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रविवार, 29 सितंबर 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०८)
शनिवार, 28 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) तीसरा अध्याय
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
तीसरा अध्याय
मैथिलीरूपा गोपियों का आख्यान; चीरहरणलीला
और वरदान-प्राप्ति
श्रीनारद उवाच -
मैथिलीनां गोपिकानामाख्यानं शृणु मैथिल ।
दशाश्वमेधतीर्थस्य फलदं भक्तिवर्धनम् ॥ १ ॥
श्रीरामस्य वराज्जाताः नवनन्दगृहेषु याः ।
कमनीयं नन्दसूनुं दृष्ट्वा ता मोहमास्थिताः ॥ २ ॥
मार्गशीर्षे शुभे मासि चक्रुः कात्यायनीव्रतम् ।
उपचारैः षोडशभिः कृत्वा देवीं महीमयीम् ॥ ३ ॥
अरुणोदयवेलायां स्नाताः श्रीयमुनाजले ।
नित्यं समेता आजग्मुर्गायन्त्यो भगवद्गुणान् ॥ ४ ॥
एकदा ताः स्ववस्त्राणि तीरे न्यस्य व्रजांगनाः ।
विजर्ह्रुर्यमुनातोये कराभ्यां सिंचतीर्मिथः ॥ ५ ॥
तासां वासांसि संनीय भगवान् प्रातरागतः ।
त्वरं कदंबमारुह्य चौरवन्मौनमास्थितः ॥ ६ ॥
ता न वीक्ष्य स्ववासांसि विस्मिता गोपकन्यकाः ।
नीपस्थितं विलोक्याथ सलज्जा जहसुर्नृप ॥ ७ ॥
प्रतीच्छन्तु स्ववासांसि सर्वा आगत्य चात्र वै ।
अन्यथा न हि दास्यामि वृक्षात्कृष्ण उवाच ह ॥ ८ ॥
राजंत्यस्ताः शीतजले हसंत्यः प्राहुरानताः ॥ ९ ॥
गोप्य ऊचुः -
हे नन्दनन्दन मनोहर गोपरत्न
गोपालवंशनवहंस महार्तिहारिन् ।
श्रीश्यामसुन्दर तवोदितमद्य वाक्यं
कुर्मः कथं विवसनाः किल तेऽपि दास्यः
॥ १० ॥
गोपाङ्गनावसनमुण्नवनीतहारी
जातो व्रजेऽतिरसिकः किल निर्भयोऽसि ।
वासांसि देहि न चेन्मथथुराधिपाय
वक्ष्यामहेऽनयमतीव कृतं त्वयाऽत्र ॥
११ ॥
श्रीभगवानुवाच -
दास्यो ममैव यदि सुन्दरमन्दहासा
इच्छन्तु वैत्य किल चात्र कदंबमूले ।
नोचेत्समस्तवसनानि नयामि गेहां-
स्तस्मात्करिष्यथ ममैव वचोऽविलम्बात्
॥ १२ ॥
श्रीनारद उवाच –
तदा ता निर्गताः सर्वा जलाद्गोप्योऽतिवेपिताः
।
आनता योनिमाच्छाद्य पाणिभ्यां शीतकर्शिताः ॥ १३ ॥
कृष्णदत्तानि वासांसि ददुः सर्वा व्रजजांगनाः ।
मोहिताश्च स्थितास्तत्र कृष्णे लज्जायितेक्षणाः ॥ १४ ॥
ज्ञात्वा तासामभिप्रायं परमप्रेमलक्षणम् ।
आह मन्दस्मितः कृष्णः समन्ताद्वीक्ष्य ता वचः ॥ १५ ॥
श्रीभगवानुवाच -
भवतीभिर्मार्गशीर्षे कृतं कात्यायनीव्रतम् ।
मदर्थं तच्च सफलं भविष्यति न संशयः ॥ १६ ॥
परश्वोऽहनि चाटव्यां कृष्णातीरे मनोहरे ।
युष्माभिश्च करिष्यामि रासं पूर्णमनोरथम् ॥ १७ ॥
इत्युक्त्वाऽथ गते कृष्णे परिपूर्णतमे हरौ ।
प्राप्तानन्दा मंदहासा गोप्यः सर्वा गृहान् ययुः ॥ १८ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! मिथिलेश्वर ! अब मिथिलादेशमें
उत्पन्न गोपियोंका आख्यान सुनो। यह दशाश्वमेध - तीर्थपर स्नानका फल देनेवाला और भक्ति-भावको
बढ़ानेवाला है। श्रीरामचन्द्रजीके वरसे जो नौ नन्दोंके घरोंमें उत्पन्न हुई थीं, वे
मैथिलीरूपा गोपकन्याएँ परम कमनीय नन्दनन्दनका दर्शन करके मोहित हो गयीं ॥ १- २ ॥
उन्होंने मार्गशीर्षक शुभ मास में कात्यायनीका
व्रत किया और उनकी मिट्टी की प्रतिमा बनाकर वे षोडशोपचा रसे उसकी पूजा करने लगीं। अरुणोदयकी वेला में
वे प्रतिदिन एक साथ भगवान् के गुण गाती हुई आतीं और श्रीयमुनाजीके
जल में स्नान करती थीं। एक दिन वे व्रजाङ्गनाएँ अपने वस्त्र यमुनाजीके
किनारे रखकर उनके जलमें प्रविष्ट हुईं और दोनों हाथोंसे जल उलीचकर एक-दूसरी को भिगोती हुई जल-विहार करने लगीं ॥ ३- ५ ॥
प्रातःकाल भगवान् श्यामसुन्दर वहाँ आये और तुरंत उन
सबके वस्त्र लेकर कदम्बपर आरूढ़ हो चोर की तरह चुपचाप बैठ गये
। राजन् ! अपने वस्त्रोंको न देखकर वे गोपकन्याएँ बड़े विस्मयमें पड़ीं तथा कदम्बपर
बैठे हुए श्यामसुन्दरको देखकर लजा गयीं और हँसने लगीं। तब वृक्षपर बैठे हुए श्रीकृष्ण
उन गोपियोंसे कहने लगे- 'तुम सब लोग यहाँ आकर अपने- अपने कपड़े ले जाओ, अन्यथा मैं
नहीं दूँगा ।' राजन् ! तब वे गोपकन्याएँ शीतल जलके भीतर खड़ी खड़ी हँसती हुई लज्जासे
मुँह नीचे किये बोलीं --॥ ६-९ ॥
गोपियोंने कहा- हे मनोहर नन्दनन्दन ! हे गोपरत्न !
