शनिवार, 3 अगस्त 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

सृष्टि-वर्णन

ब्रह्मोवाच ॥

सम्यक् कारुणिकस्येदं वत्स ते विचिकित्सितम् ।
यदहं चोदितः सौम्य भगवद्वीर्यदर्शने ॥ ९ ॥
नानृतं तव तच्चापि यथा मां प्रब्रवीषि भोः ।
अविज्ञाय परं मत्त एतावत्त्वं यतो हि मे ॥ १० ॥
येन स्वरोचिषा विश्वं रोचितं रोचयाम्यहम् ।
यथार्कोऽग्निः यथा सोमो यथा ऋक्षग्रहतारकाः ॥ ११ ॥
तस्मै नमो भगवते वासुदेवाय धीमहि ।
यन्मायया दुर्जयया मां वदन्ति जगद्‍गुरुम् ॥ १२ ॥
विलज्जमानया यस्य स्थातुमीक्षापथेऽमुया ।
विमोहिता विकत्थन्ते ममाहमिति दुर्धियः ॥ १३ ॥

ब्रह्माजीने कहा—बेटा नारद ! तुमने जीवोंके प्रति करुणा के भावसे भरकर यह बहुत ही सुन्दर प्रश्न किया है; क्योंकि इससे भगवान्‌ के गुणोंका वर्णन करने की प्रेरणा मुझे प्राप्त हुई है ॥ ९ ॥ तुमने मेरे विषय में जो कुछ कहा है, तुम्हारा वह कथन भी असत्य नहीं है। क्योंकि जबतक मुझसे परे का तत्त्व—जो स्वयं भगवान्‌ ही हैं—जान नहीं लिया जाता, तब तक मेरा ऐसा ही प्रभाव प्रतीत होता है ॥ १० ॥ जैसे सूर्य, अग्नि, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे उन्हींके प्रकाशसे प्रकाशित होकर जगत् में प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही मैं भी उन्हीं स्वयंप्रकाश भगवान्‌ के चिन्मय प्रकाशसे प्रकाशित होकर संसार को प्रकाशित कर रहा हूँ ॥ ११ ॥ उन भगवान्‌ वासुदेव की मैं वन्दना करता हूँ और ध्यान भी, जिनकी दुर्जय मायासे मोहित होकर लोग मुझे जगद्गुरु कहते हैं ॥ १२ ॥ यह माया तो उनकी आँखों के सामने ठहरती ही नहीं, झेंपकर दूरसे ही भाग जाती है। परन्तु संसार के अज्ञानी जन उसी से मोहित होकर ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस प्रकार बकते रहते हैं ॥ १३॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

श्रीकृष्ण के द्वारा गोपदेवीरूप से श्रीराधा के प्रेम की परीक्षा तथा

श्रीराधा को श्रीकृष्णका दर्शन

 

गोपदेवतावाच -
राधे त्वदीयधिषणा धिषणं हसन्ती
     वाणीं श्रुतिं प्रकुशलेन विडंबयन्ती ।
अत्रागमिष्यति यदाथ हरिः परेशः
     सत्यं ददाति वचनं तव देवि मन्ये ॥ २८ ॥


राधोवाच -
यथाऽऽगमिष्यति यदाऽद्य हरिः परेशः
     किं कारयामि भवतीं वद तर्हि सुभ्रु ।
चेदागमो न हि भवेद्‌वनमालिनः स्वं
     सर्वं धनं च भवनं च ददामि तुभ्यम् ॥ २९ ॥


श्रीनारद उवाच -
अथ राधा समुत्थाय नत्वा श्रीनन्दनन्दनम् ।
उपविश्यासने दध्यौ ध्यानस्तिमितलोचना ॥ ३० ॥
उत्कंठितां स्वेदयुक्तां बाष्पकंठीं प्रियां हरिः ।
अश्रुपूर्णमुखीं वीक्ष्य बिभ्रत्स्वां पौरुषीं तनुम् ॥ ३१ ॥
पश्यन्तीनां सखीनां च सहसा भक्तवत्सलः ।
राधां प्राह प्रसन्नात्मा मेघगंभीरया गिरा ॥ ३२ ॥


श्रीकृष्ण उवाच -
रंभोरु चन्द्रवदने व्रजसुन्दरीशे
     राधे प्रिये नवलयौवनमानशीले ।
उमील्य नेत्रमपि पश्य समागतं मां
     तूर्णं त्वया मधुरया च गिरोपहूतम् ॥ ३३ ॥
आगच्छ कृष्ण इति वाक्यमतः श्रुतं मे
     सद्यो विसृज्य निजगोकुलगोपवृन्दम् ।
वंशीवटाच्च यमुनानिकटात्प्रधावन्
     त्वत्प्रीतयेऽथ ललनेत्र समागतोऽस्मि ॥ ३४ ॥
मय्यागते सति गता सखिरूपिणी का

 यक्ष्यासुरीसुरवधू किल किन्नरी वा ।

मायावती छलयितुं भवतीं च तस्मा-
     द्विश्वास एव न विधेय उरंगपत्‍न्याम् ॥ ३५ ॥


श्रीनारद उवाच -
अथ राधा हरिं दृष्ट्वा नत्वा तत्पादपंकजम् ।
मुदमाप परं राजन् सद्यः पूर्णमनोरथा ॥ ३६ ॥
एवं श्रीकृष्णचन्द्रस्य चरितान्यद्‌भुतानि च ।
यः शृणोति नरो भक्त्या स कृतार्थो भवेन्नरः ॥ ३७ ॥

 

गोपदेवी बोली- श्रीराधे ! तुम्हारी बुद्धि बृहस्पतिका भी उपहास करती है और वाणी अपने प्रवचन - कौशलसे वेदवाणीका अनुकरण करती है। किंतु देवि ! तुम्हारे बुलानेसे यदि परमेश्वर श्रीकृष्ण सचमुच यहाँ आ जायँ और तुम्हारी बातका उत्तर दें, तब मैं मान लूँगी कि तुम्हारा कथन सच है ॥ २८ ॥

