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गुरुवार, 8 अगस्त 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
बुधवार, 7 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
श्रीराधा
और श्रीकृष्ण के परस्पर शृङ्गार-धारण, रास, जलविहार एवं वनविहार का वर्णन
शिरोमणिं
सुंदरी च रत्नवेणीं प्रहर्षिणी ।
भूषणे चन्द्रसूर्याख्ये विद्युत्कोटिसमप्रभे ॥ १३ ॥
राधिकायै ददौ देवी वृन्दा वृन्दावनेश्वरी ।
एवं शृङ्गारसंस्फूर्जद्रूपया राधया हरिः ॥ १४ ॥
गिरिराजे बभौ राजन् यज्ञो दक्षिणया यथा ।
यत्र वै राधया रासे शृङ्गारोऽकारि मैथिल ॥ १५ ॥
तत्र गोवर्धने जातं स्थलं शृङ्गारमंडलम् ।
अथ कृष्णः स्वप्रियाभिर्ययौ चन्द्रसरोवरम् ॥ १६ ॥
चकार तज्जले क्रीडां गजीभिर्गजराडिव ।
तत्र चंद्रः समागत्य चंद्रकान्तौ मणी शुभौ ॥ १७ ॥
सहस्रदलपद्मे द्वे स्वामिन्यै हरये ददौ ।
अथ कृष्णो हरिः साक्षात् पश्यन् वृंदावनश्रियम् ॥ १८ ॥
प्रययौ बाहुलवनं लताजालसमन्वितम् ।
तत्र स्वेदसमायुक्तं वीक्ष्य सर्वं सखीजनम् ॥ १९ ॥
रागं तु मेघमल्लारं जगौ वंशीधरः स्वयम् ।
सद्यस्तत्रैव ववृषुर्मेधा अंबुकणांस्तथा ॥ २० ॥
तदैव शीतलो वायुर्ववौ गंधमनोहरः ।
तेन गोपीगणाः सर्वे सुखं प्राप्ता विदेहराट् ॥ २१ ॥
जगुर्यशः श्रीमुरारेरुच्चैस्तत्र समन्विताः ।
तस्मात्तालवनं प्रागाच्छ्रीकृष्णो राधिकापतिः ॥ २२ ॥
रासमंडलमारेभे गायन् व्रजवधूवृतः ।
तत्र गोपीगणाः सर्वे स्वेदयुक्तास्तृषातुराः ॥ २३ ॥
गोप्य ऊचुः -
ऊचू रासेश्वरं रासे कृतांजलिपुटाः शनैः ।
दूरं वै यमुना देव तृषा जाता परं हि नः ॥ २४ ॥
कर्तव्यं भवताऽत्रैव रासे दिव्यं मनोहरम् ।
वारां विहारं पानं च करिष्यामो हरे वयम् ॥ २५ ॥
सुन्दरीने चूडामणि तथा
प्रहर्षिणीने रत्नमयी वेणी प्रदान की । वृन्दावनाधीश्वरी वृन्दादेवीने श्रीराधाको करोड़ों
बिजलियोंके समान विद्योतमान चन्द्र-सूर्य नामक दो आभूषण भेंट किये। इस प्रकार शृङ्गार
धारण करके श्रीराधाका रूप दिव्य ज्योतिसे उद्भासित हो
उठा ॥ १३- १४ ॥
राजन् ! उनके साथ गिरिराजपर
श्रीहरि दक्षिणाके साथ यज्ञनारायणकी भाँति सुशोभित हुए । मिथिलेश्वर ! जहाँ रासमें
श्रीराधाने शृङ्गार धारण किया, गोवर्धन पर्वतपर वह स्थान 'शृङ्गार-मण्डल' के नामसे
विख्यात हो गया । तदनन्तर श्रीकृष्ण अपनी प्रिया गोपसुन्दरियों के
साथ चन्द्रसरोवर पर गये । उसके जलमें उन्होंने हथिनियोंके साथ
गजराजकी भाँति विहार किया। वहाँ साक्षात् चन्द्रमाने आकर स्वामिनी श्रीराधा और श्यामसुन्दर