हे गोपाल बंशके नूतन हंस ! हे महान् पीड़ाको हर लेनेवाले श्रीश्यामसुन्दर ! तुम जो
आज्ञा करोगे, वही हम करेंगी। तुम्हारी दासी होकर भी हम यहाँ वस्त्रहीन होकर कैसे रहें?
आप गोपियोंके वस्त्र लूटनेवाले और माखनचोर हैं। व्रजमें जन्म लेकर भी बड़े रसिक हैं।
भय तो आपको छू नहीं सका है। हमारा वस्त्र हमें लौटा दीजिये, नहीं तो हम मथुरा- नरेशके
दरबार में आपके द्वारा इस अवसरपर की गयी बड़ी भारी अनीतिकी शिकायत करेंगी ।। १०-११
॥
श्रीभगवान् बोले- सुन्दर मन्दहास्य से
सुशोभित होनेवाली गोपाङ्गनाओ ! यदि तुम मेरी दासियाँ हो तो इस कदम्बकी जड़के पास आकर
अपने वस्त्र ले लो । नहीं तो मैं इन सब वस्त्रों को अपने घर उठा
ले जाऊँगा । अतः तुम अविलम्ब मेरे कथनानुसार कार्य करो ॥ १२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तब वे सब व्रजवासिनी
गोपियाँ अत्यन्त काँपती हुई जलसे बाहर निकलीं और आनत-शरीर हो, हाथोंसे योनिको ढककर
शीतसे कष्ट पाते हुए श्रीकृष्णके हाथसे दिये गये वस्त्र लेकर उन्होंने अपने अङ्गों
में धारण किये । इसके बाद श्रीकृष्णको लजीली आँखोंसे देखती हुई वहाँ मोहित हो खड़ी
रहीं । उनके परम प्रेमसूचक अभिप्रायको जानकर मन्द मन्द मुस्कराते हुए श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण
उनपर चारों ओरसे दृष्टिपात करके इस प्रकार बोले-- ॥ १३ – १५ ॥
श्रीभगवान् ने कहा—गोपाङ्गनाओ!
तुमने मार्गशीर्ष मासमें मेरी प्राप्तिके लिये जो कात्यायनी - व्रत किया है, वह अवश्य
सफल होगा—इसमें संशय नहीं है। परसों दिनमें वनके भीतर यमुनाके मनोहर तटपर मैं तुम्हारे
साथ रास करूँगा, जो तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करनेवाला होगा ।। १६-१७ ।।
यों कहकर परिपूर्णतम श्रीहरि जब चले गये, तब आनन्दोल्लाससे
परिपूर्ण हो मन्दहासकी छटा बिखेरती हुई वे समस्त गोप-बालाएँ अपने घरों को गयीं ॥ १८ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'मैथिलीरूपा गोपियोंका उपाख्यान' नामक तीसरा अध्याय
पूरा हुआ ॥ ३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०७)
शुक्रवार, 27 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) दूसरा अध्याय
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
दूसरा अध्याय
ऋषिरूपा गोपियों का उपाख्यान – वङ्गदेश
के मङ्गल-गोप की कन्याओं का नन्दराज के व्रज में आगमन तथा यमुनाजी के तटपर रासमण्डल
में प्रवेश
श्रीनारद उवाच
गोपीनामृषिरूपाणामाख्यानं शृणु मैथिल
।
सर्वपापहरं पुण्यं कृष्णभक्तिविवर्धनम् ॥१॥
वङ्गेषु मङ्गलो नाम गोप आसीन्महामनाः ।
लक्ष्मीवाञ्छ्रुतसम्पन्नो नवलक्षगवां पतिः ॥२॥
भार्याः पञ्चसहस्राणि बभूवुस्तस्य मैथिल ।
कदाचिद्दैवयोगेन धनं सर्वं क्षयं गतम् ॥३॥
चौरैर्नीतास्तस्य गावः काश्चिद्राज्ञा हृता बलात् ।
एवं दैन्ये च सम्प्राप्ते दुःखितो मङ्गलोऽभवत् ॥४॥
तदा श्रीरामस्य वराद्दण्डकारण्यवासिनः ।
ऋषयः स्त्रीत्वमापन्ना बभूवुस्तस्य कन्यकाः ॥५॥
दृष्ट्वा कन्यासमूहं स दुःखी गोपोऽथ मङ्गलः ।
उवाच दैन्यदुःखाढ्य आधिव्याधिसमाकुलः ॥६॥
मङ्गल उवाच -
किं करोमि क्व गच्छामि को मे दुःखं व्यपोहति ।
श्रीर्न भूतिर्नाभिजनो न बलं मेऽस्ति साम्प्रतम् ॥७॥
धनं विना कथं चासां विवाहो हा भविष्यति ।
भोजने यत्र सन्देहो धनाश तत्र कीदृशी ॥८॥
सति दैन्ये कन्यकाः स्युः काकतालीयवद्गृहे ।
तस्मात्कस्यापि राज्ञस्तु धनिनो बलिनस्त्वहम् ॥९॥
दास्याम्येताः कन्यकाश्च कन्यानां सौख्यहेतवे ।
कदर्थीकृत्य ता कन्याः एवं बुद्ध्या स्थितोऽभवत् ॥