श्रीराधा बोलीं- शुभ्रु ! यदि परमेश्वर श्रीकृष्ण मेरे बुलानेसे यहाँ आ जायँ, तब मैं तुम्हारे प्रति क्या करूँ, यह तुम्हीं बताओ। परंतु अपनी ओरसे इतना ही कह सकती हूँ कि यदि मेरे स्मरण करनेसे वनमाली का शुभागमन नहीं हुआ तो मैं अपना सारा धन और यह भवन तुम्हें दे दूँगी ॥ २९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर श्रीराधा उठकर श्रीनन्दनन्दनको नमस्कार करके आसनपर बैठ गयीं और उनका ध्यान करने लगीं। उस समय उनके नेत्र ध्यानरत होनेके कारण निश्चल हो गये थे । श्रीहरिने देखा - 'प्रियतमा श्रीराधा मेरे दर्शनके लिये उत्कण्ठित हैं । इनके अङ्ग अङ्गमें स्वेद (पसीना) हो आया है और मुखपर आँसुओंकी धारा बह चली है।' यह देख अपना पुरुषरूप धारण करके भक्तवत्सल श्रीकृष्ण सखियोंके देखते-देखते सहसा वहाँ प्रकट हो गये और प्रसन्नचित्त हो घनगर्जनके समान गम्भीर वाणीमें श्रीराधासे बोले || ३०–३२ ॥

श्रीकृष्णने कहा— रम्भोरु ! व्रज-सुन्दरी-शिरोमणे ! चन्द्रवदने ! नूतनयौवनशालिनि ! मानशीले ! प्रिये राधे ! तुमने अपनी मधुरवाणीसे मुझे बुलाया है, इसलिये मैं तुरंत यहाँ आ गया हूँ। अब आँख खोलकर मुझे देखो। ललने ! 'प्रियतम कृष्ण ! आओ' – यह वाक्य यहाँसे प्रकट हुआ और मैंने सुना। फिर उसी क्षण अपने गोकुल और गोपवृन्दको छोड़कर, वंशीवट और यमुनाके तटसे वेगपूर्वक दौड़ता हुआ तुम्हारी प्रसन्नताके लिये यहाँ आ पहुँचा हूँ । मेरे आते ही कोई सखीरूपधारिणी यक्षी, आसुरी, देवाङ्गना अथवा किनरी, जो कोई भी मायाविनी तुम्हें छलनेके लिये आयी थी, यहाँसे चल दी। अतः तुम्हें ऐसी नागिन पर विश्वास ही नहीं करना चाहिये ॥ ३३-३५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— तदनन्तर श्रीराधा श्रीहरिको देखकर उनके चरण-कमलोंमें प्रणत हो परमानन्दमें निमग्न हो गयीं। उनका मनोरथ तत्काल पूर्ण हो गया। श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसे अद्भुत चरित्रोंका जो भक्तिभावसे श्रवण करता है, वह मनुष्य कृतार्थ हो जाता है ।। ३६-३७ ।।


इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'श्रीराधाको श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन' नामक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

सृष्टि-वर्णन

नारद उवाच ।

देवदेव नमस्तेऽस्तु भूतभावन पूर्वज ।
तद्विजानीहि यद् ज्ञानं आत्मतत्त्वनिदर्शनम् ॥ १ ॥
यद् रूपं यद् अधिष्ठानं यतः सृष्टमिदं प्रभो ।
यत्संस्थं यत्परं यच्च तत् तत्त्वं वद तत्त्वतः ॥ २ ॥
सर्वं ह्येतद् भवान् वेद भूतभव्यभवत्प्रभुः ।
करामलकवद् विश्वं विज्ञानावसितं तव ॥ ३ ॥
यद् विज्ञानो यद् आधारो यत् परस्त्वं यदात्मकः ।
एकः सृजसि भूतानि भूतैरेवात्ममायया ॥ ४ ॥
आत्मन् भावयसे तानि न पराभावयन् स्वयम् ।
आत्मशक्तिमवष्टभ्य ऊर्णनाभिरिवाक्लमः ॥ ५ ॥
नाहं वेद परं ह्यस्मिन् नापरं न समं विभो ।
नामरूपगुणैर्भाव्यं सदसत् किञ्चिदन्यतः ॥ ६ ॥
स भवानचरद् घोरं यत्तपः सुसमाहितः ।
तेन खेदयसे नस्त्वं पराशङ्कां च यच्छसि ॥ ७ ॥
एतन्मे पृच्छतः सर्वं सर्वज्ञ सकलेश्वर ।
विजानीहि यथैवेदं अहं बुद्ध्येऽनुशासितः ॥ ८ ॥

नारदजीने पूछा—पिताजी ! आप केवल मेरे ही नहीं, सबके पिता, समस्त देवताओं से श्रेष्ठ एवं सृष्टिकर्ता हैं। आपको मेरा प्रणाम है । आप मुझे वह ज्ञान दीजिये, जिससे आत्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है ॥ १ ॥ पिताजी ! इस संसार का क्या लक्षण है ? इसका आधार क्या है ? इसका निर्माण किसने किया है ? इसका प्रलय किसमें होता है ? यह किसके अधीन है ? और वास्तवमें यह है क्या वस्तु ? आप इसका तत्त्व बतलाइये ॥ २ ॥ आप तो यह सब कुछ जानते हैं; क्योंकि जो कुछ हुआ है, हो रहा है या होगा, उसके स्वामी आप ही हैं। यह सारा संसार हथेलीपर रखे हुए आँवलेके समान आपकी ज्ञान-दृष्टिके अन्तर्गत ही है ॥ ३ ॥ पिताजी ! आपको यह ज्ञान कहाँसे मिला ? आप किसके आधारपर ठहरे हुए हैं ? आपका स्वामी कौन है ? और आपका स्वरूप क्या है ? आप अकेले ही अपनी मायासे पञ्चभूतोंके द्वारा प्राणियोंकी सृष्टि कर लेते हैं, कितना अद्भुत है ! ॥ ४ ॥ जैसे मकड़ी अनायास ही अपने मुँहसे जाला निकालकर उसमें खेलने लगती है, वैसे ही आप अपनी शक्तिके आश्रयसे जीवोंको अपनेमें ही उत्पन्न करते हैं और फिर भी आपमें कोई विकार नहीं होता ॥ ५ ॥ जगत् में  नाम, रूप और गुणोंसे जो कुछ जाना जाता है, उसमें मैं ऐसी कोई सत्, असत्, उत्तम, मध्यम या अधम वस्तु नहीं देखता, जो आपके सिवा और किसीसे उत्पन्न हुई हो ॥ ६ ॥ इस प्रकार सबके ईश्वर होकर भी आपने एकाग्र चित्तसे घोर तपस्या की, इस बातसे मुझे मोहके साथ-साथ बहुत बड़ी शङ्का भी हो रही है कि आपसे बड़ा भी कोई है क्या ॥ ७ ॥ पिताजी ! आप सर्वज्ञ और सर्वेश्वर हैं। जो कुछ मैं पूछ रहा हूँ, वह सब आप कृपा करके मुझे इस प्रकार समझाइये कि जिससे मैं आपके उपदेशको ठीक-ठीक समझ सकूँ ॥ ८ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 1 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

