गुरुवार, 1 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

श्रीकृष्ण के द्वारा गोपदेवीरूप से श्रीराधा के प्रेम की परीक्षा तथा

श्रीराधा को श्रीकृष्णका दर्शन


गोपदेवतोवाच -
राधे व्रजन्सानुगिरेस्तटीषु
     संकोचवीथीषु मनोहरासु ।
यान्तीं स्वतो मां दधिविक्रयार्थं
     रुरोध मार्गे नवनन्दपुत्रः ॥ १४ ॥
वंशीधरो वेत्रकरः करे मां
     त्वरं गृहीत्वा प्रसहन्विलज्जः ।
मह्यं करादानधनाय दानं
     देहीति जल्पन्विपिने रसज्ञः ॥ १५ ॥
तुभ्यं न दास्यामि कदापि दानं
     स्वयंभुवे गोरसलंपटाय ।
एवं मयोक्ते वचनेऽथ भाण्डं
     नीत्वा विशीर्णीकृतवान् स दध्नः ॥ १६ ॥
भाण्डं स भित्त्वा दधि किं च पीत्वा
     नीत्वोत्तरीयं मम चेदुरीयम् ।
नन्दीश्वराद्रेर्विदिशं जगाम
     तेनाहमाराद्‌विमनाः स्म जाता ॥ १७ ॥
जात्या स गोपः किल कृष्णवर्णो
     ऽधनी न वीरो न हि शीलरूपः ।
यस्मिंस्त्वया प्रेम कृतं सुशीले
     त्यजाशु निर्मोहनमद्य कृष्णम् ॥ १८ ॥
इत्थं सवैरं परुषं वचस्तत्
     श्रुत्वा च राधा वृषभानुनन्दिनी ।
सुविस्मिता वाक्यपदे सरस्वती
     पदं स्मयन्ती निजगाद तां प्रति ॥ १९ ॥


राधोवाच -
यत्प्राप्तये विधिहरप्रमुखास्तपन्ति
     वह्नौ तपः परमया निजयोगरीत्या ।
दत्तः शुकः कपिल आसुरिरंगिरा
     यत्पादारविन्दमकरन्दरजः स्पृशन्ति ॥ २० ॥
तं कृष्णमादिपुरुषम् परिपूर्णदेवम्
     लीलावतारमजमार्तिहरं जनानाम् ।
भूभूरिभारहरणाय सतां शुभाय
     जातं विनिन्दसि कथं सखि दुर्विनीते ॥ २१ ॥
गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां च
     गंगां स्पृशन्ति च जपंति गवां सुनाम्नाम् ।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च
     जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः ॥ २२ ॥
तत्कृष्णवर्णविलसत्सुकलां समीक्ष्य
     तस्मिन्विलग्नमनसा सुसुखं विहाय ।
उन्मत्तवद्‌व्रजति धावति नीलकण्ठो
     बिभ्रत्कपर्दविषभस्मकपालसर्पान् ॥ २३ ॥
स्वर्लोकसिद्धमुनियक्ष मरुद्‌गणानां
     पालाः समस्तनरकिन्नरनागनाथाः ।
यत्पादपद्ममनिशं प्रणिपत्य भक्त्या
     लब्धश्रियः किल बलिं प्रददुः स्म तस्मै ॥ २४ ॥
वत्साघकालियबकार्जुनधेनुकाना-
     माचक्रवातशकटासुरपूतनानाम् ।
एषां वधः किमुत तस्य यशो मुरारे-
     र्यः कोटिशोऽण्डनिचयोद्‌भवनाशहेतुः ॥ २५ ॥
भक्तात्प्रियो न विदितः पुरुषोत्तमस्य
     शंभुर्व्हिधिर्न च रमा न च रौहिणेयः ।
भक्ताननुव्रजति भक्ति निबद्ध चित्तः
     चुडामणिः सकललोकजनस्य कृष्णः ॥ २६ ॥
गच्छन्निजं जनमनुप्रपुनाति लोका-
     नावेदयन् हरिजने स्वरुचिं महात्मा ।
तस्मादतीव भजतां भगवान् मुकुन्दो
     मुक्तिं ददाति न कदापि सुभक्तियोगम् ॥ २७ ॥

 

गोपदेवीने कहा- राधे ! वरसानुगिरिकी घाटियोंमें जो मनोहर साँकरी गली है, उसीसे होकर मैं स्वयं दही बेचने जा रही थी। इतनेमें नन्दजीके नवतरुण कुमार श्यामसुन्दरने मुझे मार्गमें रोक लिया। उनके हाथमें वंशी और बेंतकी छड़ी थी। उन रसिकशेखरने लाजको तिलाञ्जलि दे, तुरंत मेरा हाथ पकड़ लिया और जोर-जोर से हँसते हुए, उस एकान्त वनमें वे इस प्रकार कहने लगे- 'सुन्दरी ! मैं कर लेनेवाला हूँ । अतः तू मुझे करके रूपमें दहीका दान दे।' मैंने कहा - 'चलो, हटो। अपने-आप कर लेनेवाले बने हुए तुम जैसे गोरस- लम्पटको मैं कदापि दान नहीं दूँगी।' मेरे इतना कहते ही उन्होंने सिरपरसे दहीका मटका उतार लिया और उसे फोड़ डाला । मटका फोड़कर थोड़ी-सी दही पीकर मेरी चादर उतार ली और नन्दीश्वर गिरिकी ईशानकोणवाली दिशाकी ओर वे चल दिये। इससे मैं बहुत अनमनी हो रही हूँ । जातका ग्वाला, काला-कलूटा रंग, न धनवान् न वीर, न सुशील और न सुरूप ? सुशीले! ऐसे पुरुषके प्रति तुमने प्रेम किया, यह ठीक नहीं। मैं कहती हूँ, तुम आजसे शीघ्र ही उस निर्मोही कृष्णको मनसे निकाल दो (उसे सर्वथा त्याग दो) । इस प्रकार वैरभावसे युक्त कठोर वचन सुनकर वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाको बड़ा विस्मय हुआ। वे वाक्य और पदोंके प्रयोगके सम्बन्धमें सरस्वतीके चरणोंका स्मरण करती हुई उनसे बोलीं- ॥ १४–१९ ॥

श्रीराधाने कहा- सखी! जिनकी प्राप्तिके लिये ब्रह्मा और शिव आदि देवता अपनी उत्कृष्ट योगरीति से पञ्चाग्निसेवनपूर्वक तप करते हैं; दत्तात्रेय, शुक, कपिल, आसुरि और अङ्गिरा आदि भी जिनके चरणारविन्दोंके मकरन्द और परागका सादर स्पर्श करते हैं; उन्हीं अजन्मा, परिपूर्ण देवता, लीलावतारधारी, सर्वजन दुःखहारी, भूतल - भूरि-भार- हरणकारी तथा सत्पुरुषोंके कल्याणके लिये यहाँ प्रकट हुए आदिपुरुष श्रीकृष्णकी निन्दा कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ग्वाले सदा गौओंका पालन करते हैं, गोरजकी गङ्गामें नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओंके उत्तम नामोंका जप करते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओंके सुन्दर मुखका दर्शन होता है। मेरी समझमें तो इस भूतलपर गोप-जातिसे बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है। तुम उसे काला कलूटा बताती हो; किंतु उन श्यामसुन्दर श्रीकृष्णकी श्याम विभासे विलसित सुन्दर कलाका दर्शन करके उन्हींमें मन लग जानेके कारण भगवान् नीलकण्ठ औरोंके सुन्दर मुखको छोड़कर जटाजूट, हलाहल विष, भस्म, कपाल और सर्प धारण किये उस काले-कलूटेके लिये ही पागलोंकी भाँति व्रजमें दौड़ते फिरते हैं ॥ २०-२३

