मंगलवार, 9 जुलाई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

सत्यां क्षितौ किं कशिपोः प्रयासैः
    बाहौ स्वसिद्धे ह्युपबर्हणैः किम् ।
सत्यञ्जलौ किं पुरुधान्नपात्र्या
    दिग्वल्कलादौ सति किं दुकूलैः ॥ ४ ॥
चीराणि किं पथि न सन्ति दिशन्ति भिक्षां ।
    नैवाङ्‌घ्रिपाः परभृतः सरितोऽप्यशुष्यन् ।
रुद्धा गुहाः किमजितोऽवति नोपसन्नान् ।
    कस्माद् भजंति कवयो धनदुर्मदान्धान् ॥ ५ ॥
एवं स्वचित्ते स्वत एव सिद्ध
    आत्मा प्रियोऽर्थो भगवाननंतः ।
तं निर्वृतो नियतार्थो भजेत
    संसारहेतूपरमश्च यत्र ॥ ६ ॥
कस्तां त्वनादृत्य परानुचिन्ता-
    मृते पशूनसतीं नाम युञ्ज्यात् ।
पश्यञ्जनं पतितं वैतरण्यां
    स्वकर्मजान् परितापाञ्जुषाणम् ॥ ७ ॥

जब जमीन पर सोने से काम चल सकता है, तब पलँगके लिये प्रयत्न करनेसे क्या प्रयोजन। जब भुजाएँ अपनेको भगवान्‌ की कृपासे स्वयं ही मिली हुई हैं, तब तकियोंकी क्या आवश्यकता। जब अञ्जलि से काम चल सकता है, तब बहुत-से बर्तन क्यों बटोरें। वृक्षकी छाल पहनकर या वस्त्रहीन रहकर भी यदि जीवन धारण किया जा सकता है तो वस्त्रोंकी क्या आवश्यकता ॥ ४ ॥ पहननेको क्या रास्तोंमें चिथड़े नहीं हैं ? भूख लगनेपर दूसरोंके लिये ही शरीर धारण करनेवाले वृक्ष क्या फल-फूलकी भिक्षा नहीं देते ? जल चाहनेवालोंके लिये नदियाँ क्या बिलकुल सूख गयी हैं ? रहनेके लिये क्या पहाड़ोंकी गुफाएँ बंद कर दी गयी हैं ? अरे भाई ! सब न सही, क्या भगवान्‌ भी अपने शरणगतोंकी रक्षा नहीं करते ? ऐसी स्थितिमें बुद्धिमान् लोग भी धनके नशेमें चूर घमंडी धनियोंकी चापलूसी क्यों करते हैं ? ॥ ५ ॥ इस प्रकार विरक्त हो जानेपर अपने हृदयमें नित्य विराजमान, स्वत:सिद्ध, आत्मस्वरूप, परम प्रियतम, परम सत्य जो अनन्त भगवान्‌ हैं, बड़े प्रेम और आनन्दसे दृढ़ निश्चय करके उन्हींका भजन करे; क्योंकि उनके भजनसे जन्म-मृत्युके चक्करमें डालनेवाले अज्ञानका नाश हो जाता है ॥ ६ ॥ पशुओंकी बात तो अलग है; परन्तु मनुष्योंमें भला ऐसा कौन है, जो लोगोंको इस संसाररूप वैतरणी नदीमें गिरकर अपने कर्मजन्य दु:खोंको भोगते हुए देखकर भी भगवान्‌का मङ्गलमय चिन्तन नहीं करेगा, इन असत् विषय-भोगोंमें ही अपने चित्तको भटकने देगा ? ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


सोमवार, 8 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दसवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

दसवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

यशोदाजी की चिन्ता; नन्दद्वारा आश्वासन तथा ब्राह्मणों को विविध प्रकार के दान देना; श्रीबलराम तथा श्रीकृष्ण का गोचारण

 

नन्दराज उवाच -
गर्गवाक्यं त्वया सर्वं विस्मृतं हे यशोमति ।
ब्राह्मणानां वचः सत्यं नासत्यं भवति क्वचित् ॥ ११ ॥
तस्माद्दानं प्रकर्तव्यं सर्वारिष्टनिवारणम् ।
दानात्परं तु कल्याणं न भूतं न भविष्यति ॥ १२ ॥


श्रीनारद उवाच -
तदा यशोदा विप्रेभ्यो नवरत्‍नं महाधनम् ।
स्वालंकारांश्च बालस्य सबलस्य ददौ नृप ॥ १३ ॥
अयुतं वृषभानां च गवां लक्षं मनोहरम् ।
द्विलक्षमन्नभाराणां नन्दो दानं ददौ ततः ॥ १४ ॥

