बुधवार, 16 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

कौरव सेना से पीड़ित रंगोजि गोप का कंस की सहायता से व्रजमण्डल की सीमा पर निवास तथा उसकी पुत्रीरूप में जालंधरी गोपियों का प्राकट्य

 

श्रीनारद उवाच -
जालंधरीणां गोपीनां जन्मानि शृणु मैथिल ।
 कर्माणि च महाराज पापघ्नानि नृणां सदा ॥ १ ॥
 रजन् सप्तनदीतीरे रंगपत्तनमुत्तमम् ।
 सर्वसंपद्युतं दीर्घं योजनद्वयवर्तुलम् ॥ २ ॥
 रंगोजिस्तत्र गोपालः पुराधीशो महाबलः ।
 पुत्रपौत्रसमायुक्तो धनधान्यसमृद्धिमान् ॥ ३ ॥
 हस्तिनापुरनाथाय धृतराष्ट्राय भूभृते ।
 हैमानामर्बुदशतं वार्षिकं स ददौ सदा ॥ ४ ॥
 एकदा तत्र वर्षांते व्यतीते किल मैथिल ।
 वार्षिकं तु करं राज्ञे न ददौ स मदोत्कटः ॥ ५ ॥
 मिलनार्थं न चायते रंगोजौ गोपनायके ।
 वीरा दश सहस्राणि धृतराष्ट्रप्रणोदिताः ॥ ६ ॥
 बद्ध्वा तं दामभिर्गोपमाजग्मुस्ते गजह्वयम् ।
 कति वर्षाणि रंगोजिः कारागारे स्थितोऽभवत् ॥ ७ ॥
 सन्निरुद्धस्ताडितोऽपि लोभी भीरुर्न चाभवत् ।
 न ददौ स धनं किंचिद्धृतराष्ट्राय भूभृते ॥ ८ ॥
 कारागारान्महाभीमात्कदाचित्स पलायितः ।
 रात्रौ रंगपुरं प्रागाद् रंगोजिर्गोपनायकः ॥ ९ ॥
 पुनस्तं हि समाहर्तुं धृतराष्ट्रप्रणोदितम् ।
 अक्षौहिणीत्रयं राजन् समर्थबलवाहनम् ॥ १० ॥
 तेन सार्द्धं स बाणौघैस्तीक्ष्णधारैः स्फुरत्प्रभैः ।
 युयुधे दंशितो युद्धे धनुष्टंकारयन्मुहुः ॥ ११ ॥
 शत्रुभिश्छिन्नकवचः छिन्नधन्वा हतस्वकः ।
 पुरमेत्य मृधं चक्रे रंगोजिः कतिभिर्दिनैः ॥ १२ ॥
 अनाथः शरणं चेच्छन् कंसाय यदूभूभृते ।
 दूतं स्वं प्रेषयामास रंगोजिर्भयपीडितः ॥ १३ ॥
 दूतस्तु मथुरामेत्य सभां गत्वा नताननः ।
 कृताञ्जलिश्चौग्रसेनिं नत्वा प्राह गिराऽऽर्द्रया ॥ १४ ॥
 रंगोजिनामा नृप रंगपत्तने
     गोपोऽस्ति नीतिज्ञवरः पुराधिपः ।
 स्वशत्रुसंरुद्धपुरो महाधिभृद्
     अलब्धनाथः शरणं गतस्तव ॥ १५ ॥
 त्वं दीनदुःखार्तिहरो महीतले
     भौमदिसंगीतगुणो महाबलः ।
 सुरासुरानुद्भटभूमिपालकान्
     विजित्य युद्धे सुरराडिव स्थितः ॥ १६ ॥
 चन्द्रं चकोरश्च रविं कुशेशयो
     यथा शरच्छीकरमेव चातकः ।
 क्षुधातुरोऽन्नं च जलं तृषातुरः
     स्मरत्यसौ शत्रुभये तथा त्वाम् ॥ १७ ॥

नारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! अब जालंधर के अन्तःपुर की स्त्रियों के गोपीरूप में जन्म लेने का वर्णन सुनो। महाराज ! साथ ही उनके कर्मों को भी सुनो, जो सदा ही मनुष्यों के पापों का नाश करने वाले हैं ॥ १ ॥

राजन् ! सप्तनदीके किनारे 'रङ्गपत्तन' नामसे प्रसिद्ध एक उत्तम नगर था, जो सब प्रकार की सम्पदाओंसे सम्पन्न तथा विशाल था । वह दो योजन विस्तृत गोलाकार नगर था। उस नगर का मालिक या पुराधीश रंगोजि नामक एक गोप था, जो महान् बलवान् था । वह पुत्र-पौत्र आदि से संयुक्त तथा धन-धान्य से समृद्धिशाली था ॥ २-३

