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सोमवार, 14 अक्तूबर 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट११)
रविवार, 13 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
दिव्यादिव्य, त्रिगुणवृत्तिमयी भूतल-गोपियोंका
वर्णन तथा श्रीराधासहित गोपियोंकी श्रीकृष्णके साथ होली
श्रीनारद उवाच -
इदं मया ते कथितं गोपीनां चरितं शुभम् ।
अन्यसां चैव गोपीनां वर्णनं शृणु मैथिल ॥ १ ॥
वीतिहोत्रोऽग्निभुक् सांबः श्रीकरो गोपतिः श्रुतः ।
व्रजेशः पावनः शांत उपनन्दा व्रजेभवाः ॥ २ ॥
धनवंतो रूपवंतः पुत्रवंतो बहुश्रुताः ।
शीलादिगुणसंपनाः सर्वे दानपरायणाः ॥ ३ ॥
तेषां गृहेषु संजाताः कन्यका देववाक्यतः ।
काश्चिद्दिव्या अदिव्याश्च तथा त्रिगुणवृत्तयः ॥ ४ ॥
भूमिगोप्यश्च संजाताः पुण्यैर्नानाविधैः कृतैः ।
राधिकासहचर्यस्ताः सख्योऽभूवन् विदेहराट् ॥ ५ ॥
एकदा मानिनीं राधां ताः सर्वा व्रजगोपिकाः ।
ऊचुर्वीक्ष्य हरिं प्राप्तं होलिकाया महोत्सवे ॥ ६ ॥
गोप्य ऊचुः -
रंभोरु चन्द्रवदने मधुमानिनीशे
राधे वचः सुललितं ललने शृणु त्वम् ।
श्रीहोलिकोत्सवविहारमलं विधातु-
मायाति ते पुरवने व्रजभूषणोऽयम् ॥ ७
॥
श्रीयौवनोन्मदविधूर्णितलोचनोऽसौ
नीलालकालिकलितां सकपोलगोलः ।
सत्पीतकंचुकघनांतमशेषमाराद्
आचालयन्ध्वनिमता स्वपदारुणेन ॥ ८ ॥
बालार्कमौलिविमलांगदहारमुद्य-
द्विद्युत्क्षिपन् मकरकुण्डलमादधानः
।
पीतांबरेण जयति द्युतिमण्डलोऽसौ
भूमण्डले सधनुषेव घनो दिविस्थः ॥ ९ ॥
आबीरकुंकुमरसैश्च विलिप्तदेहो
हस्ते गृहीतनवसेचनयंत्र आरात् ।
प्रेक्ष्यंस्तवाशु सखि वाटमतीव राधे
त्वद्रासरंगरसकेलिरतः स्थितः सः ॥
१० ॥
निर्गच्छ फाल्गुनमिषेण विहाय मानं
दातव्यमद्य च यशः किल होलिकायै ।
कर्तव्यमाशु निजमन्दिररङ्गवारि-
पाटीरपंकमकरन्दचयं च तूर्णम् ॥ ११ ॥
उत्तिष्ठ गच्छ सहसा निजमण्डलीभि-
र्यत्रास्ति सोऽपि किल तत्र महामते
त्वम् ।
एतादृशोऽपि समयो न कदापि लभ्यः
प्रक्षालितं करतलं विदितं प्रवाहे ॥
१२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— मिथिलेश्वर ! यह मैंने तुमसे
गोपियोंके शुभ चरित्रका वर्णन किया है, अब दूसरी गोपियोंका वर्णन सुनो। वीतिहोत्र,
अग्निभुक्, साम्बु, श्रीकर, गोपति, श्रुत, व्रजेश, पावन तथा शान्त — ये व्रजमें उत्पन्न
हुए नौ उपनन्दोंके नाम हैं। वे सब-के-सब धनवान्, रूपवान् पुत्रवान् बहुत-से शास्त्रोंका
ज्ञान रखनेवाले, शील-सदाचारादि गुणोंसे सम्पन्न तथा दानपरायण हैं ॥ १-३ ॥
इनके घरों में देवताओं की आज्ञा के अनुसार जो कन्याएँ उत्पन्न हुईं,
उनमें से कोई दिव्य, कोई अदिव्य तथा कोई त्रिगुणवृत्तिवाली थीं।
वे सब नाना प्रकारके पूर्वकृत पुण्योंके फलस्वरूप भूतलपर गोपकन्याओंके रूपमें प्रकट
हुई थीं। विदेहराज ! वे सब श्रीराधिकाके साथ रहनेवाली उनकी सखियाँ थीं। एक दिनकी बात
है, होलिका- महोत्सवपर श्रीहरिको आया हुआ देख उन समस्त व्रजगोपिकाओंने मानिनी श्रीराधासे
कहा ॥ ४-६ ॥
गोपियाँ बोलीं- रम्भोरु ! चन्द्रवदने ! मधु- मानिनि
! स्वामिनि ! ललने ! श्रीराधे ! हमारी यह सुन्दर बात सुनो। ये व्रजभूषण नन्दनन्दन तुम्हारी
बरसाना-नगरीके उपवनमें होलिकोत्सव-विहार करने- के लिये आ रहे हैं। शोभासम्पन्न यौवनके
