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शुक्रवार, 13 सितंबर 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०२)
गुरुवार, 12 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
सातवाँ अध्याय (पोस्ट
01)
गिरिराज गोवर्धनसम्बन्धी तीर्थोंका वर्णन
श्रीबहुलाश्व उवाच -
कति मुख्यानि तीर्थानि गिरिराजे महात्मनि ।
एतद्ब्रूहि महायोगिन् साक्षात्त्वं दिव्यदर्शनः ॥१॥
श्रीनारद उवाच -
राजन् गोवर्धनः सर्वः सर्वतीर्थवरः स्मृतः ।
वृन्दावनं च गोलोकमुकुटोऽद्रिः प्रपूजितः ॥२॥
गोपगोपीगवां रक्षाप्रदः कृष्णप्रियो महान् ।
पूर्णब्रह्मातपत्रो यः यस्मात्तीर्थवरस्तु कः ॥३॥
इन्द्रयागं विनिर्भर्स्त्य सर्वैर्निजजनैः सह ।
यत्पूजनं समारेभे भगवान् भुवनेश्वरः ॥४॥
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।
असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोकेशः परात्परः ॥५॥
यस्मिन्स्थितः सदा क्रीडामर्भकैः सह मैथिल ।
करोति तस्य माहात्म्यं वक्तुं नालं चतुर्मुखः ॥६॥
यत्र वै मानसी गंगा महापापौघनाशिनी ।
गोविन्दकुण्डं विशदं शुभं चन्द्रसरोवरम् ॥७॥
राधाकुण्डः कृष्णकुण्डो ललिताकुण्ड एव च ।
गोपालकुंडस्तत्रैव कुसुमाकर एव च ॥८॥
श्रीकृष्णमौलिसंस्पर्शान्मौलिचिह्ना शिलाऽभवत् ।
तस्या दर्शनमात्रेण देवमौलिर्भवेज्जनः ॥९॥
यस्यां शिलायां कृष्णेन चित्राणि लिखितानि च ।
अद्यापि चित्रिता पुण्या नाम्ना चित्रशिला गिरौ ॥१०॥
यां शिलामर्भकैः कृष्णो वादयन् क्रीडने रतः ।
वादनी सा शिला जाता महापापौघनाशिनी ॥११॥
यत्र श्रीकृष्णचन्द्रेण गोपालैः सह मैथिल ।
कृता वै कंदुकक्रीडा तत्क्षेत्रं कंदुकं स्मृतम् ॥१२॥
बहुलाश्वने पूछा – महायोगिन् ! आप साक्षात् दिव्यदृष्टिसे
सम्पन्न हैं; अतः यह बताइये कि महात्मा गिरिराजके आस-पास अथवा उनके ऊपर कितने मुख्य
तीर्थ हैं ? ॥ १ ॥
श्रीनारद बोले- राजन् । समूचा गोवर्धन पर्वत ही सब
तीर्थोंसे श्रेष्ठ माना जाता है। वृन्दावन साक्षात् गोलोक है और गिरिराजको उसका मुकुट
बताकर सम्मानित किया गया है। वह पर्वत गोपों, गोपियों तथा गौओंका रक्षक एवं महान् कृष्णप्रिय
है । जो साक्षात् पूर्णब्रह्मका छत्र बन गया, उससे श्रेष्ठ तीर्थ दूसरा कौन है। ॥ २-३ ॥
भुवनेश्वर एवं साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णने,
जो असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति, गोलोकके स्वामी तथा परात्पर पुरुष हैं, अपने समस्त
जनोंके साथ इन्द्रयागको धता बताकर जिसका पूजन आरम्भ किया, उस गिरिराजसे अधिक सौभाग्यशाली
कौन होगा । मैथिल ! जिस पर्वतपर स्थित हो भगवान् श्रीकृष्ण सदा ग्वाल-बालोंके साथ क्रीड़ा
करते हैं, उसकी महिमाका वर्णन करनेमें तो चतुर्मुख ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं ॥ ४-६ ॥
जहाँ बड़े-बड़े पापों की राशि का नाश करनेवाली मानसी गङ्गा विद्यमान हैं, विशद गोविन्दकुण्ड तथा
शुभ्र चन्द्रसरोवर शोभा पाते हैं, जहाँ राधाकुण्ड, कृष्णकुण्ड, ललिताकुण्ड गोपाल- कुण्ड
तथा कुसुमसरोवर सुशोभित हैं, उस गोवर्धनकी महिमाका कौन वर्णन कर सकता है। श्रीकृष्णके