स्वर्गलोक, सिद्ध, मुनि, यक्ष और मरुद्गणोंके पालक तथा समस्त नरों, किंनरों और नागोंके स्वामी भी निरन्तर भक्तिभावसे जिनके चरणारविन्दोंमें प्रणिपात करके उत्कृष्ट लक्ष्मी एवं ऐश्वर्यको पाकर निश्चय ही उन्हें बलि (कर) समर्पित किया करते हैं, उनको तुम निर्धन कहती हो ? वत्सासुर, अघासुर, कालियनाग, बकासुर, यमलार्जुन वृक्ष, तृणावर्त, शकटासुर और पूतना आदिका वध (सम्भवतः तुम्हारी दृष्टिमें उनकी वीरताका परिचायक नहीं है ! मेरा भी ऐसा ही मत है।) उन मुरारिके लिये क्या यश देनेवाला हो सकता है, जो कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड समूहोंके एकमात्र स्रष्टा और संहारक हैं ? उन पुरुषोत्तमके लिये भक्तसे बढ़कर कोई प्रिय हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता । शंकर, ब्रह्मा, लक्ष्मी तथा रोहिणीनन्दन बलरामजी भी उनके लिये भक्तोंसे अधिक प्रिय नहीं हैं। वे भक्तिसे बद्धचित्त होकर भक्तोंके पीछे-पीछे चलते हैं। अतः श्रीकृष्ण केवल सुशील ही नहीं, समस्त लोकोंके सुजन-समुदायके चूडामणि हैं। वे भक्तोंके पीछे चलते हुए अपने रोम-रोममें स्थित लोकोंको पवित्र करते रहते हैं। वे परमात्मा अपने भक्तजनोंके प्रति सदा ही अभिरुचि सूचित करते रहते हैं । अतः अत्यन्त भजन करनेवालोंको भगवान् मुकुन्द मुक्ति तो अनायास दे देते हैं, किंतु उत्तम भक्तियोग कदापि नहीं देते; क्योंकि उन्हें भक्तिके बन्धनमें बँधे रहना पड़ता है ॥ २ - २७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट ०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०६)

राजाका सृष्टिविषयक प्रश्न और शुकदेवजी का कथारम्भ

यदङ्घ्र्यभिध्यानसमाधिधौतया
    धियानुपश्यन्ति हि तत्त्वमात्मनः ।
वदन्ति चैतत् कवयो यथारुचं
    स मे मुकुंदो भगवान् प्रसीदताम् ॥ २१ ॥
प्रचोदिता येन पुरा सरस्वती
    वितन्वताऽजस्य सतीं स्मृतिं हृदि ।
स्वलक्षणा प्रादुरभूत् किलास्यतः
    स मे ऋषीणां ऋषभः प्रसीदताम् ॥ २२ ॥
भूतैर्महद्‌भिर्य इमाः पुरो विभुः
    निर्माय शेते यदमूषु पूरुषः ।
भुङ्क्ते गुणान् षोडश षोडशात्मकः
    सोऽलङ्कृषीष्ट भगवान् वचांसि मे ॥ २३ ॥
नमस्तस्मै भगवते वासुदेवाय वेधसे ।
पपुर्ज्ञानमयं सौम्या यन्मुखाम्बुरुहासवम् ॥ २४ ॥
एतद् एवात्मभू राजन् नारदाय विपृच्छते ।
वेदगर्भोऽभ्यधात् साक्षाद् यदाह हरिरात्मनः ॥ २५ ॥

विद्वान् पुरुष जिनके चरणकमलोंके चिन्तनरूप समाधिसे शुद्ध हुई बुद्धिके द्वारा आत्मतत्त्वका साक्षात्कार करते हैं तथा उनके दर्शनके अनन्तर अपनी-अपनी मति और रुचिके अनुसार जिनके स्वरूपका वर्णन करते रहते हैं, वे प्रेम और मुक्तिके लुटानेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हों ॥ २१ ॥ जिन्होंने सृष्टिके समय ब्रह्माके हृदयमें पूर्वकल्पकी स्मृति जागरित करनेके लिये ज्ञानकी अधिष्ठात्री देवीको प्रेरित किया और वे अपने अङ्गोंके सहित वेदके रूपमें उनके मुखसे प्रकट हुर्ईं, वे ज्ञानके मूलकारण भगवान्‌ मुझपर कृपा करें, मेरे हृदयमें प्रकट हों ॥ २२ ॥ भगवान्‌ ही पञ्चमहाभूतोंसे इन शरीरोंका निर्माण करके इनमें जीवरूपसे शयन करते हैं और पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच प्राण और एक मन—इन सोलह कलाओंसे युक्त होकर इनके द्वारा सोलह विषयोंका भोग करते हैं। वे सर्वभूतमय भगवान्‌ मेरी वाणीको अपने गुणोंसे अलङ्कृत कर दें ॥ २३ ॥ संत पुरुष जिनके मुखकमलसे मकरन्दके समान झरती हुई ज्ञानमयी सुधाका पान करते रहते हैं उन वासुदेवावतार सर्वज्ञ भगवान्‌ व्यासके चरणोंमें मेरा बार-बार नमस्कार है ॥ २४ ॥
परीक्षित्‌ ! वेदगर्भ स्वयम्भू ब्रह्माने नारदके प्रश्न करनेपर यही बात कही थी, जिसका स्वयं भगवान्‌ नारायण ने उन्हें उपदेश किया था (और वही मैं तुमसे कह रहा हूँ) ॥ २५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 31 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

श्रीकृष्ण के द्वारा गोपदेवीरूप से श्रीराधा के प्रेम की परीक्षा तथा

श्रीराधा को श्रीकृष्णका दर्शन


श्रीनारद उवाच -
अथ रात्र्यां व्यतीतायां मायायोषिद्‌वपुर्हरिः ।
राधादुःखप्रशान्त्यर्थं वृषभानोर्गृहं ययौ ॥ १ ॥
राधा तमागतं वीक्ष्य समुत्थायातिहर्षिता ।
दत्तासुना विधानेन पूजयामास मैथिल ॥ २ ॥


श्रीराधोवाच -
त्वया विनाऽहं निशि दुःखिताऽऽसं
     त्वय्यागतायां सखि लब्धवस्तुवत् ।
पूर्वं ह्यपथ्यस्य सुखं यथा ततो
     दुःखं तथा भामिनि मत्प्रसंगतः ॥ ३ ॥


श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वाऽथ तद्वाक्यं विमना गोपदेवता ।
न किंचिदूचे श्रीराधां दुःखितेव व्यवस्थिता ॥ ४ ॥
विज्ञाय खेदसंपन्नां राधिकां गोपदेवताम् ।
सखीभिः संविचार्याथ जगाद स्नेहतत्परा ॥ ५ ॥