गोपेच्छया रामकृष्णौ गोपालौ तौ बभूवतुः ।
गाश्चारयन्तौ गोपालैः वयस्यैश्चेरतुर्वने ॥ १५ ॥
अग्रे पृष्ठे तदा गावः चरन्त्यः पार्श्वयोर्द्वयोः ।
श्रीकृष्णस्य बलस्यापि पश्यन्त्यः सुंदरं मुखम् ॥ १६ ॥
घंटामंजीरझंकारं कुर्वन्त्यस्ता इतस्ततः ।
किंकिणीजालसंयुक्ता हेममालालसद्‌गलाः ॥ १७ ॥
मुक्तागुच्छैर्बर्हिपिच्छैः लसत्पुच्छाच्छकेसराः ।
स्फुरतां नवरत्‍नानां मालाजालैर्विराजिताः ॥ १८ ॥
शृङ्गयोरन्तरे राजन् शिरोमणिमनोहराः ।
हेमरश्मिप्रभास्फूर्ज्जत् शृङ्गपार्श्वप्रवेष्टनाः ॥ १९ ॥
आरक्ततिलकाः काश्चित्पीतपुच्छारुणांघ्रयः ।
कैलासगिरिसंकाशाः शीलरूपमहागुणाः ॥ २० ॥
सवत्सा मन्दगामिन्य ऊधोभारेण मैथिल ।
कुंडोध्न्यः पाटलाः काश्चित् लक्षन्त्यो भव्यमूर्तयः ॥ २१ ॥

नन्दराज बोले- यशोदे ! क्या तुम गर्गकी कही हुई सारी बातें भूल गयीं ? ब्राह्मणोंकी कही हुई बात सदा सत्य होती है, वह कभी असत्य नहीं होतीं । इसलिये समस्त अरिष्टोंका निवारण करनेके लिये तुम्हें दान करते रहना चाहिये। दानसे बढ़कर कल्याणकारी कृत्य न पहले तो हुआ है और न आगे होगा ही ।। ११-१२ ॥

 

नारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! तब यशोदा ने बलराम और श्रीकृष्णके मङ्गल के लिये ब्राह्मणों को बहुमूल्य नवरत्न और अपने अलंकार दिये । नन्दजी ने उस समय दस हजार बैल, एक लाख मनोहर गायें तथा दो लाख भार अन्न दान दिये ।। १३-१४ ॥

 

श्रीनारदजी पुनः कहते हैं- राजन् ! अब गोपोंकी इच्छासे बलराम और श्रीकृष्ण गोपालक हो गये। अपने गोपाल मित्रों के साथ गाय चराते हुए वे दोनों भाई वनमें विचरण करने लगे। उस समय श्रीकृष्ण और बलराम का सुन्दर मुँह निहारती हुई गौएँ उनके आगे-पीछे और अगल-बगल में विचरती रहती थीं ॥ १५-१६

 

उनके गले में क्षुद्रघण्टिकाओं की माला पहिनायी गयी थी। सोनेकी मालाएँ भी उनके कण्ठकी शोभा बढ़ाती थीं। उनके पैरों में घुँघुरू बँधे थे। उनकी पूँछोंके स्वच्छ बालों में लगे हुए मोरपंख और मोतियों के गुच्छे शोभा दे रहे थे । वे घंटों और नूपुरों के मधुर झंकार को फैलाती हुई इधर-उधर चरती थीं । चमकते हुए नूतन रत्नों की मालाओं के समूह से उन समस्त गौओं की बड़ी शोभा होती ॥ १७-१८

 

राजन् ! उन गौओंके दोनों सींगोंके बीचमें सिरपर मणिमय अलंकार धारण कराये गये थे, जिनसे उनकी मनोहरता बढ़ गयी थी। सुवर्ण-रश्मियोंकी प्रभासे उनके सींग तथा पार्श्व-प्रवेष्टन (पीठपरकी झूल) चमकते रहते थे। कुछ गौओं के भाल में किञ्चित् रक्तवर्ण के तिलक लगे थे। उनकी पूँछें पीले रंग से रँगी गयी थीं और पैरोंके खुर अरुणरागसे रञ्जित थे। बहुत-सी गौएँ कैलास पर्वत के समान श्वेतवर्णवाली, सुशीला, सुरूपा तथा अत्यन्त उत्तम गुणों से सम्पन्न थीं। मिथिलेश्वर ! बछड़ेवाली गौएँ अपने स्तनों के भारसे धीरे-धीरे चलती थीं। कितनों के थन घड़ोंके बराबर थे। बहुत-सी गौएँ लाल रंगकी थीं। वे सब की सब भव्य - मूर्ति दिखायी देती थीं ॥ १९-२१

