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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
सातवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
राजा विमल का संदेश
पाकर भगवान् श्रीकृष्ण का उन्हें दर्शन और मोक्ष प्रदान करना
तथा उनकी राजकुमारियों को साथ लेकर व्रजमण्डल में
लौटना
श्रीनारद उवाच -
दूतवाक्यं च तच्छ्रुत्वा प्रसन्नो भगवान्हरिः ।
क्षणमात्रेण गतवान् सदूतश्चम्पकां पुरीम् ॥ १३ ॥
विमलस्य महायज्ञे वेदध्वनिसमाकुले ।
सदूतः कृष्ण आकाशात्सहसाऽवततार ह ॥ १४ ॥
श्रीवत्सांकं घनश्यामं सुन्दरं वनमालिनम् ।
पीतांबरं पद्मनेत्रं यज्ञवाटागतं हरिम् ॥ १५ ॥
तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय विमलः प्रेमविह्वलः ।
पपात चरणोपांते रोमांची सन्कृताञ्जलिः ॥ १६ ॥
संस्थाप्य पीठके दिव्ये रत्नृहेमखचित्पदे ।
स्तुत्वा सम्पूज्य विधिवद्राजा तत्संमुखे स्थितः ॥ १७ ॥
गवाक्षेभ्यः प्रपश्यन्तीः सुन्दरीर्वीक्ष्य माधवः ।
उवाच विमलं कृष्णो मेघगंभीरया गिरा ॥ १८ ॥
श्रीभगवानुवाच -
महामते वरं ब्रूहि यत्ते मनसि वर्तते ।
याज्ञवल्क्यस्य वचसा जातं मद्दर्शनं तव ॥ १९ ॥
विमल उवाच -
मनो मे भ्रमरीभूतं सदा त्वत्पादपंकजे ।
वासं कुर्याद् देवदेव नान्येच्छा मे कदाचन ॥ २० ॥
श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा विमलो राजा सर्वं कोशधनं महत् ।
द्विपवाजिरथैः सार्द्धं चक्रे आत्मनिवेदनम् ॥ २१ ॥
समर्प्य विधिना सर्वाः कन्यका हरये नृप ।
नमश्चकार कृष्णाय विमलो भक्तितत्परः ॥ २२ ॥
तदा जयजयारावो बभूव जनमण्डले ।
ववृषुः पुष्पवर्षाणि देवता गगनस्थिताः ॥ २३ ॥
तदैव कृष्णसारूप्यं प्राप्तोऽनंगस्फुरद्द्युतिः ।
शतसूर्यप्रतीकाशो द्योतयन्मंडलं दिशाम् ॥ २४ ॥
वैनतेयं समारुह्य नत्वा श्रीगरुडध्वजम् ।
सभार्यः पश्यतां नॄणां वैकुण्ठं विमलो ययौ ॥ २५ ॥
दत्वा मुक्तिं नृपतये श्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।
तत्सुताः सुन्दरीर्नीत्वा व्रजमंडलमाययौ ॥ २६ ॥
तत्र कामवने रम्ये दिव्यमन्दिरसंयुते ।
क्रीडन्त्यः कंदुकैः सर्वाः तस्थुः कृष्णप्रियाः शुभाः ॥ २७ ॥
यावतीश्च प्रिया मुख्याः तावद् रूपधरो हरिः ।
रराज रासे व्रजराड् अञ्जयंस्तन्मनाः प्रभुः ॥ २८ ॥
रासे विमलपुत्रीणां आनन्दजलबिन्दुभिः ।
च्युतैर्विमलकुण्डोऽभूत् तीर्थानां तीर्थमुत्तमम् ॥ २९ ॥
दृष्ट्वा पीत्वा च तं स्नात्वा पूजयित्वा नृपेश्वर ।
छित्वा मेरुसमं पापं गोलोकं याति मानवः ॥ ३० ॥
अयोध्यावासिनीनां तु कथां यः शृणुयान्नरः ।
स व्रजेद्धाम परमं गोलोकं योगिदुर्लभम् ॥ ३१ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! उस दूतकी यह बात सुनकर
भगवान् श्रीहरि बड़े प्रसन्न हुए और क्षणभरमें दूतके साथ ही चम्पकापुरीमें जा पहुँचे।
उस समय राजा विमलका महान् यज्ञ चालू था । उसमें वेदमन्त्रों की
ध्वनि गूँज रही थी । दूतसहित भगवान् श्रीकृष्ण सहसा आकाशसे उस यज्ञमें उतरे ।। १३-१४ ।।
वक्षः- स्थलमें श्रीवत्सके चिह्नसे सुशोभित, मेघके
समान श्याम कान्तिधारी, सुन्दर वनमालालंकृत, पीतपटावृत कमलनयन श्रीहरिको यज्ञभूमिमें
