं ।
व्रजेश्वरि
यशोदे ! तुम्हारे दिलमें जरा भी दर्द नहीं है, तुम
निर्दय हो गयी हो। एक बर्तनके फूट जानेके कारण तुमने इस बच्चेको छड़ीसे डराया-
धमकाया है और बाँध भी दिया है ! ॥ १२-१३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सोलहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)
गुरुवार, 30 मई 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सोलहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट
02)
नन्द, उपनन्द और
वृषभानुओंका परिचय तथा श्रीकृष्णकी मृद्भक्षण-लीला
एकदा
यमुनातीरे मृत्कृष्णेनावलीढिता ।
यशोदां बालकाः प्राहुरत्ति बालो मृदं तव ॥१३॥
बलभद्रे च वदति तदा सा नंदगेहिनी ।
करे गृहीत्वा स्वसुतं भीरुनेत्रमुवाच ह ॥१४॥
श्रीयशोदा उवाच -
कस्मान्मृदं भक्षितवान् महाज्ञ
भवान्वयस्याश्च वदंति साक्षात् ।
ज्यायान्बलोऽयं वदति प्रसिद्धं
मा एवमर्थं न जहाति नेष्टम् ॥१५॥
श्रीभगवानुवाच -
सर्वे मृषावादरथा व्रजार्भका
मातर्मया क्वापि न मृत्प्रभक्षिता ।
यदा समीचीनमनेन वाक्पथं
तदा मुखं पश्य मदीयमंजसा ॥१६॥
श्रीनारद उवाच -
अथ गोपी बालकस्य पश्यंती सुंदरं मुखम् ।
प्रसारितं च ददृशे ब्रह्मांडं रचितं गुणैः ॥१७॥
सप्तद्वीपान्सप्त सिंधून्सखंडान्सगिरीन्दृढान् ।
आब्रह्मलोकाँल्लोकाँस्त्रीन्स्वात्मभिः सव्रजैः सह ॥१८॥
दृष्ट्वा निमीलिताक्षी सा भूत्वा श्रीयमुनातटे ।
बालोऽयं मे हरिः साक्षादिति ज्ञानमयी ह्यभूत् ॥१९॥
तदा जहास श्रीकृष्णो मोहयन्निव मायया ।
यशोदा वैभवं दृष्टं न सस्मार गतस्मृतिः ॥२०॥
एक
दिनकी बात है, यमुनाके तटपर श्रीकृष्णने
मिट्टीका आस्वादन किया। यह देख बालकोंने यशोदाजीके पास आकर कहा – 'अरी मैया ! तुम्हारा लाला तो मिट्टी खाता है।' बलभद्रजीने
भी उनकी हाँ में हाँ मिला दी । तब नन्दरानी ने अपने पुत्र का हाथ पकड़ लिया। बालक के
नेत्र भयभीत से हो उठे। मैया ने उससे कहा ।। १३-१४ ॥
यशोदाजीने
पूछा- ओ महामूढ़ ! तूने क्यों मिट्टी खायी ! तेरे ये साथी भी बता रहे हैं और
साक्षात् बड़े भैया ये बलराम भी यही बात कहते हैं कि 'माँ ! मना करने पर भी यह मिट्टी खाना नहीं छोड़ता । इसे मिट्टी बड़ी
प्यारी लगती है' ॥ १५ ॥
श्रीभगवान्
ने कहा - मैया ! व्रजके ये सारे बालक झूठ बोल रहे हैं। मैंने कहीं भी मिट्टी नहीं
खायी । यदि तुम्हें मेरी बातपर विश्वास न हो तो मेरा मुँह देख लो ॥ १६ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! तब गोपी यशोदाने बालकका सुन्दर मुख खोलकर देखा । यशोदाको उसके
भीतर तीनों गुणोंद्वारा रचित और सब ओर फैला हुआ ब्रह्माण्ड दिखायी दिया। सातों
