शनिवार, 5 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

सातवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

राजा विमल का संदेश पाकर भगवान् श्रीकृष्ण का उन्हें दर्शन और मोक्ष प्रदान करना तथा उनकी राजकुमारियों को साथ लेकर व्रजमण्डल में लौटना

 

 श्रीनारद उवाच -
दूतवाक्यं च तच्छ्रुत्वा प्रसन्नो भगवान्हरिः ।
 क्षणमात्रेण गतवान् सदूतश्चम्पकां पुरीम् ॥ १३ ॥
 विमलस्य महायज्ञे वेदध्वनिसमाकुले ।
 सदूतः कृष्ण आकाशात्सहसाऽवततार ह ॥ १४ ॥
 श्रीवत्सांकं घनश्यामं सुन्दरं वनमालिनम् ।
 पीतांबरं पद्मनेत्रं यज्ञवाटागतं हरिम् ॥ १५ ॥
 तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय विमलः प्रेमविह्वलः ।
 पपात चरणोपांते रोमांची सन्कृताञ्जलिः ॥ १६ ॥
 संस्थाप्य पीठके दिव्ये रत्नृहेमखचित्पदे ।
 स्तुत्वा सम्पूज्य विधिवद्‌राजा तत्संमुखे स्थितः ॥ १७ ॥
 गवाक्षेभ्यः प्रपश्यन्तीः सुन्दरीर्वीक्ष्य माधवः ।
 उवाच विमलं कृष्णो मेघगंभीरया गिरा ॥ १८ ॥


 श्रीभगवानुवाच -
महामते वरं ब्रूहि यत्ते मनसि वर्तते ।
 याज्ञवल्क्यस्य वचसा जातं मद्दर्शनं तव ॥ १९ ॥


 विमल उवाच -
मनो मे भ्रमरीभूतं सदा त्वत्पादपंकजे ।
 वासं कुर्याद् देवदेव नान्येच्छा मे कदाचन ॥ २० ॥


 श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा विमलो राजा सर्वं कोशधनं महत् ।
 द्विपवाजिरथैः सार्द्धं चक्रे आत्मनिवेदनम् ॥ २१ ॥
 समर्प्य विधिना सर्वाः कन्यका हरये नृप ।
 नमश्चकार कृष्णाय विमलो भक्तितत्परः ॥ २२ ॥
 तदा जयजयारावो बभूव जनमण्डले ।
 ववृषुः पुष्पवर्षाणि देवता गगनस्थिताः ॥ २३ ॥
 तदैव कृष्णसारूप्यं प्राप्तोऽनंगस्फुरद्द्युतिः ।
 शतसूर्यप्रतीकाशो द्योतयन्मंडलं दिशाम् ॥ २४ ॥
 वैनतेयं समारुह्य नत्वा श्रीगरुडध्वजम् ।
 सभार्यः पश्यतां नॄणां वैकुण्ठं विमलो ययौ ॥ २५ ॥
 दत्वा मुक्तिं नृपतये श्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।
 तत्सुताः सुन्दरीर्नीत्वा व्रजमंडलमाययौ ॥ २६ ॥
 तत्र कामवने रम्ये दिव्यमन्दिरसंयुते ।
 क्रीडन्त्यः कंदुकैः सर्वाः तस्थुः कृष्णप्रियाः शुभाः ॥ २७ ॥
 यावतीश्च प्रिया मुख्याः तावद् रूपधरो हरिः ।
 रराज रासे व्रजराड् अञ्जयंस्तन्मनाः प्रभुः ॥ २८ ॥
 रासे विमलपुत्रीणां आनन्दजलबिन्दुभिः ।
 च्युतैर्विमलकुण्डोऽभूत् तीर्थानां तीर्थमुत्तमम् ॥ २९ ॥
 दृष्ट्वा पीत्वा च तं स्नात्वा पूजयित्वा नृपेश्वर ।
 छित्वा मेरुसमं पापं गोलोकं याति मानवः ॥ ३० ॥
 अयोध्यावासिनीनां तु कथां यः शृणुयान्नरः ।
 स व्रजेद्धाम परमं गोलोकं योगिदुर्लभम् ॥ ३१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! उस दूतकी यह बात सुनकर भगवान् श्रीहरि बड़े प्रसन्न हुए और क्षणभरमें दूतके साथ ही चम्पकापुरीमें जा पहुँचे। उस समय राजा विमलका महान् यज्ञ चालू था । उसमें वेदमन्त्रों की ध्वनि गूँज रही थी । दूतसहित भगवान् श्रीकृष्ण सहसा आकाशसे उस यज्ञमें उतरे ।। १३-१४ ।।

वक्षः- स्थलमें श्रीवत्सके चिह्नसे सुशोभित, मेघके समान श्याम कान्तिधारी, सुन्दर वनमालालंकृत, पीतपटावृत कमलनयन श्रीहरिको यज्ञभूमिमें आया देख राजा विमल सहसा उठकर खड़े हो गये और प्रेमसे विह्वल हो, दोनों हाथ जोड़ उनके चरणोंके समीप गिर पड़े। उस समय उनके अङ्ग अङ्गमें रोमाञ्च हो आया था। फिर उठकर राजाने रत्न और सुवर्णसे जटित दिव्य सिंहासनपर भगवान्‌ को बिठाया उनका स्तवन किया तथा विधिवत् पूजन करके वे उनके सामने खड़े हो गये। खिड़कियोंसे झाँककर देखती हुई सुन्दरी राजकुमारियोंकी ओर दृष्टिपात करके माधव श्रीकृष्णने मेघके समान गम्भीर वाणीमें राजा विमलसे कहा-- ।। १ - १

श्रीभगवान् बोले - महामते ! तुम्हारे मनमें जो वाञ्छनीय हो, वह वर मुझसे माँगो । महामुनि याज्ञवल्क्य के वचन से ही इस समय तुम्हें मेरा दर्शन हुआ है ॥ १

विमल ने कहा- देवदेव ! मेरा मन आपके चरणारविन्दमें भ्रमर होकर निवास करे, यही मेरी इच्छा है । इसके सिवा दूसरी कोई अभिलाषा कभी मेरे मनमें नहीं होती ।। २० ।।

श्रीनारदजी कहते हैं— यों कहकर राजा विमलने अपना सारा कोश और महान् वैभव, हाथी, घोड़े एवं रथोंके साथ श्रीकृष्णार्पण कर दिया। अपने-आपको भी उनके चरणोंकी भेंट कर दिया ।। २१ ।।