मदसे मत्त उनके चञ्चल नेत्र घूम रहे हैं। घुँघराली नीली अलकावली उनके कंधों और कपोलमण्डलको
चूम रही है | शरीरपर पीले रंगका रेशमी जामा अपनी घनीं शोभा बिखेर रहा है। वे बजते हुए
नूपुरोंकी ध्वनिसे युक्त अपने अरुण चरणारविन्दोंद्वारा सबका ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं
॥ ७-८ ॥
उनके मस्तकपर बालरवि के समान
कान्तिमान् मुकुट है। वे भुजाओं में विमल अङ्गद, वक्षःस्थल पर हार और कानों में विद्युत्
को भी विलज्जित करनेवाले मकराकार कुण्डल धारण किये हुए हैं। इस भूमण्डल पर पीताम्बर की पीत प्रभासे सुशोभित उनका श्याम
कान्तिमण्डल उसी प्रकार उत्कृष्ट शोभा पा रहा है, जैसे आकाशमें इन्द्रधनुषसे युक्त
मेघमण्डल सुशोभित होता है ॥ ९ ॥
अबीर और केसर के रस से उनका सारा अङ्ग लिप्त हैं। उन्होंने हाथमें नयी पिचकारी ले रखी
है तथा सखि राधे ! तुम्हारे साथ रासरङ्गकी रसमयी क्रीडामें निमग्न रहनेवाले वे श्यामसुन्दर
तुम्हारे शीघ्र निकलनेकी राह देखते हुए पास ही खड़े हैं । तुम भी मान छोड़कर फगुआ
(होली) के बहाने निकलो । निश्चय ही आज होलिकाको यश देना चाहिये और अपने भवनमें तुरंत
ही रंग-मिश्रित जल, चन्दनके पङ्क और मकरन्द ( इत्र आदि पुष्परस) का अधिक मात्रामें
संचय कर लेना चाहिये। परम बुद्धिमती प्यारी सखी! उठो और सहसा अपनी सखीमण्डलीके साथ
उस स्थानपर चलो, जहाँ वे श्यामसुन्दर भी मौजूद हों। ऐसा समय फिर कभी नहीं मिलेगा। बहती
धारा में हाथ धो लेना चाहिये - यह कहावत सर्वत्र विदित है ॥ १० – १२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट१०)
शनिवार, 12 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
लक्ष्मीजीकी सखियोंका वृषभानुओंके घरोंमें
कन्यारूपसे उत्पन्न होकर माघ मासके व्रतसे श्रीकृष्णको रिझाना और पाना
गोप्य ऊचुः -
कस्त्वं योगिन्नाम किं ते कुत्र वासस्तु ते मुने ।
का वृत्तिस्तव का सिद्धिर्वद नो वदतां वर ॥ १३ ॥
सिद्ध उवाच -
योगेश्वरोऽहं मे वासः सदा मानसरोवरे ।
नाम्ना स्वयंप्रकाशोऽहं निरन्नः स्वबलात्सदा ॥ १४ ॥
सार्थे परमहंसानां याम्यहं हे व्रजांगनाः ।
भूतं भव्यं वर्तमानं वेद्म्यहं दिव्यदर्शनः ॥ १५ ॥
उच्चाटनं मारणं च मोहनं स्तंबनं तथा ।
जानामि मंत्रविद्याभिः वशीकरणमेव च ॥ १६ ॥
गोप्य ऊचुः -
यदि जानासि योगिंस्त्वं वार्तां कालत्रयोद्भवाम् ।
किं वर्तते नो मनसि वद तर्हि महामते ॥ १७ ॥
सिद्ध उवाच -
भवतीनां च कर्णांते कथनीयमिदं वचः ।
युष्मदाज्ञया वा वक्ष्ये सर्वेषां शृण्वतामिह ॥ १८ ॥
गोप्य ऊचुः -
सत्यं योगेश्वरोऽसि त्वं त्रिकालज्ञो न संशयः ।
वशीकरणमंत्रेण सद्यः पठनमात्रतः ॥ १९ ॥
यदि सोऽत्रैव चायाति चिंतितो योऽस्ति वै मुने ।
तदा मन्यामहे त्वां वै मंत्रिणां प्रवरं परम् ॥ २० ॥
सिद्ध उवाच -
दुर्लभो दुर्घटो भावो युष्माभिर्गदितः स्त्रियः ।
तथाप्यहं करिष्यामि वाक्यं न चलते सताम् ॥ २१ ॥
निमीलयत नेत्राणि मा शोचं कुरुत स्त्रियः ।
भविष्यति न संदेहो युष्माकं कार्यमेव च ॥ २२ ॥
श्रीनारद उवाच -
तथेति मीलिताक्षीषु गोपीषु भगवान्हरिः ।
विहाय तद्योगिरूपं बभौ श्रीनन्दनन्दनः ॥ २३ ॥
नेत्राण्युन्मील्य ददृशुः सानन्दं नन्दनन्दनम् ।