आया देख राजा विमल सहसा उठकर खड़े हो गये और प्रेमसे विह्वल हो, दोनों हाथ जोड़ उनके
चरणोंके समीप गिर पड़े। उस समय उनके अङ्ग अङ्गमें रोमाञ्च हो आया था। फिर उठकर राजाने
रत्न और सुवर्णसे जटित दिव्य सिंहासनपर भगवान् को बिठाया उनका
स्तवन किया तथा विधिवत् पूजन करके वे उनके सामने खड़े हो गये। खिड़कियोंसे झाँककर देखती
हुई सुन्दरी राजकुमारियोंकी ओर दृष्टिपात करके माधव श्रीकृष्णने मेघके समान गम्भीर
वाणीमें राजा विमलसे कहा-- ।। १५ - १८ ॥
श्रीभगवान् बोले - महामते ! तुम्हारे मनमें जो वाञ्छनीय
हो, वह वर मुझसे माँगो । महामुनि याज्ञवल्क्य के वचन से ही इस समय तुम्हें मेरा दर्शन हुआ है ॥ १९ ॥
विमल ने कहा- देवदेव ! मेरा मन
आपके चरणारविन्दमें भ्रमर होकर निवास करे, यही मेरी इच्छा है । इसके सिवा दूसरी कोई
अभिलाषा कभी मेरे मनमें नहीं होती ।। २० ।।
श्रीनारदजी कहते हैं— यों कहकर राजा विमलने अपना सारा
कोश और महान् वैभव, हाथी, घोड़े एवं रथोंके साथ श्रीकृष्णार्पण कर दिया। अपने-आपको
भी उनके चरणोंकी भेंट कर दिया ।। २१ ।।
नरेश्वर ! अपनी समस्त कन्याओंको विधिपूर्वक श्रीहरिके
हाथों में समर्पित करके भक्ति-विह्वल राजा विमलने श्रीकृष्णको नमस्कार किया। उस समय
जन मण्डलमें जय- जयकारका शब्द गूँज उठा और आकाशमें खड़े हुए देवताओंने वहाँ दिव्य पुष्पोंकी
वर्षा की ।। २२-२३ ।।
फिर उसी समय राजा विमल को भगवान्
श्रीकृष्ण का सारूप्य प्राप्त हो गया। उनकी अङ्गकान्ति कामदेव के समान प्रकाशित हो उठी । शत सूर्य के समान तेज धारण किये वे दिशामण्डल को उद्भासित
करने लगे ।। २४ ।।
उस यज्ञमें उपस्थित सम्पूर्ण मनुष्योंके देखते-देखते
पत्नियोंसहित राजा विमल गरुडपर आरूढ हो भगवान् श्रीगरुडध्वजको नमस्कार करके वैकुण्ठलोकमें
चले गये ।। २५ ।।
इस प्रकार राजाको मोक्ष प्रदान करके स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण
उनकी सुन्दरी कुमारियोंको साथ लें, व्रजमण्डलमें आ गये ।। २६ ।।
वहाँ रमणीय कामवन में, जो दिव्य
मन्दिरों से सुशोभित था, वे सुन्दरी कृष्णप्रियाएँ आकर रहने लगीं
और भगवान् के साथ कन्दुक- क्रीड़ा से मन
बहलाने लगीं ।। २७ ।।
जितनी संख्यामें वे श्रीकृष्णप्रिया सखियाँ थीं, उतने
ही रूप धारण करके सुन्दर व्रजराज श्रीकृष्ण रासमण्डलमें उनका मनोरञ्जन करते हुए विराजमान
हुए ।। २८ ।।
उस रासमण्डल में उन विमलकुमारियों के
नेत्रों से जो आनन्दजनित जलबिन्दु च्युत होकर गिरे, उन सबसे वहाँ विमलकुण्ड' नामक तीर्थ
प्रकट हो गया, जो सब तीर्थोंमें उत्तम है ।। २९ ।।
नृपेश्वर ! विमलकुण्ड का दर्शन करके, उसका जल पीकर
तथा उसमें स्नान-पूजन करके मनुष्य मेरुपर्वतके समान विशाल पाप को भी नष्ट कर डालता
और गोलोकधाम में जाता है ।। ३० ।।
जो मनुष्य अयोध्यावासिनी गोपियों के इस कथानक को सुनेगा,
वह योगिदुर्लभ परमधाम गोलोक में जायगा ॥ ३१ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'अयोध्यापुरवासिनी गोपियोंका उपाख्यान' नामक सातवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से