शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

लक्ष्मीजीकी सखियोंका वृषभानुओंके घरोंमें कन्यारूपसे उत्पन्न होकर माघ मासके व्रतसे श्रीकृष्णको रिझाना और पाना

 

श्रीनारद उवाच -
अन्यासां चैव गोपीनां वर्णनं शृणु मैथिल ।
 सर्वपापहरं पुण्यं हरिभक्तिविवर्द्धनम् ॥ १ ॥
 नीतिविन्मार्गदः शुक्लः पतंगो दिव्यवाहनः ।
 गोपेष्टश्च व्रजे राजन् जाता षड्‍वृषभानवः ॥ २ ॥
 तेषां गृहेषु संजाता लक्ष्मीपतिवरात्प्रजाः ।
 रमावैकुण्ठवासिन्यः श्रीसख्योऽपि समुद्रजाः ॥ ३ ॥
 ऊर्ध्वं वैकुण्ठवासिन्यः तथाऽजितपदाश्रिताः ।
 श्रीलोकाचलवासिन्यः श्रीसख्योऽपि समुद्रजाः ॥ ४ ॥
 चिन्तयन्त्यः सदा श्रीमद्‌‌गोविन्दचरणांबुजम् ।
 श्रीकृष्णस्य प्रसादार्थं ताभिर्माघव्रतं कृतम् ॥ ५ ॥
 माघस्य शुक्लपंचम्यां वसन्तादौ हरिः स्वयम् ।
 तासां प्रेमपरीक्षार्थं कृष्णो वै तद्‍गृहान्गतः ॥ ६ ॥
 व्याघ्रचर्मांबरं बिभ्रन् जटामुकुटमंडितः ।
 विभूतिधूसरो वेणुं वादयन् मोहयन् जगत् ॥ ७ ॥
 तासां वीथीषु संप्राप्तिं वीक्ष्य गोप्योऽपि सर्वतः ।
 आययुर्दर्शनं कर्तुं मोहिताः प्रेमविह्वलाः ॥ ८ ॥
 अतीव सुन्दरं दृष्ट्वा योगिनं गोपकन्यकाः ।
 ऊचुः परस्परं सर्वाः प्रेमानन्दसमाकुलाः ॥ ९ ॥


 गोप्य ऊचुः -
कोऽयं शिशुर्नन्दसुताकृतिर्वा
 कस्यापि पुत्रो धनिनो नृपस्य ।
 नारीकुवाग्बाणविभिन्नमर्मा
 जातो विरक्तो गतकृत्यकर्मा ॥ १० ॥
 अतीव रम्यः सुकुमारदेहो
 मनोजवद्विश्वमनोहरोऽयम् ।
 अहो कथं जीवति चास्य माता
 पिता च भार्या भगिनी विनैनम् ॥ ११ ॥
 एवं ताः सर्वतो यूथीभूत्वा सर्वा व्रजांगनाः ।
 पप्रच्छुस्तं योगिवरं विस्मिताः प्रेमविह्वलाः ॥ १२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! अब दूसरी गोपियोंका भी वर्णन सुनो, जो समस्त पापोंको हर लेनेवाला, पुण्यदायक तथा श्रीहरिके प्रति भक्ति- भावकी वृद्धि करनेवाला है ॥ १ ॥

राजन् ! व्रजमें छः वृषभानु उत्पन्न हुए हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं— नीतिवित्, मार्गद, शुक्ल, पतङ्ग, दिव्यावाहन तथा गोपेष्ट (ये नामानुरूप गुणोंवाले थे) । उनके घरमें लक्ष्मीपति नारायणके वरदानसे जो कुमारियाँ उत्पन्न हुईं, उनमें से कुछ तो रमा वैकुण्ठ वासिनी और कुछ समुद्रसे उत्पन्न हुई लक्ष्मीजीकी सखियाँ थीं, कुछ अजितपदवासिनी और कुछ ऊर्ध्व वैकुण्ठलोकनिवासिनी देवियाँ थीं, कुछ लोकाचल- वासिनी समुद्रसम्भवा लक्ष्मी - सहचरियाँ थीं । उन्होंने सदा श्रीगोविन्दके चरणारविन्दका चिन्तन करते हुए माघ मासका व्रत किया। उस व्रतका उद्देश्य था - श्रीकृष्णको प्रसन्न करना ॥ २–

माघ मासके शुक्लपक्षकी पञ्चमी तिथिको, जो भावी वसन्तके शुभागमनका सूचक प्रथम दिन है, उनके प्रेमकी परीक्षा लेनेके लिये श्रीकृष्ण उनके घरके निकट आये। वे व्याघ्रचर्मका वस्त्र पहने, जटाके मुकुट बाँधे, समस्त अङ्गोंमें विभूति रमाये योगीके वेषमें सुशोभित हो, वेणु बजाते हुए जगत् के लोगोंका मन मोह रहे थे। अपनी गलियोंमें उनका शुभागमन हुआ देख सब ओरसे मोहित एवं प्रेम-विह्वल हुई गोपाङ्गनाएँ उस तरुण योगीका दर्शन करनेके लिये आयीं । उन अत्यन्त सुन्दर योगीको देखकर प्रेम और आनन्दमें डूबी हुई समस्त गोपकन्याएँ परस्पर कहने लगीं ॥ –९ ॥

गोपियाँ बोलीं- यह कौन बालक है, जिसकी आकृति नन्दनन्दनसे ठीक-ठीक मिलती-जुलती है; अथवा यह किसी धनी राजाका पुत्र होगा, जो अपनी स्त्रीके कठोर वचनरूपी बाणसे मर्म बिंध जानेके कारण घरसे विरक्त हो गया और सारे कृत्यकर्म छोड़ बैठा है। यह अत्यन्त रमणीय है। इसका शरीर कैसा सुकुमार है ! यह कामदेवके समान सारे विश्वका मन मोह लेनेवाला है । अहो ! इसकी माता, इसके पिता, इसकी पत्नी और इसकी बहिन इसके बिना कैसे जीवित होंगी ? यह विचार करके सब ओरसे झुंड- की झुंड व्रजाङ्गनाएँ उनके पास आ गयीं और प्रेमसे विह्वल तथा आश्चर्यचकित हो उन योगीश्वरसे पूछने लगीं ॥। १० - १२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



गुरुवार, 10 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) दसवाँ अध्याय


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

दसवाँ अध्याय

 

पुलिन्द - कन्यारूपिणी गोपियों के सौभाग्य का वर्णन

 