श्रीकृष्ण के द्वारा गोपदेवीरूप से श्रीराधा के प्रेम की परीक्षा तथा

श्रीराधा को श्रीकृष्णका दर्शन


गोपदेवतोवाच -
राधे व्रजन्सानुगिरेस्तटीषु
     संकोचवीथीषु मनोहरासु ।
यान्तीं स्वतो मां दधिविक्रयार्थं
     रुरोध मार्गे नवनन्दपुत्रः ॥ १४ ॥
वंशीधरो वेत्रकरः करे मां
     त्वरं गृहीत्वा प्रसहन्विलज्जः ।
मह्यं करादानधनाय दानं
     देहीति जल्पन्विपिने रसज्ञः ॥ १५ ॥
तुभ्यं न दास्यामि कदापि दानं
     स्वयंभुवे गोरसलंपटाय ।
एवं मयोक्ते वचनेऽथ भाण्डं
     नीत्वा विशीर्णीकृतवान् स दध्नः ॥ १६ ॥
भाण्डं स भित्त्वा दधि किं च पीत्वा
     नीत्वोत्तरीयं मम चेदुरीयम् ।
नन्दीश्वराद्रेर्विदिशं जगाम
     तेनाहमाराद्‌विमनाः स्म जाता ॥ १७ ॥
जात्या स गोपः किल कृष्णवर्णो
     ऽधनी न वीरो न हि शीलरूपः ।
यस्मिंस्त्वया प्रेम कृतं सुशीले
     त्यजाशु निर्मोहनमद्य कृष्णम् ॥ १८ ॥
इत्थं सवैरं परुषं वचस्तत्
     श्रुत्वा च राधा वृषभानुनन्दिनी ।
सुविस्मिता वाक्यपदे सरस्वती
     पदं स्मयन्ती निजगाद तां प्रति ॥ १९ ॥


राधोवाच -
यत्प्राप्तये विधिहरप्रमुखास्तपन्ति
     वह्नौ तपः परमया निजयोगरीत्या ।
दत्तः शुकः कपिल आसुरिरंगिरा
     यत्पादारविन्दमकरन्दरजः स्पृशन्ति ॥ २० ॥
तं कृष्णमादिपुरुषम् परिपूर्णदेवम्
     लीलावतारमजमार्तिहरं जनानाम् ।
भूभूरिभारहरणाय सतां शुभाय
     जातं विनिन्दसि कथं सखि दुर्विनीते ॥ २१ ॥
गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां च
     गंगां स्पृशन्ति च जपंति गवां सुनाम्नाम् ।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च
     जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः ॥ २२ ॥
तत्कृष्णवर्णविलसत्सुकलां समीक्ष्य
     तस्मिन्विलग्नमनसा सुसुखं विहाय ।
उन्मत्तवद्‌व्रजति धावति नीलकण्ठो
     बिभ्रत्कपर्दविषभस्मकपालसर्पान् ॥ २३ ॥
स्वर्लोकसिद्धमुनियक्ष मरुद्‌गणानां
     पालाः समस्तनरकिन्नरनागनाथाः ।
यत्पादपद्ममनिशं प्रणिपत्य भक्त्या
     लब्धश्रियः किल बलिं प्रददुः स्म तस्मै ॥ २४ ॥
वत्साघकालियबकार्जुनधेनुकाना-
     माचक्रवातशकटासुरपूतनानाम् ।
एषां वधः किमुत तस्य यशो मुरारे-
     र्यः कोटिशोऽण्डनिचयोद्‌भवनाशहेतुः ॥ २५ ॥
भक्तात्प्रियो न विदितः पुरुषोत्तमस्य
     शंभुर्व्हिधिर्न च रमा न च रौहिणेयः ।
भक्ताननुव्रजति भक्ति निबद्ध चित्तः
     चुडामणिः सकललोकजनस्य कृष्णः ॥ २६ ॥
गच्छन्निजं जनमनुप्रपुनाति लोका-
     नावेदयन् हरिजने स्वरुचिं महात्मा ।
तस्मादतीव भजतां भगवान् मुकुन्दो
     मुक्तिं ददाति न कदापि सुभक्तियोगम् ॥ २७ ॥

 

गोपदेवीने कहा- राधे ! वरसानुगिरिकी घाटियोंमें जो मनोहर साँकरी गली है, उसीसे होकर मैं स्वयं दही बेचने जा रही थी। इतनेमें नन्दजीके नवतरुण कुमार श्यामसुन्दरने मुझे मार्गमें रोक लिया। उनके हाथमें वंशी और बेंतकी छड़ी थी। उन रसिकशेखरने लाजको तिलाञ्जलि दे, तुरंत मेरा हाथ पकड़ लिया और जोर-जोर से हँसते हुए, उस एकान्त वनमें वे इस प्रकार कहने लगे- 'सुन्दरी ! मैं कर लेनेवाला हूँ । अतः तू मुझे करके रूपमें दहीका दान दे।' मैंने कहा - 'चलो, हटो। अपने-आप कर लेनेवाले बने हुए तुम जैसे गोरस- लम्पटको मैं कदापि दान नहीं दूँगी।' मेरे इतना कहते ही उन्होंने सिरपरसे दहीका मटका उतार लिया और उसे फोड़ डाला । मटका फोड़कर थोड़ी-सी दही पीकर मेरी चादर उतार ली और नन्दीश्वर गिरिकी ईशानकोणवाली दिशाकी ओर वे चल दिये। इससे मैं बहुत अनमनी हो रही हूँ । जातका ग्वाला, काला-कलूटा रंग, न धनवान् न वीर, न सुशील और न सुरूप ? सुशीले! ऐसे पुरुषके प्रति तुमने प्रेम किया, यह ठीक नहीं। मैं कहती हूँ, तुम आजसे शीघ्र ही उस निर्मोही कृष्णको मनसे निकाल दो (उसे सर्वथा त्याग दो) । इस प्रकार वैरभावसे युक्त कठोर वचन सुनकर वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाको बड़ा विस्मय हुआ। वे वाक्य और पदोंके प्रयोगके सम्बन्धमें सरस्वतीके चरणोंका स्मरण करती हुई उनसे बोलीं- ॥ १४–१९ ॥