राधोवाच -
विमनास्त्वं कथं भद्रे वद मां गोपदेवते ।
मात्रा भर्त्रा ननांद्रा वा श्वश्र्वा क्रोधेन भर्त्सिता ॥ ६ ॥
सपत्‍नीकृतदोषेण स्वभर्तुर्विरहेण वा ।
अन्यत्र लग्नचित्तेन विमनाः किं मनोहरे ॥ ७ ॥
मार्गखेदेन वा कच्चिद्‌विह्वलाऽभूद्रुजाऽथवा ।
शीघ्रं वद महाभागे स्वस्य दुःखस्य कारणम् ॥ ८ ॥
कृष्णभक्तमृते विप्रं येन केनापि कुत्सितम् ।
कथितं तेऽथ रंभोरु तच्चिकित्सां करोम्यहम् ॥ ९ ॥
गजाश्वादीनि रत्‍नानि वस्त्राणि च धनानि च ।
मन्दिराणि विचित्राणि गृहाण त्वं यदीच्छसि ॥ १० ॥
धनं दत्त्वा तनुं रक्षेत्तनुं दत्त्वा त्रपां व्यधात् ।
धनं तनुं त्रपां दद्यान्मित्रकार्यार्थमेव हि ।
धनं दत्त्वा च सततं रक्षेत्प्राणान्निरन्तरम् ॥ ११ ॥
यो मित्रतां निष्कपटं करोति
     निष्कारणमं धन्यतमं स एव ।
विधाय मैत्रीं कपटं विदध्या-
     त्तं लंपटं हेतुपटं नटं धिक् ॥ १२ ॥
तस्याः प्रेमवचः श्रुत्वा भगवान् गोपदेवता ।
प्रहसन्नाह राजेन्द्र श्रीराधां कीर्तिनन्दिनीम् ॥ १३ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! तदनन्तर रात व्यतीत होनेपर मायासे नारीका रूप धारण करनेवाले श्रीहरि श्रीराधाका दुःख शान्त करनेके लिये वृषभानु-भवनमें गये। उन्हें आया देखकर श्रीराधा उठकर बड़े हर्षके साथ भीतर लिवा ले गयीं और आसन देकर विधि विधानके साथ उनका पूजन किया ॥ १-२ ॥

श्रीराधा बोलीं- सखी! तुम्हारे बिना मैं रातभर बहुत दुःखी रही और तुम्हारे आ जानेसे मुझे इतनी प्रसन्नता हुई है, मानो कोई खोयी हुई वस्तु मिल गयी हो । जैसे कुपथ्य- सेवनसे पहले तो सुख मालूम होता है, किंतु पीछे दुःख भोगना पड़ता है, इसी तरह सत्सङ्गसे भी पहले सुख होता है और पीछे वियोगका दुःख उठाना पड़ता है ॥ ३ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! श्रीराधाकी यह बात सुनकर गोपदेवी अनमनी हो गयीं। वे श्रीराधासे कुछ भी नहीं बोलीं । किसी दुःखिनीकी भाँति चुपचाप बैठी रहीं । गोपदेवीको खिन्न जानकर श्रीराधिकाने सखियोंके साथ विचार करके, स्नेहतत्पर हो, इस प्रकार कहा ।। ४-५ ॥

श्रीराधा बोलीं- गोपदेवि ! तुम अनमनी क्यों हो गयीं ? कल्याणि ! मुझे इसका कारण बताओ। माता, पति, ननद अथवा सासने कुपित होकर तुम्हें फटकारा तो नहीं है ? मनोहरे ! किसी सौतके दोषसे या अपने पतिके वियोगसे अथवा अन्यत्र चित्त लग जानेसे तो तुम्हारा मन खिन्न नहीं हुआ है ? क्या कारण है ? महाभागे ! रास्ता चलनेकी थकावटसे या शरीरमें कोई रोग हो जानेसे तो तुम्हें खेद नहीं हुआ है ? अपने दुःखका कारण शीघ्र बताओ । रम्भोरु ! किसी कृष्ण- भक्त या ब्राह्मणको छोड़कर दूसरे जिस किसीने भी तुमसे कोई कुत्सित बात कह दी हो तो मैं उसकी चिकित्सा करूँगी (उसे दण्ड दूँगी) । यदि तुम्हारी इच्छा हो तो हाथी, घोड़े आदि वाहन, नाना प्रकारके रत्न, वस्त्र, धन और विचित्र भवन मुझसे ग्रहण करो ।

धन देकर शरीरकी रक्षा करे, शरीरका भी उत्सर्ग करके लाजकी रक्षा करे तथा मित्रके कार्यकी सिद्धिके लिये तन, धन और लज्जाको भी अर्पित कर दे। धन देकर निरन्तर प्राणोंकी रक्षा करे। जो बिना किसी कारण या कामनाके निश्छल भावसे मित्रताका निर्वाह करता है, वही मनुष्य परम धन्य है । जो मैत्री स्थापित करके कपट करता है, उस स्वार्थ-साधनमें पटु लम्पट नटको धिक्कार है। राजेन्द्र ! उनका यह प्रेमपूर्ण वचन सुनकर गोपदेवीके रूपमें आये हुए भगवान् उन कीर्तिनन्दिनी श्रीराधासे हँसते हुए बोले ।। ६–१३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



मंगलवार, 30 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

श्रीकृष्ण का गोपदेवी के रूप से वृषभानु-भवन में जाकर श्रीराधा से मिलना

 

श्रीनारद उवाच -
एवं राधावचः श्रुत्वा मायायुवतिवेषधृक् ।
उवाच भगवान् कृष्णो राधां कमललोचनाम् ॥ ३० ॥


श्रीभगवानुवाच -
रम्भोरु नन्दनगरे नन्दगेहस्य चोत्तरे ।
गोकुले वसतिर्मेऽस्ति नाम्नाऽहं गोपदेवता ॥ ३१ ॥
त्वद्‌रूपगुणमाधुर्यं श्रुतं मे ललितामुखात् ।
तद्‌द्रष्टुं चंचलापाङ्‌गि त्वद्‌गृहेऽहं समागता ॥ ३२ ॥
श्रीमल्लवंगलतिकास्फुटमोदिनीनां
     गुञ्जानिकुञ्जमधुप- ध्वनिकुञ्जपुञ्जम् ।
दृष्टं श्रुतं नवनवं तव कंजनेत्रे
     दिव्यं पुरंदरपुरेऽपि न यत्समानम् ॥ ३३ ॥


श्रीनारद उवाच -
एवं तयोर्मेलनं तद्‌बभूव मिथिलेश्वर ।
प्रीतिं परस्परं कृत्वा वने तत्र विरेजतुः ॥ ३४ ॥
हसन्त्यौ ते च गायन्त्यौ पुष्पकन्दुकलीलया ।
पश्यन्त्यौ वनवृक्षांश्च चेरतुर्मैथिलेश्वर ॥ ३५ ॥
कलाकौशल संपन्नां राधां कमललोचनाम् ।
गिरा मधुरया राजन् प्राहेदं गोपदेवता ॥ ३६ ॥


गोपदेवतोवाच -
दूरे वै नन्दनगरं सन्ध्या जाता व्रजेश्वरि ।
प्रभाते चागमिष्यामि त्वत्सकाशं न संशयः ॥ ३७ ॥


श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा वचस्तस्य तु तद्‌व्रजेश्वरीं
     निक्षिप्य सद्यो नयनांबुसन्ततिम् ।
रोमांचहर्षोद्‌गमभावसंवृता
     रंभेव भूमौ पतिता मरुद्धता ॥ ३८ ॥
शंकागतास्तत्र सखीगणास्त्वरं
     सुवीजयन्त्यो व्यजनैर्व्यवस्थिताः ।
श्रीखण्डपुष्प द्रवचर्चितांऽशुकां
     जगाद राधां नृप गोपदेवता ॥ ३९ ॥