श्रीनारद उवाच -
पुलिंदकानां गोपीनां करिष्ये वर्णनं ह्यतः ।
 सर्वपापहरं पुण्यमद्‌भुतं भक्तिवर्द्धनम् ॥ १ ॥
 पुलिन्दा ऊद्‌भटाः केचिद्‌विंध्याद्रि वनवासिनः ।
 विलुंपंतो राजवसु दीनानां न कदाचन ॥ २ ॥
 कुपितस्तेषु बलवान् विन्ध्यदेशाधिपो बली ।
 अक्षौहिणीभ्यां तान्सर्वान् पुलिंदान्स रुरोध ह ॥ ३ ॥
 युयुधुस्तेऽपि खड्गैश्च कुन्तैः शूलैः परश्वधैः ।
 शक्त्यर्ष्टिभिर्भृशुण्डीभिः शरैः कति दिनानि च ॥ ४ ॥
 पत्रं ते प्रेषयामासुः कंसाय यदुभूभृते ।
 कंसप्रणोदितो दैत्यः प्रलंबो बलवांस्तदा ॥ ५ ॥
 योजनद्वयमुच्चांगं कालमेघसमद्युतिम् ।
 किरीटकुंडलधरं सर्पहारविभूषितम् ॥ ६ ॥
 पादयोः शृङ्खलायुक्तं गदापाणिं कृतांतवत् ।
 ललज्जिह्वं घोररूपं पातयन्तं गिरीन्द्रुमान् ॥ ७ ॥
 कंपयंतं भुवं वेगात्प्रलम्बं युद्धदुर्मदम् ।
 दृष्ट्वा प्रधर्षितो राजा ससैन्यो रणमंडलम् ॥ ८ ॥
 त्यक्त्वा दुद्राव सहसा सिंहं वीक्ष्य गजो यथा ।
 प्रलंबस्तान् समानीय मथुरामाययौ पुनः ॥ ९ ॥
 पुलिन्दास्तेऽपि कंसस्य भृत्यत्वं समुपागताः ।
 सकुटुंबाः कामगिरौ वासं चक्रुर्नृपेश्वर ॥ १० ॥
 तेषां गृहेषु संजाताः श्रीरामस्य वरात्परात् ।
 पुलिंद्यः कन्यका दिव्या रूपिण्यः श्रीरिवार्चिताः ॥ ११ ॥
 तद्दर्शनस्मररुजः पुलिंद्यः प्रेमविह्वलाः ।
 श्रीमत्पादरजो धृत्वा ध्यायंत्यस्तमहर्निशम् ॥ १२ ॥
 ताश्चापि रासे संप्राप्ताः श्रीकृष्णं परमेश्वरम् ।
 परिपूर्णतमं साक्षाद्‌‌गोलोकाधिपतिं प्रभुम् ॥ १३ ॥
 श्रीकृष्णचरणाम्भोजरजो देवैः सुदुर्लभम् ।
 अहो भाग्यं पुलिंदीनां तासां प्राप्तं विशेषतः ॥ १४ ॥
 यः पारमेष्ठ्यमखिलं न महेन्द्रधिष्ण्यं
     नो सार्वभौममनिशं न रसाधिपत्यम् ।
 नो योगसिद्धिमभितो न पुनर्भवं वा
     वाञ्छत्यलं परमपादरजः स भक्तः ॥ १५ ॥
 निष्किंचनाः स्वकृतकर्मफलैर्विरागा
     यत्तत्पदं हरिजना मुनयो महांतः ।
 भक्ता जुषन्ति हरिपादरजःप्रसक्ता
     अन्ये वदन्ति न सुखं किल नैरपेक्ष्यम् ॥ १६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- अब पुलिन्द (कोल- भील) जातिकी स्त्रियोंका, जो गोपी भावको प्राप्त हुई थीं, मैं वर्णन करता हूँ । यह वर्णन समस्त पापों का अपहरण करनेवाला, पुण्यजनक, अद्भुत और भक्ति- भाव को बढ़ानेवाला है । विन्ध्याचल के वनमें कुछ पुलिन्द (कोल-भील) निवास करते थे। वे उद्घट योद्धा थे और केवल राजाका धन लूटते थे। गरीबोंकी कोई चीज कभी नहीं छूते थे ॥ १-२

विन्ध्यदेशके बलवान् राजाने कुपित हो दो अक्षौहिणी सेनाओंके द्वारा उन सभी पुलिन्दोंपर घेरा डाल दिया। वे पुलिन्द भी तलवारों, भालों, शूलों, फरसों, शक्तियों, ऋष्टियों, भुशुण्डियों और तीर- कमानोंसे कई दिनोंतक राजकीय सैनिकोंके साथ युद्ध करते रहे। (विजयकी आशा न देखकर) उन्होंने सहायता के लिये यादवोंके राजा कंसके पास पत्र भेजा। तब कंसकी आज्ञासे बलवान् दैत्य प्रलम्ब वहाँ आया ॥३-५ 

उसका शरीर दो योजन ऊँचा था । देह का रंग मेघोंकी काली घटा के समान काला था । माथेपर मुकुट तथा कानों में कुण्डल धारण किये वह दैत्य सर्पोंकी मालासे विभूषित था । उसके पैरोंमें सोनेकी साँकल थी और हाथ में गदा लेकर वह दैत्य काल के समान जान पड़ता था। उसकी जीभ लपलपा रही थी और रूप बड़ा भयंकर था। वह शत्रुओं पर पर्वत की चट्टानें तथा बड़े-बड़े वृक्ष उखाड़कर फेंकता था। पैरोंकी धमकसे धरतीको कँपाते हुए रणदुर्मद दैत्य प्रलम्ब को देखते ही भयभीत तथा पराजित हो विन्ध्य- नरेश सेनासहित समराङ्गण छोड़कर सहसा भाग चले, मानो सिंह को देखकर हाथी भाग जाता हो । तब प्रलम्ब उन सब पुलिन्दों को साथ ले पुनः मथुरापुरी को लौट आया ॥६-९॥

वे सभी पुलिन्द कंसके सेवक हो गये। नृपेश्वर ! उन सबने अपने कुटुम्बके साथ कामगिरिपर निवास किया। उन्होंके घरोंमें भगवान् श्रीरामके उत्कृष्ट वरदानसे वे पुलिन्द - स्त्रियाँ दिव्य कन्याओं के रूप में प्रकट हुईं, जो मूर्तिमती लक्ष्मी की भाँति पूजित एवं प्रशंसित होती थीं। श्रीकृष्ण के दर्शन से उनके हृदय में प्रेमकी पीड़ा जाग उठी। वे पुलिन्द - कन्याएँ प्रेमसे विह्वल हो भगवान्‌ की श्रीसम्पन्न चरणरजको सिरपर धारण करके दिन-रात उन्हींके ध्यान एवं चिन्तनमें डूबी रहती थीं। वे भी भगवान्‌ की कृपासे रासमें आ पहुँचीं और साक्षात् गोलोकके अधिपति, सर्वसमर्थ, परिपूर्णतम परमेश्वर श्रीकृष्णको उन्होंने सदाके लिये प्राप्त कर लिया ॥१०-१३                                                                                                                   अहो ! इन पुलिन्द कन्याओंका कैसा महान् सौभाग्य है कि देवताओंके लिये भी परम दुर्लभ श्रीकृष्ण चरणारविन्दोंकी रज उन्हें विशेषरूपसे प्राप्त हो गयी। जिसकी भगवान्‌के परम उत्कृष्ट पाद-पद्म-पराग में सुदृढ़ भक्ति है, वह न तो ब्रह्माजीका पद, न महेन्द्रका स्थान, न निरन्तर- स्थायी सार्वभौम सम्राट्का पद, न पाताललोकका आधिपत्य, न योगसिद्धि और न अपुनर्भव (मोक्ष) को ही चाहता है। जो अकिंचन हैं, अपने किये हुए कर्मों के फलसे विरक्त हैं, वे हरि-चरण-रज में आसक्त भगवान्‌ के स्वजन महात्मा भक्त मुनि जिस पदका सेवन करते हैं, वही निरपेक्ष सुख है; दूसरे लोग जिसे सुख कहते हैं, वह वास्तव में निरपेक्ष नहीं है ॥। १ - १६ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'पुलिन्दी-उपाख्यान' नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०८)

