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रविवार, 8 सितंबर 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०२)
शनिवार, 7 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट
02)
गोपों का श्रीकृष्ण के विषय में संदेहमूलक विवाद तथा श्रीनन्दराज
एवं वृषभानुवर के द्वारा समाधान
शुक्लो रक्तस्तथा पीतो
वर्णोऽस्यानुयुगं धृतः ।
द्वापरांते कलेरादौ बालोऽयं कृष्णतां गतः ॥१३॥
तस्मात्कृष्ण इति ख्यातो नाम्नायं नन्दनन्दनः ।
वसवश्चेन्द्रियाणीति तद्देवश्चित्त एव हि ॥१४॥
तस्मिन्यश्चेष्टते सोऽपि वासुदेव इति स्मृतः ॥१५॥
वृषभानुसुता राधा या जाता कीर्तिमन्दिरे ।
तस्याः पतिरयं साक्षात्तेन राधापतिः स्मृतः ॥१६॥
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।
असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोके धाम्नि राजते ॥१७॥
सोऽयं तव शिशुर्जातो भारावतरणाय च ।
कंसादीनां वधार्थाय भक्तानां पालनाय च ॥१८॥
अनन्तान्यस्य नामानि वेदगुह्यानि भारत ।
लीलाभिश्च भविष्यन्ति तत्कर्मसु न विस्मयः ॥१९॥
इति श्रुत्वाऽऽत्मजे गोपाः सन्देहं न करोम्यहम् ।
वेदवाक्यं ब्रह्मवचः प्रमाणं हि महीतले ॥२०॥
गोपा ऊचुः -
यद्यागतस्तव गृहे गर्गाचार्यो महामुनिः ।
तत्क्षणे नामकरणे नाहूता ज्ञातयस्त्वया ॥२१॥
स्वगृहे नामकरणं भवता च कृतं शिशोः ।
तव चैतादृशी रीतिर्गुप्तं सर्वं गृहेऽपि यत् ॥२२॥
श्रीनारद उवाच -
एवं वदंतस्ते गोपा निर्गता नन्दमन्दिरात् ।
वृषभानुवरं जग्मुः क्रोधपूरितविग्रहाः ॥२३॥
वृषभानुवरं साक्षान्नन्दराजसहायकम् ।
प्राहुर्गोपगणाः सर्वे ज्ञातेर्मदसमन्विताः ॥२४॥
गोपा ऊचुः -
वृषभानुवर त्वं वै ज्ञातिमुख्यो महामनाः ।
नन्दराजं त्यज ज्ञातेर्हे गोपेश्वर भूपते ॥२५॥
युग के अनुसार इसका वर्ण सत्ययुग में 'शुक्ल', त्रेतामें 'रक्त' तथा द्वापरमें 'पीत' होता आया है। इस
समय द्वापर के अन्त और कलियुग के आदि में यह बालक 'कृष्ण' रूप को प्राप्त हुआ है,
इस कारण से यह नन्दनन्दन 'कृष्ण' नामसे विख्यात है । पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन,
बुद्धि, चित्त — ये तीन प्रकारके अन्तःकरण 'आठ वसु' कहे गये हैं। इनके अधिष्ठाता देवता
भी इसी नामसे प्रसिद्ध हैं। इन वसुओंमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित होकर ये श्रीकृष्णदेव
ही चेष्टा करते हैं, इसलिये इन्हें 'वासुदेव' कहा गया है ।। १३-१५
॥
"वृषभानुनन्दिनी राधा" जो कीर्ति के भवन में प्रकट हुई है, उसके साक्षात् पति
ये ही हैं; इसलिये इन्हें 'राधापति' भी कहा गया है ॥ १६ ॥
ये साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण असंख्य ब्रह्माण्डोंके
अधिपति हैं और सर्वत्र व्यापक होते हुए भी स्वरूपसे गोलोक - धाममें विराजते हैं। नन्द
! वे ही ये भगवान् भूतल का भार उतारने, कंसादि दैत्योंको मारने
