शनिवार, 8 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पहला अध्याय (पोस्ट 04)

 

सन्नन्दका गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य का वर्णन करना

 

श्रीनारद उवाच -
तीर्थैः प्रपूजितस्त्वं वै तीर्थराज महातपः ।
तुभ्यं च सर्वतीर्थानि मुख्यानीह बलिं ददुः ॥ ३४ ॥
व्रजाद्‌वृंदावनादीनि नागतानीह ते पुरः ।
तीर्थानां राजराजस्त्वं प्रमत्तैस्तैस्तिरस्कृतः ॥ ३५ ॥
इति प्रभाष्य तं साक्षाद्‌गते देवर्षिसत्तमे ।
तीर्थराजस्तदा क्रुद्धो हरिलोकं जगाम ह ॥ ३६ ॥
नत्वा हरिं परिक्रम्य पुरः स्थित्वा कृतांजलिः ।
सर्वतीर्थैः परिवृतः श्रीनाथं प्राह तीर्थराट् ॥ ३७ ॥


तीर्थराज उवाच -
हे देवदेव प्राप्तोऽहं तीर्थराजस्त्वया कृतः ।
बलिं ददुर्मे तीर्थानि मथुरामंडलं विना ॥ ३८ ॥
प्रमत्तैर्व्रजतीर्थैश्च तैरहं तु तिरस्कृतः ।
तस्मात्तुभ्यं च कथितं प्राप्तोऽहं तव मंदिरे ॥ ३९ ॥


श्रीभगवानुवाच -
धरायां सर्वतीर्थानां त्वं कृतस्तीर्थराण्मया ।
किंतु स्वस्य गृहस्यापि न कृतो राट् त्वमेव हि ॥ ४० ॥
किं त्वं मे मंदिरं लिप्सुः मत्तवद्‌भाषसे वचः ।
तीर्थराज गृहं गच्छ शृणु वाक्यं शुभं च मे ॥ ४१ ॥
मथुरामंडलं साक्षान्मंदिरं मे परात्परम् ।
लोकत्रयात्परं दिव्यं प्रलयेऽपि न संहृतम् ॥ ४२ ॥


सन्नन्द उवाच -
इति श्रुत्वा तीर्थराजो विस्मितोऽभूद्‌गतस्मयः ।
आगत्य नत्वा संपूज्य माथुरं व्रजमंडलम् ॥ ४३ ॥
ततः प्रदक्षिणीकृत्य स्वधाम गतवान् पुनः ।
धराया मानभंगार्थं पूर्वमेतत्प्रदर्शितम् ।
मया तवाग्रे कथितं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ४४ ॥


नंद उवाच -
धराया मानभङ्गार्थं केन पूर्वं प्रदर्शितम् ।
एतन्मे वद गोपेश माथुरं व्रजमंडलम् ॥ ४५ ॥

श्रीनारदजीने कहा— महातपस्वी तीर्थराज ! निश्चय ही तुम समस्त तीर्थोंद्वारा विशेषरूपसे पूजित हुए हो, तुम्हें सभी मुख्य-मुख्य तीर्थोंने यहाँ आकर भेंट समर्पित की है; परंतु व्रजके वृन्दावनादि तीर्थ यहाँ तुम्हारे सामने नहीं आये। तुम तीर्थोके राजाधिराज हो, व्रज के प्रमादी तीर्थ ने यहाँ न आकर तुम्हारा तिरस्कार किया है ।। ३४-३५ ॥

 

सन्नन्द कहते हैं—यों कहकर साक्षात् देवर्षि- शिरोमणि नारदजी वहाँ से चले गये। तब तीर्थराज के मन में बड़ा क्रोध हुआ और वे उसी क्षण श्रीहरि के लोक में गये । श्रीहरिको प्रणाम और उनकी परिक्रमा करके सम्पूर्ण तीर्थोंसे घिरे हुए तीर्थराज हाथ जोड़कर भगवान्‌के सामने खड़े हुए और उन श्रीनाथसे बोले ।। ३६-३७ ।।

 

तीर्थराज ने कहा— देवदेव ! मैं आपकी सेवामें इसलिये आया हूँ कि आपने तो मुझे 'तीर्थराज' बनाया और समस्त तीर्थों ने मुझे भेंट दी, किंतु मथुरामण्डल के तीर्थ मेरे पास नहीं आये उन प्रमादी व्रजतीर्थों ने मेरा तिरस्कार किया है। अतः यह बात आपसे कहने के लिये मैं आपके मन्दिर में आया हूँ ।। ३८-३९ ।।

 

श्रीभगवान् बोले—मैंने तुम्हें धरती के सब तीर्थोंका राजा - 'तीर्थराज' अवश्य बनाया है; किंतु अपने घरका भी राजा तुम्हें ही बना दिया हो, ऐसी बात तो नहीं हुई है ! फिर तुम तो मेरे गृहपर भी अधिकार जमाने की इच्छा लेकर प्रमत्त पुरुषके समान बात कैसे कर रहे हो ? तीर्थराज ! तुम अपने घर जाओ और मेरा यह शुभ वचन सुन लो । मथुरामण्डल मेरा साक्षात् परात्पर धाम है, त्रिलोकी से परे है। उस दिव्यधाम का प्रलयकाल में भी संहार नहीं होता ।। ४०-४२ ॥

 

सन्नन्द कहते हैं - यह सुनकर तीर्थराज बड़े विस्मित हुए। उनका सारा अभिमान गल गया। फिर वहाँ से आकर उन्होंने मथुराके व्रजमण्डलका पूजन और उसकी परिक्रमा करके अपने स्थानको पदार्पण किया। पृथ्वीका मानभङ्ग करनेके लिये यह व्रजमण्डल पहले दिखाया गया था। मैंने ये सारी बातें तुम्हारे सामने कहीं, अब और क्या सुनना चाहते हो ॥ ४३-४४ ॥

 

नन्दजीने पूछा—गोपेश्वर ! किसने पहले पृथ्वी का मानभङ्ग करनेके लिये इस व्रजमण्डल को दिखलाया था, यह मुझे बताइये ॥ ४५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

कलिरुवाच ।
यत्र क्वचन वत्स्यामि सार्वभौम तवाज्ञया ।
लक्षये तत्र तत्रापि त्वामात्तेषुशरासनम् ॥३६॥
तन्मे धर्मभृतां श्रेष्ठ स्थानं निर्देष्टुमर्हसि ।
यत्रैव नियतो वत्स्य आतिष्ठंस्तेऽनुशासनम् ॥३७॥

सूत उवाच ।
अभ्यर्थितस्तदा तस्मै स्थानादि कलये ददौ ।
द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः ॥३८॥
पुनश्च याचमानाय जातरूपमदात्प्रभुः ।
ततोऽनृतं मदं कामं रजो वैरं च पंचमम् ॥३९॥
अमूनि पंच स्थानानि ह्यधर्मप्रभवः कलिः ।
औत्तरेयेण दत्तानि न्यवसत् तन्निदेशकृत् ॥४०॥
अथैतानि न सेवेत बुभूषुः पुरुषःक्वचित् ।
विशेषतो धर्मशीलो राजा लोकपतिर्गुरुः ॥४१॥