उद्धव और विदुर की भेंट

कच्चित्पुराणौ पुरुषौ स्वनाभ्य
    पाद्मानुवृत्त्येह किलावतीर्णौ ।
आसात उर्व्याः कुशलं विधाय
    कृतक्षणौ कुशलं शूरगेहे ॥ २६ ॥
कच्चित् कुरूणां परमः सुहृन्नो
    भामः स आस्ते सुखमङ्ग शौरिः ।
यो वै स्वसॄणां पितृवद् ददाति
    वरान् वदान्यो वरतर्पणेन ॥ २७ ॥
कच्चिद् वरूथाधिपतिर्यदूनां
    प्रद्युम्न आस्ते सुखमङ्ग वीरः ।
यं रुक्मिणी भगवतोऽभिलेभे
    आराध्य विप्रान् स्मरमादिसर्गे ॥ २८ ॥
कच्चित्सुखं सात्वतवृष्णिभोज
    दाशार्हकाणामधिपः स आस्ते ।
यमभ्यषिञ्चत् शतपत्रनेत्रो
    नृपासनाशां परिहृत्य दूरात् ॥ २९ ॥

विदुरजी कहने लगे—उद्धवजी ! पुराणपुरुष बलराम जी और श्रीकृष्ण ने अपने ही नाभिकमल से उत्पन्न हुए ब्रह्माजी की प्रार्थना से इस जगत् में अवतार लिया है। वे पृथ्वी का भार उतारकर सब को आनन्द देते हुए अब श्रीवसुदेवजी के घर कुशल से रह रहे हैं न ? ॥ २६ ॥ प्रियवर ! हम कुरुवंशियों के परम सुहृद् और पूज्य वसुदेवजी, जो पिता के समान उदारतापूर्वक अपनी कुन्ती आदि बहिनों को उनके स्वामियों का सन्तोष कराते हुए उनकी सभी मनचाही वस्तुएँ देते आये हैं, आनन्दपूर्वक हैं न ? ॥ २७ ॥ प्यारे उद्धवजी ! यादवों के सेनापति वीरवर प्रद्युम्न जी तो प्रसन्न हैं न, जो पूर्वजन्म में कामदेव थे तथा जिन्हें देवी रुक्मिणीजी ने ब्राह्मणों की आराधना करके भगवान्‌ से प्राप्त किया था ॥ २८ ॥ सात्वत, वृष्णि, भोज और दाशाहर्वंशी यादवोंके अधिपति महाराज उग्रसेन तो सुखसे हैं न, जिन्होंने राज्य पानेकी आशाका सर्वथा परित्याग कर दिया था किन्तु कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने जिन्हें फिर से राज्यसिंहासन पर बैठाया ॥ २९ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 9 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) नौवाँ अध्याय


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

नौवाँ अध्याय

 

पूर्वकाल में एकादशी का व्रत करके मनोवाञ्छित फल पानेवाले पुण्यात्माओं का परिचय तथा यज्ञसीतास्वरूपा गोपिकाओं को एकादशी व्रतके प्रभाव से श्रीकृष्ण- सांनिध्य की प्राप्ति

 

गोप्य ऊचुः -
वृषभानुसुते सुभ्रु सर्वशास्त्रार्थपारगे ।
 विडंबयंती त्वं वाचा वाचं वाचस्पतेर्मुने ॥ १ ॥
 एकादशीव्रतं राधे केन केन पुरा कृतम् ।
 तद्‌ब्रूहि नो विशेषेण त्वं साक्षात् ज्ञानशेवधिः ॥ २ ॥


 श्रीराधोवाच -
आदौ देवैः कृतं गोप्यो वरमेकादशीव्रतम् ।
 भ्रष्टराज्यस्य लाभार्थं दैत्यानां नाशनाय च ॥ ३ ॥
 वैशंतेन पुरा राज्ञा कृतमेकादशीव्रतम् ।
 स्वपितुस्तारणार्थाय यमलोकगतस्य च ॥ ४ ॥
 अक्स्माल्लुंपकेनापि ज्ञातित्यक्तेन पापिना ।
 एकादशी कृता येन राज्यं लेभे स लुंपकः ॥ ५ ॥
 भद्रावत्यां केतुमता कृतमेकादशीव्रतम् ।
 पुत्रहीनेन सद्वाक्यात्पुत्रं लेभे स मानवः ॥ ६ ॥
 ब्राह्मण्यै देवपत्‍नीभिर्दत्तमेकादशीव्रतम् ।
 तेन लेभे स्वर्गसौख्यं धनधान्यं च मानुषी ॥ ७ ॥
 पुष्पदंतीमाल्यवंतौ शक्रशापात्पिशाचताम् ।
 प्राप्तौ कृतं व्रतं ताभ्यां पुनर्गन्धर्वतां गतौ ॥ ८ ॥
 पुरा श्रीरामचन्द्रेण कृतमेकादशीव्रतम् ।
 समुद्रे सेतुबंधार्थं रावणस्य वधाय च ॥ ९ ॥
 लयांते च समुत्पन्ना धातृवृक्षतले सुराः ।
 एकादशीव्रतं चक्रुः सर्वकल्याणहेतवे ॥ १० ॥
 व्रतं चकार मेधावी द्वादश्याः पितृवाक्यतः ।
 अप्सरःस्पर्शदोषेण मुक्तोऽभून्निर्मलद्युतिः ॥ ११ ॥
 गंधर्वो ललितः पत्‍न्या गतः शापात्स रक्षताम् ।
 एकादशीव्रतेनापि पुनर्गंधर्वतां गतः ॥ १२ ॥
 एकादशीव्रतेनापि मांधाता स्वर्गतिं गतः ।
 सगरस्य ककुत्स्थश्च मुचकुन्दो महामतिः ॥ १३ ॥
 धुंधुमारादयश्चान्ये राजानो बहवस्तथा ।
 ब्रह्मकपालनिर्मुक्तो बभूव भगवान्भवः ॥ १४ ॥
 धृष्टबुद्धिर्वैश्यपुत्रो ज्ञातित्यक्तो महाखलः ।
 एकादशीव्रतं कृत्वा वैकुण्ठं स जगाम ह ॥ १५ ॥
 राज्ञा रुक्मांगदेनापि कृतमेकादशीव्रतम् ।
 तेन भूमण्डलं भुक्त्वा वैकुण्ठं सपुरो ययौ ॥ १६ ॥
 अंबरीषेण राज्ञाऽपि कृतमेकादशीव्रतम् ।
 नास्पृशद्‌‌ब्रह्मशापोऽपि यो न प्रतिहतः क्वचित् ॥ १७ ॥
 हेममाली नाम यक्षः कुष्ठी धनदशापतः ।
 एकादशीव्रतं कृत्वा चन्द्रतुल्यो बभूव ह ॥ १८ ॥
 महीजिता नृपेणापि कृतमेकादशीव्रतम् ।
 तेन पुत्रं शुभं लब्ध्वा वैकुण्ठं स जगाम ह ॥ १९ ॥
 हरिश्चन्द्रेण राज्ञाऽपि कृतमेकादशीव्रतम् ।
 तेन लब्ध्वा महीराज्यं वैकुण्ठं सपुरो ययौ ॥ २० ॥
 श्रीशोभनो नाम पुरा कृते युगे
     जामातृकोऽभून्मुचुकुन्दभूभृतः ।
 एकादशीं यः समुपोष्य भारते
     प्राप्तः स दैवैः किल मंदराचले ॥ २१ ॥
 अद्यापि राज्यं कुरुते कुबेरव-
     द्‌राज्ञा युतोऽसौ किल चन्द्रभागया ।
 एकादशी सर्वतिथीश्वरीं परां
     जानीथ गोप्यो न हि तत्समाऽन्या ॥ २२ ॥