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपोंकी धारणा 
तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

श्रीशुक उवाच ।

एवं पुरा धारणयाऽऽत्मयोनिः
    नष्टां स्मृतिं प्रत्यवरुध्य तुष्टात् ।
तथा ससर्जेदममोघदृष्टिः
    यथाप्ययात् प्राक् व्यवसायबुद्धिः ॥ १ ॥
शाब्दस्य हि ब्रह्मण एष पन्था
    यन्नामभिर्ध्यायति धीरपार्थैः ।
परिभ्रमन् तत्र न विन्दतेऽर्थान्
    मायामये वासनया शयानः ॥ २ ॥
अतः कविर्नामसु यावदर्थः
    स्याद् अप्रमत्तो व्यवसायबुद्धिः ।
सिद्धेऽन्यथार्थे न यतेत तत्र
    परिश्रमं तत्र समीक्षमाणः ॥ ३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—सृष्टिके प्रारम्भमें ब्रह्माजीने इसी धारणाके द्वारा प्रसन्न हुए भगवान्‌से वह सृष्टिविषयक स्मृति प्राप्त की थी, जो पहले प्रलयकालमें विलुप्त हो गयी थी। इससे उनकी दृष्टि अमोघ और बुद्धि निश्चयात्मिका हो गयी। तब उन्होंने इस जगत्को वैसे ही रचा जैसा कि यह प्रलयके पहले था ॥ १ ॥
वेदोंकी वर्णन-शैली ही इस प्रकारकी है कि लोगोंकी बुद्धि स्वर्ग आदि निरर्थक नामोंके फेरमें फँस जाती है, जीव वहाँ सुखकी वासनासे स्वप्न-सा देखता हुआ भटकने लगता है; किन्तु उन मायामय लोकोंमें कहीं भी उसे सच्चे सुखकी प्राप्ति नहीं होती ॥ २ ॥ इसलिये विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह विविध नामवाले पदार्थोंसे उतना ही व्यवहार करे, जितना प्रयोजनीय हो। अपनी बुद्धिको उनकी निस्सारताके निश्चयसे परिपूर्ण रखे और एक क्षणके लिये भी असावधान न हो। यदि संसारके पदार्थ प्रारब्धवश बिना परिश्रमके यों ही मिल जायँ, तब उनके उपार्जनका परिश्रम व्यर्थ समझकर उनके लिये कोई प्रयत्न न करे ॥ ३ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 7 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दसवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

दसवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

यशोदाजी की चिन्ता; नन्दद्वारा आश्वासन तथा ब्राह्मणों को विविध प्रकार के दान देना; श्रीबलराम तथा श्रीकृष्ण का गोचारण

 

श्रीनारद उवाच -
अष्टावक्रस्य शापेन सर्पो भूत्वा ह्यघासुरः ।
तद्‌वरात्परमं मोक्षं गतो देवैश्च दुर्लभम् ॥ १ ॥
वत्साद्‌बकमुखान्मुक्तं ततो मुक्तं ह्यघासुरात् ।
श्रुत्वा कतिदिनैः कृष्णं यशोदाऽभूद्‌भयातुरा ॥ २ ॥
कलावतीं रोहिणीं च गोपीगोपान् वयोऽधिकान् ।
वृषभानुवरं गोपं नन्दराजं व्रजेश्वरम् ॥ ३ ॥
नवोपनन्दान्नन्दाश्च वृषभानून् प्रजेश्वरान् ।
समाहूय तदग्रे च वचः प्राह यशोमती ॥ ४ ॥


यशोदोवाच -
किं करोमि क्व गच्छामि कल्याणं मे कथं भवेत् ।
मत्सुते बहवोऽरिष्टा आगच्छन्ति क्षणे क्षणे ॥ ५ ॥
पूर्वं महावनं त्यक्त्वा वृन्दारण्ये गता वयम् ।
एतत्त्यक्त्वा क्व यास्यामो देशे वदत निर्भये ॥ ६ ॥
चंचलोऽयं बालको मे क्रीडन्दूरे प्रयाति हि ।
बालकाश्चंचलाः सर्वे न मन्यन्ते वचो मम ॥ ७ ॥
बकासुरश्च मे बालं तीक्ष्णतुंडोऽग्रसद्‌बली ।
तस्मान्मुक्तन्तु जग्राहार्भकैर्दीनमघासुरः ॥ ८॥
वत्सासुरस्तज्जिघांसुः सोऽपि दैवेन मारितः ।
वत्सार्थं स्वगृहाद्‌बालं न बहिः कारयाम्यहम् ॥ ९ ॥