श्रीहरिको दो सुन्दर चन्द्रकान्तमणियाँ तथा दो सहस्रदल कमल भेंट किये। तत्पश्चात् साक्षात्
श्रीहरि कृष्ण वृन्दावनकी शोभा निहारते हुए लता - वल्लरियोंसे व्याप्त बहुलावनमें गये।
वहाँ सम्पूर्ण सखीजनोंको पसीनेसे भींगा देख वंशीधरने 'मेघमल्लार' नामक राग गाया। फिर
तो वहाँ उसी समय बादल घिर आये और जलकी फुहारें बरसाने लगे ।। १५ - २० ॥
विदेहराज ! उसी समय अपनी
सुगन्धसे सबका मन मोह लेनेवाली शीतल वायु चलने लगी। उससे समस्त गोपाङ्गनाओंको बड़ा
सुख मिला। वे वहाँ एकत्र सम्मिलित हो उच्चस्वरसे श्रीमुरारि का यश गाने लगीं । वहाँसे
राधावल्लभ श्रीकृष्ण तालवनको गये। उस वनमें व्रजवधूटियों से घिरे हुए श्रीहरिने मण्डलाकार
रासनृत्य आरम्भ किया। उस नृत्यमें समस्त गोप- सुन्दरियाँ पसीना-पसीना हो गयीं और प्याससे
व्याकुल हो उठीं। उन सबने हाथ जोड़कर रासमण्डलमें रासेश्वरसे कहा ।। २१–२३ ॥
गोपियाँ बोलीं- देव
! यमुनाजी तो यहाँसे बहुत दूर हैं और हमलोगोंको बड़े जोरसे प्यास
लगने लगी है। हरे ! हम यह भी चाहती हैं कि आप यहीं दिव्य मनोहर रास करें। हम आपके साथ
यहीं जलविहार और जलपान करेंगी। आप इस जगत्के सृष्टि, पालन तथा संहार
के भी नायक हैं ।। २४-२५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
मंगलवार, 6 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीराधा
और श्रीकृष्ण के परस्पर शृङ्गार-धारण, रास, जलविहार एवं वनविहार का वर्णन
अथ कृष्णो
हरिर्वारि लीलां कृत्त्वा मनोहरः ।
सर्वैर्गोपीगणैः सार्धं गिरिं गोवर्धनं ययौ ॥ १ ॥
गोवर्धने कन्दरायां रत्नभूम्यां हरिः स्वयम् ।
रासं च राधया सार्धं रासेश्वर्या चकार ह ॥ २ ॥
तत्र सिंहासने रम्ये तस्थतुः पुष्पसंकुले ।
तडिद्घनाविव गिरौ राधाकृष्णौ विरेजतुः ॥ ३ ॥
स्वामिन्यास्तत्र शृङ्गारं चक्रुः सख्यो मुदान्विताः ।
श्रीखण्डकुंकुमाद्यैश्च यावकागुरुकञ्जलैः ॥ ४ ॥
मकरन्दैः कीर्तिसुतां समभ्यर्च्य विधानतः ।
ददौ श्रीयमुना साक्षाद्राधायै नूपुराण्यलम् ॥ ५ ॥
मंजीरभूषणं दिव्यं श्रीगंगा जह्नुनन्दिनी ।
श्रीरमा किंकिणीजालं हारं श्रीमधुमाधवी ॥ ६ ॥
चंद्रहारं च विरजा कोटिचंद्रामलं शुभम् ।
ललिता कंचुकमणिं विशाखा कण्ठभूषणम् ॥ ७ ॥
अङ्गुलीयकरत्नानि ददौ चंद्रानना तदा ।
एकादशी राधिकायै रत्नाढ्यं कंकणद्वयम् ॥ ८ ॥
भुजकंकणरत्नानि शतचंद्रानना ददौ ।
तस्यै मधुमती साक्षात् स्फुरद्रत्नांगदद्वयम् ॥ ९ ॥
ताटंकयुगलं बन्दी कुंडले सुखदायिनी ।
आनंदी या सखी मुख्या राधायै भालतोरणम् ॥ १० ॥
पद्मा सद्भालतिलकं बिन्दुं चंद्रकला ददौ ।
नासामौक्तिकमालोलं ददौ पद्मावती सती ॥ ११ ॥