 श्रीनारद उवाच -
इति राधामुखाच्छ्रुत्वा यज्ञसीताश्च गोपिकाः ।
 एकादशीव्रतं चक्रुर्विधिवत्कृष्णलालसाः ॥ २३ ॥
 एकादशीव्रतेनापि प्रसन्नः श्रीहरिः स्वयम् ।
 मार्गशीर्षे पूर्णिमायां रासं ताभिश्चकार ह ॥ २४ ॥

गोपियाँ बोलीं- सम्पूर्णशास्त्रों के अर्थज्ञान में पारंगत सुन्दरी वृषभानु-नन्दिनी ! तुम अपनी वाणीसे बृहस्पति मुनि की वाणीका अनुकरण करती हो। राधे ! यह एकादशी व्रत पहले किसने किया था ? यह हमें विशेषरूप से बताओ; क्योंकि तुम साक्षात् ज्ञानकी निधि हो ।। १-२ ॥

श्रीराधाने कहा- गोपियो ! सबसे पहले देवताओंने अपने छीने गये राज्यकी प्राप्ति तथा दैत्योंके विनाशके लिये एकादशीव्रतका अनुष्ठान किया था। राजा वैशन्तने पूर्वकालमें यमलोकगत पिताके उद्धारके लिये एकादशी व्रत किया था । लुम्पक नामके एक राजाको उसके पापके कारण कुटुम्बी-जनोंने अकस्मात् त्याग दिया था । लुम्पकने भी एकादशीका व्रत किया और उसके प्रभाव से अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त कर लिया। भद्रावती नगरीमें पुत्रहीन राजा केतुमान्ने संतों के कहने से एकादशी व्रतका अनुष्ठान किया और उन्हें पुत्र की प्राप्ति हो गयी। एक ब्राह्मणी  को देवपत्नियों ने एकादशी व्रतका पुण्य प्रदान किया जिससे उस मानवीने धन-धान्य तथा स्वर्ग का सुख प्राप्त किया । पुष्पदन्ती और माल्यवान् — दोनों इन्द्रके शापसे पिशाचभावको प्राप्त हो गये थे। उन दोनोंने एकादशी का व्रत किया और उसके पुण्य प्रभाव से  उन्हें पुनः गन्धर्वत्व की प्राप्ति हो गयी । पूर्वकालमें श्रीरामचन्द्रजीने समुद्रपर सेतु बाँधने तथा रावण- का वध करनेके लिये एकादशीका व्रत किया था। प्रलयके अन्तमें उत्पन्न हुए आँवलेके वृक्षके नीचे बैठकर देवताओंने सबके कल्याण के लिये एकादशी- का व्रत किया था। पिताकी आज्ञासे मेधावीने एकादशीका व्रत किया, जिससे वे अप्सराके साथ सम्पर्कके दोषसे मुक्त हो निर्मल तेजसे सम्पन्न हो गये । ललित नामक गन्धर्व अपनी पत्नीके साथ ही शापवश राक्षस हो गया था, किंतु एकादशी व्रतके अनुष्ठानसे उसने पुनः गन्धर्वत्व प्राप्त कर लिया । एकादशीके व्रतसे ही राजा मांधाता, सगर, ककुत्स्थ और महामति मुचुकुन्द पुण्यलोकको प्राप्त हुए। धुन्धुमार आदि अन्य बहुत-से राजाओंने भी एकादशी व्रतके प्रभाव से ही सद्गति प्राप्त की तथा भगवान् शंकर ब्रह्मकपाल से मुक्त हुए। कुटुम्बीजनों से परित्यक्त महादुष्ट वैश्य - पुत्र धृष्टबुद्धि एकादशीव्रत करके ही वैकुण्ठलोक में गया था । राजा रुक्माङ्गद ने भी एकादशी का व्रत किया था और उसके प्रभाव से भूमण्डल का राज्य भोगकर वे पुरवासियोंसहित वैकुण्ठलोक में पधारे थे। राजा अम्बरीषने भी एकादशीका व्रत किया था, जिससे कहीं भी प्रतिहत न होनेवाला ब्रह्मशाप उन्हें छू न सका । हेममाली नामक यक्ष कुबेर के शापसे कोढ़ी हो गया था, किंतु एकादशी व्रतका अनुष्ठान करके वह पुनः चन्द्रमाके समान कान्तिमान् हो गया। राजा महीजित्ने भी एकादशीका व्रत किया था, जिसके प्रभावसे सुन्दर पुत्र प्राप्तकर वे स्वयं भी वैकुण्ठगामी हुए। राजा हरिश्चन्द्र ने भी एकादशीका व्रत किया था, जिससे पृथ्वीका राज्य भोगकर वे अन्तमें पुरवासियोंसहित वैकुण्ठ धामको गये । पूर्वकालके सत्ययुग में राजा मुचुकुन्द का दामाद शोभन भारतवर्ष में एकादशीका उपवास करके उसके पुण्य प्रभाव से देवताओंके साथ मन्दराचलपर चला गया । वह आज भी वहाँ अपनी रानी चन्द्रभागा के साथ कुबेर की भाँति राज्यसुख भोगता है । गोपियो ! एकादशी को सम्पूर्ण तिथियों की परमेश्वरी समझो । उसकी समानता करनेवाली दूसरी कोई तिथि नहीं है । ३ - २२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीराधाके मुख- से इस प्रकार एकादशीकी महिमा सुनकर यज्ञसीता- स्वरूपा गोपिकाओंने श्रीकृष्ण दर्शनकी लालसासे विधिपूर्वक एकादशी व्रतका

अनुष्ठान किया। एकादशी व्रतसे प्रसन्न हुए साक्षात् भगवान् श्रीहरिने मार्गशीर्ष मासकी पूर्णिमाकी रातमें उन सबके साथ रास किया ।। २३-२४ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद - बहुलाश्व-संवादमें यज्ञसीतोपाख्यानके प्रसङ्गमें 'एकादशीका माहात्म्य' नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०७)