कलि ने (राजा परीक्षित्‌से) कहा—सार्वभौम ! आपकी आज्ञासे जहाँ कहीं भी मैं रहनेका विचार करता हूँ, वहीं देखता हूँ कि आप धनुषपर बाण चढ़ाये खड़े हैं ॥ ३६ ॥ धार्मिक-शिरोमणे ! आप मुझे वह स्थान बतलाइये, जहाँ मैं आपकी आज्ञाका पालन करता हुआ स्थिर होकर रह सकूँ ॥ ३७ ॥

सूतजी कहते हैं—कलियुग की प्रार्थना स्वीकार करके राजा परीक्षित्‌ ने उसे चार स्थान दिये—द्यूत, मद्यपान, स्त्री-सङ्ग और हिंसा। इन स्थानों में क्रमश: असत्य, मद, आसक्ति और निर्दयता—ये चार प्रकार के अधर्म निवास करते हैं ॥ ३८ ॥ उसने और भी स्थान माँगे। तब समर्थ परीक्षित्‌ ने उसे रहने के लिये एक और स्थान—‘सुवर्ण’ (धन)—दिया। इस प्रकार कलियुग के पाँच स्थान हो गये—झूठ, मद, काम, वैर और रजोगुण ॥ ३९ ॥ परीक्षित्‌ के दिये हुए इन्हीं पाँच स्थानों में अधर्म का मूल कारण कलि उनकी आज्ञाओं का पालन करता हुआ निवास करने लगा ॥ ४० ॥ इसलिये आत्मकल्याणकामी पुरुष को इन पाँचों स्थानों का सेवन कभी नहीं करना चाहिये। धार्मिक राजा, प्रजावर्ग के लौकिक नेता और धर्मोपदेष्टा गुरुओं को तो बड़ी सावधानी से इनका त्याग करना चाहिये ॥ ४१ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


शुक्रवार, 7 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पहला अध्याय (पोस्ट 03)

 

सन्नन्दका गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य का वर्णन करना

 

शूलं चिक्षेप हरये शंखो दैत्यो महाबलः ।
स्वचक्रेण हरिः साक्षात्तच्छूलं शतधाकरोत् ॥ २३ ॥
हरिं तताड शिरसा शंखो विष्णुमुरःस्थले ।
तस्य मूर्द्धप्रहारेण न चचाल परात्परः ॥ २४ ॥
तदा गदां समादाय मत्स्यरूपधरो हरिः ।
पृष्ठे जघान तं दैत्यं शंखरूपं महाबलम् ॥ २५ ॥
गदाप्रहारव्यथितः किंचिद्‌व्याकुलमानसः ।
पुनरुत्थाय सर्वेशं मुष्टिना स तताड ह ॥ २६ ॥
तदा विष्णुः स्वचक्रेण सशृङ्गं तच्छिरो दृढम् ।
जहार कुपितः साक्षाद्‌भगवान् कमलेक्षणः ॥ २७ ॥
जित्वा शंखं देववरैः सार्धं विष्णुर्व्रजेश्वर ।
प्रयागमेत्य स हरिर्वेदान् तान् ब्रह्मणे ददौ ॥ २८ ॥
यज्ञं चकार विधिवत्सर्वदेवगणैः सह ।
प्रयागं च समाहूय तीर्थराजं चकार ह ॥ २९ ॥
तत्साक्षादक्षयवटः कृतो लीलातपत्रवत् ।
मुनिभानुसुतेऽथोर्मिचामरैस्तं विरेजतुः ॥ ३० ॥
तदैव सर्वतीर्थानि जंबूद्वीपस्थितानि च ।
नीत्वा बलिं समाजग्मुस्तीर्थराजाय धीमते ॥ ३१ ॥
तीर्थराजं च संपूज्य नत्वा तीर्थानि सर्वतः ।
स्वधामानि ययुर्नन्द हरौ देवैर्गते सति ॥ ३२ ॥
तदैव नारदः प्राप्तो मुनीन्द्रः कलहप्रियः ।
सिंहासने भ्राजमानं तीर्थराजमुवाच ह ॥ ३३ ॥

महाबली दैत्य शङ्ख ने श्रीहरि के ऊपर शूल चलाया। किंतु साक्षात् श्रीहरि ने अपने चक्रसे उस शूल के सैकड़ों टुकड़े कर दिये। तब शङ्ख ने अपने सिर से भगवान् विष्णु के वक्षःस्थल में प्रहार किया। किंतु उसके उस प्रहार से परात्पर श्रीहरि विचलित नहीं हुए। उस समय मत्स्यरूपधारी श्रीहरिने हाथमें  गदा लेकर महाबली शङ्खरूपधारी उस दैत्य की पीठ पर आघात किया ।। २३-२५ ॥

 

गदा के प्रहार से वह इतना पीड़ित हुआ कि उसका चित्त कुछ व्याकुल हो गया; किंतु पुनः उठकर उसने सर्वेश्वर श्रीहरिको मुक्केसे मारा। तब कमलनयन साक्षात् भगवान् विष्णुने कुपित हो अपने चक्रसे उसके सुदृढ़ मस्तक को सींगसहित काट डाला ।। २६-२७ ॥

 

व्रजेश्वर ! इस प्रकार शङ्ख को जीतकर देवताओंके साथ सर्वव्यापी श्रीहरि ने प्रयागमें आकर वे चारों वेद ब्रह्माजीको दे दिये। फिर सम्पूर्ण देवताओंके साथ उन्होंने विधिवत् यज्ञका अनुष्ठान किया और प्रयागतीर्थके अधिष्ठाता देवताको बुलाकर उसे 'तीर्थराज' पदपर अभिषिक्त कर दिया । साक्षात् अक्षयवटको तीर्थराजके लिये लीला - छत्र-सा बना दिया । मुनिकन्या गङ्गा तथा सूर्यसुता यमुना अपनी तरङ्गरूपी चामरों से उनकी सेवा करने लगीं ।। २८-३० ॥

उसी समय जम्बूद्वीपके सारे तीर्थ भेंट लेकर बुद्धिमान् तीर्थराजके पास आये और उनकी पूजा और वन्दना करके वे तीर्थ अपने-अपने स्थान- को चले गये। नन्द ! जब देवताओंके साथ श्रीहरि भी चले गये, तब वहीं कलहप्रिय मुनीन्द्र नारदजी आ पहुँचे और सिंहासनपर देदीप्यमान तीर्थराजसे बोले ॥ ३१ - ३३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