बालार्कद्युतिसंयुक्तं भालपुष्पं मनोहरम् ।
श्रीराधायै ददौ राजन् चंद्रकांता सखी शुभा ॥ १२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं—
राजन् ! तदनन्तर मनोहर श्यामसुन्दर श्रीहरि जलक्रीड़ा समाप्त करके समस्त गोपाङ्गनाओंके
साथ गोवर्धन पर्वतको गये। उस पर्वतकी कन्दरामें रत्नमयी भूमिपर रासेश्वरी श्रीराधाके
साथ साक्षात् श्रीहरिने रासनृत्य किया। वहाँ पुष्पोंसे सुसज्जित रम्य सिंहासनपर दोनों
प्रिया-प्रियतम श्रीराधा-माधव विराजमान हुए, मानो किसी पर्वतपर विद्युत्-सुन्दरी और
श्याम-घन एक साथ सुशोभित हो रहे हों। वहाँ सब सखियोंने बड़ी प्रसन्नताके साथ स्वामिनी
श्रीराधाका शृङ्गार किया। चन्दन, केसर, कस्तूरी आदिसे तथा महावर, इत्र, अरगजा और काजल
तथा सुगन्धित पुष्प-रसोंसे कीर्तिकुमारी श्रीराधाकी विधिपूर्वक अर्चना करके साक्षात्
श्रीयमुना ने उन्हें नूपुर धारण कराया ॥१-५॥
जह्नुनन्दिनी गङ्गा ने
मञ्जीर नामक दिव्य भूषण अर्पित किया। श्रीरमा ने कटिप्रदेश- में किङ्किणी जाल पहिनाया
। श्रीमधुमाधवीने कण्ठमें हार अर्पित किया। विरजाने कोटि चन्द्रमाओंके समान उज्ज्वल
एवं सुन्दर चन्द्रहार धारण कराया । ललिता ने मणिमण्डित कञ्चुकी
पहनायी। विशाखाने कण्ठभूषण धारण कराया । चन्द्रानना ने रत्नमयी
मुद्रिकाएँ अर्पित कीं। एकादशीकी अधिष्ठात्री देवीने श्रीराधाको रत्न- जटित दो कंगन
भेंट किये। शतचन्द्रानना सखीने रत्नमय भुजकङ्कण ( बाजूबंद, बिजायठ, जोसन और झबिया आदि)
दिये। साक्षात् मधुमतीने दो अङ्गद भेंट किये, जिनमें जड़े हुए रत्न उद्दीप्त हो रहे
थे ॥६-९ ॥
बन्दीने दो ताटङ्क (तरकियाँ)
और सुखदायिनीने दो कुण्डल दिये। सखियोंमें प्रधान आनन्दी ने श्रीराधा को भालतोरण भेंट किया। पद्मा ने चन्द्रकलाके
समान चमकने वाली माथेकी बेंदी (टिकुली) दी। सती पद्मावतीने नासिकामें
मोतीकी बुलाक पहना दी, जो थोड़ी-थोड़ी हिलती रहती थी। राजन् ! सुन्दरी चन्द्र कान्ता
सखीने श्रीराधाको प्रातःकालिक सूर्यकी कान्ति- से युक्त मनोहर शीशफूल अर्पित किया ॥१०-१२॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
सोमवार, 5 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
रासक्रीडा का वर्णन
राधया शुशुभे रासे यथा रत्या रतीश्वरः
।
एवं गायन् हरिः साक्षात्सुन्दरीगणसंवृतः ॥ २७ ॥
यमुनापुलिनं पुण्यमाययौ राधया युतः ।
गृहीत्वा हस्तपादेन पद्माभं स्वप्रियाकरम् ॥ २८ ॥
निषसाद हरिः कृष्णातीरे नीरमनोहरे ।
पुनर्जल्पन् सुमधुरं पश्यन् वृन्दावनं प्रियम् ॥ २९ ॥
चलन् हसन् राधिकया कुंजं कुंजं चचार ह ।