श्रीनारद उवाच -
इत्थं वदन्तीं सततं रुदन्तीं
     यशोमतीं वीक्ष्य जगाद नन्दः ।
आश्वासयामासस्गर्गवाक्यैः
     धर्मार्थविद्धर्मभृतां वरिष्ठः ॥ १० ॥

 

नारदजी कहते हैं--अष्टावक्र के श्राप से सर्प होकर अघासुर उन्हीं के वरदान – बल से उस परम मोक्ष को प्राप्त हुआ, जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है । वत्सासुर, वकासुर और फिर अघासुर के मुख से श्रीकृष्ण किसी तरह बच गये हैं और कुछ ही दिनों में उनके ऊपर ये सारे संकट आये हैं- यह सुनकर यशोदा जी भयसे व्याकुल हो उठीं। उन्होंने कलावती, रोहिणी, बड़े-बूढ़े गोप, वृषभानुवर, व्रजेश्वर नन्दराज, नौ नन्द, नौ उपनन्द तथा प्रजाजनों के स्वामी छः वृषभानुओं को बुलाकर उन सब के सामने यह बात कही ॥ १-४ ॥

 

यशोदा बोलीं-- [आप सब लोग बतायें--] मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और कैसे मेरा कल्याण हो ? मेरे पुत्रपर तो यहाँ क्षण-क्षणमें बहुत-से अरिष्ट आ रहे हैं। पहले महावन छोड़कर हमलोग वृन्दावनमें आये और अब इसे भी छोड़कर दूसरे किस निर्भय देशमें मैं चली जाऊँ, यह बतानेकी कृपा करें। मेरा यह बालक स्वभावसे ही चपल है। खेलते-खेलते दूरतक चला जाता है । व्रजके दूसरे बालक भी बड़े चञ्चल हैं । वे सब मेरी बात मानते ही नहीं ॥ ५-७

 

तीखी चोंचवाला बलवान् वकासुर पहले मेरे बालकको निगल गया था । उससे छूटा तो इस बेचारेको अघासुरने समस्त ग्वाल-बालोंके साथ अपना ग्रास बना लिया । भगवान्‌की कृपासे किसी तरह उससे भी इसकी रक्षा हुई। इन सबसे पहले वत्सासुर इसकी घातमें लगा था, किंतु वह भी दैवके हाथों मारा गया। अब मैं बछड़े चरानेके लिये अपने बच्चे को घरसे बाहर नहीं जाने दूँगी ।। -९ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- इस तरह कहती तथा निरन्तर रोती हुई यशोदाकी ओर देखकर नन्दजी कुछ कहनेको उद्यत हुए। पहले तो धर्म और अर्थके ज्ञाता तथा धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नन्दने गर्गजीके वचनोंकी याद दिलाकर उन्हें धीरज बँधाया, फिर इस प्रकार कहा-- ॥ १० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०८)

ध्यान-विधि और भगवान्‌ के विराट् स्वरूप का वर्णन

ब्रह्माननं क्षत्रभुजो महात्मा
    विडूरुरङ्‌घ्रिश्रितकृष्णवर्णः ।
नानाभिधाभीज्यगणोपपन्नो
    द्रव्यात्मकः कर्म वितानयोगः ॥ ३७ ॥
इयान् असौ ईश्वरविग्रहस्य
    यः सन्निवेशः कथितो मया ते ।
सन्धार्यतेऽस्मिन् वपुषि स्थविष्ठे
    मनः स्वबुद्ध्या न यतोऽस्ति किञ्चित् ॥ ३८ ॥
स सर्वधीवृत्त्यनुभूतसर्व
    आत्मा यथा स्वप्नजनेक्षितैकः ।
तं सत्यमानंदनिधिं भजेत
    नान्यत्र सज्जेद्यत आत्मपातः ॥ ३९ ॥