तथा भक्तों का पालन करने के लिये तुम्हारे
पुत्ररूप में प्रकट हुए हैं ॥ १७-१८ ॥
भरतवंशी नन्द ! इस बालक के अनन्त
नाम हैं, जो वेदों के लिये भी गोपनीय हैं तथा इसकी लीलाओंके अनुसार
और भी बहुत-से नाम विख्यात होंगे। अतः इसके कितने ही महान् विलक्षण कर्म क्यों न हों,
उनके सम्बन्धमें कोई विस्मय नहीं करना चाहिये। गोपगण ! अपने पुत्रके विषयमें गर्गजीकी
कही हुई इस बातको सुनकर मैं कभी संदेह नहीं करता; क्योंकि पृथ्वीपर वेद वाक्य और ब्राह्मण-वचन
ही प्रमाण हैं" ।। १९-२० ॥
गोप बोले- यदि महामुनि गर्गाचार्य तुम्हारे घर आये
थे, तब उसी समय नामकरण संस्कारमें तुमने भाई-बन्धुओंको क्यों नहीं बुलाया ? चुपचाप
अपने घरमें ही बालकका नामकरण संस्कार कर लिया। यह तुम्हारी अच्छी रीति है कि सारा कार्य
घरमें ही गुप-चुप कर लिया जाय ॥ २१-२२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! यों कहकर क्रोधसे भरे
हुए गोप नन्दमन्दिर से निकलकर वृषभानुवरके
पास गये। वृषभानुवर नन्दराजके साक्षात सहायक थे, तथापि इसकी परवाह न करके जातीय संघटनके
बलसे उन्मत्त हुए गोप उनके पास जाकर बोले ।। २३-२४ ॥
गोपोंने कहा- हे वृषभानुवर ! तुम हमारे जातिवर्गमें
प्रधान और महामनस्वी हो । अतः गोपेश्व भूपाल! तुम नन्दराजको जातिसे अलग कर दो ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०१)
शुक्रवार, 6 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट
01)
गोपों का श्रीकृष्ण के विषय में संदेहमूलक विवाद तथा श्रीनन्दराज
एवं वृषभानुवर के द्वारा समाधान
श्रीनारद उवाच -
एकदा सर्वगोपाला गोप्यो नन्दसुतस्य तत् ।
अद्भुतं चरितं दृष्ट्वा नन्दमाहुर्यशोमतीम् ॥१॥
गोपा ऊचुः -
हे गोपराज त्वद्वंशे कोऽपि जातो न चाद्रिधृक् ।
न क्षमस्त्वं शिलां धर्त्तुं सप्ताहं हे यशोमति ॥२॥
क्व सप्तहायनो बालः क्वाद्रिराजस्य धारणम् ।
तेन नो जायते शंका तव पुत्रे महाबले ॥३॥
अयं बिभ्रद्गिरिवरं कमलं गजराडिव ।
उच्छिलींध्रं यथा बालो हस्तेनैकेन लीलया ॥४॥
गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम् ॥५॥
यद्वाऽस्तु क्षत्रियाणां तु बाल एतादृशो यथा ।
बलभद्रे न दोषः स्याच्चन्द्रवंशसमुद्भवे ॥६॥
ज्ञातेस्त्यागं करिष्यामो यदि सत्यं न भाषसे ।
गोपेषु चास्य वोत्पत्तिं वद चेन्न कलिर्भवेत् ॥७॥
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा गोपालवचनं यशोदा भयविह्वला ।
नन्दराजस्तदा प्राह गोपान् क्रोधप्रपूरितान् ॥८॥
श्रीनंद उवाच -
गर्गस्य वाक्यं हे गोपा वदिष्यामि समाहितः ।
येन गोपगणा यूयं भवताशु गतव्यथाः ॥९॥
ककारः कमलाकान्तो ऋकारो राम इत्यपि ।
षकारः षड्गुणपतिः श्वेतद्वीपनिवासकृत् ॥१०॥
णकारो नारसिंहोऽयमकारो ह्यक्षरोऽग्निभुक् ।
विसर्गौ च तथा ह्येतौ नरनारायणावृषी ॥११॥
संप्रलीनाश्च षट् पूर्णा यस्मिञ्छब्दे महात्मनि ।
परिपूर्णतमे साक्षात्तेन कृष्णः प्रकीर्तितः ॥१२॥