गुरुवार, 6 जून 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

पतितं पादयोर्वीरः कृपया दीनवत्सलः ।
शरण्यो नावधीच्छ्लोक्य आह चेदं हसन्निव ॥३०॥

राजोवाच
न ते गुडाकेशयशोधराणां 
बद्धाञ्जलेर्वै भयमस्ति किंचित् ।
न वर्तितव्यं भवता कथंचन 
क्षेत्रे मदीये त्वमधर्मबन्धुः॥३१॥
त्वां वर्तमानं नरदेवदेहे- 
ष्वनु प्रवृत्तोऽयमधर्मपूगः ।
लोभो‍ऽनृतं चौर्यमनार्यमंहो 
ज्येष्ठा च माया कलहश्च दम्भः ॥३२॥
न वर्तितव्यं तदधर्मबन्धो 
धर्मेण सत्येन च वर्तितव्ये ।
ब्रह्मावर्ते यत्र यजन्ति यज्ञै- 
र्यज्ञेश्वरं यज्ञवितानविज्ञाः ॥३३॥
यस्मिन् हरिर्भगवानिज्यमान 
इज्यामूर्तिर्यजतां शं तनोति ।
कामानमोघान् स्थिरजंगमाना- 
मन्तर्बाहिर्वायुरिवैष आत्मा ॥३४॥

सूत उवाच ।
परिक्षितैवमादिष्टः स कलिर्जातवेपथु: ।
तमुद्यातासिमाहेदं दण्डपाणिमिवोद्यतम् ॥३५॥

परीक्षित्‌ बड़े यशस्वी, दीनवत्सल और शरणागतरक्षक थे। उन्होंने जब कलियुगको अपने पैरोंपर पड़े देखा तो कृपा करके उसको मारा नहीं, अपितु हँसते हुए-से उससे कहा ॥ ३० ॥

परीक्षित्‌ बोले—जब तू हाथ जोडक़र शरण आ गया, तब अर्जुनके यशस्वी वंशमें उत्पन्न हुए किसी भी वीरसे तुझे कोई भय नहीं है। परन्तु तू अधर्मका सहायक है, इसलिये तुझे मेरे राज्यमें बिलकुल नहीं रहना चाहिये ॥ ३१ ॥ तेरे राजाओंके शरीरमें रहनेसे ही लोभ, झूठ, चोरी, दुष्टता, स्वधर्मत्याग, दरिद्रता, कपट, कलह, दम्भ और दूसरे पापोंकी बढ़ती हो रही है ॥ ३२ ॥ अत: अधर्मके साथी ! इस ब्रह्मावर्तमें तू एक क्षणके लिये भी न ठहरना; क्योंकि यह धर्म और सत्यका निवासस्थान है। इस क्षेत्रमें यज्ञविधिके जाननेवाले महात्मा यज्ञोंके द्वारा यज्ञपुरुष भगवान्‌की आराधना करते रहते हैं ॥ ३३ ॥ इस देशमें भगवान्‌ श्रीहरि यज्ञोंके रूपमें निवास करते हैं, यज्ञोंके द्वारा उनकी पूजा होती है और वे यज्ञ करनेवालोंका कल्याण करते हैं। वे सर्वात्मा भगवान्‌ वायुकी भाँति समस्त चराचर जीवोंके भीतर और बाहर एकरस स्थित रहते हुए उनकी कामनाओंको पूर्ण करते रहते हैं ॥ ३४ ॥
सूतजी कहते हैं—परीक्षित्‌की यह आज्ञा सुनकर कलियुग सिहर उठा। यमराजके समान मारनेके लिये उद्यत, हाथमें तलवार लिये हुए परीक्षित्‌से वह बोला ॥ ३५ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पहला अध्याय (पोस्ट 02)

 

सन्नन्दका गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य का वर्णन करना

 

वैकुंठान्नापरो लोको न भूतो न भविष्यति ।
एकं वृंदावनं नाम वैकुंठाच्च परात्परम् ॥ १५ ॥
यत्र गोवर्धनो नाम गिरिराजो विराजते ।
कालिन्दीनिकटे यत्र पुलिनं मंगलायनम् ॥ १६ ॥
बृहत्सानुर्गिरिर्यत्र यत्र नन्दीश्वरो गिरिः ।
क्रोशानां च चतुर्विंशद्‌विस्तृतैः काननैर्वृतम् ॥ १७ ॥
पशव्यं गोपगोपीनां गवां सेव्यं मनोहरम् ।
लताकुंजावृतं तद्वै वनं वृंदावनं स्मृतम् ॥ १८ ॥


नंद उवाच -
कदा व्रजोऽयं सन्नंद तीर्थराजेन पूजितः ।
एतद्वेदितुमिच्छामि परं कौतुहलं हि मे ॥ १९ ॥


सन्नंद उवाच -
शंखासुरो महादैत्यः पुरा नैमित्तिके लये ।
स्वपतो ब्रह्मणः सोऽपि वेदध्रुग्दैत्यपुंगवः ॥ २० ॥
जित्वा देवान् ब्रह्मलोकाद्धृत्वा वेदान् गतोऽर्णवे ।
गतेषु तेषु वेदेषु देवानां च गतं बलम् ॥ २१ ॥
तदा साक्षाद्धरिः पूर्णो धृत्वा मात्स्यं वपुः पुरम् ।
नैमित्तिकलयांभोधौ युयुधे तेन यज्ञराट् ॥ २२ ॥

वैकुण्ठ से बढ़कर दूसरा कोई लोक न तो हुआ है और न आगे होगा। केवल एक 'वृन्दावन' ही ऐसा है, जो वैकुण्ठ की अपेक्षा भी परात्पर (परम उत्कृष्ट) है । जहाँ 'गोवर्धन' नाम से प्रसिद्ध गिरिराज विराजमान है, जहाँ कालिन्दी के तटपर मङ्गलधाम पुलिन है, जहाँ बृहत्सानु (बरसाना) पर्वत है तथा जहाँ नन्दीश्वर गिरि शोभा पाता है, जो चौबीस कोस के विस्तार में स्थित तथा विशाल काननोंसे आवृत है; जो पशुओंके लिये हितकर, गोप-गोपी और गौओंके लिये सेवन करनेयोग्य तथा लताकुज्जोंसे आवृत है, उस मनोहर बनको 'वृन्दावन' के नामसे स्मरण किया जाता है ।। १५ - १८ ॥

 

नन्दजीने पूछा – सन्नन्दजी ! तीर्थराज प्रयागने कब इस व्रज की पूजा की है, मैं यह जानना चाहता हूँ । इसे सुनने के लिये मेरे मनमें बड़ा कौतूहल- बड़ी उत्कण्ठा है ॥ १९ ॥

 

सन्नन्द बोले- नन्दराज ! पूर्वकालमें नैमित्तिक प्रलय के अवसर पर एक महान् दैत्य प्रकट हुआ, जो शङ्खासुर के नामसे प्रसिद्ध था। वह वेदद्रोही दैत्यराज समस्त देवताओं को जीतकर ब्रह्मलोक में गया और वहाँ सोते हुए ब्रह्मा के पास से वेदों की पोथी चुराकर समुद्र में जा घुसा। वेदों के जाते ही देवताओं का सारा बल चला गया। तब पूर्ण भगवान् यज्ञेश्वर श्रीहरिने मत्स्यरूप धारण करके नैमित्तिक प्रलयके सागरमें उस शङ्खासुरके साथ युद्ध किया ॥ २०-२२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