द्वीप,
सात समुद्र, भारत आदि वर्ष, सुदृढ़ पर्वत, ब्रह्मलोक-पर्यन्त तीनों लोक तथा
समस्त व्रज- मण्डलसहित अपने शरीरको भी यशोदा ने अपने पुत्रके मुखमें देखा ।। १७-१८
॥
यह
देखते ही उन्होंने आँखें बंद कर लीं और श्रीयमुनाजीके तटपर बैठकर सोचने लगीं - 'यह मेरा बालक साक्षात् श्रीनारायण है।' इस तरह वे
ज्ञाननिष्ठ हो गयीं। तब श्रीकृष्ण उन्हें अपनी मायासे मोहित-सी करते हुए हँसने लगे
। यशोदाजी की स्मरण शक्ति विलुप्त हो गयी। उन्होंने श्रीकृष्ण का जो वैभव देखा था,
वह सब वे तत्काल भूल गयीं ॥ १९ - २० ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'ब्रह्माण्डदर्शन' नामक अठाहरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥
१८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
बुधवार, 29 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
# श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
अठारहवाँ
अध्याय (पोस्ट 01)
नन्द,
उपनन्द और वृषभानुओंका परिचय तथा श्रीकृष्णकी मृद्भक्षण-लीला
श्रीनारद
उवाच -
गोपीगृहेषु विचरन् नवनीचौरः
श्यामो मनोहरवपुर्नवकंजनेत्रः ।
श्रीबालचंद्र इव वृद्धिगतो नराणां
चित्तं हरन्निव चकार व्रजे च शोभाम् ॥१॥
श्रीनंदनंदनमतीव चलं गृहीत्वा
गेहं निधाय मुमुहुर्नवनंदगोपाः ।
सत्कंदुकैश्च सततं परिपालयंते
गायंत ऊर्जितसुखा न जगत्स्मरन्तः ॥२॥
राजोवाच -
नवोपनंदनामानि वद देवऋषे मम ।
अहोभाग्यं तु येषां वै ते पूर्वं क इहागताः ॥३॥
तथा षड्वृषभानूनां कर्माणि मंगलानि च ।
श्रीनारद उवाच -
गयश्च विमलः श्रीशः श्रीधरो मंगलायनः ॥४॥
मंगलो रंगवल्लीशो रङ्गोजिर्देवनायकः ।
नवनंदाश्च कथिता बभूवुर्गोकुले व्रजे ॥५॥
वीतिहोत्रोऽग्निभुक् साम्बः श्रीकरो गोपतिः श्रुतः ।
व्रजेशः पावनः शांत उपनंदाः प्रकीर्तिताः ॥६॥
नीतिविन्मार्गदः शुक्लः पतंगो दिव्यवाहनः ।
गोपेष्टश्च व्रजे राजञ्जाताः षड्वृषभानवः ॥७॥
गोलोके कृष्णचंद्रस्य निकुंजद्वारमाश्रिताः ।
वेत्रहस्ताः श्यामलांगा नवनंदाश्च ते स्मृताः ॥८॥
निकुंजे कोटिशो गावस्तासां पालनतत्पराः ।
वंशीमयूरपक्षाढ्या उपनंदाश्च ते स्मृताः ॥९॥
निकुंजदुर्गरक्षायां दंडपाशधराः स्थिताः ।
षड्द्वारमास्थिताः षड् वै कथिता वृषभानवः ॥१०॥
श्रीकृष्णस्येच्छया सर्वे गोलोकादागता भुवि ।
तेषां प्रभावं वक्तुं हि न समर्थश्चतुर्मुखः ॥११॥
अहं किमु वदिष्यामि तेषां भाग्यं महोदयम् ।
येषामारोहमास्थाय बालकेलिर्बभौ हरिः ॥१२॥
श्रीनारदजी
कहते हैं — मिथिलेश्वर ! गोपाङ्गनाओंके घरोंमें विचरते और माखन चोरीकी लीला करते