श्रीनारदजी कहते हैं - एक समय समस्त गोपों और गोपियोंने
नन्दनन्दनके उस अद्भुत चरित्रको देखकर यशोदासहित नन्द के पास
जाकर कहा ॥ १ ॥
गोप बोले – हे यशोमय गोपराज ! तुम्हारे वंशमें पहले
कभी कोई भी ऐसा बालक नहीं उत्पन्न हुआ था, जो पर्वत उठा लें। तुम स्वयं तो एक शिलाखण्ड
भी सात दिनतक नहीं उठाये रह सकते। कहाँ तो सात वर्षका बालक और कहाँ उसके द्वारा इतने
बड़े गिरिराजको हाथपर उठाये रखना । इससे तुम्हारे इस महाबली पुत्र के
विषय में हमें शङ्का होती है। जैसे गजराज एक कमल उठा ले और जैसे
बालक गोबर- छत्ता हाथ में ले ले, उसी तरह इसने खेल ही खेल में एक हाथ से गिरिराज को
उठा लिया था ।। २-४ ॥
यशोदे ! तुम गोरी हो, और नन्दजी ! तुम भी सुवर्णसदृश
गौरवर्णके हो; किंतु यह श्यामवर्णका उत्पन्न हुआ है। इसका रूप-रंग इस कुलके लोगोंसे
सर्वथा विलक्षण है। यह बालक तो ऐसा है, जैसे श्रत्रियोंके कुलमें उत्पन्न हुआ हो ।
बलभद्रजी भी विलक्षण हैं, किन्तु इनकी विलक्षणता कोई दोषकी बात नहीं है; क्योंकि इनका
जन्म चन्द्रवंशमें हुआ है । यदि तुम सच सच नहीं बताओगे तो हम तुम्हें जातिसे बहिष्कृत
कर देंगे। अथवा यह बताओ कि गोपकुलमें इसकी उत्पत्ति कैसे हुई
? यदि नहीं बताओगे तो हमसे तुम्हारा झगड़ा होगा ।। ५ ७ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं—गोपोंकी बात सुनकर यशोदाजी तो
भयसे काँप उठीं, किंतु उस समय क्रोधसे भरे हुए गोपगणोंसे नन्दराज इस प्रकार बोले ॥
८ ॥
श्रीनन्दजीने कहा- गोपगण ! मैं एकाग्रचित्त होकर गर्गजीकी
कही हुई बात तुम्हें बता रहा हूँ, जिससे तुम्हारे मनकी चिन्ता और व्यथा शीघ्र दूर हो
जायगी। पहले 'कृष्ण' शब्दके अक्षरोंका अभिप्राय सुनो – 'ककार' कमलाकान्तका वाचक है;
'ऋकार' रामका बोधक है; 'षकार' श्वेतद्वीपनिवासी षड्विध ऐश्वर्य-गुणोंके स्वामी भगवान्
विष्णुका वाचक है; ' ॥ ९-१० ॥
णकार' साक्षात् नरसिंहस्वरूप है; 'अकार' उस अक्षर पुरुषका
बोधक है, जो अग्नि को भी पी जाता है अन्तमें जो 'विसर्ग' नामक
दो बिन्दु हैं, ये 'नर' और नारायण' ऋषियोंके प्रतीक हैं। ये छहों पूर्ण तत्त्व जिस
परिपूर्णतम परमात्मामें लीन हैं, वही साक्षात् 'कृष्ण' है। इसी अर्थमें इस बालकका नाम
'कृष्ण' कहा गया है ॥ ९-१२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट१७)
गुरुवार, 5 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) चौथा अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
चौथा अध्याय (पोस्ट 02)
इन्द्र द्वारा भगवान्
श्रीकृष्णकी स्तुति तथा सुरभि और ऐरावत द्वारा उनका अभिषेक
कृष्णाभिषेके संजाते गिरिर्गोवर्धनो
महान् ।
द्रवीभूतोऽवहद्राजन् हर्षानन्दादितस्ततः ॥११॥
प्रसन्नो भगवांस्तस्मिन्कृतवान्हस्तपंकजम् ।
तद्धस्तचिह्नमद्यापि दृश्यते तद्गिरौ नृप ॥१२॥
तत्तीर्थं च परं भूतं नराणां पापनाशनम् ।