उद्धव और विदुर की भेंट

अन्यानि चेह द्विजदेवदेवैः
    कृतानि नानायतनानि विष्णोः ।
प्रत्यङ्ग मुख्याङ्‌कितमन्दिराणि
    यद्दर्शनात् कृष्णमनुस्मरन्ति ॥ २३ ॥
ततस्त्वतिव्रज्य सुराष्ट्रमृद्धं
    सौवीरमत्स्यान् कुरुजाङ्गलांश्च ।
कालेन तावद्यमुनामुपेत्य
    तत्रोद्धवं भागवतं ददर्श ॥ २४ ॥
स वासुदेवानुचरं प्रशान्तं
    बृहस्पतेः प्राक्तनयं प्रतीतम् ।
आलिङ्ग्य गाढं प्रणयेन भद्रं
    स्वानां अपृच्छद् भागवत्प्रजानाम् ॥ २५ ॥

इनके सिवा पृथ्वी में ब्राह्मण और देवताओं के स्थापित किये हुए जो भगवान्‌ विष्णु के और भी अनेकों मन्दिर थे, जिनके शिखरों पर भगवान्‌ के प्रधान आयुध चक्र के चिह्न थे और जिनके दर्शनमात्र से श्रीकृष्णका स्मरण हो आता था, उनका भी (विदुर जी ने) सेवन किया ॥ २३ ॥ वहाँ से चलकर वे धन-धान्यपूर्ण सौराष्ट्र, सौवीर, मत्स्य और कुरुजाङ्गल आदि देशोंमें होते हुए जब कुछ दिनोंमें यमुना-तटपर पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने परमभागवत उद्धवजीका दर्शन किया ॥ २४ ॥ वे भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रख्यात सेवक और अत्यन्त शान्तस्वभाव थे। वे पहले बृहस्पतिजीके शिष्य रह चुके थे। विदुरजीने उन्हें देखकर प्रेमसे गाढ़ आलिङ्गन किया और उनसे अपने आराध्य भगवान्‌ श्रीकृष्ण और उनके आश्रित अपने स्वजनोंका कुशल-समाचार पूछा ॥ २५ ॥

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मंगलवार, 8 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) आठवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

आठवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

यज्ञसीतास्वरूपा गोपियों के पूछने पर श्रीराधा  का श्रीकृष्णकी प्रसन्नता के लिये एकादशी- व्रत का अनुष्ठान बताना और उसके विधि, नियम और  वर्णन करना

 

एकादशीव्रतस्यास्य फलं वक्ष्ये व्रजाङ्गनाः ।
 यस्य श्रवणमात्रेण वाजपेयफलं लभेत् ॥३५॥
 अष्टाशीतिसहस्राणि द्विजान्भोजयते तु यः ।
 तत्कृतं फलमाप्नोति द्वादशीव्रतकृन्नरः ॥३६॥
 ससागरवनोपेतां यो ददाति वसुन्धराम् ।
 तत्सहस्रगुणं पुण्यमेकादश्या महाव्रते ॥३७॥
 ये संसारार्णवे मग्नाः पापपङ्कसमाकुले ।
 तेषामुद्धरणार्थाय द्वादशीव्रतमुत्तमम् ॥३८॥
 रात्रौ जागरणं कृत्वैकादशीव्रतकृन्नरः ।
 न पश्यति यमं रौद्रं युक्तः पापशतैरपि ॥३९॥
 पूजयेद्यो हरिं भक्त्या द्वादश्यां तुलसीदलैः ।
 लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥४०॥
 अश्वमेधसहस्राणि राजसूयशतानि च ।
 एकादश्युपवासस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥४१॥
 दश वै मातृके पक्षे तथा वै दश पैतृके ।
 प्रियाया दश पक्षे तु पुरुषानुद्धरेन्नरः ॥४२॥
 यथा शुक्ला तथा कृष्णा द्वयोश्च सदृशं फलम् ।
 धेनुः श्वेता तथा कृष्णा उभयोः सदृशं पयः ॥४३॥
 मेरुमन्दरमात्राणि पापानि शतजन्मसु ।
 एका चैकादशी गोप्यो दहते तूलराशिवत् ॥४४॥
 विधिवद्विधिहीनं वा द्वादश्यां दानमेव च ।
 स्वल्पं वा सुकृतं गोप्यो मेरुतुल्यं भवेच्च तत् ॥४५॥
 एकादशीदिने विष्णोः शृणुते यो हरेः कथाम् ।
 सप्तद्वीपवतीदाने लत्फलं लभते च सः ॥४६॥
 शङ्खोद्धारे नरः स्नात्वा दृष्ट्वा देवं गदाधरम् ।
 एकादश्युपवासस्य कलां नार्हति षोडशीम् ॥४७॥
 प्रभासे च कुरुक्षेत्रे केदारे बदरिकाश्रमे ।
 काश्यां च सूकरक्षेत्रे ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः ॥४८॥
 सङ्क्रान्तीनां चतुर्लक्षं दानं दत्तं च यन्नरैः ।
 एकादश्युपवासस्य कलां नार्हति षोडशीम् ॥४९॥
 नागानां च यथा शेषः पक्षिणां गरुडो यथा ।
 देवानां च यथा विष्णुर्वर्णानां ब्राह्मणो यथा ॥५०॥
 वृक्षाणां च यथाश्वत्थः पत्राणां तुलसी यथा ।
 व्रतानां च तथा गोप्यो वरा चैकादशी तिथिः ॥५१॥
 दशवर्षसहस्राणि तपस्तप्यति यो नरः ।
 तत्तुल्यं फलमाप्नोति द्वादशीव्रतकृन्नरः ॥५२॥
 इत्थमेकादशीनां च फलमुक्तं व्रजाङ्गनाः ।
 कुरुताशु व्रतं यूयं किं भूयः श्रोतुमिच्छथ ॥५३॥

व्रजाङ्गनाओ ! अब मैं तुम्हें इस एकादशी व्रतका फल बता रही हूँ, जिसके श्रवणमात्रसे वाजपेय यज्ञका फल मिलता है। जो अट्ठासी हजार ब्राह्मणोंको भोजन कराता है, उसको जिस फलकी प्राप्ति होती है, उसीको एकादशीका व्रत करनेवाला मनुष्य उस व्रतके पालन- मात्रसे पा लेता है। जो समुद्र और वनोंसहित सारी वसुंधराका दान करता है, उसे प्राप्त होनेवाले पुण्यसे भी हजारगुना पुण्य एकादशीके महान् व्रतका अनुष्ठान करनेसे सुलभ हो जाता है। जो पापपङ्कसे भरे हुए संसार सागरमें डूबे हैं, उनके उद्धारके लिये एकादशी- का व्रत ही सर्वोत्तम साधन है। रात्रिकालमें जागरण- पूर्वक एकादशी व्रतका पालन करनेवाला मनुष्य यदि सैकड़ों पापोंसे युक्त हो तो भी यमराजके रौद्ररूपका दर्शन नहीं करता। जो द्वादशीको तुलसीदलसे भक्ति- पूर्वक श्रीहरिका पूजन करता है, वह जलसे कमल- पत्रकी भाँति पापसे लिप्त नहीं होता। सहस्रों अश्वमेध तथा सैकड़ों राजसूययज्ञ भी एकादशीके उपवासकी सोलहवीं कलाके बराबर नहीं हो सकते। एकादशीका व्रत करनेवाला मनुष्य मातृकुलकी दस, पितृकुलकी दस तथा पत्नीके कुलकी दस पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। जैसी शुक्लपक्षकी एकादशी है, वैसी ही कृष्णपक्षकी भी है; दोनोंका समान फल है। दुधारू गाय जैसी सफेद वैसी काली — दोनोंका दूध एक-सा ही होता है। गोपियो ! मेरु और मन्दराचलके बराबर बड़े-बड़े सौ जन्मोंके पाप एक ओर और एक ही एकादशीका व्रत दूसरी ओर हो तो वह उन पर्वतोपम पापोंको उसी प्रकार जलाकर भस्म कर देती है, जैसे आगकी चिनगारी रूईके ढेरको दग्ध कर देती है ।। ३५–४४ ॥