विस्मितास्तत्प्रभावज्ञा हर्षिता मोहमागताः ॥ २४ ॥
माघमासे महारासे पुण्ये वृन्दावने वने ।
ताभिः सार्द्धं हरी रेमे सुरीभिः सुरराडिव ॥ २५ ॥
गोपियोंने पूछा- योगीबाबा ! तुम्हारा नाम क्या है
? मुनिजी ! तुम रहते कहाँ हो ? तुम्हारी वृत्ति क्या है और तुमने कौन-सी सिद्धि पायी
है ? वक्ताओं में श्रेष्ठ ! हमें ये सब बातें बताओ ॥१३॥
सिद्धयोगीने कहा- मैं योगेश्वर हूँ और सदा मानसरोवर
में निवास करता हूँ। मेरा नाम स्वयंप्रकाश है। मैं अपनी शक्तिसे सदा बिना खाये पीये
ही रहता हूँ। व्रजाङ्गनाओ ! परमहंसोंका जो अपना स्वार्थ- आत्मसाक्षात्कार है, उसीकी
सिद्धिके लिये मैं जा रहा हूँ। मुझे दिव्यदृष्टि प्राप्त हो चुकी है। मैं भूत, भविष्य
और वर्तमान तीनों कालोंकी बातें जानता हूँ । मन्त्र- विद्याद्वारा उच्चाटन, मारण, मोहन,
स्तम्भन तथा वशीकरण भी जानता हूँ । १४ – १६ ॥
गोपियोंने पूछा- योगीबाबा ! तुम तो बड़े बुद्धिमान्
हो । यदि तुम्हें तीनों कालोंकी बातें ज्ञात हैं तो बताओ न, हमारे मनमें क्या है ?
।। १७ ।।
सिद्धयोगीने कहा- यह बात तो आप- लोगोंके कानमें कहनेयोग्य
है । अथवा यदि आप- लोगोंकी आज्ञा हो तो सब लोगोंके सामने ही कह डालूँ ॥ १८ ॥
गोपियाँ बोलीं- मुने! तुम सचमुच योगेश्वर हो । तुम्हें
तीनोंकालोंका ज्ञान है, इसमें संशय नहीं यदि तुम्हारे वशीकरण मन्त्रसे, उसके पाठ करनेमात्रसे
तत्काल वे यहीं आ जायँ, जिनका कि हम मन-ही-मन चिन्तन करती हैं, तब हम मानेंगी कि तुम
मन्त्रज्ञों में सबसे श्रेष्ठ हो । १९-२० ।।
सिद्धयोगीने कहा - व्रजाङ्गनाओ ! तुमने तो ऐसा भाव
व्यक्त किया है, जो परम दुर्लभ और दुष्कर है; तथापि मैं तुम्हारी मनोनीत वस्तुको प्रकट
करूँगा; क्योंकि सत्पुरुषोंकी कही हुई बात झूठ नहीं होती । व्रजकी वनिताओ ! चिन्ता
न करो; अपनी आँखें मूँद लो। तुम्हारा कार्य अवश्य सिद्ध होगा, इसमें संशय नहीं है ।।
२१-२२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! 'बहुत अच्छा' कहकर जब
गोपियोंने अपनी आँखें मूँद लीं, तब भगवान् श्रीहरि योगीका रूप छोड़कर श्रीनन्दनन्दन्के
रूपमें प्रकट हो गये। गोपियोंने आँखें खोलकर देखा तो सामने नन्दनन्दन सानन्द मुस्करा
रहे हैं। पहले ती वे अत्यन्त विस्मित हुईं, फिर योगीका प्रभाव जाननेपर उन्हें हर्ष
हुआ और प्रियतमका वह मोहन रूप देखकर वे मोहित हो गयीं । तदनन्तर माघ मासके महारासमें
पावन वृन्दावनके भीतर श्रीहरिने उन गोपाङ्गनाओं के साथ उसी प्रकार
विहार किया, जैसे देवाङ्गनाओंके साथ देवराज इन्द्र करते हैं ।। २३–२५ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें रमावैकुण्ठ, श्वेतद्वीप, ऊर्ध्ववैकुण्ठ, अजितपद तथा
श्रीलोकाचलमें निवास करनेवाली 'लक्ष्मीजीकी सखियोंके गोपीरूपमें प्रकट होनेका आख्यान'
नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०९)
शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
लक्ष्मीजीकी सखियोंका वृषभानुओंके घरोंमें
कन्यारूपसे उत्पन्न होकर माघ मासके व्रतसे श्रीकृष्णको रिझाना और पाना
श्रीनारद उवाच -
अन्यासां चैव गोपीनां वर्णनं शृणु मैथिल ।
सर्वपापहरं पुण्यं हरिभक्तिविवर्द्धनम् ॥ १ ॥
नीतिविन्मार्गदः शुक्लः पतंगो दिव्यवाहनः ।