तदेव पादचिह्नं स्यात्तत्तीर्थं विद्धि मैथिल ॥१३॥
एतावत्तस्य तत्रैव पादचिह्नं बभूव ह ।
सुरभेः पादचिह्नानि बभूवुस्तत्र मैथिल ॥१४॥
द्युगङ्गाजलपातेन कृष्णस्नानेन मैथिल ।
तत्र वै मानसी गङ्गा गिरौ जाताऽघनाशिनी ॥१५॥
सुरभेर्दुग्धधाराभिर्गोविन्दस्नानतो नृप ।
जातो गोविन्दकुण्डोऽद्रौ महापापहरः परः ॥१६॥
कदाचित्तस्मिन्दुग्धस्य स्वादुत्वं प्रतिपद्यते ।
तत्र स्नात्वा नरः साक्षाद्गोविन्दपदमाप्नुयात् ॥१७॥
प्रदक्षिणीकृत्य हरिं प्रणम्य वै
दत्त्वा बलींस्तत्र पुरन्दरादयः ।
जयध्वनिं कृत्य सुपुष्पवर्षिणो
ययुः सुराः सौख्ययुतास्त्रिविष्टपम् ॥१८॥
कृष्णाभिषेकस्य कथां शृणोति यो
दशाश्वमेधावभृथाधिकं फलम् ।
प्राप्नोति राजेन्द्र स एव भूयसः
परं पदं याति परस्य वेधसः ॥१९॥
राजन् ! श्रीकृष्णका अभिषेक सम्पन्न हो जानेपर वह महान्
पर्वत गोवर्धन हर्ष एवं आनन्दसे द्रवीभूत होकर सब ओर बहने लगा। तब भगवान्ने प्रसन्न
होकर उसके ऊपर अपना हस्तकमल रखा । नरेश्वर ! उस पर्वतपर भगवान्के हाथका वह चिह्न आज
भी दृष्टिगोचर होता है। वह परम पवित्र तीर्थ हो गया, जो मनुष्योंके पापोंका नाश करनेवाला
है। वहीं चरणचिह्न भी है। मैथिल ! उसे भी परम तीर्थ समझो। जहाँ हस्तचिह्न है, वहीं
उतना ही बड़ा चरणचिह्न भी हुआ। मैथिल ! उसी स्थानपर सुरभि देवीके चरणचिह्न भी बन गये।
मिथिलेश्वर ! श्रीकृष्णके स्नानके निमित्त जो आकाशगङ्गाका जल गिरा, उससे वहीं 'मानसी
गङ्गा' प्रकट हो गयीं, जो सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाली हैं। नरेश्वर । सुरभिकी दुग्ध-धाराओंसे
गोविन्दने जो स्नान किया, उससे उस पर्वतपर 'गोविन्दकुण्ड प्रकट हो गया, जो बड़े-बड़े
पापोंको हर लेनेवाला परमपावन तीर्थ है ॥ ११-१६ ॥
कभी-कभी उस तीर्थके जलमें दूधका-सा स्वाद प्रकट होता
है । उसमें स्नान करके मनुष्य साक्षात् गोविन्दके धामको प्राप्त होता है ॥ १७ ॥
इस प्रकार वहाँ श्रीहरि की परिक्रमा
करके, उन्हें प्रणामपूर्वक बलि (पूजोपहार) समर्पित करने के पश्चात्
इन्द्र आदि देवता जय-जयकारपूर्वक पुष्प बरसाते हुए बड़े सुखसे स्वर्गलोकको लौट गये।
राजेन्द्र ! जो श्रीकृष्णाभिषेक की इस कथा को
सुनता है, वह दस अश्वमेध यज्ञों के अवभृथ स्नानसे अधिक पुण्य-
फलको पाता है । फिर वह परम-विधाता परमेश्वर श्रीकृष्णके परमपदको प्राप्त होता है ।।
१८ - १९॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके
अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवादमें 'श्रीकृष्णका अभिषेक' नामक चौथा अध्याय पूरा
हुआ ॥ ४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट१६)
बुधवार, 4 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) चौथा अध्याय (पोस्ट 01)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
चौथा अध्याय (पोस्ट 01)
इन्द्र द्वारा भगवान्
