रविवार, 14 जुलाई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०७)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

यदि प्रयास्यन् नृप पारमेष्ठ्यं
    वैहायसानामुत यद् विहारम् ।
अष्टाधिपत्यं गुणसन्निवाये
    सहैव गच्छेन्मनसेन्द्रियैश्च ॥ २२ ॥
योगेश्वराणां गतिमाहुरन्तः
    बहिस्त्रिलोक्याः पवनान्तरात्मनाम् ।
न कर्मभिस्तां गतिमाप्नुवन्ति
    विद्यातपोयोगसमाधिभाजाम् ॥ २३ ॥

परीक्षित्‌ ! यदि योगी की इच्छा हो कि मैं ब्रह्मलोकमें जाऊँ, आठों सिद्धियाँ प्राप्त करके आकाशचारी सिद्धों के साथ विहार करूँ अथवा त्रिगुणमय ब्रह्माण्डके किसी भी प्रदेश में विचरण करूँ, तो उसे मन और इन्द्रियों को साथ ही लेकर शरीर से निकलना चाहिये ॥ २२ ॥ योगियों का शरीर वायु की भाँति सूक्ष्म होता है। उपासना, तपस्या, योग और ज्ञानका सेवन करनेवाले योगियों को त्रिलोकी के बाहर और भीतर सर्वत्र स्वछन्दरूप से विचरण करने का अधिकार होता है। केवल कर्मों के द्वारा इस प्रकार बेरोक-टोक विचरना नहीं हो सकता ॥ २३ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 13 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

 

धेनुकासुर का उद्धार

 

गोवर्धनं समुत्पाट्य श्रीकृष्णे प्राहिणोत्खरः ।।
गिरिं गृहीत्वा श्रीकृष्णः णाक्षिपत्त स्य मस्तके ।।२१।।
दैत्यो गिरिं गृहीत्वाथ श्रीकृष्णे प्राहिणोद्बली।।
कृष्णो गोवर्धनं नीत्वा पूर्वस्थाने समाक्षिपत् ।।२२।।
पुनर्धावन्महादैत्यः शृङ्गाभ्यां । दारयन्भुवम्।।
बलं पश्चिमपादाभ्यां ताडयित्वा जगर्ज ह।२३।
ननाद तेन ब्रह्मांडं प्रैजद्भूखण्डमण्डलम्।।
हस्ताभ्यां संगृहीत्वा तं बलदेवो महाबलः।।२४।।
भूपृष्ठे पोथयामास मूर्च्छितं भग्नमस्तकम् ।।
पुनस्तताड तं दैत्यं मुष्टिना ह्यच्युताग्रजः ।।२५।।
तेन मुष्टिप्रहारेण सद्यो वै निधनं गतः ।।
तदैव ववृषुर्देवाः पुष्पैर्नन्दनसंभवैः ।। २६ ।।
देहाद्विनिर्गतः सोऽपि श्यामसुन्दरविग्रहः ।।
स्रग्वी पीतांबरो देवो वनमालाविभूषितः ।।२७।।
लक्षपार्षदसंयुक्तः सहस्र ध्वजशोभितः ।।
सहस्रचक्रध्वनिभृद्धयायुतसमन्वितः ।। २८ ।।
लक्षचामरशोभाढ्योऽरुणवर्णोऽतिरत्नभृत् ।।
दिव्ययोजनविस्तीर्णो मनोयायी मनोहरः ।।२९।।
किंकिणीजालसंयुक्तो घटामंजीरसंयुतः ।।
हरिं प्रदक्षिणीकृत्य सबलं दिव्यरूपधृक् ।। ३० ।।
दिव्यं रथं समारुह्य द्योतयन्मंडलन्दिशाम् ।।
जगाम दैत्यो हे राजन्गोलोकं प्रकृतेः परम् ।। ३१ ।।
श्रीकृष्णो धेनुकं हत्वा सबलो बालकैः सह ।।
तद्यशस्तु प्रगायद्भिर्बभौ गोकुलगोगणैः ।। ३२ ।।

श्रीकृष्णने पर्वतको हाथसे पकड़कर पुनः उसीके मस्तकपर दे मारा। तदनन्तर उस बलवान् दैत्यने फिर पर्वतको हाथमें ले लिया और श्रीकृष्णके ऊपर फेंका। किंतु श्रीकृष्णने गोवर्धनको ले जाकर उसके पूर्व स्थानपर रख दिया ॥ २१-२२

 