मुकुटका स्पर्श पाकर जहाँकी शिला मुकुटके चिह्न से सुशोभित हो गयी, उस शिलाका दर्शन
करनेमात्रसे मनुष्य देवशिरोमणि हो जाता है। जिस शिलापर श्रीकृष्णने चित्र अङ्कित किये
हैं, वह चित्रित और पवित्र 'चित्रशिला' नामकी शिला आज भी गिरिराजके शिखरपर दृष्टिगोचर
होती है ॥ ७-१० ॥
बालकोंके साथ क्रीड़ा में संलग्न श्रीकृष्णने जिस शिलाको
बजाया था, वह महान् पापसमूहोंका नाश करनेवाली शिला 'वादिनी शिला' (बाजनी शिला) के नामसे
प्रसिद्ध हुई । मैथिल ! जहाँ श्रीकृष्णने ग्वाल-बालोंके साथ कन्दुक-क्रीड़ा की थी,
उसे 'कन्दुकक्षेत्र' कहते हैं ॥ ११-१२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०१)
बुधवार, 11 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 03)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
छठा अध्याय (पोस्ट 03)
गोपों का वृषभानुवर के वैभव की प्रशंसा करके
नन्दनन्दन की भगवत्ता का परीक्षण करनेके लिये उन्हें प्रेरित करना
और वृषभानुवर का कन्या के विवाहके लिये
वरको देने के निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्तिक-हार भेजना
तथा श्रीकृष्णकी कृपासे नन्दराजका वधू के लिये उनसे भी अधिक मौक्तिकराशि
भेजना
श्रीनारद उवाच -
इत्थं विचार्य नन्दोऽपि कृष्णं पप्रच्छ सादरम् ।
प्रहसन् भगवान्नन्दं प्राह गोवर्धनोद्धरः ॥२५॥
श्रीभगवानुवाच -
कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः ।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम् ॥२६॥
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वाथ स्वात्मजेनोक्तं तं निर्भर्त्स्य व्रजेश्वरः ।
तानि नेतुं तत्सहितस्तत्क्षेत्राणि जगाम ह ॥२७॥
तत्र मुक्ताफलानां तु शाखिनः शतशः शुभाः ।
दृश्यन्ते दीर्घवपुषो हरित्पल्लवशोभिताः ॥२८॥
मुक्तानां स्तबकानां तु कोटिशः कोटिशो नृप ।
संघा विलंबिता रेजुर्ज्योतींषीव नभःस्थले ॥२९॥
तदाऽतिहर्षितो नन्दो ज्ञात्वा कृष्णं परेश्वरम् ।
मुक्ताफलानि दिव्यानि पूर्वस्थूलसमानि च ॥३०॥
तेषां तु कोटिभाराणि निधाय शकटेषु च ।
ददौ तेभ्यो वृणानेभ्यो नन्दराजो व्रजेश्वरः ॥३१॥
ते गृहीत्वाऽथ तत्सर्वं वृषभानुवरं गताः ।
सर्वेषां शृण्वतां नन्दवैभवं प्रजगुर्नृप ॥३२॥
तदाऽतिविस्मिताः सर्वे ज्ञात्वा नन्दसुतं हरिम् ।
वृषभानुवरं नेमुर्निःसन्देहा व्रजौकसः ॥३३॥
राधा हरेः प्रिया ज्ञाता राधायाश्च प्रियो हरिः ।
ज्ञातो व्रजजनैः सर्वैस्तद्दिनान्मैथिलेश्वर ॥३४॥
मुक्ताक्षेपः कृतो यत्र हरिणा नन्दसूनुना ।
मुक्तासरोवरस्तत्र जातो मैथिल तीर्थराट् ॥३५॥
एकं मुक्ताफलस्यापि दानं तत्र करोति यः ।
लक्षमुक्तादानफलं समाप्नोति न संशयः ॥३६॥
एवं ते कथितो राजन् गिरिराजमहोत्सवः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदो नॄणां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥३७॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार विचारकर नन्द ने भी श्रीकृष्णसे उन मोतियोंके विषय में आदरपूर्वक
पूछा। तब जोरसे हँसते हुए गोवर्धनधारी भगवान् नन्द से बोले-- ॥२५॥
श्रीभगवान् ने कहा- बाबा ! हम
सारे गोप किसान हैं, जो खेतोंमें सब के बीज बोया करते अतः हमने खेत में
