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मंगलवार, 3 सितंबर 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट१४)
सोमवार, 2 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) तीसरा अध्याय (पोस्ट 02)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
तीसरा अध्याय (पोस्ट 02)
श्रीकृष्ण का गोवर्धन
पर्वत को उठाकर इन्द्र के द्वारा क्रोधपूर्वक
करायी गयी घोर जलवृष्टि से रक्षा करना
श्रीनारद उवाच -
व्याकुलं गोकुलं वीक्ष्य गोपीगोपालसंकुलम् ।
सवत्सकं गोकुलं च गोपानाह निराकुलः ॥१३॥
श्रीभगवानुवाच -
मा भैष्ट याताद्रितटं सर्वैः परिकरैः सह ।
वः पूजा प्रहृता येन स रक्षां संविधास्यति ॥१४॥
श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा स्वजनैः सार्द्धमेत्य गोवर्धनं हरिः ।
समुत्पाट्य दधाराद्रिं हस्तेनैकेन लीलया ॥१५॥
यथोच्छिलींध्रं शिशुरश्रमो गजः
स्वपुष्करेणैव च पुष्करं गिरिम् ।
धृत्वा बभौ श्रीव्रजराजनन्दनः
कृपाकरोऽसौ करुणामयः प्रभुः ॥१६॥
अथाह गोपान्विशताद्रिगर्तं
हे तात मातर्व्रजवल्लभेशाः ।
सोपस्करैः सर्वधनैश्च गोभि-
रत्रैव शक्रस्य भयं न किंचित् ॥१७॥
इत्थं हरेर्वचः श्रुत्वा गोपा गोधनसंयुताः ।
सकुटुम्बोपस्करैश्च विविशुः श्रीगिरेस्तलम् ॥१८॥
वयस्या बालकाः सर्वे कृष्णोक्ताः सबला नृप ।
स्वान्स्वांश्च लगुडानद्रेरवष्टंभान्प्रचक्रिरे ॥१९॥
जलौघमागतं वीक्ष्य भगवांस्तद्गिरेरधः ।
सुदर्शनं तथा शेषं मनसाऽऽज्ञां चकार ह ॥२०॥
कोटिसूर्यप्रभं चाद्रेरूर्ध्वं चक्रं सुदर्शनम् ।
धारासंपातमपिबदगस्त्य इव मैथिल ॥२१॥
अधोऽधस्तं गिरेः शेषः कुण्डलीभूत आस्थितः ।
रुरोध तज्जलं दीर्घं यथा वेला महोदधिम् ॥२२॥
सप्ताहं सुस्थिरस्तस्थौ गोवर्धनधरो हरिः ।
श्रीकृष्णचंद्रं पश्यंतश्चकोरा इव ते स्थिताः ॥२३॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! गोपी और वालोंसे युक्त
गोकुलको व्याकुल देख तथा बछड़ों- सहित गो समुदायको भी पीड़ित निहार, भगवान् बिना किसी
घबराहटके बोले ।। १३ ।।
श्रीभगवान् ने कहा- आपलोग डरें नहीं । समस्त परिकरोंके
साथ गिरिराजके तटपर चलें जिन्होंने तुम्हारी पूजा ग्रहण की है, वे ही तुम्हारी रक्षा
करेंगे ॥ १४ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं—- राजन् ! यों कहकर श्रीहरि स्वजनोंके
साथ गोवर्धनके पास गये और उस पर्वतको उखाड़कर एक ही हाथसे खेल-खेल में ही "धारण
कर लिया। जैसे बालक बिना श्रमके ही गोबर- छत्ता उठा लेता है; अथवा जैसे हाथी अपनी सूँड़से
कमलको अनायास उखाड़ लेता है; उसी प्रकार कृपालु करुणामय प्रभु श्रीव्रजराजनन्दन गोवर्धन
पर्वतको धारण करके सुशोभित हुए ।। १५-१६ ।।
फिर वे गोपोंसे बोले— 'मैया ! बाबा! व्रज- वल्लभेश्वरगण!