गोपेष्टश्च व्रजे राजन् जाता षड्वृषभानवः ॥ २ ॥
तेषां गृहेषु संजाता लक्ष्मीपतिवरात्प्रजाः ।
रमावैकुण्ठवासिन्यः श्रीसख्योऽपि समुद्रजाः ॥ ३ ॥
ऊर्ध्वं वैकुण्ठवासिन्यः तथाऽजितपदाश्रिताः ।
श्रीलोकाचलवासिन्यः श्रीसख्योऽपि समुद्रजाः ॥ ४ ॥
चिन्तयन्त्यः सदा श्रीमद्गोविन्दचरणांबुजम् ।
श्रीकृष्णस्य प्रसादार्थं ताभिर्माघव्रतं कृतम् ॥ ५ ॥
माघस्य शुक्लपंचम्यां वसन्तादौ हरिः स्वयम् ।
तासां प्रेमपरीक्षार्थं कृष्णो वै तद्गृहान्गतः ॥ ६ ॥
व्याघ्रचर्मांबरं बिभ्रन् जटामुकुटमंडितः ।
विभूतिधूसरो वेणुं वादयन् मोहयन् जगत् ॥ ७ ॥
तासां वीथीषु संप्राप्तिं वीक्ष्य गोप्योऽपि सर्वतः ।
आययुर्दर्शनं कर्तुं मोहिताः प्रेमविह्वलाः ॥ ८ ॥
अतीव सुन्दरं दृष्ट्वा योगिनं गोपकन्यकाः ।
ऊचुः परस्परं सर्वाः प्रेमानन्दसमाकुलाः ॥ ९ ॥
गोप्य ऊचुः -
कोऽयं शिशुर्नन्दसुताकृतिर्वा
कस्यापि पुत्रो धनिनो नृपस्य ।
नारीकुवाग्बाणविभिन्नमर्मा
जातो विरक्तो गतकृत्यकर्मा ॥ १० ॥
अतीव रम्यः सुकुमारदेहो
मनोजवद्विश्वमनोहरोऽयम् ।
अहो कथं जीवति चास्य माता
पिता च भार्या भगिनी विनैनम् ॥ ११ ॥
एवं ताः सर्वतो यूथीभूत्वा सर्वा व्रजांगनाः ।
पप्रच्छुस्तं योगिवरं विस्मिताः प्रेमविह्वलाः ॥ १२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! अब दूसरी गोपियोंका
भी वर्णन सुनो, जो समस्त पापोंको हर लेनेवाला, पुण्यदायक तथा श्रीहरिके प्रति भक्ति-
भावकी वृद्धि करनेवाला है ॥ १ ॥
राजन् ! व्रजमें छः वृषभानु उत्पन्न हुए हैं, जिनके
नाम इस प्रकार हैं— नीतिवित्, मार्गद, शुक्ल, पतङ्ग, दिव्यावाहन तथा गोपेष्ट (ये नामानुरूप
गुणोंवाले थे) । उनके घरमें लक्ष्मीपति नारायणके वरदानसे जो कुमारियाँ उत्पन्न हुईं,
उनमें से कुछ तो रमा वैकुण्ठ वासिनी और कुछ समुद्रसे उत्पन्न हुई लक्ष्मीजीकी सखियाँ
थीं, कुछ अजितपदवासिनी और कुछ ऊर्ध्व वैकुण्ठलोकनिवासिनी देवियाँ थीं, कुछ लोकाचल-
वासिनी समुद्रसम्भवा लक्ष्मी - सहचरियाँ थीं । उन्होंने सदा श्रीगोविन्दके चरणारविन्दका
चिन्तन करते हुए माघ मासका व्रत किया। उस व्रतका उद्देश्य था - श्रीकृष्णको प्रसन्न
करना ॥ २–५ ॥
माघ मासके शुक्लपक्षकी पञ्चमी तिथिको, जो भावी वसन्तके
शुभागमनका सूचक प्रथम दिन है, उनके प्रेमकी परीक्षा लेनेके लिये श्रीकृष्ण उनके घरके
निकट आये। वे व्याघ्रचर्मका वस्त्र पहने, जटाके मुकुट बाँधे, समस्त अङ्गोंमें विभूति
रमाये योगीके वेषमें सुशोभित हो, वेणु बजाते हुए जगत् के लोगोंका मन मोह रहे थे। अपनी
गलियोंमें उनका शुभागमन हुआ देख सब ओरसे मोहित एवं प्रेम-विह्वल हुई गोपाङ्गनाएँ उस
तरुण योगीका दर्शन करनेके लिये आयीं । उन अत्यन्त सुन्दर योगीको देखकर प्रेम और आनन्दमें
डूबी हुई समस्त गोपकन्याएँ परस्पर कहने लगीं ॥ ६–९ ॥
गोपियाँ बोलीं- यह कौन बालक है, जिसकी आकृति नन्दनन्दनसे
ठीक-ठीक मिलती-जुलती है; अथवा यह किसी धनी राजाका पुत्र होगा, जो अपनी स्त्रीके कठोर
वचनरूपी बाणसे मर्म बिंध जानेके कारण घरसे विरक्त हो गया और सारे कृत्यकर्म छोड़ बैठा
है। यह अत्यन्त रमणीय है। इसका शरीर कैसा सुकुमार है ! यह कामदेवके समान सारे विश्वका
मन मोह लेनेवाला है । अहो ! इसकी माता, इसके पिता, इसकी पत्नी और इसकी बहिन इसके बिना