मोती के बीज बिखेर दिये हैं ॥ २६ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! बेटेके मुँहसे यह बात
सुनकर व्रजेश्वर नन्दने उसे डाँट बतायी और उन सबको चुन- बीनकर लानेके लिये उसके साथ
खेतोंमें गये । वहाँ मुक्ताफलके सैकड़ों सुन्दर वृक्ष दिखायी देने लगे, जो हरे-हरे
पल्लवोंसे सुशोभित और विशालकाय थे ॥ २७-२८ ॥
नरेश्वर ! जैसे आकाशमें झुंड- के झुंड तारे शोभा पाते
हैं, उसी प्रकार उन वृक्षोंमें कोटि-कोटि मुक्ताफलोंके गुच्छे समूह के समूह लटके हुए
सुशोभित हो रहे थे। तब हर्षसे भरे हुए व्रजेश्वर नन्दराजने श्रीकृष्णको परमेश्वर जानकर
पहलेके समान ही मोटे-मोटे दिव्य मुक्ताफल उन वृक्षोंसे तोड़ लिये और उनके एक कोटि भार
गाड़ियों- पर लदवाकर उन वर-वरणकर्ताओंको दे दिये । नरेश्वर ! वह सब लेकर वे वरदर्शी
लोग वृष- भानुवरके पास गये और सबके सुनते हुए नन्दराजके अनुपम वैभवका वर्णन करने लगे
। २९ – ३२ ॥
उस समय सब गोप बड़े विस्मित हुए। नन्द- नन्दनको साक्षात्
श्रीहरि जानकर समस्त व्रज- वासियोंका संशय दूर हो गया और उन्होंने वृषभानुवरको प्रणाम
किया। मिथिलेश्वर ! उसी दिन से व्रजके सब लोगोंने यह जान लिया कि श्रीराधा श्रीहरिकी
प्रियतमा हैं और श्रीहरि श्रीराधाके प्राणवल्लभ हैं ॥ ३३-३४ ॥
मिथिलापते
! जहाँ नन्दनन्दन श्रीहरिने मोती बिखेरे थे, वहाँ 'मुक्ता-सरोवर' प्रकट हो गया, जो
तीर्थोंका राजा है। जो वहाँ एक मोती का भी दान करता है, वह लाख
मोतियोंके दानका फल पाता है, इसमें संशय नहीं है। राजन् ! इस प्रकार मैंने तुमसे गिरिराज-महोत्सवका
वर्णन किया, जो मनुष्योंके लिये भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। अब तुम और क्या सुनना
चाहते हो ? ॥ ३५--३७॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके
अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवादमें 'श्रीहरिकी भगवत्ताका परीक्षण' नामक छठा अध्याय
पूरा हुआ || ६ ||
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०५)
मंगलवार, 10 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
छठा अध्याय (पोस्ट 02)
गोपों का वृषभानुवर के वैभव की प्रशंसा करके
नन्दनन्दन की भगवत्ता का परीक्षण करनेके लिये उन्हें प्रेरित करना
और वृषभानुवर का कन्या के विवाहके लिये
वरको देने के निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्तिक-हार भेजना
तथा श्रीकृष्णकी कृपासे नन्दराजका वधू के लिये उनसे भी अधिक मौक्तिकराशि
भेजना
वृणाना ऊचुः -
विवाहयोग्यां नवकंजनेत्रां
कोटीन्दुबिम्बद्युतिमादधानाम् ।
विज्ञाय राधां वृषभानुमुख्य-
श्चक्रे विचारं सुवरं विचिन्वन् ॥१३॥
तवांगजं दिव्यमनंगमोहनं
गोवर्द्धनोद्धारणदोःसामुद्भटम् ।
संवीक्ष्य चास्मान्वृषभानुवंदितः
संप्रेषयामास विशाम्पते प्रभो ॥१४॥
वरस्य चांके भरणाय पूर्वं
मुक्ताफलानां निचयं गृहाण ।
इतश्च कन्यार्थमलं प्रदेहि
सैषा हि चास्मत्कुलजा प्रसिद्धिः ॥१५॥
श्रीनारद उवाच -
दृष्ट्वा द्रव्यं परो नन्दो विस्मितोऽपि विचारयन् ।
प्रष्टुं यशोदां तत्तुल्यं नीत्वा चान्तःपुरं ययौ ॥१६॥
चिरं दध्यौ तदा नन्दो यशोदा च यशस्विनी ।