तदैव माथुराद्देशाद्गोपश्चैकः समागतः ॥१०॥
नारद उवाच -
तीर्थयायी जयो नाम वृद्धोबुद्धिमतां वरः ।
तन्मुखान्नन्दराजस्य श्रुतं वैभवमद्भुतम् ॥११॥
नन्दराजस्य बलये मङ्गलो दैन्यपीडितः ।
विचिन्त्य प्रेषयामास कन्यकाश्चारुलोचनाः ॥ १२ ॥
ता नन्दराजस्य गृहे कन्यका रत्नभूषिताः ।
गवां गोमयहारिण्यो बभूवुर्गोव्रजेषु च ॥ १३ ॥
श्रीकृष्णं सुन्दरं दृष्ट्वा कन्या जातिस्मराश्च ताः ।
कालिन्दीसेवनं चक्रुर्नित्यं श्रीकृष्णहेतवे ॥ १४ ॥
अथैकदा श्यामलाङ्गी कालिन्दी दीर्घलोचना ।
ताभ्यः स्वदर्शनं दत्वा वरं दातुं
समुद्यता ॥ १५ ॥
ता वव्रिरे व्रजेशस्य पुत्रो भूयात्पतिश्च नः ।
तथास्तु चोक्त्वा कालिन्दी तत्रैवान्तरधीयत ॥ १६ ॥
ताः प्राप्ता वृन्दकारण्ये कार्तिक्यां रासमण्डले ।
ताभिः सार्धं हरी रेमे सुरीभिः सुरराडिव ॥ १७ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— मैथिल ! अब तुम ऋषिरूपा गोपियोंकी
कथा सुनो। वह सब पापोंको हर लेनेवाली, परम पावन तथा श्रीकृष्णके प्रति भक्ति- भावकी
वृद्धि करनेवाली है । वङ्गदेशमें मङ्गल नामसे प्रसिद्ध एक महामनस्वी गोप था, जो लक्ष्मीवान्,
शास्त्रज्ञानसे सम्पन्न तथा नौ लाख गौओंका स्वामी था। मिथिलेश्वर ! उसके पाँच हजार
पत्नियाँ थीं। किसी समय दैवयोगसे उसका सारा धन नष्ट हो गया ॥ १-३
॥
चोरों ने उसकी गौओंका अपहरण कर लिया। कुछ गौओंको उस
देशके राजाने बलपूर्वक अपने अधिकारमें कर लिया। इस प्रकार दीनता प्राप्त होनेपर मङ्गल-गोप
बहुत दुःखी हो गया । उन्हीं दिनों श्रीरामचन्द्रजी के वरदानसे
स्त्रीभावको प्राप्त हुए दण्डकारण्यके निवासी ऋषि उसकी कन्याएँ हो गये। उस कन्या -
समूहको देखकर दुःखी गोप मङ्गल और भी दुःखमें डूब गया और आधि-व्याधिस व्याकुल रहने लगा।
उसने मन-ही-मन इस प्रकार कहा-- ॥ १ -६ ॥
मङ्गल बोला- क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? कौन मेरा दुःख
दूर करेगा ? इस समय मेरे पास न तो लक्ष्मी है, न ऐश्वर्य है, न कुटुम्बीजन हैं और न
कोई बल ही है । हाय ! धनके बिना इन कन्याओंका विवाह कैसे होगा ? जहाँ भोजनमें भी संदेह
हो, वहाँ धनकी कैसी आशा ? दीनता तो थी ही। काकतालीय न्यायसे कन्याएँ भी इस घरमें आ
गयीं। इसलिये किसी धनवान् और बलवान् राजाको ये कन्याएँ अर्पित करूँगा, तभी इन कन्याओंको
सुख मिलेगा ।। ७ – ९ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार उन कन्याओंकी
कोई परवा न करके उसने अपनी ही बुद्धिसे ऐसा निश्चय कर लिया और उसीपर डटा रहा। उन्हीं
दिनों मथुरामण्डलसे एक गोप उसके यहाँ आया । वह तीर्थयात्री था। उसका नाम था जय । वह
बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ और वृद्ध था। उसके मुखसे मङ्गल ने नन्दराजके
अद्भुत वैभवका वर्णन सुना ।। १० – ११ ॥
दीनता से पीड़ित मङ्गल ने बहुत सोच-विचारकर अपनी चारु- लोचना कन्याओंको नन्दराजके व्रजमण्डलमें
भेज दिया। नन्दराजके घर में जाकर वे रत्नमय
भूषणोंसे विभूषित कन्याएँ उनके गोष्ठमें गौओंका गोबर उठानेका काम करने लगीं। वहाँ सुन्दर
श्रीकृष्णको देखकर उन कन्याओंको अपने पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण हो आया और वे श्रीकृष्णकी
प्राप्तिके लिये नित्य यमुनाजीकी सेवा-पूजा करने लगीं ।। १२ – १४ ॥
तदनन्तर एक दिन श्यामल अङ्गोंवाली विशाललोचना यमुनाजी
उन सबको दर्शन दे, वर-प्रदान करने के लिये उद्यत हुईं। उन गोपकन्याओं ने यह वर माँगा कि 'व्रजेश्वर नन्दराज के पुत्र श्रीकृष्ण हमारे पति हों।' तब 'तथास्तु' कहकर यमुना वहीं अन्तर्धान