कैसे जीवित होंगी ? यह विचार करके सब ओरसे झुंड- की झुंड व्रजाङ्गनाएँ उनके पास आ गयीं
और प्रेमसे विह्वल तथा आश्चर्यचकित हो उन योगीश्वरसे पूछने लगीं ॥। १० - १२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
गुरुवार, 10 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) दसवाँ अध्याय
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
दसवाँ अध्याय
पुलिन्द - कन्यारूपिणी गोपियों के सौभाग्य का वर्णन
श्रीनारद उवाच -
पुलिंदकानां गोपीनां करिष्ये वर्णनं ह्यतः ।
सर्वपापहरं पुण्यमद्भुतं भक्तिवर्द्धनम् ॥ १ ॥
पुलिन्दा ऊद्भटाः केचिद्विंध्याद्रि वनवासिनः ।
विलुंपंतो राजवसु दीनानां न कदाचन ॥ २ ॥
कुपितस्तेषु बलवान् विन्ध्यदेशाधिपो बली ।
अक्षौहिणीभ्यां तान्सर्वान् पुलिंदान्स रुरोध ह ॥ ३ ॥
युयुधुस्तेऽपि खड्गैश्च कुन्तैः शूलैः परश्वधैः ।
शक्त्यर्ष्टिभिर्भृशुण्डीभिः शरैः कति दिनानि च ॥ ४ ॥
पत्रं ते प्रेषयामासुः कंसाय यदुभूभृते ।
कंसप्रणोदितो दैत्यः प्रलंबो बलवांस्तदा ॥ ५ ॥
योजनद्वयमुच्चांगं कालमेघसमद्युतिम् ।
किरीटकुंडलधरं सर्पहारविभूषितम् ॥ ६ ॥
पादयोः शृङ्खलायुक्तं गदापाणिं कृतांतवत् ।
ललज्जिह्वं घोररूपं पातयन्तं गिरीन्द्रुमान् ॥ ७ ॥
कंपयंतं भुवं वेगात्प्रलम्बं युद्धदुर्मदम् ।
दृष्ट्वा प्रधर्षितो राजा ससैन्यो रणमंडलम् ॥ ८ ॥
त्यक्त्वा दुद्राव सहसा सिंहं वीक्ष्य गजो यथा ।
प्रलंबस्तान् समानीय मथुरामाययौ पुनः ॥ ९ ॥
पुलिन्दास्तेऽपि कंसस्य भृत्यत्वं समुपागताः ।
सकुटुंबाः कामगिरौ वासं चक्रुर्नृपेश्वर ॥ १० ॥
तेषां गृहेषु संजाताः श्रीरामस्य वरात्परात् ।
पुलिंद्यः कन्यका दिव्या रूपिण्यः श्रीरिवार्चिताः ॥ ११ ॥
तद्दर्शनस्मररुजः पुलिंद्यः प्रेमविह्वलाः ।
श्रीमत्पादरजो धृत्वा ध्यायंत्यस्तमहर्निशम् ॥ १२ ॥
ताश्चापि रासे संप्राप्ताः श्रीकृष्णं परमेश्वरम् ।
परिपूर्णतमं साक्षाद्गोलोकाधिपतिं प्रभुम् ॥ १३ ॥
श्रीकृष्णचरणाम्भोजरजो देवैः सुदुर्लभम् ।
अहो भाग्यं पुलिंदीनां तासां प्राप्तं विशेषतः ॥ १४ ॥
यः पारमेष्ठ्यमखिलं न महेन्द्रधिष्ण्यं
नो सार्वभौममनिशं न रसाधिपत्यम् ।
नो योगसिद्धिमभितो न पुनर्भवं वा
वाञ्छत्यलं परमपादरजः स भक्तः ॥ १५ ॥
निष्किंचनाः स्वकृतकर्मफलैर्विरागा
यत्तत्पदं हरिजना मुनयो महांतः ।
भक्ता जुषन्ति हरिपादरजःप्रसक्ता
अन्ये वदन्ति न सुखं किल
नैरपेक्ष्यम् ॥ १६ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- अब पुलिन्द (कोल- भील) जातिकी
स्त्रियोंका, जो गोपी भावको प्राप्त हुई थीं, मैं वर्णन करता हूँ ।
यह वर्णन समस्त पापों का अपहरण करनेवाला,
पुण्यजनक, अद्भुत और भक्ति- भाव को बढ़ानेवाला
है । विन्ध्याचल के वनमें कुछ पुलिन्द
(कोल-भील) निवास करते थे। वे उद्घट योद्धा थे और केवल राजाका धन लूटते थे। गरीबोंकी
कोई चीज कभी नहीं छूते थे ॥ १-२ ॥
विन्ध्यदेशके बलवान् राजाने कुपित हो दो अक्षौहिणी
सेनाओंके द्वारा उन सभी पुलिन्दोंपर घेरा डाल दिया। वे पुलिन्द भी तलवारों, भालों,
शूलों, फरसों, शक्तियों, ऋष्टियों, भुशुण्डियों और तीर- कमानोंसे कई दिनोंतक राजकीय
सैनिकोंके साथ युद्ध करते रहे। (विजयकी आशा न देखकर) उन्होंने सहायता के लिये यादवोंके