एतन्मुक्तासमानं तु द्रव्यं नास्ति गृहे मम ॥१७॥
लोके लज्जा गता सर्वा हासः स्याच्चेद्धनोद्धृतम् ।
किं कर्तव्यं तत्प्रति यच्छ्रीकृष्णोद्वाहकर्मणि ॥१८॥
ततोऽयोग्यं तद्ग्रहणं पश्चात्कार्यं धनागमे ।
एवं चिन्तयतस्तस्य नन्दस्यैव यशोदया ॥१९॥
अलक्ष्य आगतस्तत्र भगवान्वृजिनार्दनः ।
नीत्वा दामशतं तेषु बहिःक्षेत्रेषु सर्वतः ॥२०॥
मुक्ताफलानि चैकैकम्प्राक्षिपत्स्वकरेण वै ।
यथा बीजानि चान्नानां स्वक्षेत्रेषु कृषीवलः ॥२१॥
अथ नन्दोऽपि गणयन् कलिकानिचयं पुनः ।
शतं न्यूनं च तद्दृष्ट्वा सन्देहं स जगाम ह ॥२२॥
श्रीनन्द उवाच -
नास्ति पूर्वं यत्समानं तत्रापि न्यूनतां गतम् ।
अहो कलंको भविता ज्ञातिषु स्वेषु सर्वतः ॥२३॥
अथवा क्रीडनार्थ हि कृष्णो यदि गृहीतवान् ।
बलदेवोऽथवा बालस्तौ पृच्छे दीनमानसः ॥२४॥
वर-वरणकर्ता बोले- नन्दराज ! जिसके नेत्र नूतन विकसित
कमलके समान शोभा पाते हैं तथा जो मुखमें करोड़ों चन्द्रमण्डलोंकी-सी कान्ति धारण करती
है, उस अपनी पुत्री श्रीराधाको विवाहके योग्य जानकर वृषभानुवरने सुन्दर वरकी खोज करते
हुए यह विचार किया है कि तुम्हारे पुत्र मदनमोहन श्रीकृष्ण दिव्य वर हैं। गोवर्धन पर्वतको
उठाने में समर्थ, दिव्य भुजाओंसे सम्पन्न तथा उद्भट वीर हैं।
प्रभो ! वैश्य-प्रवर !! यह सब देख और सोच-विचारकर वृषभानुवन्दित वृषभानुवरने हम सबको
यहाँ भेजा हैं। आप बरकी गोद भरनेके लिये पहले कन्या- पक्षकी ओरसे यह मौक्तिकराशि ग्रहण
कीजिये । फिर इधरसे भी कन्याकी गोद भरनेके लिये पर्याप्त मौक्तिकराशि प्रदान कीजिये
। यही हमारे कुलकी प्रसिद्ध रीति है । १३ – १५ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उस द्रव्य- राशिको देखकर
उत्कृष्ट नन्दराज बड़े विस्मित हुए; तो भी वे कुछ विचारकर यशोदाजीसे 'उसके तुल्य रत्न-
राशि है या नहीं' इस बातको पूछनेके लिये वह सब सामान लेकर अन्तःपुरमें गये। वहाँ उस
समय नन्द और यशस्विनी यशोदाने चिरकालतक विचार किया, किंतु (अन्ततोगत्वा) इसी निष्कर्षपर
पहुँचे कि 'इस मौक्तिकराशि के बराबर दूसरी कोई द्रव्यराशि मेरे
घर में नहीं है । आज लोगों में हमारी सारी लाज गयी । हम लोगोंकी
सब ओर हँसी उड़ायी जायगी। इस धनके बदले में हम दूसरा कौन-सा धन
दें ? क्या करें ? श्रीकृष्ण के इस विवाह के
निमित्त हमारे द्वारा क्या किया जाना चाहिये ? ।। १६ – १८ ॥
पहले तो जो कुछ वरके लिये आया है, उसे ग्रहण कर लेना
चाहिये। पीछे अपने पास धन आनेपर वधूके लिये उपहार भेजा जायगा।' ऐसा विचार करते हुए
नन्द और यशोदाजीके पास भगवान् अघमर्दन श्रीकृष्ण अलक्षितभावसे ही वहाँ आ गये। उन मौक्तिक-
हारोंमेंसे सौ हार उन्होंने घरसे बाहर खेतोंमें ले जाकर अपने हाथसे मोतीका एक-एक दाना
लेकर, उन्होंने उसी भाँति सारे खेतमें छींट दिया, जैसे किसान अपने खेतोंमें अनाजके
दाने बिखेर देता है । तदनन्तर नन्द भी जब उन मुक्ता- मालाओंकी गणना करने लगे, तब उनमें
सौ मालाओंकी कमी देखकर उनके मनमें संदेह हुआ ।। १९ – २२ ॥
नन्दजी बोले - हाय ! पहले तो मेरे घरमें जिस रत्नराशिके
समान दूसरी कोई रत्नराशि थी ही नहीं, उसमें भी अब सौकी कमी हो गयी। अहो ! चारों ओर से भाई-बन्धुओं के बीच मुझपर बड़ा भारी कलङ्क