श्रीराधाने कहा- सखी! जिनकी प्राप्तिके लिये ब्रह्मा और शिव आदि देवता अपनी उत्कृष्ट योगरीति से पञ्चाग्निसेवनपूर्वक तप करते हैं; दत्तात्रेय, शुक, कपिल, आसुरि और अङ्गिरा आदि भी जिनके चरणारविन्दोंके मकरन्द और परागका सादर स्पर्श करते हैं; उन्हीं अजन्मा, परिपूर्ण देवता, लीलावतारधारी, सर्वजन दुःखहारी, भूतल - भूरि-भार- हरणकारी तथा सत्पुरुषोंके कल्याणके लिये यहाँ प्रकट हुए आदिपुरुष श्रीकृष्णकी निन्दा कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ग्वाले सदा गौओंका पालन करते हैं, गोरजकी गङ्गामें नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओंके उत्तम नामोंका जप करते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओंके सुन्दर मुखका दर्शन होता है। मेरी समझमें तो इस भूतलपर गोप-जातिसे बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है। तुम उसे काला कलूटा बताती हो; किंतु उन श्यामसुन्दर श्रीकृष्णकी श्याम विभासे विलसित सुन्दर कलाका दर्शन करके उन्हींमें मन लग जानेके कारण भगवान् नीलकण्ठ औरोंके सुन्दर मुखको छोड़कर जटाजूट, हलाहल विष, भस्म, कपाल और सर्प धारण किये उस काले-कलूटेके लिये ही पागलोंकी भाँति व्रजमें दौड़ते फिरते हैं ॥ २०-२३

स्वर्गलोक, सिद्ध, मुनि, यक्ष और मरुद्गणोंके पालक तथा समस्त नरों, किंनरों और नागोंके स्वामी भी निरन्तर भक्तिभावसे जिनके चरणारविन्दोंमें प्रणिपात करके उत्कृष्ट लक्ष्मी एवं ऐश्वर्यको पाकर निश्चय ही उन्हें बलि (कर) समर्पित किया करते हैं, उनको तुम निर्धन कहती हो ? वत्सासुर, अघासुर, कालियनाग, बकासुर, यमलार्जुन वृक्ष, तृणावर्त, शकटासुर और पूतना आदिका वध (सम्भवतः तुम्हारी दृष्टिमें उनकी वीरताका परिचायक नहीं है ! मेरा भी ऐसा ही मत है।) उन मुरारिके लिये क्या यश देनेवाला हो सकता है, जो कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड समूहोंके एकमात्र स्रष्टा और संहारक हैं ? उन पुरुषोत्तमके लिये भक्तसे बढ़कर कोई प्रिय हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता । शंकर, ब्रह्मा, लक्ष्मी तथा रोहिणीनन्दन बलरामजी भी उनके लिये भक्तोंसे अधिक प्रिय नहीं हैं। वे भक्तिसे बद्धचित्त होकर भक्तोंके पीछे-पीछे चलते हैं। अतः श्रीकृष्ण केवल सुशील ही नहीं, समस्त लोकोंके सुजन-समुदायके चूडामणि हैं। वे भक्तोंके पीछे चलते हुए अपने रोम-रोममें स्थित लोकोंको पवित्र करते रहते हैं। वे परमात्मा अपने भक्तजनोंके प्रति सदा ही अभिरुचि सूचित करते रहते हैं । अतः अत्यन्त भजन करनेवालोंको भगवान् मुकुन्द मुक्ति तो अनायास दे देते हैं, किंतु उत्तम भक्तियोग कदापि नहीं देते; क्योंकि उन्हें भक्तिके बन्धनमें बँधे रहना पड़ता है ॥ २ - २७ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट ०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०६)

राजाका सृष्टिविषयक प्रश्न और शुकदेवजी का कथारम्भ

यदङ्घ्र्यभिध्यानसमाधिधौतया
    धियानुपश्यन्ति हि तत्त्वमात्मनः ।
वदन्ति चैतत् कवयो यथारुचं
    स मे मुकुंदो भगवान् प्रसीदताम् ॥ २१ ॥
प्रचोदिता येन पुरा सरस्वती
    वितन्वताऽजस्य सतीं स्मृतिं हृदि ।
स्वलक्षणा प्रादुरभूत् किलास्यतः
    स मे ऋषीणां ऋषभः प्रसीदताम् ॥ २२ ॥
भूतैर्महद्‌भिर्य इमाः पुरो विभुः
    निर्माय शेते यदमूषु पूरुषः ।
भुङ्क्ते गुणान् षोडश षोडशात्मकः
    सोऽलङ्कृषीष्ट भगवान् वचांसि मे ॥ २३ ॥
नमस्तस्मै भगवते वासुदेवाय वेधसे ।
पपुर्ज्ञानमयं सौम्या यन्मुखाम्बुरुहासवम् ॥ २४ ॥
एतद् एवात्मभू राजन् नारदाय विपृच्छते ।
वेदगर्भोऽभ्यधात् साक्षाद् यदाह हरिरात्मनः ॥ २५ ॥

विद्वान् पुरुष जिनके चरणकमलोंके चिन्तनरूप समाधिसे शुद्ध हुई बुद्धिके द्वारा आत्मतत्त्वका साक्षात्कार करते हैं तथा उनके दर्शनके अनन्तर अपनी-अपनी मति और रुचिके अनुसार जिनके स्वरूपका वर्णन करते रहते हैं, वे प्रेम और मुक्तिके लुटानेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हों ॥ २१ ॥ जिन्होंने सृष्टिके समय ब्रह्माके हृदयमें पूर्वकल्पकी स्मृति जागरित करनेके लिये ज्ञानकी अधिष्ठात्री देवीको प्रेरित किया और वे अपने अङ्गोंके सहित वेदके रूपमें उनके मुखसे प्रकट हुर्ईं, वे ज्ञानके मूलकारण भगवान्‌ मुझपर कृपा करें, मेरे हृदयमें प्रकट हों ॥ २२ ॥ भगवान्‌ ही पञ्चमहाभूतोंसे इन शरीरोंका निर्माण करके इनमें जीवरूपसे शयन करते हैं और पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच प्राण और एक मन—इन सोलह कलाओंसे युक्त होकर इनके द्वारा सोलह विषयोंका भोग करते हैं। वे सर्वभूतमय भगवान्‌ मेरी वाणीको अपने गुणोंसे अलङ्कृत कर दें ॥ २३ ॥ संत पुरुष जिनके मुखकमलसे मकरन्दके समान झरती हुई ज्ञानमयी सुधाका पान करते रहते हैं उन वासुदेवावतार सर्वज्ञ भगवान्‌ व्यासके चरणोंमें मेरा बार-बार नमस्कार है ॥ २४ ॥
परीक्षित्‌ ! वेदगर्भ स्वयम्भू ब्रह्माने नारदके प्रश्न करनेपर यही बात कही थी, जिसका स्वयं भगवान्‌ नारायण ने उन्हें उपदेश किया था (और वही मैं तुमसे कह रहा हूँ) ॥ २५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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बुधवार, 31 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