राजा कंसके पास पत्र भेजा। तब कंसकी आज्ञासे बलवान् दैत्य प्रलम्ब वहाँ आया ॥३-५॥
उसका शरीर दो योजन ऊँचा था । देह का
रंग मेघोंकी काली घटा के समान काला था ।
माथेपर मुकुट तथा कानों में कुण्डल धारण किये वह दैत्य सर्पोंकी
मालासे विभूषित था । उसके पैरोंमें सोनेकी साँकल थी और हाथ में
गदा लेकर वह दैत्य काल के समान जान पड़ता था। उसकी जीभ लपलपा
रही थी और रूप बड़ा भयंकर था। वह शत्रुओं पर
पर्वत की चट्टानें तथा बड़े-बड़े वृक्ष उखाड़कर फेंकता था। पैरोंकी
धमकसे धरतीको कँपाते हुए रणदुर्मद दैत्य प्रलम्ब को देखते ही
भयभीत तथा पराजित हो विन्ध्य- नरेश सेनासहित समराङ्गण छोड़कर सहसा भाग चले, मानो सिंह को देखकर हाथी भाग जाता हो । तब प्रलम्ब उन सब पुलिन्दों को साथ ले पुनः मथुरापुरी को लौट आया ॥६-९॥
वे सभी पुलिन्द कंसके सेवक हो गये। नृपेश्वर ! उन सबने
अपने कुटुम्बके साथ कामगिरिपर निवास किया। उन्होंके घरोंमें भगवान् श्रीरामके उत्कृष्ट
वरदानसे वे पुलिन्द - स्त्रियाँ दिव्य कन्याओं के रूप में प्रकट हुईं, जो मूर्तिमती लक्ष्मी की भाँति
पूजित एवं प्रशंसित होती थीं। श्रीकृष्ण के दर्शन से उनके हृदय में प्रेमकी पीड़ा जाग उठी। वे पुलिन्द - कन्याएँ प्रेमसे
विह्वल हो भगवान् की श्रीसम्पन्न चरणरजको सिरपर धारण करके दिन-रात
उन्हींके ध्यान एवं चिन्तनमें डूबी रहती थीं। वे भी भगवान् की
कृपासे रासमें आ पहुँचीं और साक्षात् गोलोकके अधिपति, सर्वसमर्थ, परिपूर्णतम परमेश्वर
श्रीकृष्णको उन्होंने सदाके लिये प्राप्त कर लिया ॥१०-१३॥ अहो
! इन पुलिन्द कन्याओंका कैसा महान् सौभाग्य है कि देवताओंके लिये भी परम दुर्लभ श्रीकृष्ण
चरणारविन्दोंकी रज उन्हें विशेषरूपसे प्राप्त हो गयी। जिसकी भगवान्के परम उत्कृष्ट
पाद-पद्म-पराग में सुदृढ़ भक्ति है, वह न तो ब्रह्माजीका पद,
न महेन्द्रका स्थान, न निरन्तर- स्थायी सार्वभौम सम्राट्का पद, न पाताललोकका आधिपत्य,
न योगसिद्धि और न अपुनर्भव (मोक्ष) को ही चाहता है। जो अकिंचन हैं, अपने किये हुए कर्मों
के फलसे विरक्त हैं, वे हरि-चरण-रज में आसक्त भगवान् के स्वजन महात्मा भक्त मुनि जिस पदका सेवन करते हैं, वही निरपेक्ष
सुख है; दूसरे लोग जिसे सुख कहते हैं, वह वास्तव में निरपेक्ष
नहीं है ॥। १४ - १६ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'पुलिन्दी-उपाख्यान' नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ
॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०८)
बुधवार, 9 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) नौवाँ अध्याय
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
नौवाँ
अध्याय
पूर्वकाल में एकादशी का व्रत करके मनोवाञ्छित फल पानेवाले पुण्यात्माओं का
परिचय तथा यज्ञसीतास्वरूपा गोपिकाओं को एकादशी व्रतके प्रभाव से श्रीकृष्ण- सांनिध्य की प्राप्ति
गोप्य ऊचुः -
वृषभानुसुते सुभ्रु सर्वशास्त्रार्थपारगे ।
विडंबयंती त्वं वाचा वाचं वाचस्पतेर्मुने ॥ १ ॥
एकादशीव्रतं राधे केन केन पुरा कृतम् ।
तद्ब्रूहि नो विशेषेण त्वं साक्षात् ज्ञानशेवधिः ॥ २ ॥
श्रीराधोवाच -