पोता जायगा । अथवा यदि श्रीकृष्ण या बलरामने खेलनेके लिये उसमेंसे कुछ मोती निकाल लिये
हों तो अब दीनचित्त होकर मैं उन्हीं दोनों बालकोंसे पूछूंगा ॥ २३-२४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०४)
सोमवार, 9 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
छठा अध्याय (पोस्ट 01)
गोपों का वृषभानुवर के वैभव की प्रशंसा करके
नन्दनन्दन की भगवत्ता का परीक्षण करनेके लिये उन्हें प्रेरित करना
और वृषभानुवर का कन्या के विवाहके लिये
वरको देने के निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्तिक-हार भेजना
तथा श्रीकृष्णकी कृपासे नन्दराजका वधू के लिये उनसे भी अधिक मौक्तिकराशि
भेजना
श्रीनारद उवाच -
वृषभानुवरस्येदं वचःश्रुत्वा व्रजौकसः।
ऊचुः पुनः शान्तिगता विस्मिता मुक्तसंशयाः ॥१॥
गोपा ऊचुः -
समीचीनं वरो राजन् राधेयं तु हरिप्रिया ।
तत्प्रभावेण ते दीर्घं वैभवं दृश्यते भुवि ॥२॥
सहस्रशो गजा मत्ताः कोटिशोऽश्वाश्च चंचलाः ।
रथाश्च देवधिष्ण्याभाः शिबिकाः कोटिशः शुभाः ॥३॥
कोटिशः कोटिशो गावो हेमरत्नमनोहराः ।
मन्दिराणी विचित्राणि रत्नानि विविधानि च ॥४॥
सर्वं सौख्यं भोजनादि दृश्यते साम्प्रतं तव ।
कंसोऽपि धर्षितो जातो दृष्ट्वा ते बलमद्भुतम् ॥५॥
कान्यकुब्जपतेः साक्षाद्भलन्दननृपस्य च ।
जामाता त्वं महावीर कुबेर इव कोशवान् ॥६॥
त्वत्समं वैभवं नास्ति नन्दराजगृहे क्वचित् ।
कृषीवलो नन्दराजो गोपतिर्दीनमानसः ॥७॥
यदि नन्दसुतः साक्षात्परिपूर्णतमो हरिः ।
सर्वेषां पश्यतां नस्तत्परिक्षां कारय प्रभो ॥८॥
श्रीनारद उवाच -
तेषां वाक्यं ततः श्रुत्वा वृषभानुवरो महान् ।
चकार नन्दराजस्य वैभवस्य परीक्षणम् ॥९॥
कोटिदामानि मुक्तानां स्थूलानां मैथिलेश्वर ।
एकैका येषु मुक्ताश्च कोटिमौल्याः स्फुरत्प्रभाः ॥१०॥
निधाय तानि पात्रेषु वृणानैः कुशलैर्जनैः ।
प्रेषयामास नन्दाय सर्वेषां पश्यतां नृप ॥११॥
नन्दराजसभां गत्वा वृणानाः कुशला भृशम् ।
निधाय दामपात्राणि नन्दमाहुः प्रणम्य तम् ॥१२॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! वृषभानुवरकी यह बात सुनकर
समस्त व्रजवासी शान्त हो गये। उनका सारा संशय दूर हो गया तथा उनके मनमें बड़ा विस्मय
हुआ ।। १ ।।
गोप बोले- राजन् ! तुम्हारा कथन सत्य है । निश्चय ही
यह राधा श्रीहरिकी प्रिया है। इसीके प्रभाव- से भूतलपर तुम्हारा वैभव अधिक दिखायी देता
है। वैभव अधिक दिखायी देता है। हजारों मतवाले हाथी, चञ्चल घोड़े तथा देवताओंके विमान-
सदृश करोड़ों सुन्दर रथ और शिबिकाएँ तुम्हारे यहाँ सुशोभित होती हैं। इतना ही नहीं,
सुवर्ण तथा रत्नोंके आभूषणोंसे विभूषित कोटि-कोटि मनोहर गौएँ, विचित्र भवन, नाना प्रकारके
मणिरत्न, भोजन-पान आदिका सर्वविध सौख्य- यह सब इस समय तुम्हारे घरमें प्रत्यक्ष देखा
जाता है। तुम्हारा अद्भुत बल देखकर कंस भी पराभूत हो गया है ।। २-५ ।।
महावीर ! तुम कान्यकुब्ज देशके स्वामी साक्षात् राजा
भलन्दनके जामाता हो तथा कुबेरके समान कोषाधिपति । तुम्हारे समान वैभव नन्दराजके घर
में कहीं नहीं है। नन्दराज तो किसान, गोयूथके अधिपति और दीन हृदयवाले हैं। प्रभो !