बुधवार, 5 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पहला अध्याय (पोस्ट 01)

 

सन्नन्दका गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य का वर्णन करना

 

कृष्णातीरे कोकिलाकेलिकीरे
     गुंजापुंजे देवपुष्पादिकुंजे ।
कंबुग्रीवौ क्षिप्तबाहू चलन्तौ
     राधाकृष्णौ मंगलं मे भवेताम् ॥ १ ॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥ २ ॥


श्रीनारद उवाच -
एकदोपद्रवं वीक्ष्य नंदो नन्दान्सहायकान् ।
वृषभानूपनंदांश्च वृषभानुवरांस्तथा ॥ ३ ॥
समाहूय परान्वृद्धान् सभायां तानुवाच ह ।


नंद उवाच -
किं कर्तव्यं तु वदतोत्पाताः सन्ति महावने ॥ ४ ॥


श्रीनारद उवाच -
तेषां श्रुत्वाथ सन्नन्दो गोपो वृद्धोतिमंत्रवित् ।
अंके नीत्वा रामकृष्णौ नंदराजमुवाच ह ॥ ५ ॥


सन्नन्द उवाच -
उत्थातव्यमितोऽस्माभिः सर्वैः परिकरैः सह ।
गंतव्यं चान्यदेशेषु यत्रोत्पाता न संति हि ॥ ६ ॥
बालस्ते प्राणवत्कृष्णो जीवनं व्रजवासिनाम् ।
व्रजे धनं कुले दीपो मोहनो बाललीलया ॥ ७ ॥
हा बक्या शकटेनापि तृणावर्तेन बालकः ।
मुक्तोऽयं द्रुमपातेन ह्युत्पातं किमतः परम् ॥ ८ ॥
तस्माद्‌वृंदावनं सर्वैः गंतव्यं बालकैः सह ।
उत्पातेषु व्यतीतेषु पुनराग्मनं कुरु ॥ ९ ॥


नन्द उवाच -
कतिक्रोशैर्विस्तृतम् तद्‌वनं वृंदावनं व्रहात् ।
तल्लक्षणं तत्सुखं च वद बुद्धिमतां वर ॥ १० ॥


सन्नन्द उवाच -
प्रागुदीच्यां बर्हिषदो दक्षिणस्यां यदोः पुरात् ।
पश्चिमायां शोणितपुरान् माथुरं मंडलं विदुः ॥ ११ ॥
विंशद्‌योजनविस्तीर्णं सार्धं यद्योजनेन वै
माथुरं मंडलं दिव्यं व्रजमाहुर्मनीषिणः ॥ १२ ॥
मथुरायां शौरिगृहे गर्गाचार्यमुखाच्छ्रुतम् ।
माथुरं मंडलं दिव्यं तीर्थराजेन पूजितम् ॥ १३ ॥
वनेभ्यस्तत्र सर्वेभ्यो वनं वृंदावनं वरम् ।
परिपूर्णतमस्यापि लीलाक्रीडं मनोहरम् ॥ १४ ॥

श्रीयमुनाजी के तटपर, जहाँ कोकिलाएँ तथा क्रीडाशुक विचरते हैं, गुञ्जापुञ्जसे विलसित देवपुष्प (पारिजात) आदिके कुञ्जमें, शङ्ख-सदृश सुन्दर ग्रीवासे सुशोभित तथा एक-दूसरेके गलेमें बाँह डालकर चलनेवाले प्रिया-प्रियतम श्रीराधा-कृष्ण मेरे लिये मङ्गलमय हों ॥ १ ॥

 

मैं अज्ञानरूपी रतौंधीसे अंधा हो रहा था; जिन्होंने ज्ञानरूपी अञ्जनकी शलाकासे मेरी आँखें खोल दी हैं, उन श्रीगुरुदेवको नमस्कार है ॥ २ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! एक समयकी बात है— व्रजमें विविध उपद्रव होते देख नन्दराजने अपने सहायक नन्दों, उपनन्दों, वृषभानुओं, वृषभानु- वरों तथा अन्य बड़े-बूढ़े गोपोंको बुलाकर सभामें उनसे कहा ॥३॥

 

नन्द बोले- गोपगण ! महावनमें तो बहुत-से उत्पात हो रहे हैं। बताइये, हमलोगोंको इस समय क्या करना चाहिये ॥ ४ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- यह सुनकर उन सबमें विशेष मन्त्रकुशल वृद्ध गोप सन्नन्दने बलराम और श्रीकृष्णको गोदमें लेकर नन्दराजसे कहा ॥ ५ ॥

 

सन्नन्द बोले—मेरे विचार से तो हमें अपने समस्त परिकरों के साथ यहाँसे उठ चलना चाहिये और किसी दूसरे ऐसे स्थान में जाकर डेरा डालना चाहिये, जहाँ उत्पात की सम्भावना न हो। तुम्हारा बालक श्रीकृष्ण हम सबको प्राणोंके समान प्रिय है, व्रजवासियों का जीवन है, व्रजका धन और गोपकुल का दीपक है और अपनी बाललीला से सबके मन को मोह लेनेवाला है। हाय ! कितने खेदकी बात है कि इस बालकपर पूतना, शकट और तृणावर्तका आक्रमण हुआ, फिर इसके ऊपर वृक्ष गिर पड़े; इन सब संकटोंसे यह किसी प्रकार बचा है, इससे बढ़कर उत्पात और क्या हो सकता है। इसलिये हमलोग अपने बालकोंके साथ वृन्दावनमें चलें और जब उत्पात शान्त हो जायँ, तब फिर यहाँ आयें ॥ ६- ९॥

नन्दने पूछा- बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ सन्नन्दजी ! इस व्रजसे वृन्दावन कितनी दूर है ? वह वन कितने कोसोंमें फैला हुआ है, उसका लक्षण क्या है और वहाँ कौन-सा सुख सुलभ है ? यह सब बताइये ॥ १० ॥

 

सन्नन्द बोले- बर्हिषत् से ईशानकोण, यदुपुरसे दक्षिण और शोणपुरसे पश्चिमकी भूमिको 'माथुर-मण्डल' कहते हैं । मथुरामण्डलके भीतर साढ़े बीस योजन विस्तृत भूभागको मनीषी पुरुषोंने 'दिव्य माथुर-मण्डल' या 'व्रज' बताया है ॥ ११-१२ ॥  एक बार मैं मथुरापुरी में वसुदेवजी के घर ठहरा हुआ था; वहीं श्रीगर्गाचार्यजी के मुखसे मैंने सुना था कि तीर्थराज प्रयाग ने भी इस दिव्य मथुरा-मण्डल की पूजा की है। यों तो मथुरा-मण्डलमें बहुत से वन हैं किंतु उन सबसे श्रेष्ठ 'वृन्दावन' नामक वन है, जो परिपूर्णतम भगवान्‌ के भी मनको हरण करनेवाला लीला-क्रीडा- स्थल है ॥ १३-१४ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