हो गयीं। वे सब कन्याएँ वृन्दावन में कार्तिक पूर्णिमाकी रात को रासमण्डल में पहुँचीं। वहाँ श्रीहरि ने उनके साथ उसी तरह विहार किया, जैसे देवाङ्गनाओं के
साथ देवराज इन्द्र किया करते हैं ॥ १५- १७ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'ऋषिरूपा गोपियोंका उपाख्यान' नामक दूसरा अध्याय
पूरा हुआ ॥ २ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०६)
गुरुवार, 26 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) पहला अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
पहला अध्याय (पोस्ट 03)
श्रुतिरूपा गोपियों का वृत्तान्त, उनका
श्रीकृष्ण और दुर्वासामुनि की बातों में संशय तथा श्रीकृष्ण द्वारा उसका निराकरण
सुखेनातः
प्रगन्तव्यं भवतीभिर्यदा स्वतः ।
यमुनामेत्य चैतद्वै वक्तव्यं मार्गहेतवे ॥ ३६ ॥
यदि दूर्वारसं पीत्वा दुर्वासाः केवलं क्षितौ ।
व्रती निरन्नो निर्वारि वर्तते पृथिवीतले ॥ ३७ ॥
तर्हि नो देहि मार्गं वै कालिंदि सरितां वरे ।
इत्युक्ते वचने कृष्णा मार्गं वो दास्यति स्वतः ॥ ३८ ॥
श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा वचो गोप्यो नत्वा तं मुनिपुंगवम् ।
यमुनामेत्य मुन्युक्तं चोक्त्वा तीर्त्वा नदीं नृप ॥ ३९ ॥
श्रीकृष्णपार्श्वमाजग्मुर्विस्मिता मंगलायनाः ॥ ४० ॥
अथ रासे गोपवध्वः सन्देहं मनसोत्थितम् ।
पप्रच्छुः श्रीहरिं वीक्ष्य रहः पूर्णमनोरथाः ॥ ४१ ॥
गोप्य ऊचुः -
दुर्वाससो दर्शनं भोः कृतमस्माभिरग्रतः ।
युवयोर्वाक्यतश्चात्र सन्देहोऽयं प्रजायते ॥ ४२ ॥
यथा गुरुस्तथा शिष्यो मृषावादी न संशयः ।
जारस्त्वमसि गोपीनां रसिको बाल्यतः प्रभो ॥ ४३ ॥
कथं बालयतिस्त्वं वै वद तद्वृजिनार्दन ।
कथं दूर्वारसं पीत्वा दुर्वासा बहुभुङ्मुनिः ।
नो जात एष सन्देहः पश्यन्तीनां व्रजेश्वर ॥ ४४ ॥
श्रीभगवानुवाच -
निर्ममो निरहंकारः समानः सर्वगः परः ।
सदा वैषम्यरहितो निर्गुणोऽहं न संशयः ॥ ४५ ॥
तथापि भक्तान् भजतो भजेऽहं वै यथा तथा ।
तथैव साधुर्ज्ञानी वै वैषम्यरहितः सदा ॥ ४६ ॥
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम् ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन् ॥ ४७ ॥
यस्य सर्वे समारंभाः कामसंकल्पविर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥ ४८ ॥
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ ४९ ॥
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ ५० ॥
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवांभसा ॥ ५१ ॥
तस्मान्मुनिस्तु दुर्वासा बहुभुक् त्वद्धिते रतः ।
न तस्य भोजनेच्छा स्याद्दूर्वारसमिताशनः ॥ ५२ ॥
श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा वचो गोप्यः सर्वास्ताश्छिन्नसंशयाः ।
श्रुतिरूपा ज्ञानमय्यो बभूवुर्मैथिलेश्वर ॥ ५३ ॥
मुनि बोले- गोपियो ! तुम सब यहाँसे सुखपूर्वक चली जाओ।
जब यमुनाजीके किनारे पहुँचो, तब मार्गके लिये इस प्रकार कहना - 'यदि दुर्वासामुनि इस
भूतलपर केवल दुर्वाका रस पीकर रहते हों, कभी अन्न और जल न लेकर व्रतका पालन करते हों
तो सरिताओंकी शिरोमणि यमुनाजी ! हमें मार्ग दे दो।' ऐसी बात कहनेपर यमुनाजी तुम्हें
स्वतः मार्ग दे देंगी ॥ ३६- ३८ ।।
श्रीनारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! यह सुनकर गोपियाँ उन
मुनिपुंगवको प्रणाण करके यमुनाके तटपर आयीं और मुनि की बतायी
हुई बात कहकर नदी पार हो श्रीकृष्ण के पास आ पहुँचीं। वे मङ्गलधामा
गोपियाँ इस यात्रा के विचित्र अनुभव से
विस्मित थीं। तदनन्तर रास में गोपाङ्गनाओं ने