यदि नन्दके पुत्र साक्षात् परिपूर्णतम श्रीहरि हैं तो हम सबके सामने नन्द के वैभव की परीक्षा कराइये ॥ ६-८
॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उन गोपोंकी बात सुनकर
महान् वृषभानुवरने नन्दराजके वैभवकी परीक्षा की। मैथिलेश्वर ! उन्होंने स्थूल मोतियोंके
एक करोड़ हार लिये, जिनमें पिरोया हुआ एक-एक मोती एक-एक करोड़ स्वर्णमुद्राके मोलपर
मिलनेवाला था और उन सबकी प्रभा दूरतक फैल रही थी। नरेश्वर ! उन सबको पात्रोंमें रखकर
बड़े कुशल वर-वरणकारी लोगोंद्वारा सब गोपोंके देखते-देखते वृषभानुवरने नन्दराजजीके
यहाँ भेजा । नन्दराजकी सभामें जाकर अत्यन्त कुशल वर-वरणकर्ता लोगोंने मौक्तिक-हारोंके
पात्र उनके सामने रख दिये और प्रणाम करके उनसे कहा-- ।। ९ – १२
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०३)
रविवार, 8 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट
03)
गोपों का श्रीकृष्ण के विषय में संदेहमूलक विवाद तथा श्रीनन्दराज
एवं वृषभानुवर के द्वारा समाधान
श्रीवृषभानुवर उवाच -
को दोषो नन्दराजस्य ज्ञातेस्तं सन्त्यजाम्यहम् ।
गोपेष्टो ज्ञातिमुकुटो नन्दराजो मम प्रियः ॥२६॥
गोपा ऊचुः -
न चेत्त्यजसि तं राजंस्त्यजामस्त्वां व्रजौकसः ।
त्वद्गृहे वर्धिता कन्योद्वाहयोग्या महामुने ॥२७॥
भवता ज्ञातिमुख्येन संपदुन्मदशालिना ।
न दत्ता वरमुख्याय कलुषं तव विद्यते ॥२८॥
अद्य त्वां ज्ञातिसंभ्रष्टं पृथङ्मन्यामहे नृप ।
न चेच्छीघ्रं नन्दराजं त्यज त्यज महामते ॥२९॥
श्रीवृषभानुवर उवाच -
गर्गस्य वाक्यं हे गोप वदिष्यामि समाहितः ।
येन गोपगणा यूयं भवताशु गतव्यथाः ॥३०॥
असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोकेशः परात्परः ।
तस्मात्परो वरो नास्ति जातो नन्दगृहे शिशुः ॥३१॥
भुवो भारावताराय कंसादिनां वधाय च ।
ब्रह्मणा प्रार्थितः कृष्णो बभूव जगतीतले ॥३२॥
श्रीकृष्णपट्टराज्ञी या गोलोके राधिकाऽभिधा ।
त्वद्गेहे साऽपि संजाता त्वं न जानासी तां पराम् ॥३३॥
अहं न कारयिष्यामि विवाहमनयोनृप ।
तयोर्विवाहो भविता भाण्डीरे यमुनातटे ॥३४॥
वृन्दावनसमीपे च निर्जने सुन्दरे स्थले ।
परमेष्ठी समागत्य विवाहं कारयिष्यति ॥३५॥
तस्माद्राधां गोपवर विद्ध्यर्द्धाङ्गीं परस्य च ।
लोकचूडामणेः साक्षाद्राज्ञीं गोलोकमन्दिरे ॥३६॥
यूयं सर्वेऽपि गोपाला गोलोकादागता भुवि ।
तथा गोपीगणा गावो गोकुले राधिकेच्छया ॥३७॥
एवमुक्त्वा गते साक्षाद्गर्गाचार्ये महामुनौ ।
तद्दिनादथ राधायां सन्देहं न करोम्यहम् ॥३८॥
वेदवाक्यं ब्रह्मवचः प्रमाणं हि महीतले ।
इति वः कथितं गोपाः किं भूयः श्रोतुमिच्छथ ॥३९॥