तदनन्तर फिर धावा करके महादैत्य धेनुक ने दोनों सींगों से पृथ्वी को विदीर्ण कर दिया और पिछले पैरों से पुनः बलरामपर प्रहार करके बड़े जोरसे गर्जना की। उसकी उस गर्जनासे समस्त ब्रह्माण्ड गूँज उठा और भूमण्डल काँपने लगा । तब महाबली बलदेवने दोनों हाथोंसे उसको पकड़ लिया और उसे पृथ्वीपर दे मारा। इससे उसका मस्तक फूट गया और होश- हवास जाता रहा। इसके बाद श्रीकृष्ण के बड़े भाई ने पुनः उस दैत्यपर मुक्के से प्रहार किया ॥ २३-२५

 

उस मुष्टिप्रहार से धेनुकासुर की तत्काल मृत्यु हो गयी। उसी समय देवताओं ने नन्दनवन के फूल बरसाये ॥ २६ ॥

 

देह से पृथक् होकर धेनुक श्यामसुन्दर - विग्रह धारणकर पुष्पमाला, पीताम्बर तथा वनमाला से समलंकृत देवता हो गया। लाख-लाख पार्षद उसकी सेवा में जुट आये। सहस्त्रों ध्वज उसके रथ की शोभा बढ़ाने लगे। सहस्रों पहियोंकी घर्घरध्वनिसे युक्त उस रथमें दस हजार घोड़े जुते थे। लाखों चँवरों की वहाँ शोभा हो रही थी। वह रथ अरुणवर्ण का था और अत्यधिक रत्नों से जटित था। उसका विस्तार एक दिव्य योजन का था। वह मन के समान तीव्रगति से चलनेवाला विमान या रथ बड़ा ही मनोहर था ॥ २७-२९

 

राजन् ! उसमें घुँघुरुओंकी जाली लगी थी। घंटे और मञ्जीर बजते थे । दिव्यरूपधारी दैत्य धेनुक बलरामसहित श्रीकृष्ण- की परिक्रमा करके, उक्त दिव्य रथपर आरूढ़ हो, दिशामण्डलको देदीप्यमान करता हुआ, प्रकृतिसे परे विद्यमान गोलोकधाममें चला गया। इस प्रकार धेनुक- का वध करके बलरामसहित श्रीकृष्ण अपना यशोगान करते हुए ग्वाल-बालोंके साथ व्रजको लौटे। उनके साथ गौओंका समुदाय भी था ॥ ३०-३२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०६)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

इत्थं मुनिस्तूपरमेद् व्यवस्थितो
    विज्ञानदृग्वीर्य सुरन्धिताशयः ।
स्वपार्ष्णिनऽपीड्य गुदं ततोऽनिलं
    स्थानेषु षट्सून्नमयेज्जितक्लमः ॥ १९ ॥
नाभ्यां स्थितं हृद्यधिरोप्य तस्माद्
    उदुदानगत्योरसि तं नयेन्मुनिः ।
ततोऽनुसन्धाय धिया मनस्वी
    स्वतालुमूलं शनकैर्नयेत ॥ २० ॥
तस्माद् भ्रुवोरन्तरमुन्नयेत
    निरुद्धसप्तायतनोऽनपेक्षः ।
स्थित्वा मुहूर्तार्धमकुण्ठदृष्टिः
    निर्भिद्य मूर्धन् विसृजेत् परं गतः ॥ २१ ॥

ज्ञानदृष्टि के बलसे जिसके चित्त की वासना नष्ट हो गयी है, उस ब्रह्मनिष्ठ योगी को इस प्रकार अपने शरीरका त्याग करना चाहिये। पहले एड़ी से अपनी गुदा को दबाकर स्थिर हो जाय और तब बिना घबड़ाहट के प्राणवायु को षट्चक्रभेदन की रीति से ऊपर ले जाय ॥ १९ ॥ मनस्वी योगी को चाहिये कि नाभिचक्र मणिपूरक में स्थित वायु को हृदयचक्र अनाहत में, वहाँसे उदानवायु के द्वारा वक्ष:स्थल के ऊपर विशुद्ध चक्रमें, फिर उस वायु को धीरे-धीरे तालुमूल में (विशुद्ध चक्र के अग्रभाग में) चढ़ा दे ॥ २० ॥ तदनन्तर दो आँख, दो कान, दो नासाछिद्र और मुख—इन सातों छिद्रों को रोककर उस तालुमूल में स्थित वायुको भौंहोंके बीच आज्ञाचक्रमें ले जाय। यदि किसी लोकमें जानेकी इच्छा न हो तो आधी घड़ीतक उस वायुको वहीं रोककर स्थिर लक्ष्यके साथ उसे सहस्रार में ले जाकर परमात्मा में स्थित हो जाय। इसके बाद ब्रह्मरन्ध्र का भेदन करके शरीर- इन्द्रियादि को छोड़ दे ॥ २१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 12 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

धेनुकासुर का उद्धार

 

