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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
रासक्रीडा का वर्णन
राधया शुशुभे रासे यथा रत्या रतीश्वरः
।
एवं गायन् हरिः साक्षात्सुन्दरीगणसंवृतः ॥ २७ ॥
यमुनापुलिनं पुण्यमाययौ राधया युतः ।
गृहीत्वा हस्तपादेन पद्माभं स्वप्रियाकरम् ॥ २८ ॥
निषसाद हरिः कृष्णातीरे नीरमनोहरे ।
पुनर्जल्पन् सुमधुरं पश्यन् वृन्दावनं प्रियम् ॥ २९ ॥
चलन् हसन् राधिकया कुंजं कुंजं चचार ह ।
कुंजे निलीयमानं तं त्वरं त्यक्त्वा प्रियाकरम् ॥ ३० ॥
विलोक्य शाखान्तरितं राधा जग्राह माधवम् ।
राधा दुद्राव तद्धस्ताज्झंकारं कुर्वती पदे ॥ ३१ ॥
निलीयमाना कुंजेषु पश्यतो माधवस्य च ।
धावन् हरिर्गतो यावत्तावद्राधा ततो गता ॥ ३२ ॥
वृक्षपार्श्वे हस्तमात्रादितश्चेतश्च धावती ।
तमालो हेमवल्ल्येव घनश्चंचलया यथा ॥ ३३ ॥
हेमखन्येव नीलाद्री रेजे राधिकया हरिः ।
राधया विश्वमोहिन्या बभौ मदनमोहनः ॥ ३४ ॥
वृन्दावने रासरंगे रत्येव मदनो यथा ।
धृत्वा रूपाणि तावन्ति यावन्ति व्रजयोषितः ॥ ३५ ॥
ननर्त रासरंगेऽसौ रंगभूम्यां नटो यथा ।
गायन्त्यश्चापि नृत्यन्त्यः सर्वा गोप्यो मनोहराः ॥ ३६ ॥
विरेजुः कृष्णचन्द्रैश्च यथा शक्रैः सुरांगनाः ।
वारां विहारं कृष्णायां चकार मधुसूदनः ॥ ३७ ॥
सर्वैर्गोपीगणैः सार्धं यक्षीभिर्यक्षराडिव ।
कबरीकेशपाशाभ्यां प्रसूनैः प्रच्युतैः शुभैः ।
चित्रवर्णैर्बभौ कृष्णो यथोष्णिङ्मुद्रिता तथा ॥ ३८ ॥
मृदंगतालैर्मधुरध्वनिस्वनै-
र्जगुर्यशस्ता मधुसूदनस्य ।
प्रापुर्मुदं पूर्णमनोरथाश्चल-
त्प्रसूनहारा हरिणा गतव्यथाः ॥ ३९ ॥
श्रीहस्तसंताडितवारिबिंदुभिः
स्फारासमस्फूर्जितशीकरद्युभिः ।
वृन्दावनेशो व्रजसुंदरीभी
रेजे गजीभिर्गजराडिव स्वयम् ॥ ४० ॥
विद्याधर्यो देवगंधर्वपत्न्यः
पश्यन्त्यस्ता रासरंगं दिविस्थाः ।
देवैः सार्धं चक्रिरे पुष्पवर्षं
मोहं प्राप्ताः प्रश्लथद्वस्त्रनीव्यः
॥ ४१ ॥
रतिके साथ रतिनाथ की जैसी शोभा होती है, उसी प्रकार रासमण्डलमें श्रीराधाके साथ राधावल्लभकी
हो रही थी। इस प्रकार सुन्दरियोंके अलापसे संयुक्त होकर साक्षात् श्रीहरि अपनी प्रिया
राधाके साथ यमुनाके पुण्य- पुलिनपर आये। उन्होंने अपनी प्राणवल्लभाका हाथ अपने करकमलमें
ले रखा था। यमुना के मनोहर तीरपर उन सुन्दरियोंके साथ श्यामसुन्दर
थोड़ी देर बैठे रहे*। फिर मधुर-मधुर बातें करते हुए अपने प्रिय वृन्दाविपिनकी शोभा
निहारने लगे ।। २७-२९ ॥
वे श्रीराधाके साथ चलते
और हास-विनोद करते हुए कुञ्जवनमें विचरने लगे। एक कुञ्जमें प्रियाका हाथ छोड़कर वे