कुंजे निलीयमानं तं त्वरं त्यक्त्वा प्रियाकरम् ॥ ३० ॥
विलोक्य शाखान्तरितं राधा जग्राह माधवम् ।
राधा दुद्राव तद्धस्ताज्झंकारं कुर्वती पदे ॥ ३१ ॥
निलीयमाना कुंजेषु पश्यतो माधवस्य च ।
धावन् हरिर्गतो यावत्तावद्राधा ततो गता ॥ ३२ ॥
वृक्षपार्श्वे हस्तमात्रादितश्चेतश्च धावती ।
तमालो हेमवल्ल्येव घनश्चंचलया यथा ॥ ३३ ॥
हेमखन्येव नीलाद्री रेजे राधिकया हरिः ।
राधया विश्वमोहिन्या बभौ मदनमोहनः ॥ ३४ ॥
वृन्दावने रासरंगे रत्येव मदनो यथा ।
धृत्वा रूपाणि तावन्ति यावन्ति व्रजयोषितः ॥ ३५ ॥
ननर्त रासरंगेऽसौ रंगभूम्यां नटो यथा ।
गायन्त्यश्चापि नृत्यन्त्यः सर्वा गोप्यो मनोहराः ॥ ३६ ॥
विरेजुः कृष्णचन्द्रैश्च यथा शक्रैः सुरांगनाः ।
वारां विहारं कृष्णायां चकार मधुसूदनः ॥ ३७ ॥
सर्वैर्गोपीगणैः सार्धं यक्षीभिर्यक्षराडिव ।
कबरीकेशपाशाभ्यां प्रसूनैः प्रच्युतैः शुभैः ।
चित्रवर्णैर्बभौ कृष्णो यथोष्णिङ्मुद्रिता तथा ॥ ३८ ॥
मृदंगतालैर्मधुरध्वनिस्वनै-
र्जगुर्यशस्ता मधुसूदनस्य ।
प्रापुर्मुदं पूर्णमनोरथाश्चल-
त्प्रसूनहारा हरिणा गतव्यथाः ॥ ३९ ॥
श्रीहस्तसंताडितवारिबिंदुभिः
स्फारासमस्फूर्जितशीकरद्युभिः ।
वृन्दावनेशो व्रजसुंदरीभी
रेजे गजीभिर्गजराडिव स्वयम् ॥ ४० ॥
विद्याधर्यो देवगंधर्वपत्न्यः
पश्यन्त्यस्ता रासरंगं दिविस्थाः ।
देवैः सार्धं चक्रिरे पुष्पवर्षं
मोहं प्राप्ताः प्रश्लथद्वस्त्रनीव्यः
॥ ४१ ॥
रतिके साथ रतिनाथ की जैसी शोभा होती है, उसी प्रकार रासमण्डलमें श्रीराधाके साथ राधावल्लभकी
हो रही थी। इस प्रकार सुन्दरियोंके अलापसे संयुक्त होकर साक्षात् श्रीहरि अपनी प्रिया
राधाके साथ यमुनाके पुण्य- पुलिनपर आये। उन्होंने अपनी प्राणवल्लभाका हाथ अपने करकमलमें
ले रखा था। यमुना के मनोहर तीरपर उन सुन्दरियोंके साथ श्यामसुन्दर
थोड़ी देर बैठे रहे*। फिर मधुर-मधुर बातें करते हुए अपने प्रिय वृन्दाविपिनकी शोभा
निहारने लगे ।। २७-२९ ॥
वे श्रीराधाके साथ चलते
और हास-विनोद करते हुए कुञ्जवनमें विचरने लगे। एक कुञ्जमें प्रियाका हाथ छोड़कर वे
तुरंत कहीं छिप गये। किंतु एक शाखाकी ओटमें उन्हें खड़ा देख श्रीराधाने माधवको अविलम्ब
जा पकड़ा। फिर श्रीराधा उनके हाथसे छूटकर पग- पगपर नूपुरोंका झंकार प्रकट करती हुई
भागीं और माधवके देखते-देखते कुञ्जोंमें छिपने लगीं । माधव हरि ज्यों ही दौड़कर उनके
स्थानपर पहुँचे, त्यों-ही राधा वहाँसे अन्यत्र चली गयीं ।। ३०-३२ ॥
वृक्षोंके पास हाथ- भरकी दूरीपर इधर-उधर वे भागने
लगीं। उस समय श्रीराधाके साथ श्यामसुन्दर हरिकी उसी तरह शोभा हो रही थी, जैसे सुवर्णलतासे