हस्तिनापुरके स्वामी राजा धृतराष्ट्रको वह सदा एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ वार्षिक करके रूपमें दिया करता था । मिथिलेश्वर ! एक समय वर्ष बीत जानेपर भी धनके मदसे उन्मत्त गोपने राजाको वार्षिक कर नहीं दिया। इतना ही नहीं, वह गोपनायक रंगोजि मिलनेतक नहीं गया। तब धृतराष्ट्रके भेजे हुए दस हजार वीर जाकर उस गोपको बाँधकर हस्तिनापुरमें ले आये। कई वर्षोंतक तो रंगोजि कारागारमें बँधा पड़ा रहा। बाँधे और पीटे जानेपर भी वह लोभी गोप डरा नहीं। उसने राजा धृतराष्ट्रको थोड़ा-सा भी धन नहीं दिया ॥ ४-८ ॥

किसी समय गोपनायक रंगोजि उस महाभयंकर कारागार से भाग निकला तथा रातों-रात रङ्गपुर में आ गया । तब पुनः उसे पकड़ लाने के लिये धृतराष्ट्रकी भेजी हुई शक्तिशाली बल-वाहनसे सम्पन्न तीन अक्षौहिणी सेना गयी। वह गोप भी कवच धारण करके युद्धभूमिमें बारंबार धनुषकी टंकार फैलाता हुआ तीखी धारवाले चमकीले बाणसमूहोंकी वर्षा करके धृतराष्ट्रकी उस सेनाका सामना करने लगा ॥ ९-११

शत्रुओंने उसके कवच और धनुष काट दिये तथा उसके स्वजनोंका भी वध कर डाला; तब वह अपने पुर (दुर्ग) में आकर कुछ दिनोंतक युद्ध चलाता रहा । अन्तमें अनाथ एवं भयसे पीड़ित रंगोजि किसी शरणदाता या रक्षककी इच्छा करने लगा। उसने यादवराज कंसके पास अपना दूत भेजा । दूत मथुरा पहुँचकर राज दरबारमें गया और उसने मस्तक झुकाकर दोनों हाथोंकी अञ्जलि बाँधे उग्रसेनकुमार कंसको प्रणाम करके करुणासे आर्द्र वाणीमें कहा ।। १२-१४ ।।

'महाराज ! रङ्गपत्तन में रंगोजि नाम से प्रसिद्ध एक गोप हैं, जो उस नगरके स्वामी तथा नीतिवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। शत्रुओंने उनके नगर को चारों ओरसे घेर लिया है। वे बड़ी चिन्ता में पड़ गये हैं और अनाथ होकर आपकी शरणमें आये हैं। इस भूतलपर केवल आप ही दीनों और दुःखियोंकी पीड़ा हरनेवाले हैं। भौमासुरादि वीर आपके गुण गाया करते हैं। आप महाबली हैं और देवता, असुर तथा उद्भट भूमिपालोंको युद्धमें जीतकर देवराज इन्द्रके समान अपनी राजधानीमें विराजमान हैं ॥ १५-१६

जैसे चकोर चन्द्रमाको, कमलोंका समुदाय सूर्यको, चातक शरद् ऋतुके बादलोंद्वारा बरसाये गये जलकणोंको, भूखसे व्याकुल मनुष्य अन्नको तथा प्याससे पीड़ित प्राणी पानी को ही याद करता है, उसी प्रकार रंगोजि गोप शत्रुके भयसे आक्रान्त हो केवल आपका स्मरण कर रहे हैं' ।। १७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट१३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट१३)

उद्धव और विदुर की भेंट

नूनं नृपाणां त्रिमदोत्पथानां
    महीं मुहुश्चालयतां चमूभिः ।
वधात्प्रपन्नार्तिजिहीर्षयेशोऽपि
    उपैक्षताघं भगवान् कुरूणाम् ॥ ४३ ॥
अजस्य जन्मोत्पथनाशनाय
    कर्माण्यकर्तुर्ग्रहणाय पुंसाम् ।
नन्वन्यथा कोऽर्हति देहयोगं
    परो गुणानामुत कर्मतंत्रम् ॥ ४४ ॥
तस्य प्रपन्नाखिललोकपानां
    अवस्थितानां अनुशासने स्वे ।
अर्थाय जातस्य यदुष्वजस्य
    वार्तां सखे कीर्तय तीर्थकीर्तेः ॥ ४५ ॥

(विदुरजी कह रहे हैं) यद्यपि कौरवों ने उनके बहुत-से अपराध किये, फिर भी भगवान्‌ ने उनकी इसीलिये उपेक्षा कर दी थी कि वे उनके साथ उन दुष्ट राजाओं को भी मारकर अपने शरणागतों का दु:ख दूर करना चाहते थे, जो धन, विद्या और जातिके मदसे अंधे होकर कुमार्गगामी हो रहे थे और बार-बार अपनी सेनाओंसे पृथ्वी को कँपा रहे थे ॥ ४३ ॥ उद्धवजी ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण जन्म और कर्म से रहित हैं; फिर भी दुष्टों का नाश करनेके लिये और लोगोंको अपनी ओर आकर्षित करनेके लिये उनके दिव्य जन्म-कर्म हुआ करते हैं। नहीं तो, भगवान्‌ की तो बात ही क्या—दूसरे जो लोग गुणोंसे पार हो गये हैं, उनमें भी ऐसा कौन है, जो इस कर्माधीन देहके बन्धनमें पडऩा चाहेगा ॥ ४४ ॥ अत: मित्र ! जिन्होंने अजन्मा होकर भी अपनी शरणमें आये हुए समस्त लोकपाल और आज्ञाकारी भक्तों का प्रिय करनेके लिये यदुकुल में जन्म लिया है, उन पवित्रकीर्ति श्रीहरि की बातें सुनाओ ॥ ४५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 15 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) तेरहवाँ अध्याय