नरेश्वर ! अपनी समस्त कन्याओंको विधिपूर्वक श्रीहरिके हाथों में समर्पित करके भक्ति-विह्वल राजा विमलने श्रीकृष्णको नमस्कार किया। उस समय जन मण्डलमें जय- जयकारका शब्द गूँज उठा और आकाशमें खड़े हुए देवताओंने वहाँ दिव्य पुष्पोंकी वर्षा की ।। २२-२३ ।।

फिर उसी समय राजा विमल को भगवान् श्रीकृष्ण का सारूप्य प्राप्त हो गया। उनकी अङ्गकान्ति कामदेव के समान प्रकाशित हो उठी । शत सूर्य के समान तेज धारण किये वे दिशामण्डल को उद्भासित करने लगे ।। २४ ।।

उस यज्ञमें उपस्थित सम्पूर्ण मनुष्योंके देखते-देखते पत्नियोंसहित राजा विमल गरुडपर आरूढ हो भगवान् श्रीगरुडध्वजको नमस्कार करके वैकुण्ठलोकमें चले गये ।। २५ ।।

इस प्रकार राजाको मोक्ष प्रदान करके स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण उनकी सुन्दरी कुमारियोंको साथ लें, व्रजमण्डलमें आ गये ।। २६ ।।

वहाँ रमणीय कामवन में, जो दिव्य मन्दिरों से सुशोभित था, वे सुन्दरी कृष्णप्रियाएँ आकर रहने लगीं और भगवान्‌ के साथ कन्दुक- क्रीड़ा से मन बहलाने लगीं ।। २७ ।।

जितनी संख्यामें वे श्रीकृष्णप्रिया सखियाँ थीं, उतने ही रूप धारण करके सुन्दर व्रजराज श्रीकृष्ण रासमण्डलमें उनका मनोरञ्जन करते हुए विराजमान हुए ।। २८ ।।

उस रासमण्डल में उन विमलकुमारियों के नेत्रों से जो आनन्दजनित जलबिन्दु च्युत होकर गिरे, उन सबसे वहाँ विमलकुण्ड' नामक तीर्थ प्रकट हो गया, जो सब तीर्थोंमें उत्तम है ।। २९ ।।

नृपेश्वर ! विमलकुण्ड का दर्शन करके, उसका जल पीकर तथा उसमें स्नान-पूजन करके मनुष्य मेरुपर्वतके समान विशाल पाप को भी नष्ट कर डालता और गोलोकधाम में जाता है ।। ३० ।।

जो मनुष्य अयोध्यावासिनी गोपियों के इस कथानक को सुनेगा, वह योगिदुर्लभ परमधाम गोलोक में जायगा ॥ ३१

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'अयोध्यापुरवासिनी गोपियोंका उपाख्यान' नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०४)

उद्धव और विदुर की भेंट

इति ऊचिवान् तत्र सुयोधनेन
    प्रवृद्धकोपस्फुरिताधरेण ।
असत्कृतः सत्स्पृहणीयशीलः
    क्षत्ता सकर्णानुजसौबलेन ॥ १४ ॥
क एनमत्रोपजुहाव जिह्मं
    दास्याः सुतं यद्बसलिनैव पुष्टः ।
तस्मिन् प्रतीपः परकृत्य आस्ते
    निर्वास्यतामाशु पुराच्छ्वसानः ॥ १५ ॥
स इत्थमत्युल्बणकर्णबाणैः
    भ्रातुः पुरो मर्मसु ताडितोऽपि ।
स्वयं धनुर्द्वारि निधाय मायां
    गतव्यथोऽयादुरु मानयानः ॥ १६ ॥

विदुरजीका ऐसा सुन्दर स्वभाव था कि साधुजन भी उसे प्राप्त करनेकी इच्छा करते थे। किन्तु उनकी यह बात सुनते ही कर्ण, दु:शासन और शकुनिके सहित दुर्योधनके होठ अत्यन्त क्रोधसे फडक़ने लगे और उसने उनका तिरस्कार करते हुए कहा—‘अरे ! इस कुटिल दासीपुत्रको यहाँ किसने बुलाया है ? यह जिनके टुकड़े खा-खाकर जीता है, उन्हींके प्रतिकूल होकर शत्रुका काम बनाना चाहता है। इसके प्राण तो मत लो, परंतु इसे हमारे नगरसे तुरन्त बाहर निकाल दो’ ॥ १४-१५ ॥ भाईके सामने ही कानोंमें बाणके समान लगनेवाले इन अत्यन्त कठोर वचनोंसे मर्माहत होकर भी विदुरजीने कुछ बुरा न माना और भगवान्‌ की मायाको प्रबल समझकर अपना धनुष राजद्वारपर रख वे हस्तिनापुरसे चल दिये ॥ १६ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

सातवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

राजा विमल का संदेश पाकर भगवान् श्रीकृष्ण का उन्हें दर्शन और मोक्ष प्रदान करना तथा उनकी राजकुमारियों को साथ लेकर व्रजमण्डल में लौटना

 

श्रीनारद उवाच -
अथ दूतः सिन्धुदेशान् माथुरान्पुनरागतः ।
 चरन् वृन्दावने कृष्णातीरे कृष्णं ददर्श ह ॥ १ ॥
 कृष्णं प्रणम्य रहसि कृताञ्जलिपुटः शनैः ।
 प्रदक्षिणीकृत्य दूतो विमलोक्तमुवाच सः ॥ २ ॥