वृषभानुवर बोले –नन्दराजका क्या दोष है जिससे मैं उनको
त्याग दूँ ? नन्दराज तो समस्त गोपोंके प्रिय, अपनी जातिके मुकुट तथा मेरे भी परम् प्रिय
हैं ॥ २६ ॥
गोप बोले- राजन् ! महामते ! यदि तुम नन्दराजको नहीं
छोड़ोगे तो हम सब व्रजवासी तुम्हे छोड़ देंगे। तुम्हारे घरमें कन्या बड़ी आयुकी होकर
विवाहके योग्य हो गयी है और तुमने हमारी जातिके प्रधान होकर भी धन-सम्पत्तिके मदसे
मतवाले हो अबतक उसे किसी श्रेष्ठ वरके हाथमें नहीं सौंपा है।
इसलिये तुम्हारे ऊपर पाप चढ़ा हुआ है। महामते नरेश ! आज से हम
तुम्हें जातिभ्रष्ट तथा अपने से अलग मान लेंगे; नहीं तो शीघ्र
नन्दराज को छोड़ दो ॥ २७-२९ ॥
वृषभानुवर ने कहा— गोपगण ! मैं
एकाग्र- चित्त होकर गर्गजीकी कही हुई बात बता रहा हूँ. जिससे शीघ्र ही तुम्हारी चिन्ता-व्यथा
दूर हो जायगी उन्होंने बताया 'असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति लोकेश्वर, परात्पर भगवान्
श्रीकृष्ण नन्दगृह में बालक होकर अवतीर्ण हुए हैं। उनसे बढ़कर
श्रीराधाके लिये कोई वर नहीं है । ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे भूगिका भार उतारने और कंसादिके वध करनेके लिये भूतल पर श्रीकृष्णका अवतार हुआ है ॥ ३०-३२ ॥
गोलोक में, 'श्रीराधा नाम की जो श्रीकृष्ण की पटरानी हैं, वे ही तुम्हारे
घर में कन्यारूपसे अवतीर्ण हुई हैं। उन 'परा देवी को तुम नहीं जानते। मैं इन दोनोंका
विवाह नहीं कराऊँगा इनका विवाह यमुनातटपर भाण्डीर-वन में होगा
। वृन्दावन के समीप निर्जन सुन्दर स्थल में साक्षात ब्रह्माजी पधार कर श्रीराधा तथा
श्रीकृष्ण का विवाह- कार्य सम्पन्न करायेंगे ॥३३-३५॥
अतः गोपप्रवर ! तुम श्रीराधा को लोकचूडामणि साक्षात् परमात्मा श्रीकृष्ण की
अर्धाङ्गस्वरूपा एवं गोलोकधाम की महारानी समझो। तुम समस्त गोपगण
भी गोलोक में इस भूतलपर आये हो। इसी तरह गोपियाँ और गौएँ भी श्रीराधाकी
इच्छासे ही गोलोकसे गोकुलमें आयी हैं।" यों कहकर साक्षात् महामुनि गर्गाचार्य
जब चले गये, उसी दिन से श्रीराधाके विषयमें मैं कभी कोई संदेह या शङ्का नहीं करता ।
इस भूतलपर ब्राह्मणवचन वेदवाक्यवत् प्रमाण हैं । गोपो ! यह सब रहस्य मैंने तुम्हें
सुना दिया; अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ३६ - ३९ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिता में श्रीगिरिराजखण्ड
अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवादमें 'गोपविवाद' नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥
५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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