श्याम तमालकी, चपलासे घनमण्डलकी तथा सोनेकी खानसे नीलाचलकी होती है । वृन्दावनमें रासकी
रङ्गस्थलीमें रतिके साथ कामदेवकी भाँति विश्वमोहिनी श्रीराधाके साथ मदनमोहन श्रीकृष्ण
सुशोभित हो रहे थे ॥३३-३४ ॥
जितनी व्रजसुन्दरियाँ
वहाँ विद्यमान थीं, उतने ही रूप धारण करके रङ्गभूमिमें नटके समान नटवर श्रीकृष्ण रासरङ्गमें
नृत्य करने लगे। उनके साथ सम्पूर्ण मनोहर गोप सुन्दरियाँ भी गाने और नृत्य करने लगीं
॥३५-३६ ॥
अनेक कृष्णचन्द्रोंके
साथ वे गोपसुन्दरियाँ ऐसी जान पड़ती थीं, मानो बहुसंख्यक इन्द्रोंके साथ देवाङ्गनाएँ
नृत्य कर रही हों । तदनन्तर मधुसूदन श्रीकृष्ण समस्त गोप- सुन्दरियोंके साथ यमुनाजल में विहार करने लगे- ठीक उसी तरह जैसे यक्षसुन्दरियोंके साथ यक्षराज
कुबेर विहार करते हैं । उन सुन्दरियों के केशपाश तथा कबरी (बँधी
हुई चोटी) से खिसककर गिरे हुए सुन्दर चित्र-विचित्र पुष्पोंसे यमुनाजीकी ऐसी शोभा हो
रही थी, जैसे किसी नीलपटपर विभिन्न रंगके फूल छाप दिये गये हों ॥३७-३८ ॥
मृदङ्ग और खड़तालोंकी
मधुर ध्वनिके साथ वे व्रजाङ्गनाएँ मधुसूदनका यश गाती थीं। उनका मनोरथ पूर्ण हो गया।
श्रीहरिने उनकी सारी व्यथा हर ली थी। उनके पुष्पहार चञ्चल हो रहे थे और वे परमानन्दमें
निमग्न हो गयी थीं। जिनके सुन्दर हाथोंसे ताडित हो उछलते हुए वारि-बिन्दु, जो फुहारोंसे
छूटते हुए असंख्य अनुपम जलकणोंकी छवि धारण कर रहे थे, उन व्रज-सुन्दरियोंके साथ वृन्दावनाधीश्वर
श्रीकृष्ण ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो बहुत-सी हथिनियोंके साथ यूथपति गजराज सुशोभित हो
रहा हो । आकाशमें खड़ी हुई विद्याधरियाँ, देवाङ्गनाएँ तथा गन्धर्वपत्नियाँ उस रास
- रङ्गको देखती हुई वहाँ देवताओंके साथ पुष्पवर्षा कर रही थीं। वे सब की सब मोहको प्राप्त
हो गयी थीं। उनके वस्त्रोंके नीवी-बन्ध ढीले पड़कर खिसक रहे थे । ३९
– ४१ ।।
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें
वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'रासलीला' नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
रविवार, 4 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
रासक्रीडा का वर्णन
काश्चिद्गोलोकवासिन्यः
काश्चिच्छय्योपकारिकाः ।
शृङ्गारप्रकराः काश्चित्काश्चित्वै द्वारपालिकाः ॥ १४ ॥
पार्षदाख्याः सखिजनाः छत्रचामरपाणयः ।
पुष्पाभरणकारिण्यः श्रीवृन्दावनपालिकाः ॥ १५ ॥
गोवर्धननिवासिन्यः काश्चित्कुंजविधायिकाः ।