 दूत उवाच -
स्वयं परं ब्रह्म परः परेशः
     परैरदृश्यः परिपूर्णदेवः ।
 यः पुण्यसंघैः सततं हि दूरः
     तस्मै नमः सज्जनगोचराय ॥ ३ ॥
 गोविप्रदेवश्रुतिसाधुधर्म
     रक्षार्थमद्यैव यदोः कुलेऽजः ।
 जातोऽसि कंसादिवधाय योऽसौ
     तस्मै नमोऽनंतगुणार्णवाय ॥ ४ ॥
 अहो परं भाग्यमलं व्रजौकसां
     धन्यं कुलं नन्दवरस्य ते पितुः ।
 धन्यो व्रजौ धन्यमरण्यमेतद्
     यत्रैव साक्षात्प्रकटः परो हरिः ॥ ५ ॥
 यद्‌राधिकासुन्दरकण्ठरत्‍नं
     यद्‌गोपिकाजीवनमूलरूपम् ।
 तदेव मन्नेत्रपथि प्रजातं
     किं वर्णये भाग्यमतः स्वकीयम् ॥ ६ ॥
 गुप्तो व्रजे गोपभिषेण चासि
     कस्तूरिकामोद इव प्रसिद्धः ।
 यशश्च ते निर्मलमाशु शुक्ली
     करोति सर्वत्र गतं त्रिलोकीम् ॥ ७ ॥
 जानासि सर्वं जनचैत्यभावं
     क्षेत्रज्ञ आत्मा कृतिवृन्दसाक्षी ।
 तथापि वक्ष्ये नृपवाक्यमुक्तं
     परं रहस्यं रहसि स्वधर्मम् ॥ ८ ॥
 या सिंधुदेशेषु पुरी प्रसिद्धा
     श्रीचम्पका नाम शुभा यथैन्द्री ।
 तत्पालकोऽसौ विमलो यथेन्द्रः
     त्वत्पादपद्मे कृतचित्तवृत्तिः ॥ ९ ॥
 सदा कृतं यज्ञशतं त्वदर्थं
     दानं तपो ब्राह्मणसेवनं च ।
 तीर्थं जपं येन सुसाधनेन
     तस्मै परं दर्शनमेव देहि ॥ १० ॥
 तत्कन्यकाः पद्मविशालनेत्राः
     पूर्णं पतिं त्वां मृगयंत्य आरात् ।
 सदा त्वदर्थं नियमव्रतस्था-
     स्त्वत्पादसेवाविमलीकृताङ्गाः ॥ ११ ॥
 गृहाण तासां व्रजदेव पाणीन्
     दत्वा परं दर्शनमद्‌भुतं स्वम् ।
 गच्छाशु सिन्धून् विशदीकुरु त्वं
     विमृश्य कर्तव्यमिदं त्वया हि ॥ १२ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर दूत पुनः सिन्धुदेशसे मथुरा-मण्डलमें आया । वृन्दावनमें विचरते हुए यमुनाके तटपर उसको श्रीकृष्णका दर्शन हुआ । एकान्तमें श्रीकृष्णको प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर और उनकी परिक्रमा करके उसने धीरे-धीरे राजा विमलकी कही हुई बात दुहरायी ।। १-२ ।।

दूतने कहा- जो स्वयं परब्रह्म परमेश्वर हैं, सबसे परे और सबके द्वारा अदृश्य हैं, जो परिपूर्ण देव पुण्यकी राशिसे भी सदा दूर - ऊपर उठे हुए हैं, तथापि संतजनोंको प्रत्यक्ष दर्शन देनेवाले हैं, उन भगवान् श्रीकृष्णको मेरा नमस्कार है ।। ।।

गौ, ब्राह्मण, देवता, वेद, साधु पुरुष तथा धर्मकी रक्षाके लिये जो अजन्मा होनेपर भी इन दिनों कंसादि दैत्यों के वधके लिये यदुकुल में उत्पन्न हुए हैं, उन अनन्त गुणों के महासागर आप श्रीहरि को मेरा नमस्कार है। अहो ! व्रजवासियों का बहुत बड़ा सौभाग्य है। आपके पिता नन्दराज का कुल धन्य है, यह व्रजमण्डल तथा यह वृन्दावन धन्य हैं, जहाँ आप परमेश्वर श्रीहरि साक्षात् प्रकट हैं ।। ४-५ ।।

प्रभो! आप श्रीराधारानी के कण्ठ में सुशोभित सुन्दर (नीलमणिमय) हार हैं, और गोपियों के प्राणस्वरूप हैं, ऐसे आप आज  मेरे नेत्रों के समक्ष उपस्थित हैं, इससे अधिक मेरा और कौन सा सौभाग्य होगा, जिसका की मैं वर्णन करूँ |  आप भले ही इस व्रजमंडल में गोपवेश में छिपे हुए हैं, पर कस्तूरी की सुगन्ध की भाँति सर्वत्र प्रसिद्ध हैं और आपका सर्वत्र फैला हुआ निर्मल यश सम्पूर्ण त्रिलोकीको तत्काल श्वेत किये देता है । आप लोगोंके चित्तका सम्पूर्ण अभिप्राय जानते हैं; क्योंकि आप समस्त क्षेत्रोंके ज्ञाता आत्मा हैं और कर्मराशिके साक्षी हैं ।। ६-७ ।।

तथापि राजा विमलने जो परम रहस्यकी और स्वधर्मसे सम्बद्ध बात कही है, उसको मैं आपसे एकान्तमें बताऊँगा । सिन्धुदेशमें जो चम्पका नामसे प्रसिद्ध इन्द्रपुरीके समान सुन्दर नगरी है, उसके पालक राजा विमल देवराज इन्द्रके समान ऐश्वर्यशाली हैं। उनकी चित्तवृत्ति सदा आपके चरणारविन्दोंमें लगी रहती है। उन्होंने आपकी प्रसन्नताके लिये सदा सैकड़ों यज्ञोंका अनुष्ठान किया है तथा दान, तप, ब्राह्मणसेवा, तीर्थसेवन और जप आदि किये हैं। उनके इन उत्तम साधनोंको निमित्त बनाकर आप उन्हें अपना सर्वोत्कृष्ट दर्शन अवश्य दीजिये ।। ८-१० ।।

उनकी बहुत-सी कन्याएँ हैं, जो प्रफुल्ल कमल दलके समान विशाल नेत्रोंसे सुशोभित हैं और आप पूर्ण परमेश्वर को पतिरूप में अपने निकट पाने के शुभ अवसर की प्रतीक्षा करती हैं । वे राजकुमारियाँ सदा आपकी प्राप्तिके लिये नियमों और व्रतोंके पालनमें तत्पर हैं तथा आपके चरणोंकी सेवासे उनके तन, मन निर्मल हो गये हैं। व्रजके देवता ! आप अपना उत्तम और अद्भुत दर्शन देकर उन सब राजकन्याओंका पाणिग्रहण कीजिये । इस समय आपके समक्ष जो यह कर्तव्य प्राप्त हुआ है, इसका विचार करके आप सिन्धुदेशमें चलिये और वहाँके लोगोंको अपने पावन दर्शनसे विशुद्ध कीजिये ॥ ११-१२

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०३)

उद्धव और विदुर की भेंट

अजातशत्रोः प्रतियच्छ दायं
    तितिक्षतो दुर्विषहं तवागः ।
सहानुजो यत्र वृकोदराहिः
    श्वसन् रुषा यत्त्वमलं बिभेषि ॥ ११ ॥
पार्थांस्तु देवो भगवान् मुकुन्दो
    गृहीतवान् स क्षितिदेवदेवः ।
आस्ते स्वपुर्यां यदुदेवदेवो
    विनिर्जिताशेष नृदेवदेवः ॥ १२ ॥
स एष दोषः पुरुषद्विडास्ते
    गृहान् प्रविष्टो यमपत्यमत्या ।
पुष्णासि कृष्णाद्विमुखो गतश्रीः
    त्यजाश्वशैवं कुलकौशलाय ॥ १३ ॥