योजनं नोदयामास गजं प्रति गजो यथा ।।
गृहीत्वा तं बलः सद्यो भ्रामयित्वाथ धेनुकम् ।। १० ।।
भूपृष्ठे पोथयामास मूर्च्छितो भग्नमस्तकः ।।
क्षणेन पुनरुत्थाय क्रोधसंयुक्तविग्रहः ।।११।।
मूर्ध्नि कृत्वा चतुःशृंगं धृत्वा रूपं भयंकरम् ।।
गोपान्विद्रावयामास शृंगैस्तीक्ष्णैर्भयंकरैः ।।१२।।
अग्रे पलायितान्गोपान्दुद्रावाशु मदोत्कटः ।।
श्रीदामा तं च दंडेन सुबलो मुष्टिना तथा ।।१३।।
स्तोकः पाशेन तं दैत्यं संतताड महाबलम् ।।
क्षेपणेनार्जुनोंशुश्च दैत्यं लत्तिकया खरम् ।।१४।।
विशालर्षभ एत्याशु पादेन स्वबलेन च ।।
तेजस्वी ह्यर्द्धचन्द्रेण देवप्रस्थ श्च पेटकैः ।।१५।।
वरूथपः कंदुकेन संतताड महाखरम् ।।
अथ कृष्णोपि तं नीत्वा हस्ताभ्यां धेनुकासुरम् ।।१६।।
भ्रामयित्वाशु चिक्षेप गिरिगोवर्द्ध- नोपरि ।।
श्रीकृष्णस्य प्रहारेण मूर्च्छितो घटिकाद्वयम् ।। १७ ।।
पुनरुत्थाय स्वतनुं विधुन्वन्दारयन्मुखम् ।।
शृङ्गाभ्यां श्रीहरिं नीत्वा धावन्दैत्यो न भोगतः ।।१८।।
चचार तेन खे युद्धमूर्ध्वं वै लक्षयोजनम् ।।
गृहीत्वा धेनुकं दैत्यं श्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।। १९ ।।
चिक्षेपाधो भूमिमध्ये चूर्णितास्थिः स मूर्च्छितः ।।
पुनरुत्थाय शृङ्गाभ्यां नादं कृत्वातिभैरवम् ।।२०।।

तब बलराम,जी ने तत्काल धेनुक को पकड़कर घुमाना आरम्भ किया और घुमाकर उसे भूतल पर दे मारा। तब उसे मूर्च्छा आ गयी और उसका मस्तक फट गया। तो भी वह क्षणभरमें उठकर खड़ा हो गया। उसके शरीरसे भयानक क्रोध टपक रहा था ॥ १०-११

 

इसके बाद उस दैत्य ने अपने मस्तक में चार सींग प्रकट करके, भयानक रूप धारण कर उन तीखे और भयंकर सींगों से गोपों को खदेड़ना आरम्भ किया ॥ १२

 

गोपोंको आगे-आगे भागते देख वह मदमत्त असुर तुरंत ही उनके पीछे दौड़ा उस समय श्रीदामा ने उसपर डंडेसे प्रहार किया, सुबलने उसको मुक्केसे मारा, स्तोककृष्ण ने उस महाबली दैत्यपर पाश से प्रहार किया, अर्जुन ने क्षेपण से और अंशु ने उस गर्दभाकार दैत्यपर लात से आघात किया। इसके बाद विशालर्षभ ने आकर शीघ्रतापूर्वक अपने पैर से और बल से भी उस दैत्य को दबाया। तेजस्वी ने अर्द्धचन्द्र (गर्दनियाँ) देकर उसे पीछे हटाया और देवप्रस्थ ने उस असुर के कई तमाचे जड़ दिये ॥ १३-१५

 

वरूथप ने उस विशालकाय गधे को गेंद से मारा। तदनन्तर श्रीकृष्णने भी धेनुकासुरको दोनों हाथोंसे उठाकर घुमाया और तुरंत ही गोवर्धन पर्वतके ऊपर फेंक दिया। श्रीकृष्णके उस प्रहारसे धेनुक दो घड़ीतक मूर्च्छित पड़ा रहा। फिर उठकर अपने शरीरको कँपाता हुआ मुँह फाड़कर आगे बढ़ा और दोनों सींगों से श्रीहरिको उठाकर वह दैत्य दौड़कर आकाशमें चला गया ॥ १६-१८

 

आकाश में एक लाख योजन ऊँचे जाकर उनके साथ युद्ध करने लगा । भगवान् श्रीकृष्ण ने धेनुकासुर- को पकड़कर नीचे भूमि को ओर फेंका। इससे उसकी हड्डियाँ चूर-चूर हो गयीं और वह मूर्च्छित हो गया। तथापि पुनः उठकर अत्यन्त भयंकर सिंहनाद करते हुए उसने दोनों सींगों से गोवर्धन पर्वत को उखाड़ लिया और श्रीकृष्ण के ऊपर चलाया ॥ १९-२०