गोपङ्गनाओ ! विधिपूर्वक हो या अविधिपूर्वक, यदि द्वादशीको थोड़ा-सा भी दान कर दिया जाय तो वह मेरु पर्वतके समान महान् हो जाता है। जो एकादशीके दिन भगवान् विष्णुकी कथा सुनता है, वह सात द्वीपोंसे युक्त पृथ्वीके दानका फल पाता है । यदि मनुष्य शङ्खोद्धारतीर्थमें स्नान करके गदाधर देव के दर्शनका महान् पुण्य संचित कर ले तो भी वह पुण्य एकादशी के उपवास की सोलहवीं कला की भी समानता नहीं कर सकता है। प्रभास, कुरुक्षेत्र, केदार, बदरिकाश्रम, काशी तथा सूकरक्षेत्र में चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण तथा चार लाख संक्रान्तियों के अवसरपर मनुष्योंद्वारा जो दान दिया गया हो, वह भी एकादशीके उपवासकी सोलहवीं कलाके बराबर नहीं है। गोपियो ! जैसे नागोंमें शेष, पक्षियोंमें गरुड़, देवताओंमें विष्णु, वर्णोंमें ब्राह्मण, वृक्षोंमें पीपल तथा पत्रोंमें तुलसीदल सबसे श्रेष्ठ है, उसी प्रकार व्रतोंमें एकादशी तिथि सर्वोत्तम है । जो मनुष्य दस हजार वर्षोंतक घोर तपस्या करता है, उसके समान ही फल वह मनुष्य भी पा लेता है, जो एकादशीका व्रत करता है। व्रजाङ्गनाओ ! इस प्रकार मैंने तुमसे एकादशियोंके फलका वर्णन किया। अब तुम शीघ्र इस व्रतको आरम्भ करो। बताओ, अब और क्या सुनना चाहती हो ? ॥। ४५ - ५३ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवादमें 'यज्ञसीताओंका उपाख्यान एवं एकादशी - माहात्म्य' नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ || ८ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०६)

उद्धव और विदुर की भेंट

इत्थं व्रजन् भारतमेव वर्षं
    कालेन यावद्ग तवान् प्रभासम् ।
तावच्छशास क्षितिमेक चक्रां
    एकातपत्रामजितेन पार्थः ॥ २० ॥
तत्राथ शुश्राव सुहृद्‌विनष्टिं
    वनं यथा वेणुज वह्निसंश्रयम् ।
संस्पर्धया दग्धमथानुशोचन्
    सरस्वतीं प्रत्यगियाय तूष्णीम् ॥ २१ ॥
तस्यां त्रितस्योशनसो मनोश्च
    पृथोरथाग्नेरसितस्य वायोः ।
तीर्थं सुदासस्य गवां गुहस्य
    यत् श्राद्धदेवस्य स आसिषेवे ॥ २२ ॥

इस प्रकार भारतवर्ष में ही विचरते-विचरते जब तक वे (विदुर जी) प्रभासक्षेत्र में पहुँचे, तब तक भगवान्‌ श्रीकृष्ण की सहायतासे महाराज युधिष्ठिर पृथ्वी का एकच्छत्र अखण्ड राज्य करने लगे थे ॥ २० ॥ वहाँ उन्होंने अपने कौरव बन्धुओं के विनाश का समाचार सुना, जो आपस की कलह के कारण परस्पर लड़-भिडक़र उसी प्रकार नष्ट हो गये थे, जैसे अपनी ही रगड़ से उत्पन्न हुई आगसे बाँसोंका सारा जंगल जलकर खाक हो जाता है। यह सुनकर वे शोक करते हुए चुपचाप सरस्वतीके तीरपर आये ॥ २१ ॥ वहाँ उन्होंने त्रित, उशना, मनु, पृथु, अग्नि, असित, वायु, सुदास, गौ, गुह और श्राद्ध- देवके नामोंसे प्रसिद्ध ग्यारह तीर्थोंका सेवन किया ॥ २२ ॥ 

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सोमवार, 7 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) आठवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

आठवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

यज्ञसीतास्वरूपा गोपियों के पूछने पर श्रीराधा  का श्रीकृष्णकी प्रसन्नता के लिये एकादशी- व्रत का अनुष्ठान बताना और उसके विधि, नियम और  वर्णन करना

 

संवत्सरद्वादशीनां फलमाप्नोति सोऽपि हि ।
 एकादश्याश्च नियमं शृणुताथ व्रजाङ्गनाः ॥
 भूमिशायी दशभ्यां तु चैकभुक्तो जितेन्द्रियः ॥ १८॥
 एकवारं जलं पीत्वा धौतवस्त्रोऽतिनिर्मलः ।
 ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय चैकादश्यां हरिं नतः ॥१९॥
 अधमं कूपिकास्नानं वाप्यां स्नानं तु मध्यमम् ।
 तडागे चोत्तमं स्नानं नद्याः स्नानं ततः परम् ॥२०॥
 एवं स्नात्वा नरवरः क्रोधलोभविवर्जितः ।
 नालपेत्तद्दिने नीचांस्तथा पाखण्डिनो नरान् ॥२१॥
 मिथ्यावादरतांश्चैव तथा ब्राह्मणनिन्दकान् ।
 अन्यांश्चैव दुराचारानगम्यागमने रतान् ॥२२॥
 परद्रव्यापहारांश्च परदाराभिगामिनः ।
 दुर्वृत्तान् भिन्नमर्यादान्नालपीत्स व्रती नरः ॥२३॥
 केशवं पूजयित्वा तु नैवेद्यं तत्र कारयेत् ।
 दीपं दद्याद्गृहे तत्र भक्तियुक्तेन चेतसा ॥२४॥
 कथाः श्रुत्वा ब्राह्मणेभ्यो दद्यात्सद्दक्षिणां पुनः ।
 रात्रौ जागरणं कुर्याद्गायन् कृष्णपदानि च ॥२५॥
 कांस्यं मांसं मसूरांश्च कोद्रवं चणकं तथा ।
 शाकं मधु परान्नं च पुनर्भोजनमैथुनम् ॥२६॥
 विष्णुव्रते च कर्तव्ये दशाभ्यां दश वर्जयेत् ।
 द्यूतं क्रीडां च निद्रां च ताम्बूलं दन्तधावनम् ॥२७॥
 परापवादं पैशुन्यं स्तेयं हिंसां तथा रतिम् ।
 क्रोधाढ्यं ह्यनृतं वाक्यमेकादश्यां विवर्जयेत् ॥२८॥
 कांस्यं मांसं सुरां क्षौद्रं तैलं वितथभाषणम् ।
 पुष्टिषष्टिमसूरांश्च द्वादश्यां परिवर्जयेत् ॥२९॥
 अनीन विधिना कुर्याद्द्वादशीव्रतमुत्तमम् ॥३०॥