तपः शौचं दया सत्यमिति पादाःकृते कृताः ।
अधर्मांशैस्त्रयो भग्नाः स्मयसंगमदैस्तव ॥२४॥
इदानीं धर्म पादस्ते सत्यं निर्वर्तयेद्यतः ।
तं जिघृक्षत्यधर्मोऽयमनृतेनैधितः कलिः ॥२५॥
इयं च भूर्भगवता न्यासितोरुभरा सती ।
श्रीमद्भिस्तत्पदन्यासैः सर्वतः कृतकौतुका ॥२६॥
शोचत्यश्रुकला साध्वी दुर्भगेवोज्झिताधुना ।
अब्रह्यण्या नृपव्याजाः शूद्राः भोक्ष्यन्ति मामिति ॥२७॥
इति धर्म महीं चैव सान्त्वयित्वा महारथः ।
निशातमाददे खड्गं कलयेऽधर्महेतवे ॥२८॥
तं जिघांसुमभिप्रेत्य विहाय नृपलाञ्छनम् ।
तत्पादमूलं शिरसा समगाद् भयविह्वलः ॥२९॥

(राजा परीक्षित्‌ कहते हैं) धर्मदेव ! सत्ययुग में आपके चार-चरण थे—तप, पवित्रता, दया और सत्य। इस समय अधर्मके अंश गर्व, आसक्ति और मदसे तीन चरण नष्ट हो चुके हैं ॥ २४ ॥ अब आपका चौथा चरण केवल ‘सत्य’ ही बच रहा है। उसी के बलपर आप जी रहे हैं। असत्य से पुष्ट हुआ यह अधर्मरूप कलियुग उसे भी ग्रास कर लेना चाहता है ॥ २५ ॥ ये गौ माता साक्षात् पृथ्वी हैं। भगवान्‌ ने इनका भारी बोझ उतार दिया था और ये उनके राशि-राशि सौन्दर्य बिखेरनेवाले चरणचिह्नों से सर्वत्र उत्सवमयी हो गयी थीं ॥ २६ ॥ अब ये उनसे बिछुड़ गयी हैं। वे साध्वी अभागिनीके समान नेत्रों में जल भरकर यह चिन्ता कर रही हैं कि अब राजाका स्वाँग बनाकर ब्राह्मणद्रोही शूद्र मुझे भोगेंगे ॥ २७ ॥ महारथी परीक्षित्‌ ने इस प्रकार धर्म और पृथ्वी को सान्त्वना दी। फिर उन्होंने अधर्म के कारणरूप कलियुग को मारने के लिये तीक्ष्ण तलवार उठायी ॥ २८ ॥ कलियुग ताड़ गया कि ये तो अब मुझे मार ही डालना चाहते हैं; अत: झटपट उसने अपने राजचिह्न उतार डाले और भयविह्वल होकर उनके चरणोंमें अपना सिर रख दिया ॥ २९ ॥ 

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मंगलवार, 4 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

दुर्वासाद्वारा भगवान् की माया का एवं गोलोक में श्रीकृष्ण का दर्शन तथा श्रीनन्दनन्दनस्तोत्र

 

श्रीकृष्णास्यापि हसतः प्रविष्टस्तन्मुखे मुनिः ।
पुनर्विनिर्गतोऽपश्यद्‌बालं श्रीनंदनंदनम् ॥२१॥
कालिंदीनिकटे पुण्ये सैकते रमणस्थले ।
बालकैः सहितं कृष्णं विचरंतं महावने ॥२२॥
तदा मुनिश्च दुर्वासा ज्ञात्वा कृष्णं परात्परम् ।
श्रीनंदनंदनं नत्वा नत्वा प्राह कृतांजलिः ॥२३॥


मुनिरुवाच -
बालं नवीनशतपत्रविशालनेत्रं
बिंबाधरं सजलमेघरुचिं मनोज्ञम् ।
मंदस्मितं मधुरसुंदरमंदयानं
श्रीनंदनंदनमहं मनसा नमामि ॥२४॥
मंजीरनूपुररणन्नवरत्‍नकांची
श्रीहारकेसरिनखप्रतियंत्रसंघम् ।
दृष्ट्याऽऽर्तिहारिमषिबिन्दुविराजमानं
वंदे कलिंदतनुजातटबालकेलिम् ॥२५॥
पूर्णेन्दुसुंदरमुखोपरि कुंचिताग्राः
केशा नवीनघननीलनिभाः स्फुरंति ।
राजंत आनतशिरःकुमुदस्य यस्य
नंदात्मजाय सबलाय नमो नमस्ते ॥२६॥
श्रीनंदनंदनस्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
तन्नेत्रगोचरो याति सानंदं नंदनंदनः ॥२७॥


श्रीनारद उवाच -
इति प्रणम्य श्रीकृष्णं दुर्वासा मुनिसत्तमः ।
तं ध्यायन्प्रजपन्प्रागाद्‌बदर्याश्रममुत्तमम् ॥२८॥
इत्थं देवर्षिवर्येण नारदेन महात्मना ।
कथितं कृष्नचरितं बहुलाश्वाय धीमते ॥२९॥
मया थे कथितं ब्रह्मन् यशः कलिमलापहम् ।
चतुष्पदार्थदं दिव्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥३०॥


श्री शौनक उवाच -
बहुलाश्वो मैथिलेंद्रः किं पप्रच्छ महामुनिम् ।
नारदं ज्ञानदं शांतं तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥३१॥


श्रीगर्ग उवाच -
नारदं ज्ञानदं नत्वा मानदो मैथिलो नृपः ।
पुनः पप्रच्छ कृष्णस्य चरितं मंगलायनम् ॥३२॥


श्रीबहुलाश्व उवाच -
श्रीकृष्णो भगवान्साक्षात्परमानंदविग्रहं ।
परं चकार किं चित्रं चरित्रं वद मे प्रभो ॥३३॥
पूर्वावतारैश्चरितं कृतं वै मंगलायनम् ।
अपरं किं तु कृष्णस्य पवित्रं चरितं परम् ॥३४॥


श्रीनारद उवाच -
साधु साधु त्वया पृष्टं चरित्रं मंगलं हरेः ।
तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि वृंदारण्ये च यद्यशः ॥३५॥
इदं गोलोकखंडं च गुह्यं परममद्‌भुतं ।
श्रीकृष्णेन प्रकथितं गोलोके रासमंडले ॥३६॥
निकुंजे राधिकायै च राधा मह्यं ददाविदम् ।
मया तुभ्यं श्रावितं च दत्तं सर्वार्थदं परम् ॥३७॥
इदं पठित्वा विप्रस्तु सर्वशास्त्रार्थगो भवेत् ।
श्रुत्वेदं चक्रवर्ती स्यात् क्षत्रियश्चंडविक्रमः ॥३८॥
वैश्यो निधिपतिर्भूयाच्छूद्रो मुच्येत बंधनात् ।
निष्कामो योऽपि जगति जीवन्मुक्तः स जायते ॥३९॥
यो नित्यं पठते सम्यग्भक्तिभावसमन्वितः ।
स गच्छेत्कृष्णचंद्रस्य गोलोकं प्रकृतेः परम् ॥४०॥