ब्राह्मण मुख, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य जङ्घाएँ और शूद्र उन विराट् पुरुष के चरण हैं। विविध देवताओंके नामसे जो बड़े-बड़े द्रव्यमय यज्ञ किये जाते हैं, वे उनके कर्म हैं ॥ ३७ ॥ परीक्षित्‌ ! विराट् भगवान्‌ के स्थूलशरीर का यही स्वरूप है, सो मैंने तुम्हें सुना दिया। इसीमें मुमुक्षु पुरुष बुद्धि के द्वारा मन को स्थिर करते हैं; क्योंकि इससे भिन्न और कोई वस्तु नहीं है ॥ ३८ ॥ जैसे स्वप्न देखनेवाला स्वप्नावस्था में अपने-आप को ही विविध पदार्थों के रूप में देखता है, वैसे ही सबकी बुद्धि-वृत्तियों के द्वारा सब कुछ अनुभव करनेवाला सर्वान्तर्यामी परमात्मा भी एक ही है। उन सत्यस्वरूप आनन्दनिधि भगवान्‌ का ही भजन करना चाहिये, अन्य किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं करनी चाहिये। क्योंकि यह आसक्ति जीव के अध:पतनका हेतु है ॥ ३९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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शनिवार, 6 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 07 )


 # श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

नवाँ अध्याय ( पोस्ट 07 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति

 

अथ कृष्णो वनाच्छीघ्रमानयामास वत्सकान् ।
यत्रापि पुलिने राजन् गोपानां राजमंडली ॥ ५२ ॥
गोपार्भकाश्च श्रीकृष्णं वत्सैः सार्धं समागतम् ।
क्षणार्धं मेनिरे वीक्ष्य कृष्णमायाविमोहिताः ॥ ५३ ॥
त ऊचुर्वत्सकैः कृष्ण त्वरं त्वं तु समागतः ।
कुरुष्व भोजनं चात्र केनापि न कृतं प्रभो ॥ ५४ ॥
ततश्च विहसन् कृष्णोऽभ्यवहृत्यार्भकैः सह ।
दर्शयामास सर्वेभ्यश्चर्माजगरमेव च ॥ ५५ ॥
सायंकाले सरामस्तु कृष्णो गोपैः परावृतः ।
अग्रे कृत्वा वत्सवृन्दं ह्याजगाम शनैर्व्रजम् ॥ ५६ ॥
गोवत्सकैः सितसितासितपीतवर्णै
     रक्तादिधूम्रहरितैर्बहुशीलरूपैः ।
गोपालमण्डलगतं व्रजपालपुत्रं
     वन्दे वनात् सुखदगोष्ठकमाव्रजन्तम् ॥ ५७ ॥
आनन्दो गोपिकानां तु ह्यासीत्कृष्णस्य दर्शने ।
यासां येन विना राजन् क्षणो युगसमोऽभवत् ॥ ५८ ॥
कृत्वा गोष्ठे पृथग्वत्सान् बालाः स्वं स्वं गृहं गताः ।
जगुश्चाघासुरवधमात्मनो रक्षणं हरे ॥ ५९ ॥

 

राजन् ! इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्ण वनसे शीघ्रतापूर्वक गोवत्स एवं गोप- बालकोंको ले आये और यमुनातटपर जिस स्थान पर गोपमण्डली विराजित थी, उन लोगोंको लेकर उसी

स्थानपर पहुँचे। गोवत्सोंके साथ लौटे हुए श्रीकृष्णको देखकर उनकी माया से विमोहित गोपोंने उतने समयको आधे क्षण जैसा समझा। वे लोग गोवत्सोंके साथ आये हुए श्रीकृष्णसे कहने लगे- 'आप शीघ्रतासे आकर भोजन करें। प्रभो ! आपके चले जानेके कारण किसीने भी भोजन नहीं किया।' इसके उपरान्त श्रीकृष्णने हँसकर बालकोंके साथ भोजन किया और बालकोंको अजगरका चमड़ा दिखाया । तदनन्तर बलरामजीके साथ गोपोंसे घिरे हुए श्रीकृष्ण वत्सवृन्दको आगे करके धीरे-धीरे व्रजको लौट आये ॥ ५२-५६

 

सफेद, चितकबरे, लाल, पीले, धूम्र एवं हरे आदि अनेक रंग और स्वभाववाले गोवत्सोंको आगे करके धीरे-धीरे सुखद वनसे गोष्ठमें लौटते हुए गोपमण्डली- के बीच स्थित नन्दनन्दनकी मैं वन्दना करता हूँ । राजन् ! श्रीकृष्णके विरहमें जिनको क्षणभरका समय युगके समान लगता था, उन्हींके दर्शनसे उन गोपियोंको आनन्द प्राप्त हुआ । बालकोंने अपने-अपने घर जाकर गोष्ठोंमें अलग-अलग बछड़ोंको बाँधकर अघासुर-वध एवं श्रीहरिद्वारा हुई आत्मरक्षाके वृत्तान्तका वर्णन किया ॥ ५७-५९