उन्होंने (विदुरजीने धृतराष्ट्र से) कहा—‘महाराज ! आप अजातशत्रु महात्मा युधिष्ठिरको उनका हिस्सा दे दीजिये। वे आपके न सहनेयोग्य अपराधको भी सह रहे हैं। भीमरूप काले नागसे तो आप भी बहुत डरते हैं; देखिये, वह अपने छोटे भाइयोंके सहित बदला लेनेके लिये बड़े क्रोधसे फुफकारें मार रहा है ॥ ११ ॥ आपको पता नहीं, भगवान्‌ श्रीकृष्णने पाण्डवोंको अपना लिया है। वे यदुवीरों के आराध्यदेव इस समय अपनी राजधानी द्वारकापुरी में विराजमान हैं। उन्होंने पृथ्वीके सभी बड़े-बड़े राजाओंको अपने अधीन कर लिया है तथा ब्राह्मण और देवता भी उन्हींके पक्षमें हैं ॥ १२ ॥ जिसे आप पुत्र मानकर पाल रहे हैं तथा जिसकी हाँ-में-हाँ मिलाते जा रहे हैं, उस दुर्योधनके रूपमें तो मूर्तिमान् दोष ही आपके घरमें घुसा बैठा है। यह तो साक्षात् भगवान्‌ श्रीकृष्णसे द्वेष करनेवाला है। इसीके कारण आप भगवान्‌ श्रीकृष्णसे विमुख होकर श्रीहीन हो रहे हैं। अतएव यदि आप अपने कुलकी कुशल चाहते हैं तो इस दुष्टको तुरंत ही त्याग दीजिये ॥ १३ ॥

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गुरुवार, 3 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

छठा अध्याय (पोस्ट 02)

 

अयोध्यापुरवासिनी स्त्रियोंका राजा विमलके यहाँ पुत्रीरूपसे उत्पन्न होना; उनके विवाहके लिये राजाका मथुरामें श्रीकृष्णको देखनेके निमित्त दूत भेजना; वहाँ पता न लगनेपर भीष्मजीसे अवतार - रहस्य जानकर उनका श्रीकृष्णके पास दूत प्रेषित करना

 

श्रीनारद उवाच -
इति चिन्तयतस्तस्य विस्मितस्य नृपस्य च ।
 गजाह्वयात्सिन्धुदेशान् जेतुं भीष्मः समागतः ॥ १८ ॥
 तं पूज्य विमलो राजा दत्वा तस्मै बलिं बहु ।
 पप्रच्छ सर्वाभिप्रायं भीष्मं धर्मभृतां वरम् ॥ १९ ॥


 विमल उवाच -
याज्ञवल्क्येन पूर्वोक्तो मथुरायां हरिः स्वयम् ।
 वसुदेवस्य देवक्यां भविष्यति न संशयः ॥ २० ॥
 न जातो वसुदेवस्य सकाशेऽद्य हरिः परः ।
 ऋषिवाक्यं मृषा न स्यात्कस्मै दास्यामि कन्यकाः ॥ २१ ॥
 महाभागवतः साक्षात्त्वं परावरवित्तमः ।
 जितेन्द्रियो बाल्यभावाद्‌वीरो धन्वी वसूत्तमः ।
 एतद्वद महाबुद्धे किं कर्तव्यं मयाऽत्र वै ॥ २२ ॥


 श्रीनारद उवाच -
विमलं प्राह गांगेयो महाभागवतः कविः ।
 दिव्यदृग्धर्मतत्वज्ञः श्रीकृष्णस्य प्रभाववित् ॥ २३ ॥


 भीष्म उवाच -
हे राजन् गुप्तमाख्यानं वेदव्यासमुखाच्छ्रुतम् ।
 सर्वपापहरं पुण्यं शृणु हर्षविवर्द्धनम् ॥ २४ ॥
 देवानां रक्षणार्थाय दैत्यानां हि वधाय च ।
 वसुदेवगृहे जातः परिपूर्णतमो हरिः ॥ २५ ॥
 अर्धरात्रे कंसभयान्नीत्वा शौरिश्च तं त्वरम् ।
 गत्वा च गोकुले पुत्रं निधाय शयने नृप ॥ २६ ॥
 यशोदानन्दयोः पुत्रीं मायां नीत्वा पुरं ययौ ।
 ववृधे गोकुले कृष्णो गुप्तो ज्ञातो न कैर्नृभिः ॥ २७ ॥
 सोऽद्यैव वृदकारण्ये हरिर्गोपालवेषधृक् ।
 एकादश समास्तत्र गूढो वासं करिष्यति ।
 दैत्यं कंसं घातयित्वा प्रकटः स भविष्यति ॥ २८ ॥
 अयोध्यापुरवासिन्यः श्रीरामस्य वराच्च याः ।
 ताः सर्वास्तव भार्यासु बभूवुः कन्यकाः शुभाः ॥ २९ ॥
 गूढाय देवदेवाय देयाः कन्यास्त्वया खलु ।
 न विलम्बः क्वचित्कार्यो देहः कालवशो ह्ययम् ॥ ३० ॥
 इत्युक्त्वाऽथ गते भीष्मे सर्वज्ञे हस्तिनापुरम् ।
 दूतं स्वं प्रेषयामास विमलो नन्दसूनवे ॥ ३१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! राजा विमल जब इस प्रकार विस्मित होकर विचार कर रहे थे, उसी समय हस्तिनापुरसे सिन्धुदेशको जीतनेके लिये भीष्म आये ॥ १८ ॥

राजा विमल ने धर्मधारियों में श्रेष्ठ पितामह भीष्म का आदर-सत्कार कर उन्हें प्रभूत मात्रा में उपहार दी और उनसे याज्ञवल्क्यजी के वचनों का अभिप्राय पूछा ॥ १

विमल बोले- महाबुद्धिमान् भीष्मजी ! पहले याज्ञवल्क्यजीने मुझसे कहा था कि मथुरामें साक्षात् श्रीहरि वसुदेवकी पत्नी देवकीके गर्भसे प्रकट होंगे, इसमें संशय नहीं है। परंतु इस समय वसुदेवके यहाँ परमेश्वर श्रीहरिका प्राकट्य नहीं हुआ है। साथ ही ऋषिकी बात झूठी हो नहीं सकती; अतः इस समय मैं अपनी कन्याओंका दान किसके हाथमें करूँ । आप साक्षात् महाभागवत हैं और पूर्वापर की बातें जानने- वालों में सबसे श्रेष्ठ हैं। बचपन से ही आपने इन्द्रियों पर विजय पायी है। आप वीर, धनुर्धर एवं वसुओं में श्रेष्ठ हैं । इसलिये यह बताइये कि अब मुझे क्या करना चाहिये ।। २० - २