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

स्थिरं सुखं चासनमास्थितो यतिः
    यदा जिहासुरिममङ्ग लोकम् ।
काले च देशे च मनो न सज्जयेत्
    प्राणान् नियच्छेन्मनसा जितासुः ॥ १५ ॥
मनः स्वबुद्ध्याऽमलया नियम्य
    क्षेत्रज्ञ एतां निनयेत् तमात्मनि ।
आत्मानमात्मन्यवरुध्य धीरो
    लब्धोपशान्तिर्विरमेत कृत्यात् ॥ १६ ॥
न यत्र कालोऽनिमिषां परः प्रभुः
    कुतो नु देवा जगतां य ईशिरे ।
न यत्र सत्त्वं न रजस्तमश्च
    न वै विकारो न महान् प्रधानम् ॥ १७ ॥
परं पदं वैष्णवमामनन्ति
    तद् यन्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः ।
विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहृदा
    हृदोपगुह्यार्हपदं पदे पदे ॥ १८ ॥

(श्रीशुकदेवजी कहते हैं ) परीक्षित्‌ ! जब योगी पुरुष इस मनुष्य-लोकको छोडऩा चाहे, तब देश और काल में मन को न लगाये। सुखपूर्वक स्थिर आसन से बैठकर प्राणों को जीतकर मन से  इन्द्रियों का संयम करे ॥ १५ ॥ तदनन्तर अपनी निर्मल बुद्धिसे मन को नियमित करके मन के साथ बुद्धिको क्षेत्रज्ञ में और क्षेत्रज्ञ को अन्तरात्मा में लीन कर दे। फिर अन्तरात्मा को परमात्मा में लीन करके धीर पुरुष उस परम शान्तिमय अवस्थामें स्थित हो जाय। फिर उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता ॥ १६ ॥ इस अवस्थामें सत्त्वगुण भी नहीं है, फिर रजोगुण और तमोगुणकी तो बात ही क्या है। अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृतिका भी वहाँ अस्तित्व नहीं है। उस स्थितिमें जब देवताओंके नियामक कालकी भी दाल नहीं गलती, तब देवता और उनके अधीन रहनेवाले प्राणी तो रह ही कैसे सकते हैं ? ॥ १७ ॥ योगीलोग ‘यह नहीं, यह नहीं’—इस प्रकार परमात्मासे भिन्न पदार्थोंका त्याग करना चाहते हैं और शरीर तथा उसके सम्बन्धी पदार्थोंमें आत्मबुद्धिका त्याग करके हृदयके द्वारा पद-पदपर भगवान्‌के जिस परम पूज्य स्वरूपका आलिङ्गन करते हुए अनन्य प्रेमसे परिपूर्ण रहते हैं, वही भगवान्‌ विष्णुका परम पद है—इस विषयमें समस्त शास्त्रोंकी सम्मति है ॥ १८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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गुरुवार, 11 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

धेनुकासुर का उद्धार

 

श्रीनारदउवाच ।।
एकदा सबलः कृष्णश्चारयन्गा मनोहराः ।।
गोपालैः सहितः सर्वैर्ययौ तालवनं नवम् ।। १ ।।
धेनुकस्य भयाद्गोपा न गतास्ते वनान्तरम् ।।
कृष्णोपि न गतस्तत्र बल एको विवेश ह ।।२।।
नीलांबरं कटौ बद्धा बलदेवो महाबलः ।।
परिपक्वफलार्थं हि तद्वने विचचार ह।।३।।
बाहुभ्यां कंपयंस्तालान्फलसंघं निपातयन् ।।
गर्जंश्च निर्भयः साक्षादनन्तोनन्तविक्रमः।।४।।
फलानां पततां शब्दं श्रुत्वा क्रोधावृतः खरः ।।
मध्याह्ने स्वापकृद्दुष्टो भीमः कंससखो बली ।।५।।
आययौ संमुखे योद्धुं बलदेवस्य धेनुकः ।।
बलं पश्चिम पादाभ्यां निहत्योरसि सत्वरम् ।।६।।
चकार खरशब्दं स्वं परिधावन्मुहुर्मुहुः ।।
गृहीत्वा धेनुकं शीघ्रं बलः पश्चिमपादयोः ।।७।।
चिक्षेप तालवृक्षे च ह- स्तेनैकेनलीलया ।।
तेन भग्नश्च तालोपि तालान्पार्श्वस्थितान्बहून् ।।८।।
पातयामास राजेन्द्र तदद्भुतमिवाभवत् ।।
पुनरुत्थाय दैत्येंद्रो बलं जग्राह रोषतः ।। ९ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! एक दिन श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ मनोहर गौएँ चराते हुए नूतन तालवनके पास चले गये। उस समय समस्त गोपाल उनके साथ थे। वहाँ धेनुकासुर रहा करता था। उसके भयसे गोपगण वनके भीतर नहीं गये । श्रीकृष्ण भी नहीं गये। अकेले बलरामजीने उसमें प्रवेश किया ॥ १-२