गोपदेवतोवाच -
प्रभाते आगमिष्यामि मा शोकं कुरु राधिके ।
गोश्च भ्रातुर्गोरसस्य शपथो मे न चेदिदम् ॥ ४० ॥


श्रीनारद उवाच -
एवमुक्त्वा हरी राधां समाश्वास्य नृपेश्वर ।
मायायुवतिवेषोऽसौ ययौ श्रीनन्दगोकुलम् ॥ ४१ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर मायासे युवतीका वेष धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने कमलनयनी राधासे इस प्रकार कहा- ॥ ३० ॥

श्रीभगवान् बोले – रम्भोरु ! नन्दनगर गोकुलमें नन्दभवनसे उत्तर दिशामें मेरा निवास है । मेरा नाम 'गोपदेवी' है। मैंने ललिताके मुखसे तुम्हारी रूप- माधुरी और गुण-माधुरीका वर्णन सुना है; अतः चञ्चल लोचनोंवाली सुन्दरी ! मैं तुम्हें देखनेके लिये यहाँ तुम्हारे घरमें चली आयी हूँ । कमललोचने ! जहाँ ललित लवङ्गलता की सुस्पष्ट सुगन्ध छा रही है, जहाँके गुञ्जा निकुञ्ज में मधुपोंकी मधुर ध्वनिसे युक्त कंजपुष्प खिल रहे हैं, वह श्रुतिपथमें आया हुआ तुम्हारा नित्य- नूतन दिव्य नगर आज अपनी आँखों देख लिया । इसके समान सुन्दर तो देवराज इन्द्रकी पुरी अमरावती भी नहीं होगी ।। ३१–३३ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! इस प्रकार दोनों प्रिया-प्रियतम का मिलन हुआ। वे परस्पर प्रीतिका परिचय देते हुए वहाँ उपवनमें शोभा पाने लगे । पुष्पमय कन्दुक (गेंद) के खेल खेलते हुए वे दोनों हँसते और गीत गाते थे। वनके वृक्षोंको देखते हुए वे इधर-उधर विचरने लगे । राजन् ! कला- कौशलसे सम्पन्न कमललोचना राधाको सम्बोधित करके गोपदेवीने मधुर वाणीसे कहा || ३४ – ३६॥

गोपदेवी बोली - व्रजेश्वरि ! नन्दनगर यहाँसे दूर है और अब संध्या हो गयी है, अतः जाती हूँ । कल प्रातः काल तुम्हारे पास आऊँगी, इसमें संशय नहीं है ॥ ३७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! गोपदेवीकी यह बात सुनकर व्रजेश्वरी श्रीराधाके नयनोंसे तत्काल आँसुओंकी धारा बह चली। वे रोमाञ्च तथा हर्षोद्गमके भावसे आवृत हो कटे हुए कदलीवृक्षकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ीं। यह देख वहाँ सखियाँ सशङ्क हो गयीं और तुरंत व्यजन लेकर, पास खड़ी हो, हवा करने लगीं। उनके वस्त्रोंपर चन्दन-पुष्पोंके इत्र छिड़के गये । उस समय गोपदेवीने श्रीराधासे कहा ।। ३८-३९ ॥

गोपदेवी बोली- राधिके ! मैं प्रातः काल अवश्य आऊँगी तुम चिन्ता न करो। यदि ऐसा न हो तो मुझे गाय, गोरस और अपने भाईकी सौगन्ध है ॥ ४० ॥

नारदजी कहते हैं— नृपेश्वर ! यों कहकर मायासे युवतीका वेष धारण करनेवाले श्रीहरि राधाको धीरज बँधा- कर श्रीनन्दगोकुल (नन्दगाँव) में चले गये ॥ ४१ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'श्रीराधा-कृष्ण-संगम' नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट ०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०५)

राजाका सृष्टिविषयक प्रश्न और शुकदेवजी का कथारम्भ

तपस्विनो दानपरा यशस्विनो
    मनस्विनो मंत्रविदः सुमङ्गलाः ।
क्षेमं न विन्दन्ति विना यदर्पणं
    तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥ १७ ॥
किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कशा
    आभीरकङ्का यवनाः खसादयः ।
येऽन्ये च पापा यदपाश्रयाश्रयाः
    शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः ॥ १८ ॥
स एष आत्मात्मवतामधीश्वरः
    त्रयीमयो धर्ममयस्तपोमयः ।
गतव्यलीकैरजशङ्करादिभिः
    वितर्क्यलिङ्गो भगवान्प्रसीदताम् ॥ १९ ॥
श्रियः पतिर्यज्ञपतिः प्रजापतिः
    धियां पतिर्लोकपतिर्धरापतिः ।
पतिर्गतिश्चान्धकवृष्णिसात्वतां
    प्रसीदतां मे भगवान् सतां पतिः ॥ २० ॥

बड़े-बड़े तपस्वी, दानी, यशस्वी, मनस्वी, सदाचारी और मन्त्रवेत्ता जबतक अपनी साधनाओंको तथा अपने-आपको उनके चरणोंमें समर्पित नहीं कर देते, तबतक उन्हें कल्याणकी प्राप्ति नहीं होती। जिनके प्रति आत्मसमर्पणकी ऐसी महिमा है, उन कल्याणमयी कीर्तिवाले भगवान्‌ को बार-बार नमस्कार है ॥ १७ ॥ किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कङ्क, यवन और खस आदि नीच जातियाँ तथा दूसरे पापी जिनके शरणागत भक्तोंकी शरण ग्रहण करनेसे ही पवित्र हो जाते हैं, उन सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ को बार- बार नमस्कार है ॥ १८ ॥ वे ही भगवान्‌ ज्ञानियोंके आत्मा हैं, भक्तोंके स्वामी हैं, कर्मकाण्डियोंके लिये वेदमूर्ति हैं, धार्मिकोंके लिये धर्ममूर्ति हैं और तपस्वियोंके लिये तप:स्वरूप हैं। ब्रह्मा, शङ्कर आदि बड़े-बड़े देवता भी अपने शुद्ध हृदयसे उनके स्वरूपका चिन्तन करते और आश्चर्यचकित होकर देखते रहते हैं। वे मुझपर अपने अनुग्रहकी—प्रसादकी वर्षा करें ॥ १९ ॥ जो समस्त सम्पत्तियोंकी स्वामिनी लक्ष्मीदेवीके पति हैं, समस्त यज्ञोंके भोक्ता एवं फलदाता हैं, प्रजाके रक्षक हैं, सबके अन्तर्यामी और समस्त लोकोंके पालनकर्ता हैं तथा पृथ्वीदेवीके स्वामी हैं, जिन्होंने यदुवंशमें प्रकट होकर अन्धक, वृष्णि एवं यदुवंशके लोगोंकी रक्षा की है, तथा जो उन लोगोंके एकमात्र आश्रय रहे हैं—वे भक्तवत्सल, संतजनोंके सर्वस्व श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हों ॥ २० ॥ 

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सोमवार, 29 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

 

 # श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

श्रीकृष्ण का गोपदेवी के रूप से वृषभानु-भवन में जाकर श्रीराधा से मिलना

 