श्रीकृष्णकी ओर देखकर अपने मनमें उठे हुए संदेहको उनसे पूछा । एकान्तमें श्रीहरि ने उन सबका मनोरथ पूर्ण कर दिया था ।। ३९ –४१ ॥
गोपियाँ बोलीं- प्रभो ! हमने दुर्वासा मुनि का दर्शन उनके सामने जाकर किया है; किंतु आप दोनों के
वचनों को सुनकर उनकी सत्यता के सम्बन्ध में हमारे मन में संदेह उत्पन्न हो गया है ।।४२॥
जैसे गुरुजी असत्यवादी हैं, उसी तरह चेलाजी भी मिथ्यावादी
हैं— इसमें संशय नहीं है । अघनाशन! आप तो गोपियों के उपपति और
बचपन से ही रसिक हैं, फिर आप बाल ब्रह्मचारी कैसे हुए— यह हमें
स्पष्ट बताइये और हमारे सामने बहुत-सा अन्न (भार-के-भार छप्पन भोग) खा जानेवाले ये
दुर्वासामुनि केवल दुर्वाका रस पीकर रहनेवाले कैसे हैं ? व्रजेश्वर ! हमारे मनमें यह
भारी संदेह उठा है ॥ ४३ – ४४ ॥
श्रीभगवान् ने कहा— गोपियो
! मैं ममता और अहंकारसे रहित, सबके प्रति समान भाव रखने वाला, सर्वव्यापी, सबसे उत्कृष्ट,
सदा विषमताशून्य तथा प्राकृत गुणोंसे रहित हूँ — इसमें संशय नहीं है। तथापि जो भक्त
मेरा जिस प्रकार भजन करते हैं, उनका उसी प्रकार मैं भी भजन करता हूँ। इसी प्रकार ज्ञानी
साधु-महात्मा भी सदा विषम भावनासे रहित होते हैं ।। ४५ –४६ ॥
योगयुक्त विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह कर्मोंमें
आसक्त हुए अज्ञानीजनों में बुद्धि-भेद न उत्पन्न करें। उनसे सदा
समस्त कर्मों का सेवन ही कराये। जिस पुरुषके सभी समारम्भ (आयोजन)
कामना और संकल्पसे शून्य होते हैं, उनके सारे कर्म ज्ञानरूपी अग्नि में
दग्ध हो जाते हैं (अर्थात् उनके लिये वे कर्म बन्धनकारक नहीं होते) । ऐसे पुरुषको ज्ञानीजन
पण्डित (तत्त्वज्ञ) कहते हैं। जिसके मनमें कोई कामना नहीं है, जिसने चित्त और बुद्धि को अपने वश में कर रखा है तथा जो समस्त संग्रह
- परिग्रह छोड़ चुका है, वह केवल शरीर - निर्वाह सम्बन्धी कर्म करता हुआ किल्विष (कर्मजनित
शुभाशुभ फल) को नहीं प्राप्त होता ।। ४७ –४९ ॥
इस संसार में ज्ञानके समान पवित्र
दूसरी कोई वस्तु नहीं है। योगसिद्ध पुरुष समयानुसार स्वयं ही अपने-आपमें उस ज्ञानको
प्राप्त कर लेता है। जो समस्त कर्मोंको ब्रह्मार्पण करके आसक्ति छोड़कर कर्म करता है,
वह पापसे उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जैसे कमलका पत्र जलसे । इसलिये दुर्वासामुनि
तुम सबके हित साधनमें तत्पर होकर बहुत खानेवाले हो गये । स्वतः उन्हें कभी भोजनकी इच्छा
नहीं होती। वे केवल परिमित दुर्वारसका ही आहार करते हैं ।। ५०-५२
।।
श्रीनारदजी कहते हैं— मैथिलेश्वर ! श्रीकृष्णका यह
वचन सुनकर समस्त गोपियोंका संशय नष्ट हो गया। वे श्रुतिरूपा गोपाङ्गनाएँ ज्ञानमयी हो
गयीं ॥ ५३ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत श्रीनारद- बहुलाश्व-संवादमें 'श्रुतिरूपा गोपियोंका उपाख्यान' नामक पहला अध्याय
पूरा हुआ ॥ १ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०५)
बुधवार, 25 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) पहला अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
पहला अध्याय (पोस्ट 02)
श्रुतिरूपा गोपियों का वृत्तान्त, उनका
श्रीकृष्ण और दुर्वासामुनि की बातों में संशय तथा श्रीकृष्ण द्वारा उसका निराकरण
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा तत्परमं वाक्यं गोप्यः सर्वास्तु विस्मिताः ।
कृतांजलिपुटा ऊचुः श्रीकृष्णं नम्रकंधराः ॥ १७ ॥
गोप्य ऊचुः -
परिपूर्णतमस्यापि दुर्वासास्ते गुरुः स्मृतः ।