श्रीकृष्णकी स्तुति तथा सुरभि और ऐरावत द्वारा उनका अभिषेक
श्रीनारद उवाच -
अथ देवगणैः सार्द्धं शक्रस्तत्र समागतः ।
गतमानो गिरौ कृष्णं रहसि प्रणनाम ह ॥१॥
इन्द्र उवाच -
त्वं देवदेवः परमेश्वरः प्रभुः
पूर्णः पुराणः पुरुषोत्तमोत्तमः ।
परात्परस्त्वं प्रकृतेः परो हरि-
र्मां पाहि पाहि द्युपते जगत्पते ॥२॥
दशावतारो भगवांस्त्वमेव
रिरक्षया धर्मगवां श्रुतेश्च ।
अद्यैव जातः परिपूर्णदेवः
कंसादि दैत्येन्द्रविनाशनाय ॥३॥
त्वन्मायया मोहितचित्तवृत्तिं
मदोद्धतं हेलनभाजनं माम् ।
पितेव पुत्रं द्युपते क्षमस्व
प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥४॥
ॐनमो गोवर्धनोद्धरणाय गोविन्दाय गोकुलनिवासाय
गोपालाय गोपालपतये गोपीजनभर्त्रे गिरिगजोद्धर्त्रे
करुणानिधये जगद्विधये जगन्मङ्गलाय जगन्निवासाय
जगन्मोहनाय कोटिमन्मथमन्मथाय वृषभानुसुतावराय
श्रीनन्दराजकुलप्रदीपाय श्रीकृष्णाय परिपूर्णतमाय
तेऽसंख्यब्रह्माण्डपतये गोलोकधामधिषणाधिपतये
स्वयम्भगवते सबलाय नमस्ते नमस्ते ॥५॥
श्रीनारद उवाच -
इति शक्रकृतं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
सर्वा सिद्धिर्भवेत्तस्य संकटान्न भयं भवेत् ॥६॥
इतिस्तुत्वा हरिं देवं सर्वैर्देवगणैः सह ।
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा प्रणनाम पुरन्दरः ॥७॥
अथ गोवर्धने रम्ये सुरभिर्गौः समुद्रजा ।
स्नापयामास गोपेशं दुग्धधाराभिरात्मनः ॥८॥
शुंडादण्डैश्चतुर्भिश्च द्युगंगाजलपूरितैः ।
श्रीकृष्णं स्नापयामास मत्त ऐरावतो गजः ॥९॥
ऋषिभिः श्रुतिभिः सर्वैर्देवगन्धर्वकिन्नराः ।
तुष्टुवुस्ते हरिं राजन् हर्षिताः पुष्पवर्षिणः ॥१०॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर गर्व गल जानेके
कारण देवराज इन्द्र देवताओंके साथ उस पर्वतपर आये और एकान्तमें श्रीकृष्णको प्रणाम
करके उनसे बोले ॥ १ ॥
इन्द्र ने कहा- आप देवताओंके
भी देवता, सर्वसमर्थ, पूर्ण परमेश्वर, पुराण पुरुष, पुरुषोत्तमोत्तम प्रकृतिसे परे
तथा परात्पर श्रीहरि हैं। स्वर्गके स्वामी जगत्पते ! मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये
। धर्म, गौ तथा वेद की रक्षा करनेके लिये दस अवतार धारण करने वाले भगवान् आप ही हैं। इस समय भी आप परिपूर्णतम देवता कंसादि दैत्यराजों के विनाश के लिये ही अवतीर्ण हुए हैं ॥ २-३ ॥
आपकी मायासे जिसकी चित्तवृत्ति मोहित है, जो मदसे उन्मत्त
और अवहेलनाका पात्र है, वही मैं आपका अपराधी इन्द्र हूँ । द्युपते ! जैसे पिता पुत्रके
अपराधको क्षमा कर देता है, उसी प्रकार आप मुझ अपराधीको क्षमा करें। देवेश्वर ! जगन्निवास
! मुझपर प्रसन्न होइये । गोवर्धनको उठानेवाले आप गोविन्दको नमस्कार है । गोकुलनिवासी
गोपालको नमस्कार है। गोपालोंके पति, गोपीजनोंके भर्ता और गिरिराजके उद्धर्ताको नमस्कार
है। करुणाकी निधि तथा जगत् के विधाता, विश्वमङ्गलकारी तथा जगत् के निवासस्थान