पतन्ति यत्र भ्रमरा मधुमत्ता नृपेश्वर ।
गन्धाक्तः शीतलो वायुर्मन्दगामी वहत्यलम् ॥ १५ ॥
सहस्रदलपद्मानां रजो विक्षेपयन्मुहुः ।
पुंस्कोकिला कोकिलाश्च मयूराः सारसाः शुकाः ॥ १६ ॥
कूजन्ते मधुरं नादं निकुंजशिखरेषु च ।
पुष्पशय्यासहस्राणि जलकुल्याः सहस्रशः ॥ १७ ॥
प्रोच्छलन्ति स्फुरत्स्फारा यत्र वै मेघमन्दिरे ।
बालार्ककुण्डलधराः चित्रवस्त्राम्बराननाः ॥ १८ ॥
वर्तन्ते कोटिशो यत्र सख्यस्तत्कर्मकौशलाः ।
तन्मध्ये राधिका राज्ञी भ्रमन्ती मन्दिराजिरे ॥ १९ ॥
काश्मीरपंकसंयुक्ते सूक्ष्मवस्त्रविराजिते ।
शिरीषपुष्पक्षितिजदलैरागुल्फपूरके ॥ २० ॥
मालतीमकरन्दानां क्षरद्‌भिर्बिन्दुभिर्वृते ।
कोटिचंद्रप्रतीकाशा तन्वी कोमलविग्रहा ।
शनैः शनैः पादपद्मं चालयन्ती च कोमलम् ॥ २१ ॥
समागतां तां मणिमन्दिराजिरे
     ददर्श राधा वृषभानुनन्दिनी ।
यत्तेजसा तल्ललनाहृतत्विषो
     जातास्त्वरं चंद्रमसेव तारकाः ॥ २२ ॥
विज्ञाय तद्‌गौरवमुत्तमं मह-
     दुत्थाय दोर्भ्यां परिरभ्य राधिका ।
दिव्यासने स्थाप्य सुलोकरीत्या
     जलादिकं चार्हणमारभच्छुभम् ॥ २३ ॥


राधोवाच -
स्वागतं ते सखि शुभे नामधेयं वदाशु मे ।
भूरिभाग्यं ममैवाद्य भवत्याऽऽगतया स्वतः ॥ २४ ॥
त्वत्समानं दिव्यरूपं दृश्यते न हि भूतले ।
यत्र त्वं वर्तसे सुभ्रु पत्तनं धन्यमेव तत् ॥ २५ ॥
वद देवि सविस्तारं हेतुमागमनस्य च ।
मम योग्यं च यत्कार्यं वक्तव्यं तत्त्वया खलु ॥ २६ ॥
कटाक्षेण सुदीप्त्या च वचसा सुस्मितेन वै ।
गत्या कृत्या श्रीपतिवद्दृश्यते सांप्रतं मया ॥ २७ ॥
नित्यं शुभे मे मिलनार्थमाव्रज
     न चेत् स्वसंकेतमलं विधेहि ।
येनैव संगो विधिना भवेद्धि
     विधिर्भवत्या स सदा विधेयः ॥ २८ ॥
अयि त्वदात्माऽतिपरं प्रियो मे
     त्वदाकृतिः श्रीव्रजराजनन्दनः ।
येनैव मे देवि हृतं तु चेत-
     स्त्वय ननान्देव वधूर्दधामि तम् ॥ २९ ॥

 

नृपेश्वर ! उस उपवनमें मधु पीकर मतवाले हुए भौरे टूट पड़ते थे। वहाँ शीतल मन्द-सुगन्ध वायु चल रही थी, जो सहस्रदल कमलोंके परागको बारंबार बिखेरा करती थी । उस उद्यानमें निकुञ्ज शिखरोंपर बैठे हुए नर- कोकिल, मादा-कोकिल, मोर, सारस और शुक पक्षी मीठी आवाजमें कूज रहे थे। वहाँ फूलोंकी सहस्रों शय्याएँ सज्जित थीं और पानीकी हजारों नहरें बह रही थीं । वहाँके मेघ मन्दिरमें सैकड़ों फुहारे छूट रहे थे। बालसूर्यके समान कान्तिमान् कुण्डल तथा विचित्र वर्णवाले वस्त्र धारण किये करोड़ों सुन्दरमुखी सखियाँ वहाँ श्रीराधाके सेवा कार्यमें अपनी कुशलता- का परिचय देती थीं। उनके बीचमें श्रीराधिका रानी उस राजमन्दिर में टहल रही थीं। वह राजमन्दिर केसरिया रंगके सूक्ष्म वस्त्रोंसे सजाया गया था । वहाँकी भूमिपर पर्वतीय पुष्प, जलज पुष्प तथा स्थलपर होनेवाले बहुत से पुष्प और कोमल पल्लव इतनी अधिक संख्यामें बिछाये गये थे कि वहाँ पाँव रखनेपर गुल्फ (घुट्ठी) तकका भाग ढक जाता था ॥ १५-२०

मालती के मकरन्दों की बूँदें वहाँ झरती रहती थीं। ऐसे आँगनमें करोड़ों चन्द्रोंके समान कान्तिमती, कोमलाङ्गी एवं कृशाङ्गी श्रीराधा धीरे-धीरे अपने कोमल चरणारविन्दोंका संचालन करती हुई घूम रही थीं। मणि-मन्दिरके आँगनमें आयी हुई उस नवीना गोप- सुन्दरीको वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाने देखा । उसके तेजसे वहाँकी समस्त ललनाएँ हतप्रभ हो गयीं, जैसे चन्द्रमाके उदय होनेसे ताराओंकी कान्ति फीकी पड़ जाती है। उसके उत्तम एवं महान् गौरवका अनुभव करके श्रीराधाने अभ्युत्थान दिया (अगवानी की) और दोनों बाँहोंसे उसका गाढ़ आलिङ्गन करके उसे दिव्य सिंहासनपर बिठाया। फिर लोकरीतिके अनुसार जल आदि उपचार अर्पित करके उसका सुन्दर पूजन (आदर-सत्कार) आरम्भ किया ।। २१–२३ ॥

श्रीराधा बोलीं- सुन्दरी सखी! तुम्हारा स्वागत है। मुझे शीघ्र ही अपना नाम बताओ। तुम स्वतः आज यहाँ आ गयीं, यह मेरे लिये ही महान् सौभाग्यकी बात है। इस भूतलपर तुम्हारे समान दिव्य रूपका कहीं दर्शन नहीं होता । शुभ्रु ! जहाँ तुम जैसी सुन्दरी निवास करती हैं, वह नगर निश्चय ही धन्य है। देवि ! अपने आगमनका कारण विस्तारपूर्वक बताओ। मेरे योग्य जो कार्य हो, वह तुम्हें अवश्य कहना चाहिये। तुम अपनी बाँकी चितवन, सुन्दर दीप्ति, मधुर वाणी, मनोहर मुसकान, चाल-ढाल और आकृतिसे इस समय मुझे श्रीपतिके सदृश दिखायी देती हो । शुभे ! तुम प्रतिदिन मुझसे मिलनेके लिये आया करो। यदि न आ सको तो मुझे ही अपने निवासस्थानका संकेत प्रदान करो। जिस विधिसे हमारा तुम्हारे साथ मिलना सम्भव हो, वह विधि तुम्हें सदा उपयोगमें लानी चाहिये। हे सखी! तुम्हारा यह शरीर मुझे बहुत प्यारा लगता है; क्योंकि मेरे प्रियतम श्रीव्रजराजनन्दनकी आकृति तुम्हारी ही जैसी है, जिन्होंने मेरे मनको हर लिया है। अतः तुम मेरे पास रहो। जैसे भौजाई अपनी ननदको प्यार करती है, उसी प्रकार मैं तुम्हारा आदर करूँगी ।। २४ - २९॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट ०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)