आप सब लोग सारी सामग्री, सम्पूर्ण धन तथा गौओंके साथ गिरिराजके गर्तमें समा जाइये ।
यही एक ऐसा स्थान है, जहाँ इन्द्रका कोई भय नहीं है ॥ १७ ॥
श्रीहरिका यह वचन सुनकर गोधन, कुटुम्ब तथा अन्य समस्त
उपकरणोंके साथ वे गोवर्धन पर्वतके गड्ढे में समा गये। नरेश्वर ! श्रीकृष्णका अनुमोदन
पाकर बलरामजीसहित समस्त सखा ग्वाल-बालोंने पर्वतको रोकने के लिये अपनी-अपनी लाठियोंको
भी लगा लिया। पर्वतके नीचे जलप्रवाहको आता देख भगवान्ने मन-ही-मन सुदर्शनचक्र तथा शेषका
स्मरण करके उसके निवारणके लिये आज्ञा प्रदान की ॥ १८-२० ॥
मिथिलेश्वर ! उस पर्वतके ऊपर स्थित हो, कोटि सूर्यो के समान तेजस्वी सुदर्शनचक्र गिरती हुई जलकी धाराओं- को उसी प्रकार
पीने लगा, जैसे अगस्त्यमुनिने समुद्रको पी लिया था। उस पर्वतके नीचे शेषनाग ने चारों ओ रसे गोलाकार स्थित हो, उधर आते हुए
जलप्रवाहको उसी तरह रोक दिया, जैसे तटभूमि समुद्रको रोके रहती है। गोवर्धनधारी श्रीहरि
एक सप्ताहतक सुस्थिरभावसे खड़े रहे और समस्त गोप चकोरोंकी भाँति श्रीकृष्णचन्द्रकी
ओर निहारते हुए बैठे रहे ॥ २१-२३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट१३)
रविवार, 1 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) तीसरा अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज
खण्ड)
तीसरा
अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीकृष्ण का गोवर्धन पर्वत को उठाकर इन्द्र के द्वारा क्रोधपूर्वक करायी गयी घोर जलवृष्टि से
रक्षा करना
श्रीनारद उवाच -
अथ मन्मुखतः श्रुत्वा स्वात्मयागस्य नाशनम् ।
गोवर्धनोत्सवं जातं कोपं चक्रे पुरन्दरः ॥१॥
सांवर्तकं नाम गणं प्रलये मुक्तबंधनम् ।
इन्द्रो व्रजविनाशाय प्रेषयामास सत्वरम् ॥२॥
अथ मेघगणाः क्रुद्धा ध्वनंतश्चित्रवर्णिनः ।
कृष्णाभाः पीतभाः केचित्केचिच्च हरितप्रभाः ॥३॥
इन्द्रगोपनिभाः केचित्केचित्कर्पूरवत्प्रभाः ।
नानाविधाश्च ये मेघा नीलपंकजसुप्रभाः ॥४॥
हस्तितुल्यान्वारिबिन्दून् ववृषुस्ते मदोद्धताः ।
हस्तिशुंडासमाभिश्च धाराभिश्चंचलाश्च ये ॥५॥
निपेतुः कोटिशश्चाद्रिकूटतुल्योपला भृशम् ।
वाता ववुः प्रचण्डाश्च क्षेपयन्तस्तरून् गृहान् ॥६॥
प्रचण्डा वज्रपातानां मेघानामन्तकारिणाम् ।
महाशब्दोऽभवद्भूमौ मैथिलेन्द्र भयंकरः ॥७॥
ननाद तेन ब्रह्माण्डं सप्तलोकैर्बिलैः सह ।
विचेलुर्दिग्गजास्तारा ह्यपतन्भूमिमण्डलम् ॥८॥
भयभीता गोपमुख्याः सकुटुम्बा जिगीषवः ।
शिशुन्स्वान्स्वान्पुरस्कृत्य नन्दमन्दिरमाययुः ॥९॥
श्रीनन्दनन्दनं नत्वा सबलं परमेश्वरम् ।
उचुर्व्रजौकसः सर्वे भयार्ताः शरणं गताः ॥१०॥
गोपा उचुः -
राम राम महाबाहो कृष्ण कृष्ण व्रजेश्वर ।
पाहि पाहि महाकष्टादिन्द्रदत्तान्निजान्जनान् ॥११॥
हित्वेन्द्रयागं त्वद्वाक्यात्कृतो गोवर्धनोत्सवः ।
अद्य शक्रे प्रकुपिते कर्तव्यं किं वदाशु नः ॥१२॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर मेरे मुखसे अपने