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'ब्रह्माजीद्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति' नामक नवम अध्याय पूरा हुआ ॥ ९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०७)

ध्यान-विधि और भगवान्‌ के विराट् स्वरूप का वर्णन

ईशस्य केशान्न् विदुरम्बुवाहान्
    वासस्तु सन्ध्यां कुरुवर्य भूम्नः ।
अव्यक्तमाहुः हृदयं मनश्च
    स चन्द्रमाः सर्वविकारकोशः ॥ ३४ ॥
विज्ञानशक्तिं महिमामनन्ति
    सर्वात्मनोऽन्तःकरणं गिरित्रम् ।
अश्वाश्वतर्युष्ट्रगजा नखानि
    सर्वे मृगाः पशवः श्रोणिदेशे ॥ ३५ ॥
वयांसि तद् व्याकरणं विचित्रं
    मनुर्मनीषा मनुनो निवासः ।
गंधर्वविद्याधरचारणाप्सरः
    स्वरस्मृतीः असुरानीकवीर्यः ॥ ३६ ॥

परीक्षित्‌ ! बादलोंको उनके केश मानते हैं। सन्ध्या उन अनन्त का वस्त्र है। महात्माओंने अव्यक्त (मूलप्रकृति) को ही उनका हृदय बतलाया है और सब विकारोंका खजाना उनका मन चन्द्रमा कहा गया है ॥ ३४ ॥ महत्तत्त्वको सर्वात्मा भगवान्‌ का चित्त कहते हैं और रुद्र उनके अहंकार कहे गये हैं। घोड़े, खच्चर, ऊँट और हाथी उनके नख हैं। वनमें रहनेवाले सारे मृग और पशु उनके कटिप्रदेशमें स्थित हैं ॥ ३५ ॥ तरह-तरहके पक्षी उनके अद्भुत रचना-कौशल हैं। स्वायम्भुव मनु उनकी बुद्धि हैं और मनुकी सन्तान मनुष्य उनके निवासस्थान हैं। गन्धर्व, विद्याधर, चारण और अप्सराएँ उनके षड्ज आदि स्वरोंकी स्मृति हैं। दैत्य उनके वीर्य हैं ॥ ३६ ॥ 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 5 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 06 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

नवाँ अध्याय ( पोस्ट 06 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति

 

वयं तु गोपदेहेषु संस्थिताश्च शिवादयः ।
सकृत्कृष्णं तु पश्यन्तस्तस्माद्धन्याश्च भारते ॥ ४४ ॥
अहोभाग्यं तु कृष्णस्य मातापित्रोस्तव प्रभो ।
तथा च गोपगोपीनां पूर्णस्त्वं दृश्यसे व्रजे ॥ ४५ ॥
मुक्ताहारः सर्वविश्वोपकारः
     सर्वाधारः पातु मां विश्वकारः ।
लीलागारं सूरिकन्याविहारः
     क्रीडापारः कृष्णचन्द्रावतारः ॥ ४६ ॥
श्रीकृष्ण वृष्णिकुलपुष्कर नन्दपुत्र
     राधापते मदनमोहन देवदेव ।
संमोहितं व्रजपते भुवि तेऽजया मां
     गोविन्द गोकुलपते परिपाहि पाहि ॥ ४७ ॥
करोति यः कृष्णहरेः प्रदक्षिणां
     भवेज्ज्गत्तीर्थफलं च तस्य तु ।
ते कृष्णलोकं सुखदं परात्परं
     गोलोकलोकं प्रवरं गमिष्यति ॥ ४८ ॥


श्रीनारद उवाच -
इत्यभिष्टूय गोविन्दं श्रीमद्‌वृन्दावनेश्वरम् ।
नत्वा त्रिवारं लोकेशश्चकार तु प्रदक्षिणम् ॥ ४९ ॥
तत्र चालक्षितो भूत्वा नेत्रेणाज्ञां ददौ हरिः ।
पुनः प्रणम्य स्वं लोकमात्मभूः प्रत्यपद्यत ॥ ५१ ॥

भगवान् शंकर आदि हम (इन्द्रियोंके अधिष्ठाता) देवगण ने भारतवासी इन गोपों की देह में स्थित होकर एक बार भी श्रीकृष्णका दर्शन कर लिया, अतः हम धन्य हो गये। श्रीकृष्ण ! आपके माता-पिता एवं गोप- गोपियों का तो कितना अनिर्वचनीय सौभाग्य है, जो व्रजमें आपके पूर्णरूप का दर्शन कर रहे हैं ॥ ४४-४५