उन्हें देखकर भगवान् श्रीकृष्ण हँसने लगे । हँसते समय उनके श्वाससे खिंचकर दुर्वासा मुनि उनके मुँहके भीतर पहुँच गये। उस मुखसे पुनः बाहर निकलनेपर उन्होंने उन्हीं बालरूपधारी श्रीनन्दनन्दनको देखा, जो कालिन्दीके निकटवर्ती पुण्य वालुकामय रमणस्थलीमें बालकोंके साथ विचर रहे थे। महावनमें श्रीकृष्णका उस रूपमें दर्शन करके दुर्वासा मुनि यह समझ गये कि ये श्रीकृष्ण साक्षात् परात्पर ब्रह्म हैं । फिर तो उन्होंने श्रीनन्दनन्दनको बार-बार नमस्कार करके हाथ जोड़कर कहा ।। २१ - २३ ॥

श्रीमुनि बोले- जिसके नेत्र नूतन विकसित शतदल कमलके समान विशाल हैं, अधर बिम्बा- फलकी अरुणिमाको तिरस्कृत करनेवाले हैं तथा श्रीअङ्ग सजल जलधरकी श्याममनोहर कान्तिको छीने लेते हैं, जिनके मुखपर मन्द मुसकानकी दिव्य छटा छा रही है तथा जो सुन्दर मधुर मन्दगतिसे चल रहे हैं, उन बाल्यावस्थासे विलसित मनोज्ञ श्रीनन्दनन्दनको मैं मनसे प्रणाम करता हूँ ॥ २४॥  

 

जिनके चरणोंमें मञ्जीर और नूपुर झंकृत हो रहे हैं और कटिमें खनखनाती हुई नूतन रत्ननिर्मित काञ्ची (करधनी) शोभा दे रही है; जो बघनखासे युक्त यन्त्रसमुदाय तथा सुन्दर कण्ठहारसे सुशोभित हैं, जिनके भालदेशमें दृष्टि-जनित पीड़ा हर लेनेवाली कज्जलकी बेंदी शोभा दे रही है तथा जो कलिन्दनन्दिनीके तटपर बालोचित क्रीड़ामें संलग्न हैं, उन श्रीहरिकी मैं वन्दना करता हूँ। ॥ २५॥

 

जिनके पूर्णचन्द्रोपम सुन्दर मुखपर नूतन नीलघनकी श्याम विभाको तिरस्कृत करनेवाले घुँघराले काले केश चमक रहे हैं, तथा जिनका मस्तकरूपी मुकुद कुछ झुका हुआ है। उन आप नन्दनन्दन श्रीकृष्ण तथा आपके अग्रज श्रीबलरामको मेरा बारंबार नमस्कार है । जो प्रातः काल उठकर इस 'श्रीनन्दनन्दनस्तोत्र' का पाठ करता है, उसके नेत्रोंके समक्ष श्रीनन्दनन्दन

सानन्द प्रकट होते हैं  ।। २६ - २७ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं - इस प्रकार श्रीकृष्णको प्रणाम करके मुनिशिरोमणि दुर्वासा उन्हींका ध्यान और जप करते हुए उत्तर में बदरिकाश्रम की ओर चले गये ।। २८ ।

श्रीगर्गजी कहते हैं- शौनक ! इस प्रकार देवर्षिप्रवर महात्मा नारदने बुद्धिमान् राजा बहुलाश्वको भगवान् श्रीकृष्णका चरित्र सुनाया था । ब्रह्मन् ! वह सब मैंने तुमसे कह सुनाया । भगवान्‌का सुयश कलिकलुषका विनाश करनेवाला, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पदार्थोंको देनेवाला तथा दिव्य (लोकातीत) है। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ? ।। २९-३० ।।

 

शौनक बोले– तपोधन ! इसके बाद मिथिलानरेश बहुलाश्वने शान्तस्वरूप, ज्ञानदाता महामुनि नारदसे क्या पूछा, वही प्रसङ्ग मुझसे कहिये ॥ ३१ ॥ श्रीगर्गजीने कहा— शौनक !

ज्ञानदाता नारदजीको नमस्कार करके मानदाता मैथिलनरेशने पुनः उनसे श्रीकृष्णचरित्रके विषयमें, जो मङ्गलका धाम है, प्रश्न किया ॥ ३२ ॥

 

श्रीबहुलाश्वने पूछा – प्रभो ! परमानन्दविग्रह इसका पाठ करता है, वह जीवन्मुक्त हो जाता है। जो साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णने इसके बाद और कौन- सम्यक् भक्तिभावसे युक्त हो नित्य इसका पाठ करता कौन-सी विचित्र लीलाएँ कीं, यह मुझे बताइये। पूर्वके अवतारोंद्वारा भी मङ्गलमय चरित्र सम्पादित हुए हैं। इस श्रीकृष्णावतारके द्वारा इसके बाद और कौन-कौन-से पवित्र चरित्र किये गये, यह सब बताइये ।। ३३-३४ ।।

 

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! तुम्हें अनेक साधुवाद हैं; क्योंकि तुमने श्रीहरिके मङ्गलमय चरित्रके विषयमें प्रश्न किया है। वृन्दावनमें जो उनकी यशोवर्धक लीलाएँ हुई हैं, उनका मैं वर्णन करूँगा ।। ३५ ।।

 

यह गोलोकखण्ड अत्यन्त गोपनीय और परम अद्भुत है। गोलोकके रासमण्डलमें साक्षात् श्रीकृष्णने इसका वर्णन किया था। इसे श्रीकृष्णने निकुञ्जमें राधिकाको सुनाया और श्रीराधाने मुझे इसका ज्ञान प्रदान किया है। फिर मैंने तुमको वह सब सुना दिया। यह गोलोकखण्डका वृत्तान्त सम्पूर्ण पदार्थोंको देनेवाला उत्कृष्ट साधन है। यदि ब्राह्मण इसका पाठ करता है। तो वह सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थका ज्ञाता होता है, क्षत्रिय इसे सुने तो वह प्रचण्ड पराक्रमी चक्रवर्ती सम्राट् होता है, वैश्य सुने तो वह निधिपति हो जाय और शूद्र सुने तो वह संसारके बन्धनसे छुटकारा पा जाय ।। ३६-३८ ।।

 

जो इस जगत् में फलकी कामनासे रहित होकर इसका पाठ करता है, वह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके गोलोकधाममें, जो प्रकृतिसे परे है, पहुँच जाता है । ।। ३५–४० ।।

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'दुर्वासाके द्वारा भगवान् की माया का दर्शन तथा श्रीनन्दनन्दनस्तोत्रका वर्णन' नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २० ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

जनेऽनागस्यघं युञ्जन् सर्वतोऽस्य च मद्भयम् ।
साधूनां भद्रमेव स्यादसाधुदमने कृते ॥१४॥
अनागस्स्विह भूतेषु य आगस्कृन्निरंकुशः ।
आहर्तास्मि भुजं साक्षादमर्त्यस्यापि सांगदम् ॥१५॥
राज्ञो हि परमो धर्म स्वधर्मस्थानुपालनम् ।
शासतोऽन्यान् यथाशास्त्रमनापद्यत्पथानिह ॥१६॥