श्रीनारदजी कहते हैं- गङ्गानन्दन भीष्मजी महान् भगवद्भक्त, विद्वान्, दिव्यदृष्टिसे सम्पत्र, धर्मके तत्त्वज्ञ तथा श्रीकृष्णके प्रभावको जाननेवाले थे । उन्होंने राजा विमलसे कहा-- ॥ २

भीष्मजी बोले - राजन् ! यह एक गुप्त बात है, जिसे मैंने वेदव्यासजीके मुँहसे सुनी थी । यह प्रसङ्ग समस्त पापों को हर लेनेवाला, पुण्यप्रद तथा हर्षवर्धक है; इसे सुनो। परिपूर्णतम भगवान् श्रीहरि देवताओं की रक्षा तथा दैत्यों का वध करने के लिये वसुदेव के घरमें अवतीर्ण हुए हैं ।। २४ - २

हे राजन् !  किंतु आधी रातके समय वसुदेव कंसके भयसे उस बालकको लेकर तुरंत गोकुल चले गये और वहाँ अपने पुत्रको यशोदाकी शय्यापर सुलाकर, यशोदा और नन्दकी पुत्री मायाको साथ ले, मथुरापुरीमें लौट आये। इस प्रकार श्रीकृष्ण गोकुलमें गुप्तरूपसे पलकर बड़े हुए हैं, यह बात दूसरे कोई भी मनुष्य नहीं जानते ।। २६ - २

वे ही गोपालवेषधारी श्रीहरि वृन्दावनमें ग्यारह वर्षोंतक गुप्तरूपसे वास करेंगे। फिर कंस-दैत्यका वध करके प्रकट हो जायँगे । अयोध्यापुरवासिनी जो नारियाँ श्रीरामचन्द्रजीके वरसे गोपीभावको प्राप्त हुई हैं, वे सब तुम्हारी पत्नियोंके गर्भसे सुन्दरी कन्याओंके रूपमें उत्पन्न हुई हैं। तुम उन गूढरूपमें विद्यमान देवाधिदेव श्रीकृष्णको अपनी समस्त कन्याएँ अवश्य दे दो। इस कार्यमें कदापि विलम्ब न करो, क्योंकि यह शरीर कालके अधीन है ।। २ - ३०

यों कहकर जब सर्वज्ञ भीष्मजी हस्तिनापुरको चले गये, तब राजा विमलने नन्दनन्दनके पास अपना दूत भेजा ॥ ३

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'अयोध्यापुरवासिनी गोपिकाओंका उपाख्यान' नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

उद्धव और विदुर की भेंट

द्यूते त्वधर्मेण जितस्य साधोः
    सत्यावलंबस्य वनं गतस्य ।
न याचतोऽदात् समयेन दायं
    तमोजुषाणो यदजातशत्रोः ॥ ८ ॥
यदा च पार्थप्रहितः सभायां
    जगद्गुहरुर्यानि जगाद कृष्णः ।
न तानि पुंसां अमृतायनानि
    राजोरु मेने क्षतपुण्यलेशः ॥ ९ ॥
यदोपहूतो भवनं प्रविष्टो
    मंत्राय पृष्टः किल पूर्वजेन ।
अथाह तन्मंत्रदृशां वरीयान्
    यन्मंत्रिणो वैदुरिकं वदन्ति ॥ १० ॥

दुर्योधन ने सत्यपरायण और भोले-भाले युधिष्ठिरका राज्य जूएमें अन्यायसे जीत लिया और उन्हें वनमें निकाल दिया। किन्तु वनसे लौटनेपर प्रतिज्ञानुसार जब उन्होंने अपना न्यायोचित पैतृक भाग माँगा, तब भी मोहवश उन्होंने उन अजातशत्रु युधिष्ठिर को उनका हिस्सा नहीं दिया ॥ ८ ॥ महाराज युधिष्ठिरके भेजनेपर जब जगद्गुरु भगवान्‌ श्रीकृष्णने कौरवोंकी सभामें हितभरे सुमधुर वचन कहे, जो भीष्मादि सज्जनोंको अमृत-से लगे, पर कुरुराजने उनके कथनको कुछ भी आदर नहीं दिया। देते कैसे ? उनके तो सारे पुण्य नष्ट हो चुके थे ॥ ९ ॥ फिर जब सलाहके लिये विदुरजीको बुलाया गया, तब मंत्रियों में श्रेष्ठ विदुरजीने राज्यभवनमें जाकर बड़े भाई धृतराष्ट्रके पूछनेपर उन्हें वह सम्मति दी, जिसे नीति-शास्त्रके जाननेवाले पुरुष ‘विदुरनीति’ कहते हैं ॥ १० ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 2 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

छठा अध्याय (पोस्ट 01)

 

अयोध्यापुरवासिनी स्त्रियोंका राजा विमलके यहाँ पुत्रीरूपसे उत्पन्न होना; उनके विवाहके लिये राजाका मथुरामें श्रीकृष्णको देखनेके निमित्त दूत भेजना; वहाँ पता न लगनेपर भीष्मजीसे अवतार - रहस्य जानकर उनका श्रीकृष्णके पास दूत प्रेषित करना

 

श्रीनारद उवाच -
एवमुक्त्वा गते साक्षाद्याज्ञवल्क्ये महामुनौ ॥
 अतीव हर्षमापन्नौ विमलश्चम्पकापतिः ॥ १ ॥
 अयोध्यापुरवासिन्यः श्रीरामस्य वराच्च याः ॥
 बभूवुस्तस्य भार्यासु ताः सर्वाः कन्यकाः शुभाः ॥ २ ॥
 विवाहयोग्यास्ता दृष्ट्वा चिन्तयन् चम्पकापतिः ॥
 याज्ञवल्क्यवचः स्मृत्वा दूतमाह नृपेश्वरः ॥ ३ ॥


 विमल उवाच -
मथुरां गच्छ दूत त्वं गत्वा शौरिगृहं शुभम् ॥
 दर्शनीयस्त्वया पुत्रो वसुदेवस्य सुन्दरः ॥ ४ ॥
 श्रीवत्सांको घनश्यामो वनमाली चतुर्भुजः ॥
 यदि स्यात्तर्हि दास्यामि तस्मै सर्वाः सुकन्यकाः ॥ ५ ॥