हुए नवकंज लोचन मनोहर श्याम- रूपधारी श्रीकृष्ण बालचन्द्रकी भाँति बढ़ते और
लोगोंके चित्त चुराते हुए-से व्रजमें अद्भुत शोभाका विस्तार करने लगे। नौ नन्द
नामके गोप अत्यन्त चञ्चल श्रीनन्दनन्दनको पकड़कर अपने घर ले जाते और वहाँ बिठाकर
उनकी रूपमाधुरीका आस्वादन करते हुए मोहित हो जाते थे । वे उन्हें अच्छी-अच्छी
गेंदें देकर खेलाते, उनका लालन-पालन करते,
उनकी लीलाएँ गाते और बढ़े हुए आनन्दमें निमग्न हो सारे जगत् को भूल
जाते थे ॥ १-२ ॥
राजा
ने पूछा- देवर्षे ! आप मुझसे नौ उपनन्दोंके नाम बताइये। वे सब बड़े सौभाग्यशाली
थे। उनके पूर्वजन्मका परिचय दीजिये । वे पहले कौन थे,
जो इस भूतलपर अवतीर्ण हुए ? उपनन्दोंके साथ ही
छः वृषभानुओंके भी मङ्गलमय कर्मोंका वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥
श्रीनारदजीने
कहा- गय,
विमल, श्रीश, श्रीधर,
मङ्गलायन, मङ्गल, रङ्गवल्लीश,
रङ्गोजि तथा देवनायक – ये 'नौ नन्द' कहे गये हैं, जो व्रजके गोकुलमें उत्पन्न हुए थे।
वीतिहोत्र, अग्निभुक्, साम्ब, श्रीवर, गोपति, श्रुत, व्रजेश, पावन तथा शान्त – ये 'उपनन्द'
कहे गये हैं ।। ४-६ ॥
हे
राजन् ! नीतिवित्, मार्गद, शुक्ल, पतंग, दिव्यवाहन और
गोपेष्ट – ये छः 'वृषभानु' हैं,
जिन्होंने व्रजमें जन्म धारण किया था। जो गोलोकधाममें
श्रीकृष्णचन्द्रके निकुञ्जद्वारपर रहकर हाथमें बेंत लिये पहरा देते थे, वे श्याम अङ्गवाले गोप व्रजमें 'नौ नन्द' के नामसे विख्यात हुए । निकुञ्जमें जो करोड़ों गायें हैं, उनके पालनमें तत्पर, मोरपंख और मुरली धारण करनेवाले
गोप यहाँ 'उपनन्द' कहे गये हैं।
निकुञ्ज- दुर्ग की रक्षा के लिये जो दण्ड और पाश धारण किये उसके छहों द्वारोंपर
रहा करते हैं, वे ही छः गोप यहाँ 'छः
वृषभानु' कहलाये ।। ९-१० ॥
श्रीकृष्ण
की इच्छा से ही वे सब लोग गोलोक से भूतलपर उतरे हैं। उनके प्रभाव का वर्णन करनेमें
चतुर्मुख ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं, फिर
मैं उनके महान् अभ्युदयशाली सौभाग्य का कैसे वर्णन कर सकूँगा, जिनकी गोद में बैठकर बाल-क्रीडापरायण श्रीहरि सदा सुशोभित होते थे । ११ -
१२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सोलहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)
मंगलवार, 28 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सत्रहवाँ
अध्याय (पोस्ट 03)
श्रीकृष्ण
की बाल लीला में दधि-चोरी का वर्णन
श्रीनारद
उवाच -
श्रुत्वा वाक्यं तदा गोपी प्रसन्ना गृहमागता ।
एकदा दधिचौर्यार्थं कृष्णस्तस्या गृहं गतः ॥ २७ ॥