तुरंत कहीं छिप गये। किंतु एक शाखाकी ओटमें उन्हें खड़ा देख श्रीराधाने माधवको अविलम्ब
जा पकड़ा। फिर श्रीराधा उनके हाथसे छूटकर पग- पगपर नूपुरोंका झंकार प्रकट करती हुई
भागीं और माधवके देखते-देखते कुञ्जोंमें छिपने लगीं । माधव हरि ज्यों ही दौड़कर उनके
स्थानपर पहुँचे, त्यों-ही राधा वहाँसे अन्यत्र चली गयीं ।। ३०-३२ ॥
वृक्षोंके पास हाथ- भरकी दूरीपर इधर-उधर वे भागने
लगीं। उस समय श्रीराधाके साथ श्यामसुन्दर हरिकी उसी तरह शोभा हो रही थी, जैसे सुवर्णलतासे
श्याम तमालकी, चपलासे घनमण्डलकी तथा सोनेकी खानसे नीलाचलकी होती है । वृन्दावनमें रासकी
रङ्गस्थलीमें रतिके साथ कामदेवकी भाँति विश्वमोहिनी श्रीराधाके साथ मदनमोहन श्रीकृष्ण
सुशोभित हो रहे थे ॥३३-३४ ॥
जितनी व्रजसुन्दरियाँ
वहाँ विद्यमान थीं, उतने ही रूप धारण करके रङ्गभूमिमें नटके समान नटवर श्रीकृष्ण रासरङ्गमें
नृत्य करने लगे। उनके साथ सम्पूर्ण मनोहर गोप सुन्दरियाँ भी गाने और नृत्य करने लगीं
॥३५-३६ ॥
अनेक कृष्णचन्द्रोंके
साथ वे गोपसुन्दरियाँ ऐसी जान पड़ती थीं, मानो बहुसंख्यक इन्द्रोंके साथ देवाङ्गनाएँ
नृत्य कर रही हों । तदनन्तर मधुसूदन श्रीकृष्ण समस्त गोप- सुन्दरियोंके साथ यमुनाजल में विहार करने लगे- ठीक उसी तरह जैसे यक्षसुन्दरियोंके साथ यक्षराज
कुबेर विहार करते हैं । उन सुन्दरियों के केशपाश तथा कबरी (बँधी
हुई चोटी) से खिसककर गिरे हुए सुन्दर चित्र-विचित्र पुष्पोंसे यमुनाजीकी ऐसी शोभा हो
रही थी, जैसे किसी नीलपटपर विभिन्न रंगके फूल छाप दिये गये हों ॥३७-३८ ॥
मृदङ्ग और खड़तालोंकी
मधुर ध्वनिके साथ वे व्रजाङ्गनाएँ मधुसूदनका यश गाती थीं। उनका मनोरथ पूर्ण हो गया।
श्रीहरिने उनकी सारी व्यथा हर ली थी। उनके पुष्पहार चञ्चल हो रहे थे और वे परमानन्दमें
निमग्न हो गयी थीं। जिनके सुन्दर हाथोंसे ताडित हो उछलते हुए वारि-बिन्दु, जो फुहारोंसे
छूटते हुए असंख्य अनुपम जलकणोंकी छवि धारण कर रहे थे, उन व्रज-सुन्दरियोंके साथ वृन्दावनाधीश्वर
श्रीकृष्ण ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो बहुत-सी हथिनियोंके साथ यूथपति गजराज सुशोभित हो
रहा हो । आकाशमें खड़ी हुई विद्याधरियाँ, देवाङ्गनाएँ तथा गन्धर्वपत्नियाँ उस रास
- रङ्गको देखती हुई वहाँ देवताओंके साथ पुष्पवर्षा कर रही थीं। वे सब की सब मोहको प्राप्त
हो गयी थीं। उनके वस्त्रोंके नीवी-बन्ध ढीले पड़कर खिसक रहे थे । ३९
– ४१ ।।
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें
वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'रासलीला' नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से