 श्रीनारद उवाच -
इति वाक्यं ततः श्रुत्वा दूतोऽसौ मथुरां गतः ।
 पप्रच्छ सर्वाभिप्रायं माथुरांश्च महाजनान् ॥ ६ ॥
 तद्वाक्यं माथुराः श्रुत्वा कंसभीताः सुबुद्धयः ।
 तं दूतं रहसि प्राहुः कर्णांते मंदवाग्यथा ॥ ७ ॥


 माथुरा ऊचुः
 वसुदेवस्य ये पुत्राः कंसेन बहवो हताः ।
 एकाऽवशिष्टावरजा कन्या साऽपि दिवं गता ॥ ८ ॥
 वसुदेवोऽस्ति चात्रैव ह्यपुत्रो दीनमानसः ।
 इदं न कथनीयं हि त्वया कंसभयं पुरे ॥ ९ ॥
 शौरिसंतानवार्तां यो वक्ति चेन्मथुरापुरे ।
 तं दंडयति कंसोऽसौ शौर्यष्टमशिशो रिपुः ॥ १० ॥


 श्रीनारद उवाच -
जनवाक्यं ततः श्रुत्वा दूतो वै चम्पकापुरीम् ।
 गत्वाऽथ कथयामास राज्ञे कारणमद्‌भुतम् ॥ ११ ॥


 दूत उवाच -
मथुरायामस्ति शौरिरनपत्योऽतिदीनवत् ।
 तत्पुत्रास्तु पुरा जाताः कंसेन निहताः श्रुतम् ॥ १२ ॥
 एकावशिष्टा कन्याऽपि खं गता कंसहस्ततः ।
 एवं शृत्वा यदुपुरान्निर्गतोऽहं शनैः शनैः ॥ १३ ॥
 चरन् वृन्दावने रम्ये कालिन्दीनिकटे शुभे ।
 अकस्माल्लतिकावृन्दे दृष्टः कश्चिच्छिशुर्मया ॥ १४ ॥
 तल्लक्षणसमो राजन् गोगोपगणमध्यतः ।
 श्रीवत्सांको घनश्यामो वनमाल्यतिसुन्दरः ॥ १५ ॥
 द्विभुजो गोपसूनुश्च परं त्वेतद्विलक्षणम् ।
 त्वया चतुर्भुजश्चोक्तो वसुदेवात्मजो हरिः ॥ १६ ॥
 किं कर्तव्यं वद नृप मुनिवाक्यं मृषा न हि ।
 यत्र यत्र यथेच्छा ते तत्र मां प्रेषय प्रभो ॥ १७ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर जब साक्षात् महामुनि याज्ञवल्क्य चले गये, तब चम्पका नगरीके स्वामी राजा विमलको बड़ा हर्ष हुआ। अयोध्यापुरवासिनी स्त्रियाँ श्रीरामके वरदानसे उनकी रानियोंके गर्भ से पुत्रीरूपमें प्रकट हुईं। वें सभी राजकन्याएँ बड़ी सुन्दरी थीं । उन्हें विवाह के योग्य अवस्थामें देखकर नृपशिरोमणि चम्पकेश्वरको चिन्ता हुई। उन्होंने याज्ञवल्क्यजीकी बातको याद करके दूत से कहा ।। १ - ३ ॥

विमल बोले- दूत ! तुम मथुरा जाओ और वहाँ शूरपुत्र वसुदेवके सुन्दर घरतक पहुँचकर देखो। वसुदेवका कोई बहुत सुन्दर पुत्र होगा। उसके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न होगा, अङ्गकान्ति मेघमालाकी भाँति श्याम होगी तथा वह वनमालाधारी एवं चतुर्भुज होगा। यदि ऐसी बात हो तो मैं उसके हाथमें अपनी समस्त सुन्दरी कन्याएँ दे दूँगा ।। ४-५ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! महाराज विमलकी यह बात सुनकर वह दूत मथुरापुरीमें गया और मथुराके बड़े-बड़े लोगोंसे उसने सारी अभीष्ट बातें पूछीं। उसकी बात सुनकर मथुराके बुद्धिमान् लोग, जो कंससे डरे हुए थे, उस दूतको एकान्तमें ले जाकर उसके कानमें बहुत धीमे स्वरसे बोले ।। ६-७ ।।

मथुरानिवासियों ने कहा – वसुदेव के जो बहुत- से पुत्र हुए, वे कंसके द्वारा मारे गये। एक छोटी-सी कन्या बच गयी थी, किंतु वह भी आकाशमें उड़ गयी। वसुदेव यहीं रहते हैं, किंतु पुत्रोंसे बिछुड़ जानेके कारण उनके मनमें बड़ा दुःख है। इस समय जो बात तुम हम लोगोंसे पूछ रहे हो, उसे और कहीं न कहना क्योंकि इस नगरमें कंसका भय है। मथुरापुरीमें जो वसुदेवकी संतानके सम्बन्धमें कोई बात करता है, उसे उनके आठवें पुत्र का शत्रु कंस भारी दण्ड देता है । ८ - १० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! जनसाधारणकी यह बात सुनकर दूत चम्पकापुरीमें लौट गया। वहाँ जाकर राजासे उसने वह अद्भुत संवाद कह सुनाया ॥ ११ ॥

दूत बोला - महाराज ! मथुरामें शूरपुत्र वसुदेव अवश्य हैं, किंतु संतानहीन होनेके कारण अत्यन्त दीनकी भाँति जीवन व्यतीत करते हैं। सुना है कि पहले उनके अनेक पुत्र हुए थे, जो कंसके हाथसे मारे गये हैं। एक कन्या बची थी, किंतु वह भी कंसके हाथसे छूटकर आकाशमें उड़ गयी। यह वृत्तान्त सुनकर मैं यदुपुरीसे धीरे-धीरे बाहर निकला ॥ १२-१३

वृन्दावनमें कालिन्दी के सुन्दर एवं रमणीय तटपर विचरते हुए मैंने लताओंके समूहमें अकस्मात् एक शिशु देखा । राजन् ! गोपोंके मध्य दूसरा कोई ऐसा बालक नहीं था, जिसके लक्षण उसके समान हों। उस बालकके वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न था । उसकी अङ्गकान्ति मेघके समान श्याम थी और वह वनमाला धारण किये अत्यन्त सुन्दर दिखायी देता था ॥ १४-१५