यज्ञका लोप तथा गोवर्धन पूजनोत्सवके सम्पन्न होनेका समाचार सुनकर देवराज इन्द्रने बड़ा
क्रोध किया। उन्होंने उस सांवर्तक नामक मेघगणको, जिसका बन्धन केवल प्रलयकालमें खोला
जाता है, वुलाकर तत्काल व्रजका विनाश कर डालनेके लिये भेजा ।। १-२ ॥
आज्ञा पाते ही विचित्र वर्णवाले मेघगण रोषपूर्वक गर्जना
करते हुए चले। उनमें कोई काले, कोई पीले और कोई हरे रंगके थे। किन्हींको कान्ति इन्द्रगोप
(वीरबहूटी) नामक कीड़ोंकी तरह लाल थी। कोई कपूरके समान सफेद थे और कोई नील कमलके समान
नीली प्रभासे युक्त थे। इस तरह नाना रंगोंके मेघ मदोन्मत्त हो हाथीके समान मोटी वारि-
धाराओंकी वर्षा करने लगे। कुछ चञ्चल मेघ हाथीकी सूँड़के समान मोटी धाराएँ गिराने लगे।
पर्वतशिखरके समान करोड़ों प्रस्तरखण्ड वहाँ बड़े वेगसे गिरने लगे साथ ही प्रचण्ड आँधी
चलने लगी, जो वृक्षों और घरोंको उखाड़ फेंकती थी । मैथिलेन्द्र ! प्रलयंकर मेघों तथा
वज्रपातोंका महाभयंकर शब्द व्रजभूमिपर व्याप्त हो गया। उस भयंकर नादसे सातों लोकों
और पातालों सहित ब्रह्माण्ड गूँज उठा, दिग्गज विचलित हो गये और आकाशसे भूतलपर तारे
टूट-टूटकर गिरने लगे ।। ३-८ ॥
अब तो प्रधान प्रधान गोप भयभीत हो, प्राण बचाने की इच्छासे अपने-अपने शिशुओं और कुटुम्बको आगे करके नन्दमन्दिरमें
आये । बलरामसहित परमेश्वर श्रीनन्दनन्दनकी शरण में जाकर समस्त भयभीत व्रजवासी उन्हें
प्रणाम करके कहने लगे ॥ ९- १० ॥
गोप बोले- महाबाहु राम ! राम !! और व्रजेश्वर कृष्ण
! कृष्ण !! इन्द्रके दिये हुए इस महान् कष्टसे आप अपने जनोंकी रक्षा कीजिये, रक्षा
कीजिये । तुम्हारे कहनेसे हमलोगोंने इन्द्रयाग छोड़कर गोवर्धन- पूजाका उत्सव मनाया,
इससे आज इन्द्रका कोप बहुत बढ़ गया है। अब शीघ्र बताओ, हमें क्या करना चाहिये ? ॥ ११-१२
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट१२)
शनिवार, 31 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) दूसरा अध्याय (पोस्ट 03)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
दूसरा अध्याय (पोस्ट 03)
गोपों द्वारा गिरिराज-पूजन का महोत्सव
द्विजैश्च गोवर्धनदेवपूजनं
कृत्वाऽच्युतोक्तं द्विजवह्निगोधनम् ।
सम्पूज्य धृत्वा सुधनं महाधनं
बलिं ददौ श्रीगिरये व्रजेश्वरः ॥१८॥
नन्दोपनन्दैर्वृषभानुभिश्च
गोपीगणैर्गोपगणैः प्रहर्षितः ।
गायद्भिरानर्तनवाद्यतत्परै-
श्चकार कृष्णोऽद्रिवरप्रदक्षिणाम् ॥१९॥
देवेषु वर्षत्सु च पुष्पवर्षं
जनेषु वर्षत्सु च लाजसङ्घम् ।
रेजे महाराज इवाध्वरे जनै-
र्गोवर्धनो नाम गिरीन्द्रराजराट् ॥२०॥
कृष्णोऽपि साक्षाद्व्रजशैलमध्या-
द्धृत्वाऽतिदीर्घं किल चान्यरूपम् ।
शैलोऽस्मि लोकानिति भाषयन्सन्
जघास सर्वं कृतमन्नकूटम् ॥२१॥
गोपालगोपीगणवृन्दमुख्या
ऊचुः स्वयं वीक्ष्य गिरेः प्रभावम् ।
दातुं वरं तत्र समुद्यतं तं
सुविस्मिता हर्षितमानसास्ते ॥२२॥
ज्ञातोऽसि गोपैर्गिरिराजदेवः
प्रदर्शितो नन्दसुतेन साक्षात् ।
नो गोधनं वा किल बन्धुवर्यो
वृद्धिं समायातु दिने दिने कौ ॥२३॥