 गोप्य ऊचुः -
एकादशीव्रतस्यास्य कालं वद महामते ।
 किं फलं वद तस्यास्तु माहात्म्यं वद तत्त्वतः ॥३१॥


 श्रीराधोवाच –
दशमी पञ्चपञ्चाशद्घटिका चेत्प्रदृश्यते ।
 तर्हि चैकादशी त्याज्या द्वादशीं समुपोषयेत् ॥३२॥
 दशमी पलमात्रेण त्याज्या चैकादशी तिथिः ।
 मदिराबिन्दुपातेन त्याज्यो गङ्गाघटो यथा ॥३३॥
 एकादशी यदा वृद्धिं द्वादशी च यदा गता ।
 तदा परा ह्युपोष्या स्यात्पूर्वा वै द्वादशीव्रते ॥३४॥

व्रजाङ्गनाओ ! अब एकादशी व्रतके नियम सुनो। मनुष्यको चाहिये कि वह दशमीको एक ही समय भोजन करे और रातमें जितेन्द्रिय रहकर भूमिपर शयन करे। जल भी एक ही बार पीये। धुला हुआ वस्त्र पहने और तन- मनसे अत्यन्त निर्मल रहे। फिर ब्राह्म मुहूर्तमें उठकर एकादशीको श्रीहरिके चरणोंमें प्रणाम करे । तदनन्तर शौचादिसे निवृत्त हो स्नान करे। कुएँका स्नान सबसे निम्नकोटिका है, बावड़ीका स्नान मध्यमकोटिका है, तालाब और पोखरेका स्नान उत्तम श्रेणीमें गिना गया है और नदीका स्नान उससे भी उत्तम है। इस प्रकार स्नान करके व्रत करनेवाला नरश्रेष्ठ क्रोध और लोभका त्याग करके उस दिन नीचों और पाखण्डी मनुष्यों से बात न करे । जो असत्यवादी, ब्राह्मणनिन्दक, दुराचारी, अगम्या स्त्रीके साथ समागममें रत रहनेवाले, परधनहारी, परस्त्रीगामी, दुर्वृत्त तथा मर्यादाका भङ्ग करनेवाले हैं, उनसे भी व्रती मनुष्य बात न करे। मन्दिरमें भगवान् केशवका पूजन करके वहाँ नैवेद्य लगवाये और भक्तियुक्त चित्तसे दीपदान करे। ब्राह्मणोंसे कथा सुनकर उन्हें दक्षिणा दे, रातको जागरण करे और श्रीकृष्ण-सम्बन्धी पदोंका गान एवं कीर्तन करे। वैष्णवव्रत (एकादशी) का पालन करना हो तो दशमीको काँसेका पात्र, मांस, मसूर, कोदो, चना, साग, शहद, पराया अन्न दुबारा भोजन तथा मैथुन – इन दस वस्तुओंको त्याग दे । जुएका खेल, निद्रा, मद्य-पान, दन्तधावन, परनिन्दा, चुगली, चोरी, हिंसा, रति, क्रोध और असत्यभाषण - एकादशीको इन ग्यारह वस्तुओंका त्याग कर देना चाहिये । काँसेका पात्र, मांस, शहद, तेल, मिथ्याभोजन, पिठ्ठी साठीका चावल और मसूर आदिका द्वादशीको सेवन न करे। इस विधि से उत्तम एकादशीव्रतका अनुष्ठान करे ।। १८-३० ॥

गोपियाँ बोलीं- परमबुद्धिमती श्रीराधे ! श्रीराधे ! एकादशीव्रतका समय बताओ। उससे क्या फल होता है, यह भी कहो तथा एकादशीके माहात्म्यका भी यथार्थरूपसे वर्णन करो ॥ ३१ ॥

श्रीराधाने कहा – यदि दशमी पचपन घड़ी (दण्ड) तक देखी जाती हो तो वह एकादशी त्याज्य है। फिर तो द्वादशीको ही उपवास करना चाहिये। यदि पलभर भी दशमीसे वैध प्राप्त हो तो वह सम्पूर्ण एकादशी तिथि त्याग देनेयोग्य है-ठीक उसी तरह, जैसे मदिराकी एक बूँद भी पड़ जाय तो गङ्गाजलसे भरा हुआ कलश त्याज्य हो जाता है। यदि एकादशी बढ़कर द्वादशीके दिन भी कुछ कालतक विद्यमान हो तो दूसरे दिनवाली एकादशी ही व्रतके योग्य है। पहली एकादशीको उस व्रतमें उपवास नहीं करना चाहिये ।। ३२-३४ ॥

 

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रविवार, 6 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) आठवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

आठवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

यज्ञसीतास्वरूपा गोपियों के पूछने पर श्रीराधा  का श्रीकृष्णकी प्रसन्नता के लिये एकादशी- व्रत का अनुष्ठान बताना और उसके विधि, नियम और  वर्णन करना

 

श्रीनारद उवाच -
गोपीनां यज्ञसीतानामाख्यानं शृणु मैथिल ।
 सर्वपापहरं पुण्यं कामदं मङ्गलायनम् ॥१॥
 उशीनरो नाम देशो दक्षिणस्यां दिशि स्थितः ।
 एकदा तत्र पर्जन्यो न ववर्ष समा दश ॥२॥
 धनवन्तस्तत्र गोपा अनावृष्टिभयातुराः ।
 सकुटुम्बा गोधनैश्च व्रजमण्डलमाययुः ॥३॥
 पुण्ये वृन्दावने रम्ये कालिन्दीनिकटे शुभे ।
 नन्दराजसहायेन वासं ते चक्रिरे नृप ॥४॥
 तेषां गृहेषु सञ्जाता यज्ञसीताश्च गोपिकाः ।
 श्रीरामस्य वरा दिव्या दिव्ययौवनभूषिताः ॥५॥
 श्रीकृष्णं सुन्दरं दृष्ट्वा मोहितास्ता नृपेश्वर ।
 व्रतं कृष्णप्रसादार्थं प्रष्टुं राधां समाययुः ॥६॥


 गोप्य ऊचुः –
वृषभानुसुते दिव्ये हे राधे कञ्जलोचने ।
 श्रीकृष्णस्य प्रसादार्थं वद किञ्चिद्व्रतं शुभम् ॥७॥
 तव वश्यो नन्दसूनुर्देवैरपि सुदुर्गमः ।
 त्वं जगन्मोहिनी राधे सर्वशास्त्रार्थपारगा ॥८॥


 श्रीराधोवाच -
श्रीकृष्णस्य प्रसादार्थं कुरुतैकादशीव्रतम् ।
 तेन वश्यो हरिः साक्षाद्भविष्यति न संशयः ॥९॥


 गोप्य ऊचुः –
संवत्सरस्य द्वादश्या नामानि वद राधिके ।
 मासे मासे व्रतं तस्याः कर्तव्यं केन भावतः ॥१०॥