श्रीकृष्ण के द्वारा गोपदेवीरूप से श्रीराधा के प्रेम की परीक्षा तथा

श्रीराधा को श्रीकृष्णका दर्शन


श्रीनारद उवाच -
अथ रात्र्यां व्यतीतायां मायायोषिद्‌वपुर्हरिः ।
राधादुःखप्रशान्त्यर्थं वृषभानोर्गृहं ययौ ॥ १ ॥
राधा तमागतं वीक्ष्य समुत्थायातिहर्षिता ।
दत्तासुना विधानेन पूजयामास मैथिल ॥ २ ॥


श्रीराधोवाच -
त्वया विनाऽहं निशि दुःखिताऽऽसं
     त्वय्यागतायां सखि लब्धवस्तुवत् ।
पूर्वं ह्यपथ्यस्य सुखं यथा ततो
     दुःखं तथा भामिनि मत्प्रसंगतः ॥ ३ ॥


श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वाऽथ तद्वाक्यं विमना गोपदेवता ।
न किंचिदूचे श्रीराधां दुःखितेव व्यवस्थिता ॥ ४ ॥
विज्ञाय खेदसंपन्नां राधिकां गोपदेवताम् ।
सखीभिः संविचार्याथ जगाद स्नेहतत्परा ॥ ५ ॥


राधोवाच -
विमनास्त्वं कथं भद्रे वद मां गोपदेवते ।
मात्रा भर्त्रा ननांद्रा वा श्वश्र्वा क्रोधेन भर्त्सिता ॥ ६ ॥
सपत्‍नीकृतदोषेण स्वभर्तुर्विरहेण वा ।
अन्यत्र लग्नचित्तेन विमनाः किं मनोहरे ॥ ७ ॥
मार्गखेदेन वा कच्चिद्‌विह्वलाऽभूद्रुजाऽथवा ।
शीघ्रं वद महाभागे स्वस्य दुःखस्य कारणम् ॥ ८ ॥
कृष्णभक्तमृते विप्रं येन केनापि कुत्सितम् ।
कथितं तेऽथ रंभोरु तच्चिकित्सां करोम्यहम् ॥ ९ ॥
गजाश्वादीनि रत्‍नानि वस्त्राणि च धनानि च ।
मन्दिराणि विचित्राणि गृहाण त्वं यदीच्छसि ॥ १० ॥
धनं दत्त्वा तनुं रक्षेत्तनुं दत्त्वा त्रपां व्यधात् ।
धनं तनुं त्रपां दद्यान्मित्रकार्यार्थमेव हि ।
धनं दत्त्वा च सततं रक्षेत्प्राणान्निरन्तरम् ॥ ११ ॥
यो मित्रतां निष्कपटं करोति
     निष्कारणमं धन्यतमं स एव ।
विधाय मैत्रीं कपटं विदध्या-
     त्तं लंपटं हेतुपटं नटं धिक् ॥ १२ ॥
तस्याः प्रेमवचः श्रुत्वा भगवान् गोपदेवता ।
प्रहसन्नाह राजेन्द्र श्रीराधां कीर्तिनन्दिनीम् ॥ १३ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! तदनन्तर रात व्यतीत होनेपर मायासे नारीका रूप धारण करनेवाले श्रीहरि श्रीराधाका दुःख शान्त करनेके लिये वृषभानु-भवनमें गये। उन्हें आया देखकर श्रीराधा उठकर बड़े हर्षके साथ भीतर लिवा ले गयीं और आसन देकर विधि विधानके साथ उनका पूजन किया ॥ १-२ ॥

श्रीराधा बोलीं- सखी! तुम्हारे बिना मैं रातभर बहुत दुःखी रही और तुम्हारे आ जानेसे मुझे इतनी प्रसन्नता हुई है, मानो कोई खोयी हुई वस्तु मिल गयी हो । जैसे कुपथ्य- सेवनसे पहले तो सुख मालूम होता है, किंतु पीछे दुःख भोगना पड़ता है, इसी तरह सत्सङ्गसे भी पहले सुख होता है और पीछे वियोगका दुःख उठाना पड़ता है ॥ ३ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! श्रीराधाकी यह बात सुनकर गोपदेवी अनमनी हो गयीं। वे श्रीराधासे कुछ भी नहीं बोलीं । किसी दुःखिनीकी भाँति चुपचाप बैठी रहीं । गोपदेवीको खिन्न जानकर श्रीराधिकाने सखियोंके साथ विचार करके, स्नेहतत्पर हो, इस प्रकार कहा ।। ४-५ ॥

श्रीराधा बोलीं- गोपदेवि ! तुम अनमनी क्यों हो गयीं ? कल्याणि ! मुझे इसका कारण बताओ। माता, पति, ननद अथवा सासने कुपित होकर तुम्हें फटकारा तो नहीं है ? मनोहरे ! किसी सौतके दोषसे या अपने पतिके वियोगसे अथवा अन्यत्र चित्त लग जानेसे तो तुम्हारा मन खिन्न नहीं हुआ है ? क्या कारण है ? महाभागे ! रास्ता चलनेकी थकावटसे या शरीरमें कोई रोग हो जानेसे तो तुम्हें खेद नहीं हुआ है ? अपने दुःखका कारण शीघ्र बताओ । रम्भोरु ! किसी कृष्ण- भक्त या ब्राह्मणको छोड़कर दूसरे जिस किसीने भी तुमसे कोई कुत्सित बात कह दी हो तो मैं उसकी चिकित्सा करूँगी (उसे दण्ड दूँगी) । यदि तुम्हारी इच्छा हो तो हाथी, घोड़े आदि वाहन, नाना प्रकारके रत्न, वस्त्र, धन और विचित्र भवन मुझसे ग्रहण करो ।

धन देकर शरीरकी रक्षा करे, शरीरका भी उत्सर्ग करके लाजकी रक्षा करे तथा मित्रके कार्यकी सिद्धिके लिये तन, धन और लज्जाको भी अर्पित कर दे। धन देकर निरन्तर प्राणोंकी रक्षा करे। जो बिना किसी कारण या कामनाके निश्छल भावसे मित्रताका निर्वाह करता है, वही मनुष्य परम धन्य है । जो मैत्री स्थापित करके कपट करता है, उस स्वार्थ-साधनमें पटु लम्पट नटको धिक्कार है। राजेन्द्र ! उनका यह प्रेमपूर्ण वचन सुनकर गोपदेवीके रूपमें आये हुए भगवान् उन कीर्तिनन्दिनी श्रीराधासे हँसते हुए बोले ।। ६–१३ ॥