अहो तद्दर्शनं कर्तुं मनो नश्चोद्यतं प्रभो ॥ १८ ॥
अद्य देव निशीथिन्या व्यतीते प्रहरद्वये ।
कथं तद्दर्शनं भूयादस्माकं परमेश्वर ॥ १९ ॥
तथा मध्ये दीर्घनदी यमुना प्रतिबन्धिका ।
कथं तत्तरणं नावं ऋते देव भविष्यति ॥ २० ॥
श्रीभगवानुवाच -
अवश्यमेव गन्तव्यं भवतीभिर्यदा प्रियाः ।
यमुनामेत्य चैतद्वै वक्तव्यं मार्गहेतवे ॥ २१ ॥
यदि कृष्णो बालयतिः सर्वदोषविवर्जितः ।
तर्हि नो देहि मार्गं वै कालिन्दि सरितां वरे ॥ २२ ॥
इत्युक्ते वचने कृष्णा मार्गं वो दास्यति स्वतः ।
सुखेन तेन व्रजत यूयं सर्वा व्रजांगनाः ॥ २३ ॥
श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वाऽथ तद्वाक्यं पात्रैर्दीर्घैर्व्रजांगनाः ।
षट्पंचाशत्तमान् भोगान् नीत्वा सर्वाः पृथक्पृथक् ॥ २४ ॥
यमुनामेत्य हर्युक्तं जगुरानतकंधराः ।
सद्यः कृष्णा ददौ मार्गं गोपीभ्यो मैथिलेश्वर ॥ २५ ॥
तेन गोप्यो गताः सर्वा भाण्डीरं चातिविस्मिताः ।
ततः प्रदक्षिणीकृत्य मुनिं दुर्वासनं च ताः ॥ २६ ॥
नत्वा तद्दर्शनं चक्रुः पुरो धृत्वाऽशनं वहु ।
मे पूर्वं चापि मे पूर्वमन्नं भोज्यं त्वया मुने ॥ २७ ॥
एवं विवदमानानां गोपीनां भक्तिलक्षणम् ।
विज्ञाय मुनिशार्दूलः प्रोवाच विमलं वचः ॥ २८ ॥
मुनिरुवाच -
गोप्यः परमहंसोऽहं कृतकृत्यो हि निष्क्रियः ।
तस्मान्मुखे मे दातव्यं स्वं स्वं चाप्यशनं करैः ॥ २९ ॥
श्रीनारद उवाच -
एवं विदारिते तेन मुखे गोप्योऽतिहर्षिताः ।
षट्पंचाशत्तमान् भोगान् स्वान्स्वान् सर्वाः समाक्षिपन् ॥ ३०
॥
क्षिपन्तीनां च गोपीनां पश्यंतीनां मुनीश्वरः ।
जघास कोटिशो मारान् भोगान् सर्वान् क्षुधातुरः ॥ ३१ ॥
विस्मितानां च गोपीनां पश्यंतीनां परस्परम् ।
इत्थं शून्यानि पात्राणि बभूवुर्नृपसत्तम ॥ ३२ ॥
अथ गोप्यो मुनिं शांतं नत्वा तं भक्तवत्सलम् ।
विस्मिताः प्रणताः प्राहुः सर्वाः पूर्णमनोरथाः ॥ ३३ ॥
गोप्य ऊचुः -
मुने आगमनात्पूर्वं कृष्णोक्तवचसा नदीम् ।
तीर्त्वाऽऽगतास्त्वत्समीपं दर्शनार्थं शुभेच्छया ॥ ३४ ॥
इतः कथं गमिष्यामः सन्देहोऽयं महानभूत् ।
तद्विधेहि नमस्तुभ्यं येन पंथा लघुर्भवेत् ॥ ३५ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्ण का यह उत्तम वचन सुनकर समस्त गोपाङ्गनाओं को
बड़ा विस्मय हुआ । वे हाथ जोड़कर सिर झुकाकर श्रीकृष्ण- से बोलीं ॥ १७ ॥
गोपियों ने कहा - प्रभो ! यह
तो बड़े आश्चर्यकी बात है। आप स्वयं परिपूर्णतम परमेश्वरके भी गुरु दुर्वासामुनि हैं,
यह जानकर हमारा मन उनके दर्शनके लिये उत्सुक हो उठा है। देव! परमेश्वर !! आज रातके
दो पहर बीत जानेपर उनका दर्शन हमें कैसे प्राप्त हो सकता है। बीचमें विशाल नदी यमुना
प्रति बन्धक बनकर खड़ी है; अतः देव! बिना किसी नावके यमुनाजीको पार करना कैसे सम्भव
होगा ? ।। १८ - २० ॥
श्रीभगवान् बोले- प्रियाओ ! यदि तुमलोगों- को अवश्य
ही वहाँ जाना है तो यमुनाजीके पास पहुँचकर मार्ग प्राप्त करनेके लिये इस प्रकार कहना-
'यदि श्रीकृष्ण बालब्रह्मचारी और सब प्रकारके दोषोंसे रहित हैं तो सरिताओंमें श्रेष्ठ
यमुनाजी ! हमारे लिये मार्ग दे दो ।' यह बात कहनेपर यमुना तुम्हें स्वतः मार्ग दे देंगी।
उस मार्ग से तुम सभी व्रजाङ्गनाएँ सुखपूर्वक चली जाना ॥ २१-२३ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! उनका यह वचन सुनकर सभी
गोपियाँ अलग-अलग विशाल पात्रोंमें छप्पन भोग लेकर यमुनाजीके तटपर गयीं और सिर झुकाकर
उन्होंने श्रीकृष्णकी कही हुई बात दुहरा दी। मैथिलेश्वर ! फिर तो तत्काल यमुनाजीने
उन गोपियोंके लिये मार्ग दे दिया । उस मार्गसे सभी गोपियाँ अत्यन्त विस्मित हो, भाण्डीर-वटके