परंतु अन्तर इतना ही है कि उस गोप- बालक के दो ही बाँहें थीं और आपने वसुदेवकुमार श्रीहरि को चतुर्भुज बताया था। नरेश्वर ! बताइये, अब क्या करना चाहिये ? क्योंकि मुनिकी बात झूठी नहीं हो सकती । प्रभो ! जहाँ-जहाँ, जिस तरह आपकी इच्छा हो, उसके अनुसार वहाँ-वहाँ मुझे भेजिये ।। १-१७॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

उद्धव और विदुर की भेंट

श्रीशुक उवाच ।
एवमेतत्पुरा पृष्टो मैत्रेयो भगवान् किल ।
क्षत्त्रा वनं प्रविष्टेन त्यक्त्वा स्वगृह ऋद्धिमत् ॥ १ ॥
यद्वा अयं मंत्रकृद्वो भगवान् अखिलेश्वरः ।
पौरवेन्द्रगृहं हित्वा प्रविवेशात्मसात्कृतम् ॥ २ ॥

राजोवाच ।
कुत्र क्षत्तुर्भगवता मैत्रेयेणास सङ्गमः ।
कदा वा सहसंवाद एतद् वर्णय नः प्रभो ॥ ३ ॥
न ह्यल्पार्थोदयस्तस्य विदुरस्य अमलात्मनः ।
तस्मिन् वरीयसि प्रश्नः साधुवादोपबृंहितः ॥ ४ ॥

सूत उवाच ।
स एवं ऋषिवर्योऽयं पृष्टो राज्ञा परीक्षिता ।
प्रत्याह तं सुबहुवित् प्रीतात्मा श्रूयतामिति ॥ ५ ॥

श्रीशुक उवाच ।
यदा तु राजा स्वसुतानसाधून्
    पुष्णन् न धर्मेण विनष्टदृष्टिः ।
भ्रातुर्यविष्ठस्य सुतान् विबन्धून्
    प्रवेश्य लाक्षाभवने ददाह ॥ ६ ॥
यदा सभायां कुरुदेवदेव्याः
    केशाभिमर्शं सुतकर्म गर्ह्यम् ।
न वारयामास नृपः स्नुषायाः
    स्वास्रैर्हरन्त्याः कुचकुङ्कुमानि ॥ ७ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्‌ ! जो बात तुमने पूछी है, वही पूर्वकालमें अपने सुख-समृद्धिसे पूर्ण घरको छोडक़र वनमें गये हुए विदुरजीने भगवान्‌ मैत्रेयजीसे पूछी थी ॥ १ ॥ जब सर्वेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर गये थे, तब वे दुर्योधन के महलों को छोडक़र, उसी विदुरजी के घरमें उसे अपना ही समझकर बिना बुलाये चले गये थे ॥ २ ॥
राजा परीक्षित्‌ ने पूछा—प्रभो ! यह तो बतलाइये कि भगवान्‌ मैत्रेय के साथ विदुरजी का समागम कहाँ और किस समय हुआ था ? ॥ ३ ॥ पवित्रात्मा विदुर ने महात्मा मैत्रेयजी से कोई साधारण प्रश्र नहीं किया होगा; क्योंकि उसे तो मैत्रेयजी-जैसे साधुशिरोमणि ने अभिनन्दनपूर्वक उत्तर देकर महिमान्वित किया था ॥ ४ ॥
सूतजी कहते हैं—सर्वज्ञ शुकदेवजीने राजा परीक्षित्‌ के इस प्रकार पूछनेपर अति प्रसन्न होकर कहा—सुनो ॥ ५ ॥
श्रीशुकदेवजी कहने लगे—परीक्षित्‌ ! यह उन दिनों की बात है, जब अन्धे राजा धृतराष्ट्र ने अन्याय- पूर्वक अपने दुष्ट पुत्रों का पालन-पोषण करते हुए अपने छोटे भाई पाण्डुके अनाथ बालकोंको लाक्षाभवनमें भेजकर आग लगवा दी ॥ ६ ॥ जब उनकी पुत्रवधू और महाराज युधिष्ठिरकी पटरानी द्रौपदीके केश दु:शासनने भरी सभामें खींचे, उस समय द्रौपदीकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा बह चली और उस प्रवाहसे उसके वक्ष:स्थलपर लगा हुआ केसर भी बह चला; किन्तु धृतराष्ट्रने अपने पुत्रको उस कुकर्मसे नहीं रोका ॥ ७ ॥ 

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मंगलवार, 1 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

अयोध्यावासिनी गोपियों के आख्यान के प्रसङ्ग में राजा विमल की संतान के लिये चिन्ता तथा महामुनि याज्ञवल्क्य द्वारा उन्हें बहुत-सी पुत्री होने का विश्वास दिलाना

 

 श्रीयाज्ञवल्क्य उवाच -
अस्मिन् जन्मनि राजेन्द्र पुत्रो नैव च नैव च ।
 पुत्र्यस्तव भविष्यन्ति कोटिशो नृपसत्तम ॥ १२ ॥


 राजोवाच -
पुत्रं विना पूर्वऋणान्न कोऽपि
     प्रमुच्यते भूमितले मुनीन्द्र ।
 सदा ह्यपुत्रस्य गृहे व्यथा स्या-
     त्परं त्विहामुत्र सुखं न किंचित् ॥ १३ ॥


 श्रीयाज्ञवल्क्य उवाच -
मा खेदं कुरु राजेन्द्र पुत्र्यो देयास्त्वया खलु ।
 श्रीकृष्णाय भविष्याय परं दायादिकैः सह ॥ १४ ॥
 तेनैव कर्मणा त्वं वै देवर्षिपितृणामृणात् ।
 विमुक्तो नृपशार्दूल परं मोक्षमवाप्स्यसि ॥ १५ ॥


 श्रीनारद उवाच -
तदाऽतिहर्षितो राजा श्रुत्वा वाक्यं महामुनेः ।
 पुनः पप्रच्छ संदेहं याज्ञवल्क्यं महामुनिम् ॥ १६ ॥


 राजोवाच -
कस्मिन् कुले कुत्र देशे भविष्यः श्रीहरिः स्वयम् ।
 कीदृग्‌रूपश्च किंवर्णो वर्षैश्च कतिभिर्गतैः ॥ १७ ॥