 

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मंगलवार, 30 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

श्रीकृष्ण का गोपदेवी के रूप से वृषभानु-भवन में जाकर श्रीराधा से मिलना

 

श्रीनारद उवाच -
एवं राधावचः श्रुत्वा मायायुवतिवेषधृक् ।
उवाच भगवान् कृष्णो राधां कमललोचनाम् ॥ ३० ॥


श्रीभगवानुवाच -
रम्भोरु नन्दनगरे नन्दगेहस्य चोत्तरे ।
गोकुले वसतिर्मेऽस्ति नाम्नाऽहं गोपदेवता ॥ ३१ ॥
त्वद्‌रूपगुणमाधुर्यं श्रुतं मे ललितामुखात् ।
तद्‌द्रष्टुं चंचलापाङ्‌गि त्वद्‌गृहेऽहं समागता ॥ ३२ ॥
श्रीमल्लवंगलतिकास्फुटमोदिनीनां
     गुञ्जानिकुञ्जमधुप- ध्वनिकुञ्जपुञ्जम् ।
दृष्टं श्रुतं नवनवं तव कंजनेत्रे
     दिव्यं पुरंदरपुरेऽपि न यत्समानम् ॥ ३३ ॥


श्रीनारद उवाच -
एवं तयोर्मेलनं तद्‌बभूव मिथिलेश्वर ।
प्रीतिं परस्परं कृत्वा वने तत्र विरेजतुः ॥ ३४ ॥
हसन्त्यौ ते च गायन्त्यौ पुष्पकन्दुकलीलया ।
पश्यन्त्यौ वनवृक्षांश्च चेरतुर्मैथिलेश्वर ॥ ३५ ॥
कलाकौशल संपन्नां राधां कमललोचनाम् ।
गिरा मधुरया राजन् प्राहेदं गोपदेवता ॥ ३६ ॥


गोपदेवतोवाच -
दूरे वै नन्दनगरं सन्ध्या जाता व्रजेश्वरि ।
प्रभाते चागमिष्यामि त्वत्सकाशं न संशयः ॥ ३७ ॥


श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा वचस्तस्य तु तद्‌व्रजेश्वरीं
     निक्षिप्य सद्यो नयनांबुसन्ततिम् ।
रोमांचहर्षोद्‌गमभावसंवृता
     रंभेव भूमौ पतिता मरुद्धता ॥ ३८ ॥
शंकागतास्तत्र सखीगणास्त्वरं
     सुवीजयन्त्यो व्यजनैर्व्यवस्थिताः ।
श्रीखण्डपुष्प द्रवचर्चितांऽशुकां
     जगाद राधां नृप गोपदेवता ॥ ३९ ॥


गोपदेवतोवाच -
प्रभाते आगमिष्यामि मा शोकं कुरु राधिके ।
गोश्च भ्रातुर्गोरसस्य शपथो मे न चेदिदम् ॥ ४० ॥


श्रीनारद उवाच -
एवमुक्त्वा हरी राधां समाश्वास्य नृपेश्वर ।
मायायुवतिवेषोऽसौ ययौ श्रीनन्दगोकुलम् ॥ ४१ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर मायासे युवतीका वेष धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने कमलनयनी राधासे इस प्रकार कहा- ॥ ३० ॥

श्रीभगवान् बोले – रम्भोरु ! नन्दनगर गोकुलमें नन्दभवनसे उत्तर दिशामें मेरा निवास है । मेरा नाम 'गोपदेवी' है। मैंने ललिताके मुखसे तुम्हारी रूप- माधुरी और गुण-माधुरीका वर्णन सुना है; अतः चञ्चल लोचनोंवाली सुन्दरी ! मैं तुम्हें देखनेके लिये यहाँ तुम्हारे घरमें चली आयी हूँ । कमललोचने ! जहाँ ललित लवङ्गलता की सुस्पष्ट सुगन्ध छा रही है, जहाँके गुञ्जा निकुञ्ज में मधुपोंकी मधुर ध्वनिसे युक्त कंजपुष्प खिल रहे हैं, वह श्रुतिपथमें आया हुआ तुम्हारा नित्य- नूतन दिव्य नगर आज अपनी आँखों देख लिया । इसके समान सुन्दर तो देवराज इन्द्रकी पुरी अमरावती भी नहीं होगी ।। ३१–३३ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! इस प्रकार दोनों प्रिया-प्रियतम का मिलन हुआ। वे परस्पर प्रीतिका परिचय देते हुए वहाँ उपवनमें शोभा पाने लगे । पुष्पमय कन्दुक (गेंद) के खेल खेलते हुए वे दोनों हँसते और गीत गाते थे। वनके वृक्षोंको देखते हुए वे इधर-उधर विचरने लगे । राजन् ! कला- कौशलसे सम्पन्न कमललोचना राधाको सम्बोधित करके गोपदेवीने मधुर वाणीसे कहा || ३४ – ३६॥

गोपदेवी बोली - व्रजेश्वरि ! नन्दनगर यहाँसे दूर है और अब संध्या हो गयी है, अतः जाती हूँ । कल प्रातः काल तुम्हारे पास आऊँगी, इसमें संशय नहीं है ॥ ३७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! गोपदेवीकी यह बात सुनकर व्रजेश्वरी श्रीराधाके नयनोंसे तत्काल आँसुओंकी धारा बह चली। वे रोमाञ्च तथा हर्षोद्गमके भावसे आवृत हो कटे हुए कदलीवृक्षकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ीं। यह देख वहाँ सखियाँ सशङ्क हो गयीं और तुरंत व्यजन लेकर, पास खड़ी हो, हवा करने लगीं। उनके वस्त्रोंपर चन्दन-पुष्पोंके इत्र छिड़के गये । उस समय गोपदेवीने श्रीराधासे कहा ।। ३८-३९ ॥

गोपदेवी बोली- राधिके ! मैं प्रातः काल अवश्य आऊँगी तुम चिन्ता न करो। यदि ऐसा न हो तो मुझे गाय, गोरस और अपने भाईकी सौगन्ध है ॥ ४० ॥

नारदजी कहते हैं— नृपेश्वर ! यों कहकर मायासे युवतीका वेष धारण करनेवाले श्रीहरि राधाको धीरज बँधा- कर श्रीनन्दगोकुल (नन्दगाँव) में चले गये ॥ ४१ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'श्रीराधा-कृष्ण-संगम' नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट ०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०५)