तन्निकुंजनिवासिन्यो नर्तक्यो वाद्यतत्पराः ॥ १६ ॥
सर्वा वै चन्द्रवदनाः किशोरवयसा नृप ।
आसां द्वादशयूथाश्चा जग्मुः श्रीकृष्णसन्निधिम् ॥ १७ ॥
तथैव यमुना साक्षाद्यूथीभूत्वा समाययौ ।
श्वेताम्बरा श्वेतवर्णा मुक्ताभरणभूषिता ॥ १८ ॥
तथाऽऽययौ कृष्णपत्नी नाम्ना या मधुमाधवी ।
पद्मवर्णा पुष्पभूषा यूथीभूत्वा शुभांबरा ॥ २१ ॥
तथैव विरजा साक्षाद्यूथीभूत्वा समाययौ ।
हरिद्वस्त्रा गौरवर्णा रत्नालंकारभूषिता ॥ २२ ॥
ललिताया विशाखाया मायायूथः समाययौ ।
एवं स्वष्टसखीनां च सखीनां किल षोडश ॥ २३ ॥
द्वात्रिंशच्च सखीनां च यूथा सर्वे समाययुः ।
रराज भगवान् राजन् स्त्रीगणै रासमण्डले ॥ २४ ॥
वृन्दावने यथाऽऽकाशे चंद्रस्तारागणैर्यथा ।
पीतवासःपरिकरो नटवेषो मनोहरः ॥ २५ ॥
वेत्रभूद्वादयन् वंशीं गोपीनां प्रीतिमावहन् ।
मयूरपक्षभृन्मौली स्रग्वी कुण्डलमण्डितः ॥ २६ ॥
इसी समय बहुत सी गोपाङ्गनाएँ
श्रीकृष्णकी सेवामें उपस्थित हुई। कोई गोलोकनिवासिनी थीं, कोई शय्या सजाने में सहयोग
करनेवाली थीं। कोई शृङ्गार धारण कराने की कला में कुशल थीं, तो कोई द्वारपालिका थीं। कुछ गोपियाँ 'पार्षद' नामधारिणी
थीं, कुछ छत्र- चंवर धारण करनेवाली सखियाँ थीं और कुछ श्रीवृन्दावनकी रक्षामें नियुक्त
थीं। कुछ गोवर्धनवासिनी, कुछ कुञ्जविधायिनी और कुछ निकुञ्जनिवासिनी थीं। कोई नृत्यमें
निपुण और कोई वाद्य वादनमें प्रवीण थीं। नरेश्वर ! उन सबके मुख अपने सौन्दर्य- माधुर्यसे
चन्द्रमाको भी लज्जित करते थे । वे सब की सब किशोरावस्थावाली तरुणियाँ थीं । इन सबके
बारह यूथ श्रीकृष्णके समीप आये ।। १४-१७ ॥
इसी प्रकार साक्षात्
यमुना भी अपना यूथ लिये आयीं। उनके अङ्गोंपर नीलवस्त्र शोभा पा रहे थे। वे रत्नमय आभूषणोंसे
विभूषित तथा श्यामा (सोलह वर्षकी अवस्था अथवा श्याम कान्तिसे युक्त) थीं। उनके नेत्र
प्रफुल्ल कमलदलको तिरस्कृत कर रहे थे। उन्हींकी तरह जह्नुनन्दिनी गङ्गा भी यूथ बाँधकर
वहाँ आ पहुँची । उनकी अङ्ग- कान्ति श्वेतगौर थी। वे श्वेत वस्त्र तथा मोतीके आभूषणोंसे
विभूषित थीं। वैसे ही साक्षात् रमा भी अपना यूथ लिये आयीं। उनके श्रीअङ्गोंपर अरुण
वस्त्र सुशोभित थे। चन्द्रमाकी-सी अङ्ग - कान्ति, अधरोंपर मन्द मन्द हासकी छटा तथा
विभिन्न अङ्गों में पद्मरागमणिके बने हुए अलंकार शोभा दे रहे थे ।। १८-२०
॥
इसी तरह कृष्णपत्नी के नाम से अपना परिचय देने वाली मधुमाधवी
(वसन्त-लक्ष्मी) भी वहाँ आयीं। उनके साथ भी सखियोंका समूह था । वे सब की सब प्रफुल्ल
कमलकी-सी अङ्ग कान्तिवाली, पुष्पहारसे अलंकृत तथा सुन्दर वस्त्रोंसे सुशोभित थीं। इसी