 श्रीयाज्ञवल्क्य उवाच -
द्वापरस्य युगस्यास्य तव राज्यान्महाभुज ।
 अवशेषे वर्षशते तथा पञ्चदशे नृप ॥ १८ ॥
 तस्मिन् वर्षे यदुकुले मथुरायां यदोः पुरे ।
 भाद्रे बुधे कृष्णपक्षे धात्रर्क्षे हर्षणे वृषे ॥ १९ ॥
 बवेऽष्टम्यामर्धरात्रे नक्षत्रेशमहोदये ।
 अंधकारावृते काले देवक्यां शौरिमन्दिरे ॥ २० ॥
 भविष्यति हरिः साक्षादरण्यामध्वरेऽग्निवत् ।
 श्रीवत्सांको घनश्यामो वनमाल्यतिसुन्दरः ॥ २१ ॥
 पीतांबरः पद्मनेत्रो भविष्यति चतुर्भुजः ।
 तस्मै देया त्वया कन्या आयुस्तेऽस्ति न संशयः ॥ २२ ॥

याज्ञवल्क्य बोले- राजेन्द्र ! इस जन्ममें तो तुम्हारे भाग्य में पुत्र नहीं है, नहीं है, परंतु नृपश्रेष्ठ ! तुम्हें पुत्रियाँ करोड़ोंकी संख्यामें प्राप्त होंगी ।। १२ ।।

राजाने कहा- मुनीन्द्र ! पुत्रके बिना कोई भी इस भूतलपर पूर्वजोंके ऋणसे मुक्त नहीं होता। पुत्र- हीनके घरमें सदा ही व्यथा बनी रहती है। उसे इस लोक या परलोकमें कुछ भी सुख नहीं मिलता ॥ १३ ॥

याज्ञवल्क्य बोले- राजेन्द्र ! खेद न करो। भविष्य में भगवान् श्रीकृष्णका अवतार होनेवाला है। तुम उन्हींको दहेजके साथ अपनी सब पुत्रियाँ समर्पित कर देना । नृपश्रेष्ठ ! उसी कर्मसे तुम देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंके ऋणसे छूटकर परममोक्ष प्राप्त कर लोगे ।। १४-१५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- महामुनिका यह वचन सुनकर उस समय राजाको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने महर्षि याज्ञवल्क्यसे पुनः अपना संदेह पूछा ? ॥ १६ ॥

राजा बोले- मुनीश्वर ! कितने वर्ष बीतनेपर किस देशमें और किस कुलमें साक्षात् श्रीहरि अवतीर्ण होंगे ? उस समय उनका रूप-रंग क्या होगा ? ॥ १७ ॥

याज्ञवल्क्य बोले- महाबाहो ! इस द्वापरयुग के जो अवशेष वर्ष हैं, उन्हीं में तुम्हारे राज्यकाल से एक सौ पंद्रह वर्ष व्यतीत होने पर यादवपुरी मथुरा में यदुकुल के भीतर भाद्रपदमास, कृष्णपक्ष, बुधवार, रोहिणी नक्षत्र,हर्षण योग, वृषलग्न, वव करण और अष्टमी तिथिमें आधी रातके समय चन्द्रोदय-काल में, जब कि सब कुछ अन्धकार से आच्छन्न होगा, वसुदेव-भवन में देवकी के गर्भ से साक्षात् श्रीहरि का विर्भाव होगा- ठीक उसी तरह जैसे यज्ञमें अरणि-काष्ठसे अग्निका प्राकट्य होता है। भगवान्‌ के वक्षःस्थल पर श्रीवत्सका चिह्न होगा। उनकी अङ्गकान्ति मेघके समान श्याम होगी। वे वनमाला से अलंकृत और अतीव सुन्दर होंगे। पीताम्बरधारी, कमलनयन तथा अवतारकाल में चतुर्भुज होंगे। तुम उन्हें अपनी कन्याएँ देना । तुम्हारी आयु अभी बहुत है। तुम उस समयतक जीवित रहोगे, इसमें संशय नहीं है ।। १८ – २२ ।।

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिता में माधुर्यखण्ड के अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवाद में 'अयोध्यावासिनी गोपाङ्गनाओं का उपाख्यान' नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

भागवत के दस लक्षण

परिमाणं च कालस्य कल्पलक्षण विग्रहम् ।
यथा पुरस्ताद् व्याख्यास्ये पाद्मं कल्पमथो श्रृणु ॥ ४७ ॥

शौनक उवाच ।
यदाह नो भवान् सूत क्षत्ता भागवतोत्तमः ।
चचार तीर्थानि भुवः त्यक्त्वा बंधून् सु-दुस्त्यजान् ॥ ४८ ॥
क्षत्तुः कौशारवेः तस्य संवादोऽध्यात्मसंश्रितः ।
यद्वा स भगवान् तस्मै पृष्टः तत्त्वं उवाच ह ॥ ४९ ॥
ब्रूहि नः तद् इदं सौम्य विदुरस्य विचेष्टितम् ।
बन्धुत्याग निमित्तं च यथैव आगतवान् पुनः ॥ ५० ॥

सूत उवाच ।
राज्ञा परीक्षिता पृष्टो यद् अवोचत् महामुनिः ।
तद्वोऽभिधास्ये श्रृणुत राज्ञः प्रश्नानुसारतः ॥ ५१ ॥

(श्रीशुकदेवजी कहरहे  हैं) परीक्षित्‌ ! काल का परिमाण, कल्प और उसके अन्तर्गत मन्वन्तरोंका वर्णन आगे चलकर करेंगे। अब तुम पाद्मकल्प का वर्णन सावधान होकर सुनो ॥ ४७ ॥
शौनकजीने पूछा—सूतजी ! आपने हम लोगों से कहा था कि भगवान्‌ के परम भक्त विदुरजी ने अपने अति दुस्त्यज कुटुम्बियों को भी छोडक़र पृथ्वीके विभिन्न तीर्थोंमें विचरण किया था ॥ ४८ ॥ उस यात्रामें मैत्रेय ऋषिके साथ अध्यात्मके सम्बन्धमें उनकी बातचीत कहाँ हुई तथा मैत्रेयजीने उनके प्रश्न करनेपर किस तत्त्वका उपदेश किया ? ॥ ४९ ॥ सूतजी ! आपका स्वभाव बड़ा सौम्य है। आप विदुरजी का वह चरित्र हमें सुनाइये। उन्होंने अपने भाई-बन्धुओं को क्यों छोड़ा और फिर उनके पास क्यों लौट आये ? ॥ ५० ॥
सूतजीने कहा—शौनकादि ऋषियो ! राजा परीक्षित्‌ने भी यही बात पूछी थी। उनके प्रश्नों के उत्तर में श्रीशुकदेव जी महाराज ने जो कुछ कहा था, वही मैं आपलोगों से कहता हूँ। सावधान होकर सुनिये ॥ ५१ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कंधे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

इति द्वितीय स्कन्ध समाप्त

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
 
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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०१) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन श्र...