वयस्यैर्बालकैः सार्द्धं पार्श्वकुड्ये गृहस्य च ।
हस्ताद्धस्तं संगृहीत्वा शनैः कृष्णो विवेश ह ॥ २८ ॥
शिक्यस्थं गोरसं दृष्ट्वा हस्ताग्राह्यं हरिः स्वयम् ।
उलूखले पीठके च गोपान्स्थाप्यारुरोह तम् ॥ २९ ॥
तदपि प्रांशुना लभ्यं गोरसं शिक्यसंस्थितम् ।
श्रीदाम्ना सुबलेनापि दंडेनापि तताड च ॥ ३० ॥
भग्नभाण्डात्सर्वगव्यं बृहद्भूमौ मनोहरम् ।
जगास सबलो मर्कैर्बालकैः सह माधवः ॥ ३१ ॥
भग्नभांडस्वनं श्रुत्वा प्राप्ता गोपी प्रभावती ।
पलायितेषु बालेषु जग्राह श्रीकरं हरेः ॥ ३२ ॥
नीत्वा मृषाश्रुं भीरुं च गच्छन्ती नन्दमंदिरम् ।
अग्रे नन्दं स्थितं दृष्ट्वा मुखे वस्त्रं चकार ह ॥ ३३ ॥
हरिर्विचिंतयन्नित्थं माता दंडं प्रदास्यति ।
दधार तद्बालरूपं स्वच्छन्दगतिरीश्वरः ॥ २४ ॥
सा यशोदां समेत्याशु प्राह गोपी रुषान्विता ।
भांडं भग्नीकृतं सर्वं मुषितं दध्यनेन वै ॥ ३५ ॥
यशोदा तत्सुतं वीक्ष्य हसंती प्राह गोपिकाम् ।
वस्त्रांतं च मुखाद्गोपी दूरीकृत्य वदांहसः ॥ ३६ ॥
अपवादो यदा देयो निर्वासं कुरु मे परात् ।
युष्मत्पुत्रकृतं चौर्यमस्मत्पुत्रकृतं भवेत् ॥ ३७ ॥
जनलज्जासमायुक्ता दूरीकृत्य मुखांबरम् ।
सापि प्राह निजं बालं वीक्ष्य विस्मितमानसा ॥ ३८ ॥
निष्पदस्त्वं कुतः प्राप्तो व्रजसारोऽस्ति मे करे ।
वदन्तीत्थं च तं नीत्वा निर्गता नन्दमंदिरात् ॥ ३९ ॥
यशोदा रोहिणी नंदो रामो गोपाश्च गोपिकाः ।
जहसुः कथयंतस्ते दृष्टोऽन्यायो व्रजे महान् ॥ ४० ॥
भगवांस्तु बहिर्वीथ्यां भूत्वा श्रीनन्दनन्दनः ।
प्रहसन् गोपिकां प्राह धृष्टांगश्चंचलेक्षणः ॥ ४१ ॥
श्रीभगवान् उवाच -
पुनर्मां यदि गृह्णासि कदाचित्त्वं हि गोपिके ।
ते भर्तृरूपस्तु तदा भविष्यामि न संशयः ॥ ४२ ॥
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा सा विस्मिता गोपी गता गेहेऽथ मैथिल ।
तदा सर्वगृहे गोप्यो न गृह्णन्ति हरिं ह्रिया ॥ ४३ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! यशोदाजीकी यह बात सुनकर गोपी प्रभावती प्रसन्नतापूर्वक अपने घर
लौट आयी। एक दिन श्रीकृष्ण समवयस्क बालकोंके साथ फिर दही चुरानेके लिये उसके घरमें
गये। घरकी दीवारके पास सटकर एक हाथसे दूसरे बालकका हाथ पकड़े धीरे-धीरे घरमें घुसे
।। २७-२८ ॥
छीके
पर रखा हुआ गोरस हाथसे पकड़में नहीं आ सकता, यह
देख श्रीहरिने स्वयं एक ओखलीके ऊपर पीढ़ा रखा। उसपर कुछ ग्वाल-बालोंको खड़ा किया
और उनके सहारे आप ऊपर चढ़ गये। तो भी छीकेपर रखा हुआ गोरस अभी और ऊँचे कदके
मनुष्यसे ही प्राप्त किया जा सकता था, इसलिये वे उसे न पा