राजाका सृष्टिविषयक प्रश्न और शुकदेवजी का कथारम्भ

नमो नमस्तेऽस्त्वृषभाय सात्वतां
    विदूरकाष्ठाय मुहुः कुयोगिनाम् ।
निरस्तसाम्यातिशयेन राधसा
    स्वधामनि ब्रह्मणि रंस्यते नमः ॥ १४ ॥
यत्कीर्तनं यत्स्मरणं यदीक्षणं
    यद् वंदनं यच्छ्रवणं यदर्हणम् ।
लोकस्य सद्यो विधुनोति कल्मषं
    तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥ १५ ॥
विचक्षणा यच्चरणोपसादनात्
    सङ्गं व्युदस्योभयतोऽन्तरात्मनः ।
विन्दन्ति हि ब्रह्मगतिं गतक्लमाः
    तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥ १६ ॥

जो बड़े ही भक्तवत्सल हैं और हठपूर्वक भक्तिहीन साधन करनेवाले लोग जिनकी छाया भी नहीं छू सकते; जिनके समान भी किसीका ऐश्वर्य नहीं है, फिर उससे अधिक तो हो ही कैसे सकता है तथा ऐसे ऐश्वर्यसे युक्त होकर जो निरन्तर ब्रह्मस्वरूप अपने धाममें विहार करते रहते हैं, उन भगवान्‌ श्रीकृष्णको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ १४ ॥ जिनका कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण और पूजन जीवोंके पापोंको तत्काल नष्ट कर देता है, उन पुण्यकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णको बार-बार नमस्कार है ॥ १५ ॥ विवेकी पुरुष जिनके चरणकमलोंकी शरण लेकर अपने हृदयसे इस लोक और परलोककी आसक्ति निकाल डालते हैं और बिना किसी परिश्रमके ही ब्रह्मपदको प्राप्त कर लेते हैं, उन मङ्गलमय कीर्तिवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णको अनेक बार नमस्कार है ॥ १६ ॥ 

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रविवार, 28 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

श्रीकृष्ण का गोपदेवी के रूप से वृषभानु-भवन में जाकर श्रीराधा से मिलना

 

श्रीबहुलाश्व उवाच -
राधाकृष्णस्य चरितं शृण्वतो मे मनो मुने ।
न तृप्तिं याति शरदः पंकजे भ्रमरो यथा ॥ १ ॥
रासेश्वर्या कृष्णपत्‍न्या तुलसीसेवने कृते ।
यद्‍बभूव ततो ब्रह्मन् तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ २ ॥


श्रीनारद उवाच -
राधिकायाश्च विज्ञाय तुलसीसेवने तपः ।
प्रीतिं परीक्षन् श्रीकृष्णो वृषभानुपुरं ययौ ॥ ३ ॥
अद्‌भुतं गोपिकारूपं चलज्झंकारनूपुरम् ।
किंकिणीघण्टिकाशब्दमंगुलीयकभूषितम् ॥ ४ ॥
रत्‍नकंकणकेयूर मुक्ताहारविराजितम् ।
बालार्कताटंकलसत्कबरीपाशकौशलम् ॥ ५ ॥
नासामौक्तिकदिव्याभं श्यामकुन्तलसंकुलम् ।
धृत्वाऽसौ वृषभानोश्च मन्दिरं सन्ददर्श ह ॥ ६ ॥
प्राकारपरिखायुक्तं चतुर्द्वारसमन्वितम् ।
करीन्द्रैः कंजलाकारैर्द्वारि द्वारि मनोहरम् ॥ ७ ॥
वायुवेगैर्मनोवेगैश्चित्रवर्णैस्तुरंगमैः ।
हारचामरसंयुक्तं प्रोल्लसन्मण्डपाजिरम् ॥ ८ ॥
गवां गणैः सवत्सैश्च वृषैर्धर्मधुरन्धरैः ।
गोपाला यत्र गायन्ते वंशीवेत्रधरा नृप ॥ ९ ॥
वृषभानुवरस्यैवं पश्यन् मन्दिरकौशलम् ।
मायायुवतिवेषोऽसौ ततो ह्यन्तःपुरं ययौ ॥ १० ॥
यत्र कोटिरविस्फूर्जत्कपाटस्तम्भपंक्तयः ।
रत्‍नाजिरेषु शोभन्ते ललनारत्‍नसंयुताः ॥ ११ ॥
वीणातालमृदंगादीन् वादयन्त्यो मनोहराः ।
पुष्पयष्टिसमायुक्ता गायन्त्यो राधिकागुणम् ॥ १२ ॥
तस्मिन्नन्तःपुरे दिव्यं भ्राजच्चोपवनं महत् ।
दाडिमीकुन्दमन्दारनिंबून्नतद्रुमावृतम् ॥ १३ ॥
केतकीमालतीवृंदैः माधवीभिः विराजितम् ।
तत्र राधानिकुंजोऽस्ति कल्पवृक्षसुगन्धिभृत् ॥ १४ ॥

राजा बहुलाश्व बोले—मुने ! श्रीराधाकृष्णके चरित्रको सुनते-सुनते मेरा मन अघाता नहीं — ठीक उसी तरह जैसे शरदऋतुके प्रफुल्ल कमलका रसपान करते समय भ्रमरोंको तृप्ति नहीं होती । ब्रह्मन् ! तपोधन ! श्रीकृष्णपत्नी रासेश्वरीद्वारा तुलसी सेवनका व्रत पूर्ण कर लिये जानेके बाद जो वृत्तान्त घटित हुआ, वह मुझे सुनाइये ॥ १-२ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! श्रीराधिकाकी तुलसी सेवाके निमित्त की गयी तपस्याको जानकर, उनकी प्रीतिकी परीक्षा लेनेके लिये एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण वृषभानुपुरमें गये। उस समय उन्होंने अद्भुत गोपाङ्गनाका रूप धारण कर लिया था। चलते समय उनके पैरोंसे नूपुरोंकी मधुर झनकार हो रही थी । कटिकी करधनीमें लगी हुई क्षुद्रघण्टिकाओंकी भी मधुर खनखनाहट सुनायी पड़ती थी । अङ्गुलियोंमें मुद्रिकाओंकी अपूर्व शोभा थी। कलाइयोंमें रत्नजटित कंगन, बाँहोंमें भुजबंद तथा कण्ठ एवं वक्षःस्थलमें मोतियोंके हार शोभा दे रहे थे। बालरविके समान दीप्तिमान् शीशफूलसे सुशोभित केश-पाशोंकी वेणी -रचनामें अपूर्व कुशलताका परिचय मिलता था। नासिकामें मोतीकी बुलाक हिल रही थी । शरीरकी दिव्य आभा स्निग्ध अलकोंके समान ही श्याम थी। ऐसा रूप धारण करके श्रीहरिने वृषभानुके मन्दिरको देखा । खाई और परकोटोंसे युक्त वह वृषभानु-भवन चार दरवाजोंसे सुशोभित था तथा प्रत्येक द्वारपर काजल वर्णके समानवाले गजराज झूमते थे, जिससे उस राजभवनकी मनोहरता बढ़ गयी थी। उस मण्डपका प्राङ्गण वायु तथा मनके समान वेगशाली एवं हार और चँवरोंसे सुसज्जित विचित्र वर्णवाले अश्वोंसे शोभा पा रहा था । ३-८ ॥