तथाऽस्तु चोक्त्वा गिरिराजराजो
गोवर्धनो दिव्यवपुर्दधानः ।
किरीटकेयूरमनोहराङ्गः
क्षणेन तत्रान्तरधीयतारात् ॥२४॥
नन्दोपनन्दा वृषभानवश्च
बलः सुचन्द्रो वृषभानुराजः ।
श्रीनन्दराजश्च हरिश्च गोपा
गोप्यश्च सर्वा निजगोधनैश्च ॥२५॥
द्विजाश्च योगेश्वरसिद्धसङ्घाः
शिवादयश्चान्यजनाश्च सर्वे ।
नत्वाऽथ सम्पूज्य गिरिं प्रसन्नाः
स्वं स्वं गृहं जग्मुरनिच्छया च ॥२६॥
श्रीकृष्णचन्द्रस्य परं चरित्रं
गिरीन्द्रराजस्य महोत्सवं च ।
मया तवाग्रे कथितं विचित्रं
नॄणां महापापहरं पवित्रम् ॥२७॥
भगवान् श्रीकृष्णकी बतायी हुई विधिके अनुसार द्विजोंद्वारा
गोवर्धन पूजन सम्पन्न करके, ब्राह्मणों, अग्नियों तथा गोधनकी सम्यक् पूजा करनेके पश्चात्,
व्रजेश्वर नन्दने गिरिराजकी सेवामें बहुत सा धन तथा बहुमूल्य भेंट- सामग्री प्रस्तुत
की । नन्द, उपनन्द, वृषभानु, गोपीवृन्द तथा गोपगण नाचने गाने और बाजे बजाने लगे। उन
सबके साथ हर्षसे भरे हुए श्रीकृष्णने गिरिराजकी परिक्रमा की । आकाशसे देवता फूल बरसाने
लगे और भूतलवासी जनसमुदाय लाजा लावा या खील) छींटने लगा। उस यज्ञमें गिरीन्द्रोंका
सम्राट् गोवर्धन लोगोंसे घिरकर किसी महाराजके समान सुशोभित होने लगा ।। १८-२० ॥
साक्षात् श्रीकृष्ण भी व्रजस्थित शैल गोवर्धनके बीचसे
एक दूसरा विशाल रूप धारण करके निकले और 'मैं गिरिराज गोवर्धन हूँ’
— लोगों से यों कहते हुए वहाँ का सारा अन्नकूट
भोग लगाने लगे। गोपालों और गोपियोंके समुदायमें जो मुख्य- मुख्य लोग थे, उन्होंने गिरिका
यह प्रभाव अपनी आँखों देखा तथा गिरिराजको वहाँ वर देने के लिये
उद्यत देख सब-के-सब आश्चर्यचकित हो उठे । सब के मन में अपूर्व उल्लास छा गया ।। २१-२२ ॥
उस समय गोपोंने कहा—प्रभो! आज हमने जान लिया कि आप साक्षात् गिरिराज देवता हैं। स्वयं
नन्दनन्दनने हमें आपके दर्शनका अवसर दिया है। आपकी कृपासे हमारा गोधन और बन्धुवर्ग
प्रतिदिन इस भूतलपर वृद्धिको प्राप्त हो। 'ऐसा ही होगा' —यों कहकर किरीट और केयूर आदि
आभूषणोंसे मनोहर अङ्गवाले दिव्यरूपधारी गिरिराजराज गोवर्धन क्षण- भरमें वहाँ उनके निकट
ही अन्तर्धान हो गये ।। २३-२४ ॥
तब नन्द-उपनन्द, वृषभानु, बलराम, वषृभानुराज सुचन्द्र,
श्रीनन्दराज, श्रीहरि एवं समस्त गोप-गोपीगण अपने गोधनोंके साथ वहाँसे चले। ब्राह्मण,
योगेश्वर- समुदाय, सिद्धसंघ, शिव आदि देवता तथ अन्य सब लोग गिरिराजको प्रणाम और उनका
पूजन करके प्रसन्नतापूर्वक अनिच्छासे अपने-अपने घरको गये । राजन्! श्रीकृष्णचन्द्रके
इस उत्तम चरित्रका तथा गिरिराजराजके उस विचित्र महोत्सवका मैंने तुम्हारे सामने वर्णन
किया। यह पावन प्रसङ्ग बड़े-बड़े पापोंको हर लेनेवाला है ।। २५-२७
॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गिरिराजखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'गिरिराज महोत्सवका वर्णन' नामक दूसरा अध्याय पूरा
हुआ ॥ २ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट११)