राजाका सृष्टिविषयक प्रश्न और शुकदेवजी का कथारम्भ

तपस्विनो दानपरा यशस्विनो
    मनस्विनो मंत्रविदः सुमङ्गलाः ।
क्षेमं न विन्दन्ति विना यदर्पणं
    तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥ १७ ॥
किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कशा
    आभीरकङ्का यवनाः खसादयः ।
येऽन्ये च पापा यदपाश्रयाश्रयाः
    शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः ॥ १८ ॥
स एष आत्मात्मवतामधीश्वरः
    त्रयीमयो धर्ममयस्तपोमयः ।
गतव्यलीकैरजशङ्करादिभिः
    वितर्क्यलिङ्गो भगवान्प्रसीदताम् ॥ १९ ॥
श्रियः पतिर्यज्ञपतिः प्रजापतिः
    धियां पतिर्लोकपतिर्धरापतिः ।
पतिर्गतिश्चान्धकवृष्णिसात्वतां
    प्रसीदतां मे भगवान् सतां पतिः ॥ २० ॥

बड़े-बड़े तपस्वी, दानी, यशस्वी, मनस्वी, सदाचारी और मन्त्रवेत्ता जबतक अपनी साधनाओंको तथा अपने-आपको उनके चरणोंमें समर्पित नहीं कर देते, तबतक उन्हें कल्याणकी प्राप्ति नहीं होती। जिनके प्रति आत्मसमर्पणकी ऐसी महिमा है, उन कल्याणमयी कीर्तिवाले भगवान्‌ को बार-बार नमस्कार है ॥ १७ ॥ किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कङ्क, यवन और खस आदि नीच जातियाँ तथा दूसरे पापी जिनके शरणागत भक्तोंकी शरण ग्रहण करनेसे ही पवित्र हो जाते हैं, उन सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ को बार- बार नमस्कार है ॥ १८ ॥ वे ही भगवान्‌ ज्ञानियोंके आत्मा हैं, भक्तोंके स्वामी हैं, कर्मकाण्डियोंके लिये वेदमूर्ति हैं, धार्मिकोंके लिये धर्ममूर्ति हैं और तपस्वियोंके लिये तप:स्वरूप हैं। ब्रह्मा, शङ्कर आदि बड़े-बड़े देवता भी अपने शुद्ध हृदयसे उनके स्वरूपका चिन्तन करते और आश्चर्यचकित होकर देखते रहते हैं। वे मुझपर अपने अनुग्रहकी—प्रसादकी वर्षा करें ॥ १९ ॥ जो समस्त सम्पत्तियोंकी स्वामिनी लक्ष्मीदेवीके पति हैं, समस्त यज्ञोंके भोक्ता एवं फलदाता हैं, प्रजाके रक्षक हैं, सबके अन्तर्यामी और समस्त लोकोंके पालनकर्ता हैं तथा पृथ्वीदेवीके स्वामी हैं, जिन्होंने यदुवंशमें प्रकट होकर अन्धक, वृष्णि एवं यदुवंशके लोगोंकी रक्षा की है, तथा जो उन लोगोंके एकमात्र आश्रय रहे हैं—वे भक्तवत्सल, संतजनोंके सर्वस्व श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हों ॥ २० ॥ 

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सोमवार, 29 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

 

 # श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

श्रीकृष्ण का गोपदेवी के रूप से वृषभानु-भवन में जाकर श्रीराधा से मिलना

 

पतन्ति यत्र भ्रमरा मधुमत्ता नृपेश्वर ।
गन्धाक्तः शीतलो वायुर्मन्दगामी वहत्यलम् ॥ १५ ॥
सहस्रदलपद्मानां रजो विक्षेपयन्मुहुः ।
पुंस्कोकिला कोकिलाश्च मयूराः सारसाः शुकाः ॥ १६ ॥
कूजन्ते मधुरं नादं निकुंजशिखरेषु च ।
पुष्पशय्यासहस्राणि जलकुल्याः सहस्रशः ॥ १७ ॥
प्रोच्छलन्ति स्फुरत्स्फारा यत्र वै मेघमन्दिरे ।
बालार्ककुण्डलधराः चित्रवस्त्राम्बराननाः ॥ १८ ॥
वर्तन्ते कोटिशो यत्र सख्यस्तत्कर्मकौशलाः ।
तन्मध्ये राधिका राज्ञी भ्रमन्ती मन्दिराजिरे ॥ १९ ॥
काश्मीरपंकसंयुक्ते सूक्ष्मवस्त्रविराजिते ।
शिरीषपुष्पक्षितिजदलैरागुल्फपूरके ॥ २० ॥
मालतीमकरन्दानां क्षरद्‌भिर्बिन्दुभिर्वृते ।
कोटिचंद्रप्रतीकाशा तन्वी कोमलविग्रहा ।
शनैः शनैः पादपद्मं चालयन्ती च कोमलम् ॥ २१ ॥
समागतां तां मणिमन्दिराजिरे
     ददर्श राधा वृषभानुनन्दिनी ।
यत्तेजसा तल्ललनाहृतत्विषो
     जातास्त्वरं चंद्रमसेव तारकाः ॥ २२ ॥
विज्ञाय तद्‌गौरवमुत्तमं मह-
     दुत्थाय दोर्भ्यां परिरभ्य राधिका ।
दिव्यासने स्थाप्य सुलोकरीत्या
     जलादिकं चार्हणमारभच्छुभम् ॥ २३ ॥


राधोवाच -
स्वागतं ते सखि शुभे नामधेयं वदाशु मे ।
भूरिभाग्यं ममैवाद्य भवत्याऽऽगतया स्वतः ॥ २४ ॥
त्वत्समानं दिव्यरूपं दृश्यते न हि भूतले ।
यत्र त्वं वर्तसे सुभ्रु पत्तनं धन्यमेव तत् ॥ २५ ॥
वद देवि सविस्तारं हेतुमागमनस्य च ।
मम योग्यं च यत्कार्यं वक्तव्यं तत्त्वया खलु ॥ २६ ॥
कटाक्षेण सुदीप्त्या च वचसा सुस्मितेन वै ।
गत्या कृत्या श्रीपतिवद्दृश्यते सांप्रतं मया ॥ २७ ॥
नित्यं शुभे मे मिलनार्थमाव्रज
     न चेत् स्वसंकेतमलं विधेहि ।
येनैव संगो विधिना भवेद्धि
     विधिर्भवत्या स सदा विधेयः ॥ २८ ॥
अयि त्वदात्माऽतिपरं प्रियो मे
     त्वदाकृतिः श्रीव्रजराजनन्दनः ।
येनैव मे देवि हृतं तु चेत-
     स्त्वय ननान्देव वधूर्दधामि तम् ॥ २९ ॥