 

सम्पूर्ण विश्व का उपकार करनेवाले, मुक्ताहार धारण करने वाले, विश्व के रचयिता, सर्वाधार, लीलाके धाम, रवितनया यमुना में विहार करनेवाले, क्रीडापरायण, श्रीकृष्णचन्द्र का अवतार ग्रहण करनेवाले प्रभु मेरी रक्षा करें। वृष्णिकुलरूप सरोवरके कमलस्वरूप नन्द- नन्दन, राधापति, देव-देव, मदनमोहन, व्रजपति, गोकुलपति, गोविन्द मुझ माया से मोहित की रक्षा करें। जो व्यक्ति श्रीकृष्ण की प्रदक्षिणा करता है, उसको जगत् के सम्पूर्ण तीर्थों की यात्रा का फल प्राप्त होता है वह आपके सुखदायक परात्पर 'गोलोक' नामक लोक को जाता है ॥ ४–४८ ॥

नारदजी कहने लगे- लोकपति लोक-पितामह ब्रह्मा ने इस प्रकार सुन्दर वृन्दावन के अधिपति गोविन्द का स्तवन करके प्रणाम करते हुए उनकी तीन बार प्रदक्षिणा की और कुछ देर के लिये अदृश्य होकर गोवत्स तथा गोप-बालकों को वरदान देकर लौट जाने के लिये अनुमति की प्रार्थना की ।। तदनन्तर श्रीहरिने नेत्रोंके संकेतसे उनको जानेका आदेश दिया। लोकपितामह ब्रह्मा भी पुनः प्रणाम करके अपने लोकको चले गये ॥ ४९-५१

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०६)

ध्यान-विधि और भगवान्‌ के विराट् स्वरूप का वर्णन

द्यौरक्षिणी चक्षुरभूत्पतङ्गः
    पक्ष्माणि विष्णोरहनी उभे च ।
तद्‍भ्रूविजृम्भः परमेष्ठिधिष्ण्यं
    आपोऽस्य तालू रस एव जिह्वा ॥ ३० ॥
छन्दांस्यनन्तस्य शिरो गृणंति
    दंष्ट्रा यमः स्नेहकला द्विजानि ।
हासो जनोन्मादकरी च माया
    दुरन्तसर्गो यदपाङ्गमोक्षः ॥ ३१ ॥
व्रीडोत्तरौष्ठोऽधर एव लोभो
    धर्मः स्तनोऽधर्मपथोऽस्य पृष्ठम् ।
कस्तस्य मेढ्रं वृषणौ च मित्रौ
    कुक्षिः समुद्रा गिरयोऽस्थिसङ्घाः ॥ ३२ ॥
नद्योऽस्य नाड्योऽथ तनूरुहाणि
    महीरुहा विश्वतनोर्नृपेन्द्र ।
अनन्तवीर्यः श्वसितं मातरिश्वा
    गतिर्वयः कर्म गुणप्रवाहः ॥ ३३ ॥

भगवान्‌ विष्णुके नेत्र अन्तरिक्ष हैं, उनमें देखनेकी शक्ति सूर्य है, दोनों पलकें रात और दिन हैं, उनका भ्रूविलास ब्रह्मलोक है। तालु जल हैं और जिह्वा रस ॥ ३० ॥ वेदोंको भगवान्‌ का ब्रह्मरन्ध्र कहते हैं और यम को दाढ़ें। सब प्रकारके स्नेह दाँत हैं और उनकी जगन्मोहिनी मायाको ही उनकी मुसकान कहते हैं। यह अनन्त सृष्टि उसी माया का कटाक्ष-विक्षेप है ॥ ३१ ॥ लज्जा ऊपरका होठ और लोभ नीचेका होठ है। धर्म स्तन और अधर्म पीठ है। प्रजापति उनके मूत्रेन्द्रिय हैं, मित्रावरुण अण्डकोश हैं, समुद्र कोख है और बड़े-बड़े पर्वत उनकी हड्डियाँ हैं ॥ ३२ ॥ राजन् ! विश्वमूर्ति विराट् पुरुष की नाडिय़ाँ नदियाँ हैं। वृक्ष रोम हैं। परम प्रबल वायु श्वास है। काल उनकी चाल है और गुणोंका चक्कर चलाते रहना ही उनका कर्म है ॥ ३३ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 4 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 05 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