धर्म उवाच ।
एतद् वः पाण्डवेयानां युक्तमार्ताभयं वचः ।
येषा गुणगणैः कृष्णो दौत्यादौ भगवान् कृतः ॥१७॥
न वयं क्लेशाबीजानि यतः स्युः पुरुषर्षभ ।
पुरुषं तं विजानीमो वाक्य भेदविमोहिताः ॥१८॥
केचिद् विकल्पवसना आहुरात्मानमात्मनः ।
दैवमन्ये परे कर्म स्वभावमपरे प्रभुम् ॥१९॥
अप्रतर्क्यादनिर्देश्यादिति केष्वपि निश्चयः ।
अत्रानुरूपं राजर्षे विमृश स्वमनीषया ॥२०॥

सूत उवाच ।
एवं धर्मे प्रवदति स सम्राड् द्विजसत्तम ।
समाहितेन मनसा विखेदः पर्यचष्ट तम् ॥२१॥

राजोवाच
धर्मं ब्रवीषि धर्मज्ञ धर्मोऽसि वृषरूपधृक् ।
यदधर्मकृतः स्थानं सूचकस्यापि तद्भवेत् ॥२२॥
अथवा देवमायाया नूनं गतिरगोचरा ।
चेतसो वचसश्चापि भूतानामिति निश्चयः ॥२३॥

(राजा परीक्षित्‌ कहते हैं) जो किसी निरपराध प्राणी को सताता है, उसे, चाहे वह कहीं भी रहे, मेरा भय अवश्य होगा। दुष्टोंका दमन करने से साधुओं का कल्याण ही होता है ॥ १४ ॥ जो उद्दण्ड व्यक्ति निरपराध प्राणियों को दु:ख देता है, वह चाहे साक्षात् देवता ही क्यों न हो, मैं उसकी बाजूबंद से विभूषित भुजा को काट डालूँगा ॥ १५ ॥ बिना आपत्तिकाल के मर्यादा का उल्लङ्घन करनेवालों को शास्त्रानुसार दण्ड देते हुए अपने धर्म में स्थित लोगों का पालन करना राजाओं का परम धर्म है ॥ १६ ॥
धर्मने कहा—राजन् ! आप महाराज पाण्डुके वंशज हैं। आपका इस प्रकार दुखियोंको आश्वासन देना आपके योग्य ही है; क्योंकि आपके पूर्वजों के श्रेष्ठ गुणों ने भगवान्‌ श्रीकृष्ण को उनका सारथि और दूत आदि बना दिया था ॥ १७ ॥ नरेन्द्र ! शास्त्रोंके विभिन्न वचनोंसे मोहित होनेके कारण हम उस पुरुषको नहीं जानते, जिससे क्लेशोंके कारण उत्पन्न होते हैं ॥ १८ ॥ जो लोग किसी भी प्रकारके द्वैतको स्वीकार नहीं करते, वे अपने-आपको ही अपने दु:खका कारण बतलाते हैं। कोई प्रारब्धको कारण बतलाते हैं, तो कोई कर्मको। कुछ लोग स्वभावको, तो कुछ लोग ईश्वरको दु:खका कारण मानते हैं ॥ १९ ॥ किन्हीं-किन्हींका ऐसा भी निश्चय है कि दु:खका कारण न तो तर्कके द्वारा जाना जा सकता है और न वाणीके द्वारा बतलाया जा सकता है। राजर्षे ! अब इनमें कौन-सा मत ठीक है, यह आप अपनी बुद्धिसे ही विचार लीजिये ॥ २० ॥
सूतजी कहते हैं—ऋषिश्रेष्ठ शौनकजी ! धर्मका यह प्रवचन सुनकर सम्राट् परीक्षित्‌ बहुत प्रसन्न हुए, उनका खेद मिट गया। उन्होंने शान्तचित्त होकर उनसे कहा ॥ २१ ॥
परीक्षित्‌ने कहा—धर्मका तत्त्व जाननेवाले वृषभदेव ! आप धर्मका उपदेश कर रहे हैं। अवश्य ही आप वृषभके रूपमें स्वयं धर्म हैं। (आपने अपनेको दु:ख देनेवालेका नाम इसलिये नहीं बताया है कि) अधर्म करनेवालेको जो नरकादि प्राप्त होते हैं, वे ही चुगली करनेवालेको भी मिलते हैं ॥ २२ ॥ अथवा यही सिद्धान्त निश्चित है कि प्राणियोंके मन और वाणीसे परमेश्वरकी मायाके स्वरूपका निरूपण नहीं किया जा सकता ॥ २३ ॥ 

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सोमवार, 3 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

दुर्वासाद्वारा भगवान् की माया का एवं गोलोक में श्रीकृष्ण का दर्शन तथा श्रीनन्दनन्दनस्तोत्र

 

श्रीनारद उवाच -
एकदा कृष्णचंद्रस्य दर्शनार्थं परस्य च ।
दुर्वासा मुनिशार्दूलो व्रजमंडलमाययौ ॥१॥
कालिंदीनिकटे पुण्ये सैकते रमणस्थले ।
महावनसमीपे च कृष्णमाराद्ददर्श ह ॥२॥
श्रीमन्मदनगोपालं लुठंतं बालकैः सह ।
परस्परं प्रयुद्ध्यंतं बालकेलिं मनोहरम् ॥३॥
धूलिधूसरसर्वांगं वक्रकेशं दिगंबरम् ।
धावंतं बालकैः सार्द्धं हरिं वीक्ष्य स विस्मितः ॥४॥


श्रीमुनिरुवाच -
स ईश्वरोऽयं भगवान्कथं बालैर्लुठन् भुवि ।
अयं तु नंदपुत्रोऽस्ति न श्रीकृष्णः परात्परः ॥५॥