शुक्रवार, 30 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) दूसरा अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
दूसरा अध्याय (पोस्ट 02)
गोपों द्वारा गिरिराज-पूजन का महोत्सव
समुद्रजादिव्यगुणत्रयाणा-
मदिव्यवैमानिकजौषधीनाम् ।
जालंधरीणां च समुद्रकन्या-
बर्हिष्मतीजासुतलस्थितानाम् ॥१०॥
तथाप्सरःसर्वफणीन्द्रजाना-
मासां च यूथाव्रजवासिनीनाम् ।
समाययुः श्रीगिरिराजपार्श्वं
स्वलंकृताः पाणिबलिप्रदीपाः ॥११॥
गोपाश्च वृद्धाः शिशवो युवानः
पीताम्बरोष्णीषकबर्हमंडिताः ।
श्रीहारगुंजावनमालिकाभी
रेजुः समेता नवयष्टिवेणुभिः ॥१२॥
श्रुत्वोत्सवं शैलवरस्य मन्मुखा-
द्गङ्गाधरो बद्धकपर्दमंडलः।
कपालभृन्नस्थिजभस्मरूषितः
सर्पालिमालावलयैर्विभूषितः ॥१३॥
धत्तूरभंगाविषपानविह्वलो
हिमाद्रिपुत्रीसहितो गणावृतः ।
आरुह्य नन्दीश्वरमादिवाहनं
समाययौ श्रीगिरिराजमण्डलम् ॥१४॥
राजर्षिविप्रर्षिसुरर्षयश्च
सिद्धेशयोगेश्वरहंसमुख्याः ।
आजग्मुराराद्गिरिदर्शनार्थं
सहस्रशो विप्रगणा समेताः ॥१५॥
गोवर्धनो रत्नशिलामयोऽभू-
त्सुवर्णशृङ्गैः परितः स्फुरद्भिः ।
मत्तालिभिर्निर्झरसुन्दरीभि-
र्दरीभिरुच्चांगकरीव राजन् ॥१६॥
तदैव शैलाः किल मूर्तिमंतः
सोपायना मेरुहिमाचलाद्याः ।
नेमुर्गिरिं मंगलपाणयस्तं
गोवर्धनं रूपधरं गिरीन्द्राः ॥१७॥
जो समुद्र से उत्पन्न लक्ष्मी की सखियाँ थीं, दिव्य गुणत्रयमयी अङ्गनाएँ थीं, अदिव्य विमानचारियोंकी
वनिताएँ थीं; जो ओषधिस्वरूपा थीं, जो जालन्धरके अन्तःपुरकी स्त्रियाँ थीं, जो समुद्र
कन्याएँ थीं तथा जो बर्हिष्मतीनगरी तथा सुतल आदि लोकोंमें निवास करनेवाली थीं, उन समस्त
दिव्याङ्गनाओंका समुदाय गिरिराज गोवर्धनके पास आकर विराजमान हुआ। इसी प्रकार अप्सराओं,
समस्त नागकन्याओं तथा व्रजवासिनियोंके यूथ भी वस्त्राभूषणोंसे विभूषित हो, हाथोंमें
पूजन सामग्री और प्रदीप लिये गिरिराजके पास आ पहुँचे ।। १०-११ ।।
बालक, युवक और वृद्ध गोप भी पीताम्बर, पगड़ी तथा मोरपंखसे
मण्डित तथा सुन्दर हार, गुञ्जा और वनमालाओंसे विभूषित हो, नूतन यष्टि तथा वेणु लिये,
वहाँ आकर शोभा पाने लगे ।। १२ ।।
मेरे मुखसे गिरिराज
हिमालयके उस उत्सवका समाचार सुनकर गङ्गाधर शिव मस्तकपर जटाजूट बाँधे, हाथमें कपाल लिये,
अङ्गोंमें चिताकी भस्म लगाये, सर्पोंकी माला तथा कंगनोंसे विभूषित हो, भाँग, धतूर और
विष पीकर मत्त हुए गिरिराजनन्दिनी उमा के साथ आदि- वाहन नन्दीश्वरपर
आरूढ़ हो, प्रमथगणों से घिरे हुए, गिरिराज मण्डलमें आये। मुख्य-मुख्य
राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि, सिद्धेश्वर, हंस आदि योगेश्वर तथा सहस्रों
ब्राह्मणवृन्द गिरिराज का दर्शन करने के लिए आस-पास एकत्र हो गये ॥ १५ ॥
गोवर्धन पर्वतकी एक-एक शिला रत्नमयी हो गयी। उसके सुवर्णमय
शृङ्ग चारों ओर अपनी दीप्ति फैलाने लगे। राजन् ! वह पर्वत मतवाले भ्रमरों तथा निर्झर-
शोभित कन्दराओंसे उन्नतकाय गजराजकी शोभा धारण करने लगा। उसी समय मेरु और हिमालय आदि