रीतिसे साक्षात् विरजा भी सखियोंका यूथ लिये वहाँ आयीं। उनके अङ्गोंपर हरे रंगके वस्त्र
शोभा दे रहे थे। वे गौरवर्णा तथा रत्नमय अलंकारोंसे अलंकृत थीं ।। २१-२२
॥
ललिता, विशाखा और लक्ष्मीके भी यूथ वहाँ आये। इसी
प्रकार अष्टसखियों के, षोडश सखियों के तथा
बत्तीस सखियोंके सम्पूर्ण यूथ भी वहाँ आ पहुँचे । राजन् ! भगवान् श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण
उन युवतीजनों- के साथ रासमण्डल की रङ्गभूमि में
बड़ी शोभा पाने लगे ॥ २३ - २४ ॥
जैसे आकाशमें चन्द्रमा
ताराओं के साथ सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार श्रीवृन्दावनमें
उन सुन्दरियोंके साथ श्रीकृष्णचन्द्रकी शोभा हो रही थी। उनकी कमरमें पीताम्बर कसा हुआ
था। वे नटवेषमें सबका मन मोहे लेते थे। उनके हाथमें बेंतकी छड़ी थी। वे वंशी बजाकर
उन गोप- सुन्दरियोंकी प्रीति बढ़ा रहे थे । माथेपर मोरपंखका मुकुट, वक्षःस्थलपर पुष्पहार
एवं वनमाला तथा कानोंमें कुण्डल - ये ही उनके अलंकार थे ।। २५-२६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
शनिवार, 3 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
रासक्रीडा का वर्णन
बहुलाश्व उवाच -
राधायै दर्शनं दत्त्वा कृत्वा प्रेमपरीक्षणम् ।
अग्रे चकार कां लीलां भगवानात्मलीलया ॥ १ ॥
श्रीनारद उवाच -
माधवो माधवे मासि माधवीभिः समाकुले ।
वृंदावने समारेभे रासं रासेश्वरः स्वयम् ॥ २ ॥
वैशाखमासि पंचम्यां जाते चन्द्रोदये शुभे ।
यमुनोपवने रेमे रासेश्वर्या मनोहरः ॥ ३ ॥
पुरा मैथिल गोलोकाद् भूमिर्या कौ समागता ।
सर्वा बभूव सौवर्णपद्मरागमयी त्वरम् ॥ ४ ॥
वृन्दावनं दिव्यवपुः दधत् कामदुघैर्द्रुमैः ।
माधवीभिर्लताभिश्च प्राक्षिपन्नन्दनन्दनम् ।
रत्नसोपानसंपन्ना स्फुरत्सौवर्णतोलिका ।
रराज यमुना राजन् हंसपद्मादिसंकुला ॥ ६ ॥
रत्नधातुमयः श्रीमद्रत्नशृङ्गस्फुरद्द्युतिः ।
सपक्षिगणसंयुक्तो लतापुष्पमनोहरः ॥ ७ ॥
निर्झरैः सुन्दरीभिश्च दरीभिर्भ्रमरीवृतः ।
रेजे गोवर्धनो नाम गिरिराजः करीन्द्रवत् ॥ ८ ॥
सर्वे निकुंजाः परितो रेजुर्दिव्यवपुर्धराः ।
सभामण्डपवीथीभिः प्रांगणस्तंभपंक्तिभिः ॥ ९ ॥
पतत्पताकैर्दिव्याभैः सौवर्णैः कलशैर्नृप ।
स्वेतारुणैः पुष्पदलैः पुष्पमन्दिरवर्तिभिः ॥ १० ॥
वसन्तमाधुर्यधराः कूजत्कोकिलसारसाः ।
पारावतैर्मयूरैश्च यत्र तत्र निकूजिताः ॥ ११ ॥
राधाकृष्णकथां पुण्यां गायमानैर्मधुव्रतैः ।
पतद्भिर्मधुमत्तैश्च कुंजाः सर्वे विराजिताः ॥ १२ ॥
पुलिने शीतलो वायुः मन्दगामी वहत्यलम् ।