अपने नीले वस्त्र को कमर में बाँधकर कर दिया । राजेन्द्र ! वह एक अद्भुत-सी बात हुई । महाबली बलदेव परिपक्व फल लेनेके लिये उस वनमें दैत्यराज धेनुक ने पुनः उठकर रोषपूर्वक बलरामजीको विचरने लगे। बलरामजी साक्षात् अनन्तदेवके पकड़ लिया और जैसे एक हाथी अपना सामना अवतार हैं। उनका पराक्रम भी अनन्त है। अतः दोनों करनेवाले दूसरे हाथीको दूरतक ठेल ले जाता है, उसी हाथोंसे ताड़के वृक्षोंको हिलाते और फल-समूहोंको प्रकार उन्हें धक्का देकर एक योजन पीछे हटा दिया । गिराते हुए वहाँ निर्भय गर्जना करने लगे। गिरते हुए तब बलरामजी ने तत्काल धेनुक को पकड़कर घुमाना फलों की आवाज सुनकर वह गर्दभाकार असुर रोष से आग-बबूला हो गया। वह दोपहर में सोया करता था, किंतु आज विघ्न पड़ जानेसे वह दुष्ट क्रोधसे भयंकर हो उठा । धेनुकासुर कंसका सखा होनेके साथ ही बड़ा बलवान् था ॥ ३-५

 

वह बलदेवजीके सम्मुख युद्ध करनेके लिये आया और उसने अपने पिछले पैरोंसे उनकी छातीमें तुरंत आघात किया। आघात करके वह बारंबार दौड़ लगाता हुआ गधेकी भाँति रेंकने लगा। तब बलरामजीने धेनुक के दोनों पिछले पैर पकड़कर शीघ्र ही उसे ताड़ के वृक्षपर दे मारा। यह कार्य उन्होंने एक ही हाथ से खेल-खेल में कर डाला ॥ ६-७

 

इससे वह तालवृक्ष स्वयं तो टूट ही गया, गिरते गिरते उसने अपने पार्श्ववर्ती दुसरे बहुत से ताड़ों को धराशायी कर दिया | राजेन्द्र ! वह एक अद्भुत सी बात हुई | दैत्यराज धेनुक ने पुन: उठकर रोषपूर्वक बलरामजी को पकड़ किया और जैसे एक हाथी दूसरे हाथी को दूरतक ठेल ले जाता है, उसी प्रकार उन्हें धक्का देकर एक योजन पीछे हटा दिया ८-९

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

अदीनलीलाहसितेक्षणोल्लसद्
    भ्रूभङ्गसंसूचितभूर्यनुग्रहम् ।
ईक्षेत चिन्तामयमेनमीश्वरं
    यावन्मनो धारणयाऽवतिष्ठते ॥ १२ ॥
एकैकशोऽङ्गानि धियानुभावयेत्
    पादादि यावद् हसितं गदाभृतः ।
जितं जितं स्थानमपोह्य धारयेत्
    परं परं शुद्ध्यति धीर्यथा यथा ॥ १३ ॥
यावन्न जायेत परावरेऽस्मिन्
    विश्वेश्वरे द्रष्टरि भक्तियोगः ।
तावत् स्थवीयः पुरुषस्य रूपं
    क्रियावसाने प्रयतः स्मरेत ॥ १४ ॥

लीलापूर्ण उन्मुक्त हास्य और चितवनसे शोभायमान भौंहोंके द्वारा वे भक्तजनों पर अनन्त अनुग्रह की वर्षा कर रहे हैं। जबतक मन इस धारणा के द्वारा स्थिर न हो जाय, तब तक बार-बार इन चिन्तनस्वरूप भगवान्‌ को देखते रहने की चेष्टा करनी चाहिये ॥ १२ ॥ 
भगवान्‌ के चरण-कमलों से लेकर उनके मुसकानयुक्त मुख-कमलपर्यन्त समस्त अङ्गों की एक-एक करके बुद्धिके द्वारा धारणा करनी चाहिये। जैसे-जैसे बुद्धि शुद्ध होती जायगी, वैसे-वैसे चित्त स्थिर होता जायगा। जब एक अङ्गका ध्यान ठीक-ठीक होने लगे, तब उसे छोडक़र दूसरे अङ्गका ध्यान करना चाहिये ॥ १३ ॥ ये विश्वेश्वर भगवान्‌ दृश्य नहीं, द्रष्टा हैं। सगुण, निर्गुण—सब कुछ इन्हींका स्वरूप है। जबतक इनमें अनन्य प्रेममय भक्तियोग न हो जाय, तबतक साधकको नित्य-नैमित्तिक कर्मोंके बाद एकाग्रतासे भगवान्‌ के उपर्युक्त स्थूल रूपका ही चिन्तन करना चाहिये ॥१४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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बुधवार, 10 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दसवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

दसवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )

 

यशोदाजी की चिन्ता; नन्दद्वारा आश्वासन तथा ब्राह्मणों को विविध प्रकार के दान देना; श्रीबलराम तथा श्रीकृष्ण का गोचारण

 

कलकंठैः कोकिलैश्च पुंस्कोकिलमयूरभृत् ।
गाश्चारयन् तत्र कृष्णो विचचार वने वने ॥ ३१ ॥
वृन्दावने मधुवने पार्श्वे तालवनस्य च ।
कुमुद्वने बाहुले च दिव्यकामवने परे ॥ ३२॥
बृहत्सानुगिरेः पार्श्वे गिरेर्नन्दीश्वरस्य च ।
सुंदरे कोकिलवने कोकिलध्वनिसंकुले ॥ ३३ ॥
रम्ये कुशवने सौम्ये लताजालसमन्विते ।
महापुण्ये भद्रवने भांडीरोपवने नृप ॥ ३४ ॥
लोहार्गले च यमुनातीरे तीरे वने वने ।
पीतवासःपरिकरो नटवेषो मनोहरः ॥ ३५ ॥
वेत्रभृद्वादयन्वंशीं गोपीनां प्रीतिमावहन् ।
मयूरपिच्छभृन्मौली स्रग्वी कृष्णो बभौ नृप ॥ ३६ ॥
अग्रे कृत्वा गवां वृन्दं सायंकाले हरिः स्वयम् ।
रागैः समीरयन्वंशीं श्रीनन्दव्रजमाविशत् ॥ ३७ ॥
वेणुवंशीध्वनिं श्रुत्वा श्रीवंशीवटमार्गतः ।
गोरजोभिर्नभो व्याप्तं वीक्ष्य गेहाद्‌विनिर्गताः ॥ ३८ ॥
दूरीकर्तुं ह्याधिबाधामाहर्तुं सुखमुत्तमम् ।
विस्मर्तुं न समर्थास्तं द्रष्टुं गोप्यः समाययुः ॥ ३९ ॥
संकोचवीथीषु न संगृहीतः
     शनैश्चलन् गोगणसंकुलासु ।
सिंहावलोको गजबाललीलै-
     र्वधूजनैः पंकजपत्रनेत्रः ॥ ४० ॥
सुमंडितं मैथिलगोरजोभि-
     र्नीलं परं कुन्तलमादधानः
हेमाङ्गदी मौलिविराजमान
     आकर्णवक्रीकृतदृष्टिबाणः ॥ ४१ ॥
गोधूलिभिर्मंडितकुन्दहारः
     कर्णोपरि स्फूर्जितकर्णिकारः ।
पीतांबरो वेणुनिनादकारः
     पातु प्रभुर्वो हृतभूरिभारः ॥ ४२ ॥

 

वहाँ मधुर कण्ठवाले नर- कोकिल और मयूर कलरव कर रहे थे। उस वन में गौएँ चराते हुए श्रीकृष्ण एक वन से दूसरे वनमें विचरा करते थे। नरेश्वर ! वृन्दावन और मधुवन में, तालवन के आस-पास कुमुदवन, बहुला वन, कामवन, बृहत्सानु और नन्दीश्वर नामक पर्वतोंके पार्श्ववर्ती प्रदेशमें, कोकिलोंकी काकलीसे कूजित सुन्दर कोकिलावनमें, लताजाल-मण्डित सौम्य तथा रमणीय कुश-वनमें, परम पावन भद्रवन, भाण्डीर उपवन, लोहार्गल तीर्थ तथा यमुनाके प्रत्येक तट और तटवर्ती विपिनोंमें पीताम्बर धारण किये, बद्धपरिकर, नटवेषधारी मनोहर श्रीकृष्ण बेंत लिये, वंशी बजाते और गोपाङ्गनाओंकी प्रीति बढ़ाते हुए बड़ी शोभा पाते थे । उनके सिरपर शिखिपिच्छका सुन्दर मुकुट तथा गलेमें वैजयन्तीमाला सुशोभित थीं ॥ ३१३६

 