गिरीन्द्र दिव्य रूप धारण करके, भेंट और माङ्गलिक वस्तुएँ हाथमें लिये मूर्तिमान् गोवर्धनको
प्रणाम करने लगे ।। १६-१७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट१०)
गुरुवार, 29 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) दूसरा अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
दूसरा
अध्याय (पोस्ट 01)
गोपों द्वारा गिरिराज-पूजन का महोत्सव
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा वचो नन्दसुतस्य साक्षा-
च्छ्रीनन्दसन्नन्दवरा व्रजेशाः ।
सुविस्मिताः पूर्वकृतं विहाय
प्रचक्रिरे श्रीगिरिराजपूजाम् ॥१॥
नीत्वा बलीन्मैथिल नन्दराजः
सुतौ समानीय च रामकृष्णौ ।
यशोदया श्रीगिरिपूजनार्थं
समुत्सको गर्गयुतः प्रसन्नः ॥२॥
त्वरं समारुह्य महोन्नतं गजं
विचित्रवर्णं धृतहेमशृङ्खलम् ।
गोवर्धनान्तं प्रययौ गवां गणैः
शरद्घनैः शक्र इव प्रियायुतः ॥३॥
नन्दोपनन्दा वृषभानवश्च
पुत्रैश्च पौत्रैश्च सहांगनाभिः ।
समाययुः श्रीगिरिराजपार्श्वं
सर्वं समानीय च यज्ञभारम् ॥४॥
सहस्रबालार्कपरिस्फुरद्द्युति-
मारुह्य राधा शिबिकां सखीगणैः ।
शचीव दिव्याम्बररत्नभूषणा
बभौ चकोरीभ्रमरीसमाकुला ॥५॥
समागते पार्श्वगते स्वलंकृते
राजन्सखीकोटिसमावृते परे ।
सख्यौ विभाते ललिताविशाखे
चन्द्रानने चालितचारुचामरे ॥६॥
एवं रमा वै विरजा च माधवी
माया च कृष्णा नृप जह्नुनंदिनी ।
द्वात्रिंशदष्टौ च तथा हि षोडश
सख्यश्च तासां किल यूथ आगतः ॥७॥
श्रीमैथिलानां किल कोसलानां
तथा श्रुतीनां ऋषिरूपकाणाम् ।
तथा त्वयोध्यापुरवासिनीनां
श्रीयज्ञसीतावनवासिनीनाम् ॥८॥
रमादिवैकुण्ठनिवासिनीनां
तथोर्ध्ववैकुण्ठनिवासिनीनाम् ।
महोज्ज्वलद्वीपनिवासिनीनां
ध्रुवादिलोकाचलवासिनीनाम् ॥९॥
श्रीनारदजी कहते हैं— साक्षात् श्रीनन्दनन्दन की यह बात सुनकर श्रीनन्द और सनन्द आदि व्रजेश्वरगण बड़े विस्मित हुए।
फिर उन्होंने पहलेका निश्चय त्यागकर श्रीगिरिराज-पूजनका आयोजन किया। मिथिलेश्वर ! नन्दराज
अपने दोनों पुत्र - बलराम और श्रीकृष्णको तथा भेंटपूजाकी सामग्रीको लेकर यशोदाजीके
साथ गिरिराज-पूजनके लिये उत्कण्ठित हो प्रसन्नतापूर्वक गये । उनके साथ गर्गजी भी थे।
वे अपनी पत्नीके साथ बहुत ऊँचे चित्र-विचित्र व रँगे हुए तथा सोनेकी साँकल धारण करनेवाले
हाथी पर आरूढ़ हो, गौओंके
साथ गोवर्धन पर्वतके समीप गये। मानो इन्द्राणीके साथ इन्द्र ऐरावतपर
आरूढ़ शरदऋतु के श्वेत बादलोंके साथ उपस्थित हुए हों |नन्द, उपनन्द और वृषभानुगण अपने पुत्रों,
पोतों पत्नियोंके साथ यज्ञका सारा सम्भार लिये गिरिराज के पास
आ पहुँचे ।। १ - ४ ।।
सहस्रों बालरविके दीप्ति से प्रकासहित शिबिकामें आरूढ़ हो दिव्य
वस्त्रों तथा रत्नमय आभूषणों से विभूषित श्रीराधा सखी समुदाय के साथ वहाँ आकर उसी प्रकार सुशोभित हुईं, जैसे शची चकोरी और भ्रमरियों के साथ शोभा पाती हों ॥ ५ ॥
राजन् ! श्रीराधाके दोनों बगलमें आयी हुई विविध सहस्रों
ब्राह्मण-वृन्द गिरिराजका दर्शन करनेके लिये अलंकारोंसे अलंकृत तथा करोड़ों सखियोंसे