आप परमात्माको प्रणाम है। जो विश्व- मोहन तथा करोड़ों कामदेवोंके भी मनको मथ देनेवाले
हैं, उन वृषभानुनन्दिनीके स्वामी नन्दराजकुलदीपक परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार
है। असंख्य ब्रह्माण्डोंके पति, गोलोकधामके अधिपति एवं बलरामके साथ रहनेवाले आप साक्षात्
भगवान् श्रीकृष्णको बारंबार नमस्कार है, नमस्कार है ।। ३--५ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— इन्द्रद्वारा किये गये इस स्तोत्रका
जो प्रातः काल उठकर पाठ करेगा, उसे सब प्रकारकी सिद्धियाँ सुलभ होंगी और उसे किसी संकटसे
भय नहीं होगा। इस प्रकार भगवान् श्रीहरिकी स्तुति करके देवराज इन्द्रने हाथ जोड़कर
समस्त देवताओंके साथ उन्हें प्रणाम किया। इसके बाद क्षीरसागरसे उत्पन्न हुई सुरभि गौ ने उस सुरम्य गोवर्धन पर्वतपर आकर अपनी दुग्धधारासे गोपेश्वर श्रीकृष्णको
स्नान कराया। फिर मत्त गजराज ऐरावतने गङ्गाजलसे भरी हुई चार सूँड़ोंद्वारा भगवान् श्रीकृष्णका
अभिषेक किया। राजन् ! फिर हर्षोल्लास से भरे हुए सम्पूर्ण देवता, गन्धर्व और किंनर
ऋषियोंको साथ ले वेद-मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक पुष्पवर्षा करते हुए श्रीहरिकी स्तुति
करने लगे । ६ – १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट१५)
मंगलवार, 3 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) तीसरा अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
तीसरा अध्याय (पोस्ट 03)
श्रीकृष्ण का गोवर्धन
पर्वत को उठाकर इन्द्र के द्वारा क्रोधपूर्वक
करायी गयी घोर जलवृष्टि से रक्षा करना
मत्तमैरावतं नागं समारुह्य पुरन्दरः ।
ससैन्यः क्रोधसंयुक्तो व्रजमण्डलमाययौ ॥२४॥
दूराच्चिक्षेप वज्रं स्वं नंदगोष्ठजिघांसया ।
स्तंभयामास शक्रस्य सवज्रं माधवो भुजम् ॥२५॥
भयभीतस्तदा शक्रः सांवर्तकगणैः सह ।
दुद्राव सहसा देवैर्यथेभः सिंहताडितः ॥२६॥
तदैवार्कोदयो जातो गता मेघा इतस्ततः ।
वाता उपरताः सद्यो नद्यः स्वल्पजला नृप ॥२७॥
विपंकं भूतलं जातं निर्मलं खं बभूव ह ।
चतुष्पदाः पक्षिणश्च सुखमापुस्ततस्ततः ॥२८॥
हरिणोक्तास्तदा गोपा निर्ययुर्गिरिगर्ततः ।
स्वं स्वं धनं गोधनं च समादाय शनैः शनैः ॥२९॥
निर्यातेति वयस्यांश्च प्राह गोवर्धनोद्धरः ।
ते तमाहुश्च निर्गच्छ धारयामोऽद्रिमोजसा ॥३०॥
इति वादपरान् गोपान् गोवर्धनधरो हरिः ।
तदर्द्धं च गिरेर्भारं प्रादात्तेभ्यो महामनाः ॥३१॥
पतितास्तेन भारेण गोपबालाश्च निर्बलाः ॥३२॥
करेण तान् समुत्थाप्य स्वस्थाने पूर्ववद्गिरिम् ।
सर्वेषां पश्यतां कृष्णः स्थापयामास लीलया ॥३३॥
तदैव गोपीगणगोपमुख्याः
सम्पूज्य कृष्णं नृप नन्दसूनुम् ।
गन्धाक्षताद्यैर्दधिदुग्धभोगै-
र्ज्ञात्वा परं नेमुरतीव सर्वे ॥३४॥
नन्दो यशोदा नृप रोहिणी च
बलश्च सन्नन्दमुखाश्च वृद्धाः।
आलिंग्य कृष्णं प्रददुर्धनानि
शुभाशिषा संयुयुजुर्घृणार्ताः ॥३५॥