श्रीनारद उवाच -
इत्थं मोहं गते तत्र दुर्वाससि महामुनौ ।
क्रीडन्कृष्णस्तत्समीपे तदंके ह्यागतः स्वयम् ॥६॥
पुनर्विनिर्गतो ह्यंकाद्‌बालसिंहावलोकनः ।
हसन्कलं ब्रुवन्कृष्णः संमुखः पुनरागतः ॥७॥
हसतस्तस्य च मुखे प्रविष्टः श्वसनैर्मुनिः ।
ददर्शान्यं महालोकं सारण्यं जनवर्जितम् ॥८॥
अरण्येषु भ्रमंस्तत्र कुतः प्राप्त इति ब्रुवन् ।
तदैवाजगरेणापि निगीर्णोऽभून्महामुनिः ॥९॥
ब्रह्मांडं तत्र ददृशे सलोकं सबिलं परम् ।
भ्रमन्द्वीपेषु स मुनिः स्थितोऽभूत्पर्वते सिते ॥१०॥
तपस्तताप वर्षाणां शतकोटीः प्रभुं भजन् ।
नैमित्तिकाख्ये प्रलये प्राप्ते विश्वभयंकरे ॥११॥
आगच्छंतः समुद्रास्ते प्लावयंतो धरातलम् ।
वहंस्तेषु च दुर्वासा न प्रापांतं जलस्य च ॥१२॥
व्यतीते युगसाहस्त्रे मग्नोऽभूद्‌विगतस्मृतिः ।
पुनर्जलेषु विचरन्नंडमन्यं ददर्श ह ॥१३॥
तच्छिद्रे च प्रविष्टोऽसौ दिव्यां सृष्टिं गतस्ततः ।
तडंडमूर्ध्नि लोकेषु विधेरायुःसमं चरन् ॥१४॥
एव्ं छिद्रं तत्र वीक्ष्य प्राविशत्स हरिं स्मरन् ।
बहिर्विनिर्गतो ह्यंडाद्ददर्शाशु महाजलम् ॥१५॥
तस्मिन् जले तु लक्ष्यंते कोटिशो ह्यंडराशयः ।
ततो मुनिर्जलं पश्यन् ददर्श विरजां नदीम् ॥१६॥
तत्पारं प्रगतः साक्षाद्‌गोलोकं प्राविशन्मुनिः ।
वृंदावनं गोवर्द्धनं यमुनापुलिनं शुभम् ॥१७॥
दृष्ट्वा प्रसन्नः स मुनिर्निकुंजं प्राविशत्तदा ।
गोपगोपीगणवृतं गवां कोटिभिरन्वितम् ॥१८॥
असंख्यकोटिमार्तंड ज्योतिषां मंडले ततः ।
दिव्ये लक्षदले पद्मे स्थितं राधापतिं हरिम् ॥१९॥
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं पुरुषोत्तमम् ।
असंख्यब्रह्मांडपतिं गोलोकं स्वं ददर्श ह ॥२०॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! एक दिन मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन करनेके लिये व्रजमण्डलमें आये। उन्होंने कालिन्दीके निकट पवित्र वालुकामय पुलिनके रमणीय स्थलमें महावनके समीप श्रीकृष्णको निकटसे देखा । वे शोभाशाली मदनगोपाल बालकोंके साथ वहाँ लोटते, परस्पर मल्ल-युद्ध करते तथा भाँति-भाँति की बालोचित लीलाएँ करते थे। इन सब कारणोंसे वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे । उनके सारे अङ्ग धूलसे धूसरित थे। मस्तकपर काले घुँघराले केश शोभा पाते थे।

दिगम्बर-वेषमें बालकोंके साथ दौड़ते हुए श्रीहरिको देखकर दुर्वासाके मनमें बड़ा विस्मय हुआ । १ – ४ ॥

 

श्रीमुनि ( मन-ही-मन ) कहने लगे - क्या यह वही षड्विध ऐश्वर्यसे सम्पन्न ईश्वर है ? फिर यह बालकोंके साथ धरतीपर क्यों लोट रहा है ? मेरी समझमें यह केवल नन्दका पुत्र है, परात्पर श्रीकृष्ण नहीं है ॥ ५ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! जब महामुनि दुर्वासा इस प्रकार मोहमें पड़ गये, तब खेलते हुए श्रीकृष्ण स्वयं उनके पास उनकी गोदमें आ गये । फिर उनकी गोद से हट गये। श्रीकृष्णकी दृष्टि बाल-सिंहके समान थी। वे हँसते और मधुर वचन बोलते हुए पुनः मुनिके सम्मुख आ गये ॥ ६-७ ॥  

 

हँसते हुए श्रीकृष्णके श्वाससे खिंचकर मुनि उनके मुँहमें समा गये। वहाँ जाकर उन्होंने एक विशाल लोक देखा, जिसमें अरण्य और निर्जन प्रदेश भी दृष्टिगोचर हो रहे थे। उन अरण्यों (जंगलों) में भ्रमण करते हुए मुनि बोल उठे - 'मैं कहाँसे यहाँ आ गया ? इतनेमें ही उन महामुनिको एक अजगर निगल गया। उसके पेटमें पहुँचनेपर मुनिने वहाँ सातों लोकों और पातालोंसहित समूचे ब्रह्माण्डका दर्शन किया। उसके द्वीपोंमें भ्रमण करते हुए दुर्वासा मुनि एक श्वेत पर्वतपर ठहर गये ॥ ८ - १०॥  

 

उस पर्वतपर शतकोटि वर्षोंतक भगवान्‌का भजन करते हुए वे तप करते रहे। इतनेमें ही सम्पूर्ण विश्वके लिये भयंकर नैमित्तिक प्रलयका समय आ पहुँचा। समुद्र सब ओरसे धरातलको डुबाते हुए मुनिके पास आ गये । दुर्वासा मुनि उन समुद्रोंमें बहने लगे। उन्हें जलका कहीं अन्त नहीं मिलता था ॥ ११ - १२॥

 

इसी अवस्थामें एक सहस्र युग व्यतीत हो गये । तदनन्तर मुनि एकार्णवके जलमें डूब गये। उनकी स्मृति-शक्ति नष्ट हो गयी। फिर वे पानीके भीतर विचरने लगे। वहाँ उन्हें एक दूसरे ही ब्रह्माण्डका दर्शन हुआ। उस ब्रह्माण्डके छिद्रमें प्रवेश करनेपर वे दिव्य सृष्टिमें जा पहुँचे । वहाँसे उस ब्रह्माण्डके शिरोभागमें विद्यमान लोकोंमें ब्रह्माकी आयु पर्यन्त विचरते रहे। इसी प्रकार वहाँ एक छिद्र देखकर श्रीहरिका स्मरण करते हुए वे उसके भीतर घुस गये। घुसते ही उस ब्रह्माण्डके बाहर आ निकले। फिर तत्काल उन्हें महती जलराशि दिखायी दी ॥ १३ - १५॥  

 

उस जलराशिमें उन्हें कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंकी राशियाँ बहती दिखायी दीं। तब मुनिने जलको ध्यानसे देखा तो उन्हें वहाँ विरजा नदीका दर्शन हुआ। उस नदीके पार पहुँचकर मुनिने साक्षात् गोलोकमें प्रवेश किया । वहाँ उन्हें क्रमशः वृन्दावन, गोवर्धन और सुन्दर यमुनापुलिनका दर्शन करके बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर वे मुनि जब निकुञ्जके भीतर घुसे, तब उन्होंने अनन्त कोटि मार्तण्डोंके समान ज्योति मण्डल के अंदर दिव्य लक्षदल कमलपर विराजमान साक्षात् परिपूर्णतम पुरुषोत्तम राधावल्लभ भगवान् श्रीकृष्णको देखा, जो असंख्य गोप-गोपियोंसे घिरे तथा कोटि-कोटि गौओंसे सम्पन्न थे । असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति उन भगवान् श्रीहरिके साथ ही उनके गोलोकका भी मुनिको दर्शन हुआ ।। १६–२० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...