 

नृपेश्वर ! उस उपवनमें मधु पीकर मतवाले हुए भौरे टूट पड़ते थे। वहाँ शीतल मन्द-सुगन्ध वायु चल रही थी, जो सहस्रदल कमलोंके परागको बारंबार बिखेरा करती थी । उस उद्यानमें निकुञ्ज शिखरोंपर बैठे हुए नर- कोकिल, मादा-कोकिल, मोर, सारस और शुक पक्षी मीठी आवाजमें कूज रहे थे। वहाँ फूलोंकी सहस्रों शय्याएँ सज्जित थीं और पानीकी हजारों नहरें बह रही थीं । वहाँके मेघ मन्दिरमें सैकड़ों फुहारे छूट रहे थे। बालसूर्यके समान कान्तिमान् कुण्डल तथा विचित्र वर्णवाले वस्त्र धारण किये करोड़ों सुन्दरमुखी सखियाँ वहाँ श्रीराधाके सेवा कार्यमें अपनी कुशलता- का परिचय देती थीं। उनके बीचमें श्रीराधिका रानी उस राजमन्दिर में टहल रही थीं। वह राजमन्दिर केसरिया रंगके सूक्ष्म वस्त्रोंसे सजाया गया था । वहाँकी भूमिपर पर्वतीय पुष्प, जलज पुष्प तथा स्थलपर होनेवाले बहुत से पुष्प और कोमल पल्लव इतनी अधिक संख्यामें बिछाये गये थे कि वहाँ पाँव रखनेपर गुल्फ (घुट्ठी) तकका भाग ढक जाता था ॥ १५-२०

मालती के मकरन्दों की बूँदें वहाँ झरती रहती थीं। ऐसे आँगनमें करोड़ों चन्द्रोंके समान कान्तिमती, कोमलाङ्गी एवं कृशाङ्गी श्रीराधा धीरे-धीरे अपने कोमल चरणारविन्दोंका संचालन करती हुई घूम रही थीं। मणि-मन्दिरके आँगनमें आयी हुई उस नवीना गोप- सुन्दरीको वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाने देखा । उसके तेजसे वहाँकी समस्त ललनाएँ हतप्रभ हो गयीं, जैसे चन्द्रमाके उदय होनेसे ताराओंकी कान्ति फीकी पड़ जाती है। उसके उत्तम एवं महान् गौरवका अनुभव करके श्रीराधाने अभ्युत्थान दिया (अगवानी की) और दोनों बाँहोंसे उसका गाढ़ आलिङ्गन करके उसे दिव्य सिंहासनपर बिठाया। फिर लोकरीतिके अनुसार जल आदि उपचार अर्पित करके उसका सुन्दर पूजन (आदर-सत्कार) आरम्भ किया ।। २१–२३ ॥

श्रीराधा बोलीं- सुन्दरी सखी! तुम्हारा स्वागत है। मुझे शीघ्र ही अपना नाम बताओ। तुम स्वतः आज यहाँ आ गयीं, यह मेरे लिये ही महान् सौभाग्यकी बात है। इस भूतलपर तुम्हारे समान दिव्य रूपका कहीं दर्शन नहीं होता । शुभ्रु ! जहाँ तुम जैसी सुन्दरी निवास करती हैं, वह नगर निश्चय ही धन्य है। देवि ! अपने आगमनका कारण विस्तारपूर्वक बताओ। मेरे योग्य जो कार्य हो, वह तुम्हें अवश्य कहना चाहिये। तुम अपनी बाँकी चितवन, सुन्दर दीप्ति, मधुर वाणी, मनोहर मुसकान, चाल-ढाल और आकृतिसे इस समय मुझे श्रीपतिके सदृश दिखायी देती हो । शुभे ! तुम प्रतिदिन मुझसे मिलनेके लिये आया करो। यदि न आ सको तो मुझे ही अपने निवासस्थानका संकेत प्रदान करो। जिस विधिसे हमारा तुम्हारे साथ मिलना सम्भव हो, वह विधि तुम्हें सदा उपयोगमें लानी चाहिये। हे सखी! तुम्हारा यह शरीर मुझे बहुत प्यारा लगता है; क्योंकि मेरे प्रियतम श्रीव्रजराजनन्दनकी आकृति तुम्हारी ही जैसी है, जिन्होंने मेरे मनको हर लिया है। अतः तुम मेरे पास रहो। जैसे भौजाई अपनी ननदको प्यार करती है, उसी प्रकार मैं तुम्हारा आदर करूँगी ।। २४ - २९॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट ०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)

राजाका सृष्टिविषयक प्रश्न और शुकदेवजी का कथारम्भ

नमो नमस्तेऽस्त्वृषभाय सात्वतां
    विदूरकाष्ठाय मुहुः कुयोगिनाम् ।
निरस्तसाम्यातिशयेन राधसा
    स्वधामनि ब्रह्मणि रंस्यते नमः ॥ १४ ॥
यत्कीर्तनं यत्स्मरणं यदीक्षणं
    यद् वंदनं यच्छ्रवणं यदर्हणम् ।
लोकस्य सद्यो विधुनोति कल्मषं
    तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥ १५ ॥
विचक्षणा यच्चरणोपसादनात्
    सङ्गं व्युदस्योभयतोऽन्तरात्मनः ।
विन्दन्ति हि ब्रह्मगतिं गतक्लमाः
    तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥ १६ ॥

जो बड़े ही भक्तवत्सल हैं और हठपूर्वक भक्तिहीन साधन करनेवाले लोग जिनकी छाया भी नहीं छू सकते; जिनके समान भी किसीका ऐश्वर्य नहीं है, फिर उससे अधिक तो हो ही कैसे सकता है तथा ऐसे ऐश्वर्यसे युक्त होकर जो निरन्तर ब्रह्मस्वरूप अपने धाममें विहार करते रहते हैं, उन भगवान्‌ श्रीकृष्णको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ १४ ॥ जिनका कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण और पूजन जीवोंके पापोंको तत्काल नष्ट कर देता है, उन पुण्यकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णको बार-बार नमस्कार है ॥ १५ ॥ विवेकी पुरुष जिनके चरणकमलोंकी शरण लेकर अपने हृदयसे इस लोक और परलोककी आसक्ति निकाल डालते हैं और बिना किसी परिश्रमके ही ब्रह्मपदको प्राप्त कर लेते हैं, उन मङ्गलमय कीर्तिवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णको अनेक बार नमस्कार है ॥ १६ ॥ 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...