 श्रीरधोवाच –
मार्गशीर्षे कृष्णपक्षे उत्पन्ना विष्णुदेहतः ।
 मुरदैत्यवधार्थाय तिथिरेकादशी वरा ॥११॥
 मासे मासे पृथग्भूता सैव सर्वव्रतोत्तमा ।
 तस्याः षड्विंशतिं नाम्नां वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥१२॥
 उत्पत्तिश्च तथा मोक्षा सफला च ततः परम् ।
 पुत्रदा षट्तिला चैव जया च विजया तथा ॥१३॥
 आमलकी तथा पश्चान्नाम्ना वै पापमोचनी ।
 कामदा च ततः पश्चात्कथिता वै वरूथिनी ॥१४॥
 मोहिनी चापरा प्रोक्ता निर्जला कथिता ततः ।
 योगिनी देवशयनी कामिनी च ततः परम् ॥१५॥
 पवित्रा चाप्यजा पद्मा इन्दिरा च ततः परम् ।
 पाशाङ्कुशा रमा चैव ततः पश्चात्प्रबोधिनी ॥१६॥
 सर्वसम्पत्प्रदा चैव द्वे प्रोक्ते मलमासजे ।
 एवं षड्विंशतिं नाम्नामेकादश्याः पठेच्च यः ॥१७॥

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! अब यज्ञ- सीतास्वरूपा गोपियोंका वर्णन सुनो, जो सब पापोंको हर लेनेवाला, पुण्यदायक, कामनापूरक तथा मङ्गलका धाम है ॥ १ ॥

दक्षिण दिशामें उशीनर नामसे प्रसिद्ध एक देश है, जहाँ एक समय दस वर्षोंतक इन्द्रने वर्षा नहीं की। उस देशमें जो गोधनसे सम्पन्न गोप थे, वे अनावृष्टिके भयसे व्याकुल हो अपने कुटुम्ब और गोधनोंके साथ व्रजमण्डलमें आ गये। नरेश्वर ! नन्दराजकी सहायतासे वे पवित्र वृन्दावनमें यमुनाके सुन्दर एवं सुरम्य तटपर वास करने लगे। भगवान् श्रीरामके वरसे यज्ञसीता- स्वरूपा गोपाङ्गनाएँ उन्हीं के घरोंमें उत्पन्न हुईं। उन सबके शरीर दिव्य थे तथा वे दिव्य यौवनसे विभूषित थीं। नृपेश्वर ! एक दिन वे सुन्दर श्रीकृष्णका दर्शन करके मोहित हो गयीं और श्रीकृष्णकी प्रसन्नताके लिये कोई व्रत पूछनेके उद्देश्यसे श्रीराधाके पास गयीं ॥। २ -६ ॥

गोपियाँ बोलीं- दिव्यस्वरूपे, कमललोचने, वृषभानुनन्दिनी श्रीराधे ! आप हमें श्रीकृष्णकी प्रसन्नताके लिये कोई शुभवत बतायें। जो देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ हैं, वे श्रीनन्दनन्दन तुम्हारे वशमें रहते हैं। राधे ! तुम विश्वमोहिनी हो और सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थज्ञानमें पारंगत भी हो ।। ७-८ ॥

श्रीराधाने कहा - प्यारी बहिनो ! श्रीकृष्णकी प्रसन्नताके लिये तुम सब एकादशी व्रतका अनुष्ठान करो। उससे साक्षात् श्रीहरि तुम्हारे वशमें हो जायँगे, इसमें संशय नहीं है ॥ ९ ॥

गोपियोंने पूछा- राधिके ! पूरे वर्षभरकी एकादशियोंके क्या नाम हैं, यह बताओ। प्रत्येक मासमें एकादशीका व्रत किस भावसे करना चाहिये ? ॥ १० ॥

श्रीराधाने कहा- गोपकुमारियो ! मार्गशीर्ष मासके कृष्णपक्षमें भगवान् विष्णुके शरीरसे- मुख्यतः उनके मुखसे एक असुरका वध करनेके लिये एकादशीकी उत्पत्ति हुई, अतः वह तिथि अन्य सब तिथियोंसे श्रेष्ठ है। प्रत्येक मासमें पृथक्-पृथक् एकादशी होती है। वही सब व्रतोंमें उत्तम है। मैं तुम सबोंके हितकी कामनासे उस तिथिके छब्बीस नाम बता रही हूँ। (मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशीसे आरम्भ करके कार्तिक शुक्ला एकादशीतक चौबीस एकादशी तिथियाँ होती हैं। उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं— ) उत्पन्ना, मोक्षा, सफला, पुत्रदा, षट्तिला, जया, विजया, आमलकी, पापमोचनी, कामदा, वरूथिनी, मोहिनी, अपरा, निर्जला, योगिनी, देवशयनी, कामिनी, पवित्रा, अजा, पद्मा, इन्दिरा, पापाङ्कुशा, रमा तथा प्रबोधिनी । दो एकादशी तिथियाँ मलमास की होती हैं। उन दोनोंका नाम सर्वसम्पत्प्रदा है। इस प्रकार जो एकादशी के छब्बीस नामों का पाठ करता है, वह भी वर्षभर की द्वादशी (एकादशी) तिथियोंके व्रतका फल पा लेता है । ११ – १७ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०५)

उद्धव और विदुर की भेंट

स निर्गतः कौरवपुण्यलब्धो
    गजाह्वयात् तीर्थपदः पदानि ।
अन्वाक्रमत्पुण्यचिकीर्षयोर्व्यां
    स्वधिष्ठितो यानि सहस्रमूर्तिः ॥ १७ ॥
पुरेषु पुण्योपवनाद्रिकुञ्जे
    ष्वपङ्कतोयेषु सरित्सरःसु ।
अनन्तलिङ्गैः समलङ्कृतेषु
    चचार तीर्थायतनेष्वनन्यः ॥ १८ ॥
गां पर्यटन् मेध्यविविक्तवृत्तिः
    सदाप्लुतोऽधः शयनोऽवधूतः ।
अलक्षितः स्वैरवधूतवेषो
    व्रतानि चेरे हरितोषणानि ॥ १९ ॥

कौरवों को विदुर-जैसे महात्मा बड़े पुण्य से प्राप्त हुए थे। वे हस्तिनापुर से चलकर पुण्य करने की इच्छा से भूमण्डल में तीर्थपाद भगवान्‌ के क्षेत्रों में विचरने लगे, जहाँ श्रीहरि, ब्रह्मा, रुद्र, अनन्त आदि अनेकों मूर्तियों के रूप में विराजमान् हैं ॥ १७ ॥ जहाँ-जहाँ भगवान्‌ की प्रतिमाओं से सुशोभित तीर्थस्थान, नगर, पवित्र वन, पर्वत, निकुञ्ज और निर्मल जल से भरे हुए नदी-सरोवर आदि थे, उन सभी स्थानों में वे अकेले ही विचरते रहे ॥ १८ ॥ वे अवधूत-वेष में स्वच्छन्दतापूर्वक पृथ्वी पर विचरते थे, जिससे आत्मीय-जन उन्हें पहचान न सकें। वे शरीर को सजाते न थे, पवित्र और साधारण भोजन करते, शुद्धवृत्ति से जीवन-निर्वाह करते, प्रत्येक तीर्थमें स्नान करते, जमीन पर सोते और भगवान्‌ को प्रसन्न करने वाले व्रतों का पालन करते रहते थे ॥१९॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०१) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन श्र...