आदौ देवैः कृतं गोप्यो वरमेकादशीव्रतम् ।
भ्रष्टराज्यस्य लाभार्थं दैत्यानां नाशनाय च ॥ ३ ॥
वैशंतेन पुरा राज्ञा कृतमेकादशीव्रतम् ।
स्वपितुस्तारणार्थाय यमलोकगतस्य च ॥ ४ ॥
अक्स्माल्लुंपकेनापि ज्ञातित्यक्तेन पापिना ।
एकादशी कृता येन राज्यं लेभे स लुंपकः ॥ ५ ॥
भद्रावत्यां केतुमता कृतमेकादशीव्रतम् ।
पुत्रहीनेन सद्वाक्यात्पुत्रं लेभे स मानवः ॥ ६ ॥
ब्राह्मण्यै देवपत्नीभिर्दत्तमेकादशीव्रतम् ।
तेन लेभे स्वर्गसौख्यं धनधान्यं च मानुषी ॥ ७ ॥
पुष्पदंतीमाल्यवंतौ शक्रशापात्पिशाचताम् ।
प्राप्तौ कृतं व्रतं ताभ्यां पुनर्गन्धर्वतां गतौ ॥ ८ ॥
पुरा श्रीरामचन्द्रेण कृतमेकादशीव्रतम् ।
समुद्रे सेतुबंधार्थं रावणस्य वधाय च ॥ ९ ॥
लयांते च समुत्पन्ना धातृवृक्षतले सुराः ।
एकादशीव्रतं चक्रुः सर्वकल्याणहेतवे ॥ १० ॥
व्रतं चकार मेधावी द्वादश्याः पितृवाक्यतः ।
अप्सरःस्पर्शदोषेण मुक्तोऽभून्निर्मलद्युतिः ॥ ११ ॥
गंधर्वो ललितः पत्न्या गतः शापात्स रक्षताम् ।
एकादशीव्रतेनापि पुनर्गंधर्वतां गतः ॥ १२ ॥
एकादशीव्रतेनापि मांधाता स्वर्गतिं गतः ।
सगरस्य ककुत्स्थश्च मुचकुन्दो महामतिः ॥ १३ ॥
धुंधुमारादयश्चान्ये राजानो बहवस्तथा ।
ब्रह्मकपालनिर्मुक्तो बभूव भगवान्भवः ॥ १४ ॥
धृष्टबुद्धिर्वैश्यपुत्रो ज्ञातित्यक्तो महाखलः ।
एकादशीव्रतं कृत्वा वैकुण्ठं स जगाम ह ॥ १५ ॥
राज्ञा रुक्मांगदेनापि कृतमेकादशीव्रतम् ।
तेन भूमण्डलं भुक्त्वा वैकुण्ठं सपुरो ययौ ॥ १६ ॥
अंबरीषेण राज्ञाऽपि कृतमेकादशीव्रतम् ।
नास्पृशद्ब्रह्मशापोऽपि यो न प्रतिहतः क्वचित् ॥ १७ ॥
हेममाली नाम यक्षः कुष्ठी धनदशापतः ।
एकादशीव्रतं कृत्वा चन्द्रतुल्यो बभूव ह ॥ १८ ॥
महीजिता नृपेणापि कृतमेकादशीव्रतम् ।
तेन पुत्रं शुभं लब्ध्वा वैकुण्ठं स जगाम ह ॥ १९ ॥
हरिश्चन्द्रेण राज्ञाऽपि कृतमेकादशीव्रतम् ।
तेन लब्ध्वा महीराज्यं वैकुण्ठं सपुरो ययौ ॥ २० ॥
श्रीशोभनो नाम पुरा कृते युगे
जामातृकोऽभून्मुचुकुन्दभूभृतः ।
एकादशीं यः समुपोष्य भारते
प्राप्तः स दैवैः किल मंदराचले ॥ २१
॥
अद्यापि राज्यं कुरुते कुबेरव-
द्राज्ञा युतोऽसौ किल चन्द्रभागया ।
एकादशी सर्वतिथीश्वरीं परां
जानीथ गोप्यो न हि तत्समाऽन्या ॥ २२
॥
श्रीनारद उवाच -
इति राधामुखाच्छ्रुत्वा यज्ञसीताश्च गोपिकाः ।
एकादशीव्रतं चक्रुर्विधिवत्कृष्णलालसाः ॥ २३ ॥
एकादशीव्रतेनापि प्रसन्नः श्रीहरिः स्वयम् ।
मार्गशीर्षे पूर्णिमायां रासं ताभिश्चकार ह ॥ २४ ॥
गोपियाँ बोलीं- सम्पूर्णशास्त्रों के
अर्थज्ञान में पारंगत सुन्दरी वृषभानु-नन्दिनी ! तुम अपनी वाणीसे
बृहस्पति मुनि की वाणीका अनुकरण करती हो। राधे ! यह एकादशी व्रत
पहले किसने किया था ? यह हमें विशेषरूप से बताओ; क्योंकि तुम
साक्षात् ज्ञानकी निधि हो ।। १-२ ॥
श्रीराधाने कहा- गोपियो ! सबसे पहले देवताओंने अपने
छीने गये राज्यकी प्राप्ति तथा दैत्योंके विनाशके लिये एकादशीव्रतका अनुष्ठान किया
था। राजा वैशन्तने पूर्वकालमें यमलोकगत पिताके उद्धारके लिये एकादशी व्रत किया था ।
लुम्पक नामके एक राजाको उसके पापके कारण कुटुम्बी-जनोंने अकस्मात् त्याग दिया था ।
लुम्पकने भी एकादशीका व्रत किया और उसके प्रभाव से अपना खोया