सके। तब श्रीदामा और सुबलके साथ उन्होंने मटकेपर डंडेसे प्रहार किया ।। २९-३० ॥
दही
का बर्तन फूट गया और सारा गव्य पृथ्वी पर बह चला। तब बलरामसहित माधव ने
ग्वाल-बालों और बंदरों के साथ वह मनोहर दही जी भरकर खाया । भाण्ड के फूटने की आवाज
सुनकर गोपी प्रभावती वहाँ आ पहुँची । अन्य सब बालक तो वहाँसे भाग निकले;
किंतु श्रीकृष्ण का हाथ उसने पकड़ लिया ।। ३१-३२ ॥
श्रीकृष्ण
भयभीत से होकर मिथ्या आँसू बहाने लगे। प्रभावती उन्हें लेकर नन्द-भवन की ओर चली।
सामने नन्दरायजी खड़े थे। उन्हें देखकर प्रभावती ने मुखपर घूँघट डाल दिया। श्रीहरि
सोचने लगे – 'इस तरह जानेपर माता मुझे अवश्य
दण्ड देगी।' अतः उन स्वच्छन्दगति परमेश्वरने प्रभावतीके ही
पुत्रका रूप धारण कर लिया। रोषसे भरी हुई प्रभावती यशोदाजीके पास शीघ्र जाकर बोली-
इसने मेरा दहीका बर्तन फोड़ दिया और सारा दही लूट लिया' ।। ३३
- ३५॥
यशोदाजीने
देखा,
यह तो इसीका पुत्र है; तब वे हँसती हुई उस
गोपीसे बोली- 'पहले अपने मुखसे घूँघट तो हटाओ, फिर बालकके दोष बताना । यदि इस तरह झूठे ही दोष लगाना है तो मेरे नगरसे
बाहर चली जाओ। क्या तुम्हारे पुत्रकी की हुई चोरी मेरे बेटेके माथे मढ़ दी जायगी ?'
।। ३६-३७ ॥
तब
लोगोंके बीच लजाती हुई प्रभावतीने अपने मुँहसे घूँघटको हटाकर देखा तो उसे अपना ही
बालक दिखायी दिया। उसे देखकर वह मन ही मन चकित होकर बोली- 'अरे निगोड़े ! तू कहाँसे आ गया ! मेरे हाथमें तो व्रजका सार-सर्वस्व था।'
इस तरह बड़बड़ाती हुई वह अपने बेटेको लेकर नन्दभवनसे बाहर चली गयी।
यशोदा, रोहिणी, नन्द, बलराम तथा अन्यान्य गोप और गोपाङ्गनाएँ हँसने लगीं और बोलीं- 'अहो ! व्रजमें तो बड़ा भारी अन्याय दिखायी देने लगा है।' उधर भगवान् बाहरकी गलीमें पहुँचकर फिर नन्द-नन्दन बन गये और सम्पूर्ण
शरीरसे धृष्टताका परिचय देते हुए, चञ्चल नेत्र मटकाकर,
जोर-जोर से हँसते हुए उस गोपीसे बोले ॥ ३७–४१ ॥
श्रीभगवान्
ने कहा - अरी गोपी! यदि फिर कभी तू मुझे पकड़ेगी तो अबकी बार मैं तेरे पति का रूप
धारण कर लूँगा, इसमें संशय नहीं है ॥ ४२ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर वह गोपी आश्चर्य से चकित हो अपने घर चली गयी। उस दिनसे
सब घरोंकी गोपियाँ लाजके मारे श्रीहरिका हाथ नहीं पकड़ती थीं ॥ ४३ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवादमें
श्रीकृष्णके बालचरित्रगत 'दधि-चोरीका वर्णन'
नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १७ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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