नरेश्वर ! सवत्सा गौओंके समुदाय तथा धर्मधुरंधर वृषभवृन्दसे भी उस भवनकी बड़ी शोभा हो रही थी । बहुत-से गोपाल वहाँ वंशी और बेंत धारण किये गीत गा रहे थे। मायामयी युवतीका वेष धारण किये श्यामसुन्दर उस प्राङ्गणसे अन्तःपुरमें प्रविष्ट हुए, जहाँ कोटि सूर्यों के समान कान्तिमान् कपाटों और खंभोंकी पंक्तियाँ प्रकाश फैला रही थीं । वहाँके रत्न- मण्डित आँगनोंमें बहुत-सी रत्नस्वरूपा ललनाएँ सुशोभित हो रही थीं। वीणा, ताल और मृदङ्ग आदि बाजे बजाती हुई वे मनोहारिणी गोप- सुन्दरियाँ फूलोंकी छड़ी लिये श्रीराधिकाके गुण गा रही थीं। उस अन्तःपुरमें दिव्य एवं विशाल उपवनकी छटा छा रही थी। उसके भीतर अनार, कुन्द, मन्दार, नींबू तथा अन्य ऊँचे-ऊँचे वृक्ष लहलहा रहे थे। केतकी, मालती और माधवी लताएँ उस उपवनको सुशोभित करती थीं। वहीं श्रीराधाका निकुञ्ज था, जिसमें कल्पवृक्षके पुष्पोंकी सुगन्ध भरी थी ॥ -१४

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट ०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

राजाका सृष्टिविषयक प्रश्न और शुकदेवजी का कथारम्भ

सूत उवाच ।

इत्युपामंत्रितो राज्ञा गुणानुकथने हरेः ।
हृषीकेशं अनुस्मृत्य प्रतिवक्तुं प्रचक्रमे ॥ ११ ॥

श्रीशुक उवाच ।

नमः परस्मै पुरुषाय भूयसे
    सदुद्‍भवस्थाननिरोधलीलया ।
गृहीतशक्तित्रितयाय देहिनां
    अंतर्भवायानुपलक्ष्यवर्त्मने ॥ १२ ॥
भूयो नमः सद्‌वृजिनच्छिदेऽसतां
    असंभवायाखिलसत्त्वमूर्तये ।
पुंसां पुनः पारमहंस्य आश्रमे
    व्यवस्थितानामनुमृग्यदाशुषे ॥ १३ ॥

सूतजी कहते हैं—जब राजा परीक्षित्‌ ने भगवान्‌के गुणोंका वर्णन करनेके लिये उनसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब श्रीशुकदेवजीने भगवान्‌ श्रीकृष्णका बार-बार स्मरण करके अपना प्रवचन प्रारम्भ किया ॥ ११ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा—उन पुरुषोत्तम भगवान्‌के चरणकमलोंमें मेरे कोटि-कोटि प्रणाम हैं, जो संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकी लीला करनेके लिये सत्त्व, रज तथा तमोगुणरूप तीन शक्तियोंको स्वीकार कर ब्रह्मा, विष्णु और शङ्करका रूप धारण करते हैं; जो समस्त चर-अचर प्राणियोंके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान हैं, जिनका स्वरूप और उसकी उपलब्धिका मार्ग बुद्धिके विषय नहीं हैं; जो स्वयं अनन्त हैं तथा जिनकी महिमा भी अनन्त है ॥ १२ ॥ हम पुन: बार-बार उनके चरणोंमें नमस्कार करते हैं, जो सत्पुरुषोंका दु:ख मिटाकर उन्हें अपने प्रेमका दान करते हैं, दुष्टोंकी सांसारिक बढ़ती रोककर उन्हें मुक्ति देते हैं तथा जो लोग परमहंस आश्रममें स्थित हैं, उन्हें उनकी भी अभीष्ट वस्तुका दान करते हैं। क्योंकि चर-अचर समस्त प्राणी उन्हींकी मूर्ति हैं, इसलिये किसीसे भी उनका पक्षपात नहीं है ॥ १३ ॥ 

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शनिवार, 27 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

तुलसीका माहात्म्य, श्रीराधाद्वारा तुलसी सेवन-व्रतका अनुष्ठान तथा दिव्य तुलसीदेवीका प्रत्यक्ष प्रकट हो श्रीराधाको वरदान देना

 

श्रीनारद उवाच -
इत्थं चंद्राननावाक्यं श्रुत्वा रासेश्वरी नृप ।
तुलसीसेवनं साक्षादारेभे हरितोषणम् ॥ २० ॥
केतकीवनमध्ये च शतहस्तं सुवर्तुलम् ।
उच्चैर्हेमखचिद्‌भित्ति पद्मरागतटं शुभम् ॥ २१ ॥
हरिद्धीरकमुक्तानां प्राकारेण महोल्लसत् ।
सर्वतस्तोलिकायुक्तं चिंतामणिसुमंडितम् ॥ २२ ॥
हेमध्वजसमायुक्तं उत्तोरणविराजितम् ।
हैमैर्वितानैः परितो वैजयन्तमिव स्फुरत् ॥ २३ ॥
एतादृशं श्रीतुलसीमन्दिरं सुमनोहरम् ।
तन्मध्ये तुलसीं स्थाप्य हरित्पल्लवशोभितम् ॥ २४ ॥
अभिजिन्नमनक्षत्रे तत्सेवां सा चकार ह ।
समाहूतेन गर्गेण दिष्टेन विधिना सती ॥ २५ ॥
श्रीकृष्णतोषणार्थाय भक्त्या परमया सती ।
इषुपूर्णां समारभ्य चैत्रपूर्णावधि व्रतम् ॥ २६ ॥
पंचामृतेन तुलसीं मासे मासे पृथक् पृथक् ।
उद्यापनसमारंभं वैशाखप्रतिपद्दिने ॥ २८ ॥
गर्गदिष्टेन विधिना वृषभानुसुता नृप ।
षट्पंचाशत्तमैर्भोगैः ब्राह्मणानां द्विलक्षकम् ॥ २९ ॥
संतर्प्य वस्त्रभूषाद्यैः दक्षिणां राधिका ददौ ।
दिव्यानां स्थूलमुक्तानां लक्षभारं विदेहराट् ॥ ३० ॥
कोटिभारं सुवर्णानां गर्गाचार्याय सा ददौ ।
शतभारं सुवर्णानां मुक्तानाञ्च तथैव हि ॥ ३१ ॥
भक्त्या परमया राधा ब्राह्मणे ब्राह्मणे ददौ ।
देवदुन्दुभयो नेदुः ननृतुश्चाप्सरोगणाः ।
तन्मन्दिरोपरि सुरा पुष्पवर्षं प्रचक्रिरे ॥ ३२ ॥
तदाऽऽविरासीत् तुलसी हरिप्रिया
     सुवर्णपीठोपरि शोभितासना ।
चतुर्भुजा पद्मपलाशवीक्षणा
     श्यामा फुरद्धेमकिरीटकुण्डला ॥ ३३ ॥
पीतांबराच्छादितसर्पवेणीं
     स्रजं दधानां नववैजयन्तीम् ।
खगात्समुत्तीर्य च रंगवल्ली
     चुचुम्ब राधां परिरभ्य बाहुभिः ॥ ३४ ॥