पास पहुँचीं। वहाँ उन्होंने दुर्वासामुनिकी परिक्रमा की और उनके आगे बहुत-सी भोजन सामग्री
रखकर उनका दर्शन किया। फिर सब- की-सब कहने लगीं- 'मुने! पहले मेरा अन्न ग्रहण कीजिये,
पहले मेरा अन्न भोजन कीजिये।' इस तरह परस्पर विवाद करती हुई गोपियोंका भक्तिसूचक भाव
जानकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा ने यह विमल वचन कहा ।। २४-२८ ॥
मुनि बोले- गोपियो ! मैं कृतकृत्य परमहंस हूँ, निष्क्रिय
हूँ । इसलिये तुमलोग अपना-अपना भोजन अपने ही हाथोंसे मेरे मुँहमें डाल दो ।। २९ ।।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर जब उन्होंने
अपना मुँह फैलाया, तब सभी गोपियों ने अत्यन्त हर्ष के साथ अपने-अपने छप्पन भोगों को उनके मुँह में एक साथ ही डालना आरम्भ किया । अन्न डालती हुई उन गोपियों के देखते-देखते मुनीश्वर दुर्वासा क्षुधासे पीड़ित की
भाँति उन समस्त भोगों को, जो करोड़ों भारसे कम न थे, चट कर गये।
गोपियाँ आश्चर्यचकित हो एक-दूसरी की ओर देखने लगीं। नृपश्रेष्ठ
! इस तरह उनके सारे बर्तन खाली हो गये । तत्पश्चात् उन परम शान्त और भक्तवत्सल मुनिको
विस्मित हुई सभी गोपियोंने पूर्णमनोरथ होकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा ॥ ३० - ३३
॥
गोपियोंने कहा – मुने! यहाँ आनेसे पूर्व श्रीकृष्णकी
कही हुई बात दुहराकर मार्ग मिल जानेसे यमुनाजीको पार करके हमलोग आपके समीप दर्शन- की
शुभ इच्छा लेकर यहाँ आ गयी थीं। अब इधरसे हम कैसे जायँगी, यह महान् संदेह हमारे मनमें
हो गया है ! अतः आप ही ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे मार्ग हलका हो जाय ।। ३४-३५ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०४)
मंगलवार, 24 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) पहला अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
पहला अध्याय (पोस्ट
01)
श्रुतिरूपा
गोपियों का वृत्तान्त, उनका श्रीकृष्ण और दुर्वासामुनि की बातों में संशय तथा श्रीकृष्ण
द्वारा उसका निराकरण
अतसीकुसुमोपमेयकांति-
र्यमुनाकूलकदंबमध्यवर्ती ।
नवगोपवधूविलासशाली
वनमाली विरनोतु मंगलानि ॥ १ ॥
परिकरीकृतपीतपटं हरिं
शिखिकिरीटनतीकृतकंधरम् ।
लकुटवेणुकरं चलकुण्डलं
पटुतरं नटवेषधरं भजे ॥ २ ॥
बहुलाश्व उवाच -
श्रुतिरूपादयो गोप्यो भूतपूर्वा वरान्मुने ।
कथं श्रीकृष्णचन्द्रेण जाताः पूर्णमनोरथाः ॥ ३ ॥
गोपालकृष्णचरितं पवित्रं परमाद्भुतम् ।
एतद्वद महाबुद्धे त्वं परावरवित्तमः ॥ ४ ॥
श्रीनारद उवाच -
श्रुतिरूपाश्च या गोप्यो गोपानां सुकुले व्रजे ।
लेभिरे जन्म वैदेह शेषशायीवराच्छ्रुतात् ॥ ५ ॥
कमनीयं नन्दसूनुं वीक्ष्य वृन्दावने च ताः ।
वृन्दावनेश्वरीं वृन्दां भेजिरे तद्वरेच्छया ॥ ६ ॥
वृन्दादत्ताद्वरादाशु प्रसन्नो भगवान् हरिः ।
नित्यं तासां गृहे याति रासार्थं भक्तवत्सलः ॥ ७ ॥
एकदा तु निशीथिन्या व्यतीते प्रहरद्वये ।
रासार्थं भगवान् कृष्णः प्राप्तवान् तद्गृहान्नृप ॥ ८ ॥
तदा उत्कंठिता गोप्यः कृत्वा तत्पूजनं परम् ।
पप्रच्छुः परया भक्त्या गिरा मधुरया प्रभुम् ॥ ९ ॥
गोप्य ऊचुः -
कथं न चागतः शीघ्रं नो गृहान् वृजिनार्दन ।
उत्कंठितानां गोपीनां त्वयि चन्द्रे चकोरवत् ॥ १० ॥
श्रीभगवानुवाच -
यो यस्य चित्ते वसति न स दूरे कदाचन ।
खे सूर्यं कमलं भूमौ दृष्ट्वेदं स्फुटति प्रियाः ॥ ११ ॥
भाण्डीरे मे गुरुः साक्षात् दुर्वासा भगवान् मुनिः ।
आगतोऽद्य प्रियास्तस्य सेवार्थं गतवानहम् ॥ १२ ॥
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १३ ॥