नवाँ अध्याय ( पोस्ट 05 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति

 

मायया यस्य मुह्यन्ति देवदैत्यनरादयः ।
स्वमायया तन्मोहाय मूर्खोऽहं ह्युद्यतोऽभवम् ॥ ३४ ॥
नारायणस्त्वं गोविन्द नाहं नारायणो हरे ।
ब्रह्माण्डं त्वं विनिर्माय शेषे नारायणः पुरा ॥ ३५ ॥
यस्य श्रीब्रह्मणि धाम्नि प्राणं त्यक्त्वा तु योगिनः ।
यत्र यास्यन्ति तस्मिंस्तु सकुला पूतना गता ॥ ३६ ॥
वत्सानां वत्सपानाञ्च कृत्वा रूपाणि माधव ।
विचचार वने त्वं तु ह्यपराधान्मम प्रभो ॥ ३७ ॥
तस्मात्क्षमस्व गोविन्द प्रसीद त्वं ममोपरि ।
अगणय्यापराधं मे सुतोपरि पिता यथा ॥ ३८ ॥
त्वदभक्ता रता ज्ञाने तेषां क्लेशो विशिष्यते ।
परिश्रमात्कर्षकाणां यथा क्षेत्रे तुषार्थिनाम् ॥ ३९ ॥
त्वद्‌भक्तिभावे निरता बहवस्त्वद्‌गतिं गताः ।
योगिनो मुनयश्चैव तथा ये व्रजवासिनः ॥ ४० ॥
द्विधा रतिर्भवेद्वरा श्रुताच्च दर्शनाच्च वा ।
अहो हरे तु मायया बभूव नैव मे रतिः ॥ ४१ ॥
इत्युक्त्वाऽश्रुमुखो भूत्वा नत्वा तत्पादपंकजौ ।
पुनराह विधिः कृष्णं भक्त्या सर्वं क्षमापयन् ॥ ४२ ॥
घोषेषु वासिनामेषां भूत्वाऽहं त्वत्पदाम्बुजम् ।
यदा भजेयं सुगतिस्तदा भूयान्न चान्यथा ॥ ४३ ॥

जिनकी मायासे देवता, दैत्य एवं मनुष्य – सभी मोहित हैं, मैं मूर्ख उनको अपनी मायासे मोहित करने चला था ! गोविन्द आप नारायण हैं, मैं नारायण नहीं हूँ। हरि ! आप कल्पके आदिमें ब्रह्माण्डकी रचना करके नारायणरूपसे शेषशायी हो गये ॥ ३४-३५

 

आपके जिस ब्रह्मरूप तेजमें योगी प्राण त्याग करके जाते हैं, बालघातिनी पूतना भी अपने कुलसहित आपके उसी तेजमें समा गयी । माधव ! मेरे ही अपराधसे आपने गोवत्स एवं गोप-बालकोंका रूप धारण करके वनोंमें विचरण किया। अतएव गोविन्द ! आप मुझको क्षमा करें। गोविन्द ! पिता जैसे पुत्रका अपराध नहीं देखता, वैसे ही आप भी मेरे अपराधकी उपेक्षा करके मेरे ऊपर प्रसन्न हों। जो लोग आपके भक्त न होकर ज्ञानमें रति करते हैं, उनको क्लेश ही हाथ लगता है, जैसे भूसेके लिये परिश्रमपूर्वक खेत जोतनेवालोंको भूसामात्र प्राप्त होता है ॥ ३६–३

 

आपके भक्तिभावमें ही नितरां रत रहनेवाले अनेकों योगी, मुनि एवं व्रजवासी आपको प्राप्त हो चुके हैं। दर्शन और श्रवण- दो प्रकारसे उनकी आपमें रति होती है, किंतु अहो ! श्रीहरिकी मायाके कारण उनके प्रति मेरी रति नहीं हुई || ४० – ४१ ॥

 

ब्रह्माजीने यों कहकर नेत्रों से आँसू बहाते हुए उनके (श्रीकृष्णके) पादपद्मों में प्रणाम किया एवं सारे अपराधों को क्षमा करानेके लिये भक्तिभाव से श्रीकृष्ण- से वे फिर निवेदन करने लगे – “मैं गोपकुल में जन्म लेकर आपके पादपद्मों की आराधना करता हुआ सुगति प्राप्त कर सकूँ, इसका व्यतिरेक न हो ॥ ४२-४३

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) ध्रुवका वन-गमन मैत्रेय उवाच - मातुः सपत्न्याःा स दुर...