संध्या के समय गोवृन्द को आगे किये अनेकानेक रागों में बाँसुरी बजाते साक्षात् श्रीहरि कृष्ण नन्दत्रज में आये। आकाशको गोरजसे व्याप्त देख श्रीवंशीवट के मार्ग से आती हुई वंशी-ध्वनि से आकुल हुई गोपियाँ श्यामसुन्दर के दर्शन के लिये घरों से बाहर निकल आयीं । अपनी मानसिक पीड़ा दूर करने और उत्तम सुख को पानेके लिये वे गोपसुन्दरियाँ श्रीकृष्णदर्शन के हेतु घरसे बाहर आ गयी थीं। उनमें श्रीकृष्णको भुला देने की शक्ति नहीं थी ॥ ३७-३९

 

श्रीनन्दनन्दन सिंह की भाँति पीछे घूमकर देखते थे। वे गजकिशोर की भाँति लीलापूर्वक मन्दगति से चलते थे। उनके नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान शोभा पाते थे । गो-समुदाय से व्याप्त संकीर्ण गलियों गें मन्द- गन्द गतिसे आते हुए श्यामसुन्दर को उस समय गोपवधूटियाँ अच्छी तरह से देख नहीं पाती थीं। मिथिलेश्वर ! गोधूलि से धूसरित उत्तम नील केशकलाप धारण किये, सुवर्णनिर्मित बाजूबंद से विभूषित, मुकुटमण्डित तथा कानतक खींचकर वक्र भाव से दृष्टिबाण का प्रहार करनेवाले, गोरज - समलंकृत, कुन्दमाला से अलंकृत, कानों में खोंसे हुए पुष्पों की आभासे उद्दीप्त, पीताम्बरधारी, वेणुवादनशील तथा भूतलका भूरि- भार हरण करनेवाले प्रभु श्रीकृष्ण आप सबकी रक्षा करें ॥ ४०–४२ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'यशोदाजीकी चिन्ता, नन्दद्वारा आश्वासन तथा दान, श्रीकृष्णकी गोचारण-लीलाका वर्णन' नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्तिका वर्णन

केचित् स्वदेहान्तर्हृदयावकाशे
    प्रादेशमात्रं पुरुषं वसन्तम् ।
चतुर्भुजं कञ्जरथाङ्गशङ्ख
    गदाधरं धारणया स्मरन्ति ॥ ८ ॥
प्रसन्नवक्त्रं नलिनायतेक्षणं
    कदंबकिञ्जल्कपिशङ्गवाससम् ।
लसन्महारत्‍नहिरण्मयाङ्गदं
    स्फुरन् महारत्‍नकिरीटकुण्डलम् ॥ ९ ॥
उन्निद्रहृत्पङ्कजकर्णिकालये
    योगेश्वरास्थापितपादपल्लवम् ।
श्रीलक्षणं कौस्तुभरत्‍नकन्धरं
    अम्लानलक्ष्म्या वनमालयाचितम् ॥ १० ॥
विभूषितं मेखलयाऽङ्गुलीयकैः
    महाधनैर्नूपुरकङ्कणादिभिः ।
स्निग्धामलाकुञ्चितनीलकुन्तलैः
    विरोचमानाननहासपेशलम् ॥ ११ ॥

कोई-कोई साधक अपने शरीरके भीतर हृदयाकाश में विराजमान भगवान्‌ के प्रादेशमात्र स्वरूपकी धारणा करते हैं। वे ऐसा ध्यान करते हैं कि भगवान्‌ की चार भुजाओंमें शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म हैं ॥ ८ ॥ उनके मुखपर प्रसन्नता झलक रही है। कमलके समान विशाल और कोमल नेत्र हैं। कदम्बके पुष्पकी केसरके समान पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं। भुजाओंमें श्रेष्ठ रत्नोंसे जड़े हुए सोनेके बाजूबंद शोभायमान हैं। सिरपर बड़ा ही सुन्दर मुकुट और कानों में कुण्डल हैं, जिनमें जड़े हुए बहुमूल्य रत्न जगमगा रहे हैं ॥ ९ ॥ उनके चरण-कमल योगेश्वरोंके खिले हुए हृदयकमल की कर्णिका पर विराजित हैं। उनके हृदयपर श्रीवत्स का चिह्न—एक सुनहरी रेखा है। गले में कौस्तुभ- मणि लटक रही है। वक्ष:स्थल कभी न कुम्हलानेवाली वनमाला से घिरा हुआ है ॥ १० ॥ वे कमरमें करधनी, अँगुलियों में बहुमूल्य अँगूठी, चरणोंमें नूपुर और हाथोंमें कंगन आदि आभूषण धारण किये हुए हैं। उनके बालोंकी लटें बहुत चिकनी, निर्मल, घुँघराली और नीली हैं। उनका मुख-कमल मन्द-मन्द मुसकान से खिल रहा है ॥ ११ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 9 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दसवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

दसवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

 

यशोदाजी की चिन्ता; नन्दद्वारा आश्वासन तथा ब्राह्मणों को विविध प्रकार के दान देना; श्रीबलराम तथा श्रीकृष्ण का गोचारण

 

काश्चित्पीता विचित्राश्च श्यामाश्च हरितास्तथा ।
ताम्रा धूम्रा घनश्यामा घनश्यामे गतेक्षणाः ॥ २२ ॥
लघुशृङ्ग्यो दीर्घशृङ्ग्य उच्चशृङ्ग्यो वृषैः सह ।
मृगशृङ्ग्यो वक्रशृङ्ग्यः कपिला मंगलायनाः ॥ २३ ॥
शाद्वलं कोमलं कान्तं वीक्षन्त्योऽपि वने वने ।
कोटिशः कोटिशो गावश्चरन्त्यः कृष्णपार्श्वयोः ॥ २४ ॥
पुण्यं श्रीयमुनातीरं तमालैः श्यामलैर्वनम् ।
नीपैर्निम्बैः कदम्बैश्च प्रवालैः पनसैर्द्रुमैः ॥ २५ ॥
कदलीकोविदाराम्रैः जम्बुबिल्वैर्मनोहरैः ।
अश्वत्थैश्च कपित्थैश्च माधवीभिश्च मंडितम् ॥२६ ॥
बभौ वृन्दावनं दिव्यं वसन्तर्तुमनोहरम् ।
नन्दनं सर्वतोभद्रं क्षिपच्चैत्ररथं वनम् ॥ २७॥
यत्र गोवर्धनो नाम सुनिर्झरदरीयुतः ।
रत्‍नधातुमयः श्रीमान् मन्दारवनसंकुलः ॥ २८ ॥
श्रीखंडबदरीरंभा देवदारुवटैर्वृतः ।
पलाशप्लक्षाशोकैश्चारिष्टार्जुनकदम्बकैः ॥ २९ ॥
पारिजातैः पाटलैश्च चंपकैः परिशोभितः ।
करंजजालकुञ्जाढ्यः श्यामैरिन्द्रयवैर्वृतः ॥ ३० ॥

कोई पीली, कोई चितकबरी, कोई श्यामा, कोई हरी, कोई ताँबेके समान रंगवाली, कोई धूमिलवर्णकी और कोई मेघोंकी घटा-जैसी नीली थीं । उन सबके नेत्र घनश्याम श्रीकृष्णकी ओर लगे रहते थे। किन्हीं गौओं और बैलों के सींग छोटे, किन्हीं के बड़े तथा किन्हीं के ऊँचे थे। कितनों के सींग हिरनों के से थे और कितनोंके टेढ़े-मेढ़े। वे सब गौएँ कपिला तथा मङ्गलकी धाम थीं। वन-वनमें कोमल कमनीय घास खोज खोजकर चरती हुई कोटि-कोटि गौएँ श्रीकृष्णके उभय पार्श्वों में विचरती थीं ॥ २२-२४

 

यमुना का पुण्य- पुलिन तथा उसके निकट श्याम तमालों से सुशोभित वृन्दावन नीप कदम्ब, नीम, अशोक, प्रवाल, कटहल, कदली, कचनार, आम, मनोहर जामुन, बेल, पीपल और कैथ आदि वृक्षों तथा माधवी लताओंसे मण्डित था ॥ २५-२६

 

वसन्त ऋतु के शुभागमन से मनोहर वृन्दावन की दिव्य शोभा हो रही थी। वह देवताओं के नन्दनवन - सा आनन्दप्रद और सर्वतोभद्र वन-सा सब ओरसे मङ्गलकारी जान पड़ता था। उसने (कुबेर के) चैत्ररथ वन की शोभा को तिरस्कृत कर दिया था। वहाँ झरनों और कंदराओं से संयुक्त रत्नधातुमय श्रीमान् गोवर्धन पर्वत शोभा पाता था । वहाँ का वन पारिजात या मन्दार के वृक्षों से व्याप्त था । वह चन्दन, बेर, कदली, देवदार, बरगद, पलास, पाकर, अशोक, अरिष्ट (रीठा), अर्जुन, कदम्ब, पारिजात, पाटल तथा चम्पाके वृक्षोंसे सुशोभित था । श्याम वर्णवाले इन्द्रयव नामक वृक्षोंसे घिरा हुआ वह वन करञ्ज-जालसे विलसित कुञ्जोंसे सम्पन्न था ॥ २७-३०

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) ध्रुवका वन-गमन मैत्रेय उवाच - मातुः सपत्न्याःा स दुर...