हुआ राज्य प्राप्त कर लिया। भद्रावती नगरीमें पुत्रहीन राजा केतुमान्ने संतों के कहने से एकादशी व्रतका अनुष्ठान किया और उन्हें
पुत्र की प्राप्ति हो गयी। एक ब्राह्मणी को देवपत्नियों ने
एकादशी व्रतका पुण्य प्रदान किया जिससे उस मानवीने धन-धान्य तथा स्वर्ग का सुख प्राप्त किया । पुष्पदन्ती और माल्यवान्
— दोनों इन्द्रके शापसे पिशाचभावको प्राप्त हो गये थे। उन दोनोंने एकादशी का व्रत किया और उसके पुण्य प्रभाव से उन्हें पुनः गन्धर्वत्व की
प्राप्ति हो गयी । पूर्वकालमें श्रीरामचन्द्रजीने समुद्रपर सेतु बाँधने तथा रावण- का
वध करनेके लिये एकादशीका व्रत किया था। प्रलयके अन्तमें उत्पन्न हुए आँवलेके वृक्षके
नीचे बैठकर देवताओंने सबके कल्याण के लिये एकादशी- का व्रत किया
था। पिताकी आज्ञासे मेधावीने एकादशीका व्रत किया, जिससे वे अप्सराके साथ सम्पर्कके
दोषसे मुक्त हो निर्मल तेजसे सम्पन्न हो गये । ललित नामक गन्धर्व अपनी पत्नीके साथ
ही शापवश राक्षस हो गया था, किंतु एकादशी व्रतके अनुष्ठानसे उसने पुनः गन्धर्वत्व प्राप्त
कर लिया । एकादशीके व्रतसे ही राजा मांधाता, सगर, ककुत्स्थ और महामति मुचुकुन्द पुण्यलोकको
प्राप्त हुए। धुन्धुमार आदि अन्य बहुत-से राजाओंने भी एकादशी व्रतके प्रभाव से ही सद्गति प्राप्त की तथा भगवान् शंकर ब्रह्मकपाल से मुक्त हुए। कुटुम्बीजनों से परित्यक्त महादुष्ट
वैश्य - पुत्र धृष्टबुद्धि एकादशीव्रत करके ही वैकुण्ठलोक में
गया था । राजा रुक्माङ्गद ने भी एकादशी का व्रत किया था और उसके प्रभाव से भूमण्डल का राज्य भोगकर वे पुरवासियोंसहित वैकुण्ठलोक में
पधारे थे। राजा अम्बरीषने भी एकादशीका व्रत किया था, जिससे कहीं भी प्रतिहत न होनेवाला
ब्रह्मशाप उन्हें छू न सका । हेममाली नामक यक्ष कुबेर के शापसे
कोढ़ी हो गया था, किंतु एकादशी व्रतका अनुष्ठान करके वह पुनः चन्द्रमाके समान कान्तिमान्
हो गया। राजा महीजित्ने भी एकादशीका व्रत किया था, जिसके प्रभावसे सुन्दर पुत्र प्राप्तकर
वे स्वयं भी वैकुण्ठगामी हुए। राजा हरिश्चन्द्र ने भी एकादशीका व्रत किया था, जिससे
पृथ्वीका राज्य भोगकर वे अन्तमें पुरवासियोंसहित वैकुण्ठ धामको गये । पूर्वकालके सत्ययुग में राजा मुचुकुन्द का दामाद शोभन भारतवर्ष में
एकादशीका उपवास करके उसके पुण्य प्रभाव से देवताओंके साथ मन्दराचलपर
चला गया । वह आज भी वहाँ अपनी रानी चन्द्रभागा
के साथ कुबेर की भाँति राज्यसुख भोगता है । गोपियो ! एकादशी को सम्पूर्ण तिथियों की परमेश्वरी समझो । उसकी समानता करनेवाली दूसरी
कोई तिथि नहीं है । ३ - २२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीराधाके मुख- से इस
प्रकार एकादशीकी महिमा सुनकर यज्ञसीता- स्वरूपा गोपिकाओंने श्रीकृष्ण दर्शनकी लालसासे
विधिपूर्वक एकादशी व्रतका
अनुष्ठान किया। एकादशी व्रतसे प्रसन्न हुए साक्षात्
भगवान् श्रीहरिने मार्गशीर्ष मासकी पूर्णिमाकी रातमें उन सबके साथ रास किया ।। २३-२४
॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद - बहुलाश्व-संवादमें यज्ञसीतोपाख्यानके प्रसङ्गमें 'एकादशीका माहात्म्य'
नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०७)
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