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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पंद्रहवाँ
अध्याय ( पोस्ट 02 )
श्रीराधाका गवाक्षमार्गसे
श्रीकृष्णके रूपका दर्शन करके प्रेम-विह्वल होना; ललिताका श्रीकृष्णसे राधाकी दशाका
वर्णन करना और उनकी आज्ञाके अनुसार लौटकर श्रीराधाको श्रीकृष्ण-प्रीत्यर्थ सत्कर्म
करनेकी प्रेरणा देना
श्रीनारद
उवाच -
अथ सख्यौ व्यलिखतां चित्रं नंदशिशोः शुभम् ।
नवयौवनमाधुर्यं राधायै ददतुस्त्वरम् ॥ १२ ॥
तद्दृष्ट्वा हर्षिता राधा कृष्णदर्शनलालसा ।
चित्रं करे प्रपश्यन्ती सुष्वापानंदसंकुला ॥ १३ ॥
ददर्श कृष्णं भवने शयाना
नृत्यन्तमाराद्वृषभानुपुत्री ॥ १४ ॥
तदैव राधा शयनात्समुत्थिता
परस्य कृष्णस्य वियोगविह्वला ।
संचिन्तयन्ती कमनीयरूपिणं
मेने त्रिलोकीं तृणवद्विदेहराट् ॥
१५ ॥
तर्ह्याव्रजन्तं स्ववनाद्व्रजेश्वरं
संकोचवीथ्यां वृषाभानुपत्तने ।
गवाक्षमेत्याशु सखीप्रदर्शितं
दृष्ट्वा तु मूर्च्छां समवाप सुंदरी
॥ १६ ॥
कृष्णोऽपि दृष्ट्वा वृषभानुनन्दिनीं
सुरूपकौशल्ययुतां गुणाश्रयाम् ।
कुर्वन्मनो रन्तुमतीव माधवो
लीलातनुः स प्रययौ स्वमन्दिरम् ॥ १७
॥
एवं ततः कृष्णवियोगविह्वलां
प्रभूतकामज्वरखिन्नमानसाम् ।
संवीक्ष्य राधां वृषभानुनन्दिनीं
उवाच वाचं ललिता सखी वरा ॥ १८ ॥
ललितोवाच -
कथं त्वं विह्वला राधे मूर्च्छिताऽतिव्यथां गता ।
यदीच्छसि हरिं सुभ्रु तस्मिन् स्नेहं दृढं कुरु ॥ १९ ॥
लोकस्यापि सुखं सर्वमधिकृत्यास्ति सांप्रतम् ।
दुःखाग्निहृत्प्रदहति कुंभकाराग्निवत् शुभे ॥ २० ॥
श्रीनारद उवाच -
ललितायाश्च ललितं वचं श्रुत्वा व्रजेश्वरी ।
नेत्रे उन्मील्य ललितां प्राह गद्गदया गिरा ॥ २१ ॥
राधोवाच -
व्रजालंकारचरणौ न प्राप्तौ यदि मे किल ।
कदचिद्विग्रहं तर्हि न हि स्वं धारयाम्यहम् ॥ २२ ॥
नारदजी कहते हैं- तब
दोनों सखियों ने नन्द- नन्दन का सुन्दर
चित्र बनाया, जिसमें नूतन यौवन का माधुर्य भरा था। वह चित्र उन्होंने
तुरंत श्रीराधाके हाथमें दिया । वह चित्र देखकर श्रीराधा हर्षसे खिल उठीं और उनके हृदयमें
श्रीकृष्णदर्शनकी लालसा जाग उठी । हाथमें रखे हुए चित्रको निहारती हुई वे आनन्दमग्न
होकर सो गयीं । भवनमें सोती हुई श्रीराधाने स्वप्न में देखा – 'यमुनाके 'यमुनाके किनारे भाण्डीरवनके एक देशमें नीलमेघकी-सी
कान्तिवाले पीतपटधारी श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण मेरे निकट ही नृत्य कर रहे हैं ॥ १२-१४ ॥
' विदेहराज ! उसी समय
श्रीराधाकी नींद टूट गयी और वे शय्यासे उठकर, परमात्मा श्रीकृष्णके वियोगसे विह्वल
हो, उन्हींके कमनीय रूपका चिन्तन करती हुई त्रिलोकीको तृणवत् मानने लगीं। इतने में
ही व्रजेश श्रीनन्दनन्दन अपने भवनसे चलकर वृषभानुनगरकी साँकरी गलीमें आ गये। सखीने
तत्काल खिड़कीके पास आकर श्रीराधाको उनका दर्शन कराया। उन्हें देखते ही सुन्दरी श्रीराधा
मूच्छित हो गयीं ॥ १५-१६ ॥ लीलासे मानव शरीर धारण करनेवाले माधव
श्रीकृष्ण भी सुन्दर रूप और वैदग्ध्यसे युक्त गुणनिधि श्रीवृषभानुनन्दिनी का दर्शन करके मन-ही- मन उनके साथ विहार की अत्यधिक
कामना करते हुए अपने भवनको लौटे। वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाको इस प्रकार श्रीकृष्ण-वियोगसे
विह्वल तथा अतिशय कामज्वरसे संतप्तचित्त देखकर सखियों में श्रेष्ठ ललिताने उनसे इस
प्रकार कहा । १७ – १८ ॥
ललिताने पूछा- राधे
! तुम क्यों इतनी विह्वल मूच्छित (बेसुध) और अत्यन्त व्यथित हो ? सुन्दरी ! यदि श्रीहरिको
प्राप्त करना चाहती हो तो उनके प्रति अपना स्नेह दृढ़ करो। वे इस समय त्रिलोकीके भी
सम्पूर्ण सुखपर अधिकार किये बैठे हैं। शुभे । वे ही दुःखानिकी ज्वालाको बुझा सकते हैं।
उनकी उपेक्षा पैरोंसे ठुकरायी हुई कुम्हारके आँवेंकी अग्निके समान दाहक होगी । १९-२०
॥
नारदजी कहते हैं- राजन्
! ललिताकी यह ललित बात सुनकर व्रजेश्वरी श्रीराधाने आँखें खोलीं और अपनी उस प्रिय सखीसे
वे गद्गद वाणीमें यों बोलीं ॥ २१ ॥
राधाने कहा- सखी! यदि
मुझे व्रजभूषण श्यामसुन्दरके चरणारविन्द नहीं प्राप्त हुए तो मैं कदापि अपने शरीरको
नहीं धारण करूंगी - यह मेरा निश्चय है ।। २२ ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से