आवृत दो सर्वश्रेष्ठ चन्द्रमुखी सखियाँ-ललिता और विशाखा- चारु चंवर डुलाती हुई शोभा
पाती थीं। नरेश्वर । इसी प्रकार रमा, विरजा, माधवी, माया, यमुना और गङ्गा आदि बत्तीस
सखियाँ, आठ सखियाँ, सोलह सखियाँ और उन सबके यूथमें सम्मिलित असंख्य सखियाँ वहाँ आयीं
।। ६ - ७ ।।
मिथिलानिवासिनी, कोसल-प्रदेशवासिनी तथा अयोध्यापुरनिवासिनी,
श्रुतिरूपा, ऋषिरूपा, यज्ञसीतास्वरूपा तथा वनवासिनी गोपियोंका समुदाय भी वहाँ उपस्थित
हुआ । रमा आदि वैकुण्ठवासिनी देवियाँ, वैकुण्ठसे भी ऊपरके लोकोंमें रहनेवाली दिव्याङ्गनाएँ,
परम उज्ज्वल श्वेतद्वीपकी निवासिनी बालाएँ और ध्रुवादि लोकों तथा लोकाचलमें रहने- वाली
देवीरूपा गोपाङ्गनाओंका दल भी वहाँ आ गया ।। ८-९ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०२)
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०२) विदुरजी का प्रश्न और मैत्रेयजी का सृष्टिक्रम ...
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सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे | तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय — रहस्यात्मक पुरा...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान् की पूजाविधि ...
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हम लोगों को भगवान की चर्चा व संकीर्तन अधिक से अधिक करना चाहिए क्योंकि भगवान् वहीं निवास करते हैं जहाँ उनका संकीर्तन होता है | स्वयं भगवान...
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||ॐश्रीपरमात्मने नम:|| प्रश्नोत्तरी (स्वामी श्रीशंकराचार्यरचित ‘मणिरत्नमाला’) वक्तव्य श्रीस्वामी शंकराचार्य जी ...
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || “ सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा | यस्या: श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत् ||” श्रीमद्भाग...
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निगमकल्पतरोर्गलितं फलं , शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् | पिबत भागवतं रसमालयं , मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः || महामुनि व्यासदेव के द्वारा न...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्...
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☼ श्रीदुर्गादेव्यै नम: ☼ क्षमा-प्रार्थना अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया । दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरी ।। 1...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- पहला अध्याय परीक्षित् और वज्रनाभ का समागम , शाण्डिल...
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शिवसंकल्पसूक्त ( कल्याणसूक्त ) [ मनुष्यशरीर में प्रत्येक इन्द्रियका अपना विशिष्ट महत्त्व है , परंतु मनका महत्त्व सर्वोपरि है ; क्यो...