अज्ञानतिमिरांधस्य ज्ञानांजनशलाकया ।
चक्षुरुमीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १४ ॥
स्वगुरुं मां विजानीयान्नावमन्येत कर्हिचित् ।
न मर्त्यबुद्ध्या सेवेत सर्वदेवमयो गुरुः ॥ १५ ॥
तस्मात्तत्पूजनं कृत्वा नत्वा तत्पादपंकजम् ।
आगतोऽहं विलंबेन भवतीनां गृहान् प्रियाः ॥ १६ ॥
'जिनकी अङ्गकान्तिको अलसीके फूलकी उपमा दी जाती है,
जो यमुनाकूलवर्ती कदम्बवृक्षके मूलभागमें विद्यमान हैं तथा नूतन गोपाङ्गनाओंके साथ
लीला - विलास करते हुए अत्यन्त शोभा पा रहे हैं, वे वनमाली श्रीकृष्ण मङ्गलका विस्तार
करें ॥ १ ॥ 'जिन्होंने पीताम्बरकी फेंट बाँध रखी है, जिनके मस्तकपर मोरपंखका मुकुट
सुशोभित है और गर्दन एक ओर झुकी हुई है, जो लकुटी और वंशी हाथ में
लिये हुए हैं और जिनके कानोंमें चञ्चल कुण्डल झिलमला रहे हैं,
उन परम पटु, नटवेषधारी श्रीकृष्ण का मैं भजन (ध्यान) करता हूँ'
॥ २ ॥
बहुलाश्वने पूछा- मुने ! श्रुतिरूपा आदि गोपियोंने,
जो पूर्वप्रदत्तवरके अनुसार पहले ही व्रजमें प्रकट हो चुकी थीं, किस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रका
साहचर्य पाकर अपना मनोरथ पूर्ण किया था ? महाबुद्धे ! गोपाल श्रीकृष्णचन्द्रका चरित्र
परम अद्भुत है, इसे कहिये, क्योंकि आप परापरवेत्ताओंमें सबसे श्रेष्ठ हैं ।। ३-४ ।।
श्रीनारदजीने कहा- विदेहराज ! श्रुतिरूपा जो गोपियाँ
थीं, वे शेषशायी भगवान् विष्णुके पूर्वकथित वरसे व्रजवासी गोपोंके उत्तम कुलमें उत्पन्न
हुईं। उन सबने वृन्दावनमें परम कमनीय नन्दनन्दन का दर्शन करके
उन्हें वररूप में पाने की इच्छासे वृन्दावनेश्वरी वृन्दादेवी की समाराधना की। वृन्दा के दिये हुए वर से भक्तवत्सल भगवान् श्रीहरि उनके ऊपर शीघ्र प्रसन्न हो गये और प्रतिदिन
उनके घरों में रासक्रीड़ा के लिये जाने
लगे ॥५-७॥
नरेश्वर ! एक दिन रात में दो
पहर बीत जानेपर भगवान् श्रीकृष्ण रासके लिये उनके घर गये। उस समय उत्कण्ठित गोपियोंने
उन परम प्रभुका अत्यन्त भक्ति- भावसे पूजन करके मधुर वाणीमें पूछा ॥ ८ - ९॥
गोपियाँ बोलीं- अघनाशन श्रीकृष्ण ! जैसे चकोरी चन्द्रदर्शनके
लिये उत्सुक रहती है, उसी प्रकार हम गोपाङ्गनाएँ आपसे मिलनेको उत्कण्ठित रहती हैं।
अतः आप हमारे घर में शीघ्र क्यों नहीं आये ? ॥ १० ॥
श्रीभगवान् ने कहा – प्रियाओ ! जो जिसके हृदयमें वास
करता है, वह उससे दूर कभी नहीं रहता । देखो न, सूर्य तो आकाशमें है और कमल भूमिपर;
फिर भी वह उन्हें देखते ही खिल उठता है (वह सूर्य- को अपने अत्यन्त निकटस्थ अनुभव करता
है) । प्रियाओ ! आज मेरे साक्षात् गुरु भगवान् दुर्वासामुनि भाण्डीर-वनमें पधारे हैं।
उन्हींकी सेवाके लिये मैं चला गया था ॥११-१२॥
गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु विष्णु हैं, गुरु भगवान् महेश्वर
हैं और गुरु साक्षात् परम ब्रह्म हैं। उन श्रीगुरु को मेरा नमस्कार
है। अज्ञानरूपी रतौंधी से अंधे हुए मनुष्य की
दृष्टि को जिन्होंने ज्ञानाञ्जन की शलाका से खोल दिया है, उन श्रीगुरुदेव को नमस्कार है।
अपने गुरु को मेरा स्वरूप ही समझना चाहिये और कभी उनकी अवहेलना
नहीं करनी चाहिये। गुरु सम्पूर्ण देवताओंके स्वरूप होते हैं। अतः साधारण मनुष्य समझकर
उनकी सेवा नहीं करनी चाहिये। हे प्रियाओं ! मैं उनका पूजन करके तथा उनके चरणकमलोंमें
प्रणाम करके तुम्हारे घर देरी से पहुँचा हूँ ॥ १३– १६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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