तुलस्युवाच -
अहं प्रसनाऽस्मि कलावतीसुते
     तद्‌भक्तिभावेन जिता निरन्तरम् ।
कृतं च लोकव्यवहारसंग्रहा-
     त्त्वया व्रतं भामिनि सर्वतोमुखम् ॥ ३५ ॥
मनोरथस्ते सफलोऽत्र भूयाद्
     बुद्धीन्द्रियैश्चित्तमनोभिरग्रतः ।
सदानुकूलत्वमलं पतेः परं
     सौभाग्यमेवं परिकीर्तनीयम् ॥ ३६ ॥
एवं वदन्तीं तुलसीं हरिप्रियां
     नत्वाऽथ राधा वृषभानुनन्दिनी ।
प्रत्याह गोविन्दपदारविन्दयोः
     भक्तिर्भवेन्मे विदिता ह्यहैतुकी ॥ ३७ ॥
तथाऽस्तु चोक्ता तुलसी हरिप्रिया
     ऽथान्तर्दधे मैथिल राजसत्तम ।
तदैव राधा वृषभानुनन्दिनी
     प्रसन्नचित्ता स्वपुरे बभुव ह ॥ ३८ ॥
श्रीराधिकाख्यानमिदं विचित्रं
     शृणोति यो भक्तिपरः पृथिव्याम् ।
त्रैवर्ग्यभावं मनसा समेत्य राजन्
     ततो याति नरः कृतार्थाम् ॥ ३९ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! इस प्रकार चन्द्राननाकी कही हुई बात सुनकर रासेश्वरी श्रीराधाने साक्षात् श्रीहरिको संतुष्ट करनेवाले तुलसी सेवनका व्रत आरम्भ किया। केतकीवनमें सौ हाथ गोलाकार भूमिपर बहुत ऊँचा और अत्यन्त मनोहर श्रीतुलसीका मन्दिर बनवाया, जिसकी दीवार सोनेसे जड़ी थी और किनारे-किनारे पद्मरागमणि लगी थी । वह सुन्दर मन्दिर पन्ने, हीरे और मोतियोंके परकोटेसे अत्यन्त सुशोभित था तथा उसके चारों ओर परिक्रमाके लिये गली बनायी गयी थी, जिसकी भूमि चिन्तामणिसे मण्डित थी ॥२०-२२

बहुत ऊँचा तोरण (मुख्यद्वार या गोपुर) उस मन्दिरकी शोभा बढ़ाता था। वहाँ सुवर्णमय ध्वजदण्डसे युक्त पताका फहरा रही थी। चारों ओर ताने हुए सुनहले वितानों (चंदोवों) के कारण वह तुलसी-मन्दिर वैजयन्ती पताका से युक्त इन्द्रभवन - सा देदीप्यमान था । ऐसे

तुलसी- मन्दिर के मध्यभागमें  हरे पल्लवों से सुशोभित तुलसी की स्थापना करके श्रीराधाने अभिजित् मुहूर्तमें उनकी सेवा प्रारम्भ की। श्रीगर्गजीको बुलाकर उनकी बतायी हुई विधिसे सती श्रीराधाने बड़े भक्तिभावसे श्रीकृष्णको संतुष्ट करनेके लिये आश्विन शुक्ला पूर्णिमा से 'लेकर चैत्र पूर्णिमा तक तुलसी सेवन-व्रत का अनुष्ठान किया । २३ - २

व्रत आरम्भ करके उन्होंने प्रतिमास पृथक्-पृथक् रससे तुलसीको सींचा। कार्तिकमें दूधसे, मार्गशीर्षमें ईखके रससे, पौषमें द्राक्षारससे, माघमें बारहमासी आमके रससे, फाल्गुन मासमें अनेक वस्तुओंसे मिश्रित मिश्रीके रससे और चैत्र मासमें पञ्चामृत से उसका सेचन किया। नरेश्वर ! इस प्रकार व्रत पूरा करके वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाने गर्गजीकी बतायी हुई विधिसे वैशाख कृष्णा प्रतिपदाके दिन उद्यापनका उत्सव किया। उन्होंने दो लाख ब्राह्मणोंको छप्पन भोगोंसे तृप्त करके वस्त्र और आभूषणोंके साथ दक्षिणा दी। विदेहराज ! मोटे-मोटे दिव्य मोतियोंका एक लाख भार और सुवर्णका एक कोटि भार श्रीगर्गाचार्यजीको दिया। उस समय आकाशमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं, अप्सराओंका नृत्य होने लगा और देवतालोग उस तुलसी-मन्दिरके ऊपर दिव्य पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ।। २ – ३

उसी समय सुवर्णमय सिंहासनपर विराजमान हरिप्रिया तुलसीदेवी प्रकट हुईं। उनके चार भुजाएँ थीं। कमलदलके समान विशाल नेत्र थे । सोलह वर्षकी सी अवस्था एवं श्याम कान्ति थी । मस्तकपर हेममय किरीट प्रकाशित था और कानों में काञ्चनमय कुण्डल झलमला रहे थे। पीताम्बरसे आच्छादित केशोंकी बँधी हुई नागिन-जैसी वेणीमें वैजयन्ती माला धारण किये, गरुडसे उतरकर तुलसीदेवीने रङ्गवल्ली-जैसी श्रीराधाको अपनी भुजाओंसे अङ्कमें भर लिया और उनके मुखचन्द्रका चुम्बन किया  ।। ३-३

तुलसी बोलीं- कलावती कुमारी राधे ! मैं तुम्हारे भक्ति-भावसे वशीभूत हो निरन्तर प्रसन्न हूँ । भामिनि ! तुमने केवल लोकसंग्रहकी भावनासे इस सर्वतोमुखी व्रतका अनुष्ठान किया है (वास्तवमें तो तुम पूर्णकाम हो) । यहाँ इन्द्रिय, मन, बुद्धि और चित्तद्वारा जो-जो मनोरथ तुमने किया है, वह सब तुम्हारे सम्मुख सफल हो। पति सदा तुम्हारे अनुकूल हों और इसी प्रकार कीर्तनीय परम सौभाग्य बना रहे ॥ ३-३

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! यों कहती हुई हरिप्रिया तुलसीको प्रणाम करके वृषभानुनन्दिनी राधा ने उनसे कहा – 'देवि ! गोविन्द के युगल चरणारविन्दों में मेरी अहैतुकी भक्ति बनी रहे ।' मैथिलराजशिरोमणे ! तब हरिप्रिया तुलसी 'तथास्तु' कहकर अन्तर्धान हो गयीं। तबसे वृषभानुनन्दिनी राधा अपने नगरमें प्रसन्न चित्त रहने लगीं। राजन् ! इस पृथ्वीपर जो मनुष्य भक्तिपरायण हो श्रीराधिकाके इस विचित्र उपाख्यानको सुनता है, वह मन-ही-मन त्रिवर्ग-सुखका अनुभव करके अन्तमें भगवान्‌ को पाकर कृतकृत्य हो जाता है ।। ३-३।।

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'तुलसीपूजन' नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से




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