सहस्रदलपद्मानां रजो विक्षेपयन्मुहुः ॥ १३ ॥
राजा बहुलाश्वने पूछा-
देवर्षे ! श्रीराधाको और सुन्दरी दरियों (कन्दराओं) तथा भ्रमरियोंसे वह दर्शन दे, उसके
प्रेमकी परीक्षा करके, भगवान् श्रीकृष्णने अपनी लीलाशक्तिके द्वारा आगे चलकर कौन-सी
लीला प्रकट की ? ॥ १ ॥
श्रीनारदजीने कहा- राजन्
! माधव (वैशाख) मासमें माधवी लताओंसे व्याप्त वृन्दावनमें रासेश्वर माधवने स्वयं रासका
आरम्भ किया। वैशाख मासकी कृष्णपक्षीया पञ्चमीको जब सुन्दर चन्द्रोदय हुआ, उस समय मनोहर
श्यामसुन्दरने यमुनाके तटवर्ती उपवनमें रासेश्वरी श्रीराधाके साथ रास-विहार किया। मिथिलेश्वर
! इसके पूर्व गोलोकसे जिस भूमिका पृथ्वीपर अवतरण हो चुका था, वह सब की सब तत्काल सुवर्ण
तथा पद्मरागमणिसे मण्डित हो गयी ॥ २-४ ॥
वृन्दावन भी दिव्यरूप
धारण करके, कामपूरक कल्पवृक्षों तथा माधवी लताओंसे समलंकृत हो, अपनी शोभासे नन्दनवनको
भी तिरस्कृत करने लगा। राजन् ! रत्नोंके सोपानों और सुवर्ण-निर्मित तोलिकाओं (गुमटियों)
से मण्डित तथा हंसों और कमल आदिके पुष्पोंसे व्याप्त यमुना नदीकी अपूर्व शोभा हो रही
थी ॥ ५-६॥
गिरिराज गोवर्धन गजराजके
समान शोभा पाता था । जैसे गजराजके गण्डस्थलसे मदकी धाराएँ झरती हैं और उस पर भ्रमरोंकी
भीड़ लगी रहती है, उसी प्रकार गिरिराजकी घाटियोंसे जलके निर्झर प्रवाहित होते थे और सुन्दरी दरियों (कंदराओं) तथा भ्रमरियों से पर्वत व्याप्त था । वहाँ
विभिन्न धातुओंकी जगह नाना प्रकारके रत्न उद्भासित होते थे । उसके रत्नमय शिखरोंकी
दिव्य दीप्ति सब ओर प्रकाशित हो रही थी । वह पक्षियोंके कलरवसे मुखरित तथा लता-पुष्पोंसे
मनोहर जान पड़ता था ॥ ७-८ ॥
गिरिराज के चारों ओर समस्त निकुञ्ज दिव्यरूप धारण करके सुशोभित होने लगे । सभा-मण्डपोंसे मण्डित वीथियाँ, प्राङ्गण और खंभोंकी पतियाँ उनकी शोभा बढ़ाने लगीं। नरेश्वर ! फहराती हुई दिव्य पताकाएँ, सुवर्णमय कलश तथा पुष्पमय मन्दिरोंमें विद्यमान श्वेतारुण पुष्पदल उन निकुञ्जको विभूषित कर रहे थे। उन सबमें वसन्त ऋतुकी माधुरी भरी थी । वहाँ कोकिल और सारस अपने मीठे बोल सुना रहे थे। जहाँ-तहाँ सब ओर कबूतर और मोर आदि पक्षी कलरव करते थे। श्रीराधा-कृष्णकी पुण्यमयी गाथाका गान करते हुए टूट पड़नेवाले मधुमत्त भ्रमरोंसे सभी कुञ्ज विशेष शोभा पाते थे । यमुना - पुलिनपर सहस्रदल कमलोंके पुष्प-पराग को बारंबार बिखेरता हुआ शीतल-मन्द-सुगन्ध समीर प्रवाहित हो रहा था ।। ९-१३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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