संश्लाघ्य तं गायनवाद्यतत्परा
नृत्यन्त आरान्नृप नन्दनन्दनम् ।
आजग्मुरेव स्वगृहान्व्रजौकसो
हरिं पुरस्कृत्य मनोरथं गताः ॥३६॥
तदैव देवा ववृषुः प्रहर्षिताः
पुष्पैः शुभैः सुन्दरनन्दनोद्भवैः ।
जगुर्यशः श्रीगिरिराजधारिणो
गन्धर्वमुख्या दिवि सिद्धसङ्घाः ॥३७॥
तदनन्तर मतवाले ऐरावत हाथीपर चढ़कर, अपनी सेना साथ
ले, रोषसे भरे हुए देवराज इन्द्र व्रजमण्डलमें आये। उन्होंने दूरसे ही नन्दनजको नष्ट
कर डालनेकी इच्छासे अपना वज्र चलानेकी चेष्टा की। किंतु माधवने वज्रसहित उनकी भुजाको
स्तम्भित कर दिया। फिर तो इन्द्र भयभीत हो गये और जैसे सिंहकी चोट खाकर हाथी भागे,
उसी प्रकार वे सांवर्तकगणों तथा देवताओंके साथ सहसा भाग चले ॥ २४-२६
॥
नरेश्वर ! उसी समय सूर्योदय हो गया। बादल इधर-उधर छँट
गये। हवा का वेग रुक गया और नदियोंमें बहुत थोड़ा पानी रह गया
। पृथ्वीपर पङ्कका नाम भी नहीं था । आकाश निर्मल हो गया । चौपाये और पक्षी सब ओर सुखी
हो गये। तब भगवान्की आज्ञा पाकर समस्त गोप पर्वत के गर्त- से
अपना-अपना गोधन लेकर धीरे-धीरे बाहर निकले ॥२७–२९॥
उसके बाद गोवर्धनधारीने अपने सखाओंसे कहा— 'तुमलोग
भी निकलो ।' तब वे बोले-नहीं, हम लोग अपने बलसे पर्वतको रोके हुए हैं; तुम्हीं निकल
जाओ।' उन सबको इस तरहकी बातें करते देख महामना गोवर्धनधारी श्रीहरिने पर्वतका आधा भार
उन- पर डाल दिया। बेचारे निर्बल गोप-बालक उस भारसे दबकर गिर पड़े। तब उन सबको उठाकर
श्रीकृष्णने उनके देखते-देखते पर्वतको पहलेकी ही भाँति लीलापूर्वक रख दिया ॥ ३०-३३ ॥
नरेश्वर ! उस समय प्रमुख गोपियों और प्रधान प्रधान
गोपोंने नन्दनन्दनका गन्ध और अक्षत आदिसे पूजन करके उन्हें दही-दूधका भोग अर्पित किया
और उनको परमात्मा जानकर सबने उनके चरणोंमें प्रणाम किया। राजन् ! नन्द, यशोदा, रोहिणी,
बलराम तथा सन्नन्द आदि वृद्ध गोपोंने श्रीकृष्णको हृदयसे लगाकर धनका दान किया और दयासे
द्रवित हो, उन्हें शुभाशीर्वाद प्रदान किये ॥ ३४-३५ ॥
तदनन्तर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करके, समस्त व्रजवासी
सफल-मनोरथ हो नन्दनन्दनके समीप गाने, बजाने और नाचने लगे तथा उन श्रीहरिको आगे करके
अपने घरको लौटे। उसी समय हर्षसे भरे हुए देवता वहाँ नन्दन-वनके सुन्दर-सुन्दर फूलोंकी
वर्षा करने लगे तथा आकाशमें खड़े हुए प्रधान- प्रधान गन्धर्व और सिद्धोंके समुदाय गोवर्धनधारीके
यश गाने लगे ॥ ३६-३७ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गिरिराजखण्डके
अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें 'गोवर्धनोद्धारण' नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ
|| ३ ||
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित
श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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