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

तेरहवाँ अध्याय

 

देवाङ्गनास्वरूपा गोपियाँ

 

श्रीनारद उवाच -
अथ देवांगनानां च गोपीनां वर्णनं शृणु ।
 चतुष्पदार्थदं नॄणां भक्तिवर्धनमुत्तमम् ॥ १ ॥
 बभूव मालवे देशे गोपो नन्दो दिवस्पतिः ।
 भार्यासहस्रसंयुक्तो धनवान् नीतिमान्परः ॥ २ ॥
 तीर्थयात्राप्रसंगेन मथुरायां समागतः ।
 नन्दराजं व्रजाधीशं श्रुत्वा श्रीगोकुलं ययौ ॥ ३ ॥
 मिलित्वा गोपराजं स दृष्ट्वा वृन्दावनश्रियम् ।
 नन्दराजाज्ञया तत्र वासं चक्रे महामनाः ॥ ४ ॥
 योजनद्वयमाश्रित्य घोषं चक्रे गवां पुनः ।
 मुदं प्राप व्रजे राजन् ज्ञातिभिः स दिवस्पतिः ॥ ५ ॥
 तस्य देवलवाक्येन सर्वा देवजनस्त्रियः ।
 जाताः कन्या महादिव्या ज्वलदग्निशिखोपमाः ॥ ६ ॥
 श्रीकृष्णं सुन्दरं दृष्ट्वा मोहिताः कन्यकाश्च ताः ।
 दामोदरस्य प्राप्त्यर्थं चक्रुर्माघव्रतं परम् ॥ ७ ॥
 अर्धोदयेऽर्के यमुनां नित्यं स्नात्वा व्रजांगनाः ।
 उच्चैर्जगुः कृष्णलीलां प्रेमानन्दसमाकुलाः ॥ ८ ॥
 तासां प्रसन्नः श्रीकृष्णो वरं ब्रूहीत्युवाच ह ।
 ता ऊचुस्तं परं नत्वा कृताञ्जलिपुटाः शनैः ॥ ९ ॥


 गोप्य ऊचुः -
योगीश्वराणां किल दुर्लभस्त्वं
     सर्वेश्वरः कारणकारणोऽसि ।
 त्वं नेत्रगामी भवतात्सदा नो
     वंशीधरो मन्मथमन्मथांगः ॥ १० ॥
 तथाऽस्तु चोक्त्वा हरिरादिदेवः
     तासां तु यो दर्शनमाततान ।
 भूयात्सदा ते हृदि नेत्रमार्गे
     तथा स आहूत इवाशु चित्ते ॥ ११ ॥
 परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो नान्य एव हि ।
 एककार्यार्थमागत्य कोटिकार्यं चकार ह ॥ १२ ॥
 परिकरीकृतपीतपटं हरिं
     शिखिकिरीटनतीकृतकंधरम् ।
 लकुटवेणुकरं चलकुंडलं
     पटुतरं नतवेषधरं भजे ॥ १३ ॥
 भक्त्यैव वश्यो हरिरादिदेवः
     सदा प्रमाणं किल चात्र गोप्यः ।
 सांख्यं च योगं न कृतं कदापि
     प्रेम्णैव यस्य प्रकृतिं गताः स्युः ॥ १४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— मिथिलेश्वर ! अब देवाङ्गनास्वरूपा गोपियोंका वर्णन सुनो, जो मनुष्योंको चारों पदार्थ देनेवाला तथा उनके भक्तिभावको बढ़ानेवाला सर्वोत्तम साधन है ॥ १ ॥

मालवदेशमें एक गोप थे, जिनका नाम था - दिवस्पति नन्द । उनके एक सहस्र पत्रियाँ थीं। वे बड़े धनवान् और नीतिज्ञ थे। एक समय तीर्थयात्राके प्रसङ्गसे उनका मथुरामें आगमन हुआ। वहाँ व्रजाधीश्वर नन्दराजका नाम सुनकर वे उनसे मिलनेके लिये गोकुल गये ॥ २-३

वहाँ नन्दराजसे मिलकर और वृन्दावनकी शोभा देखकर महामना दिवस्पति नन्द- राजकी आज्ञासे वहीं रहने लगे ॥

उन्होंने दो योजन भूमिको घेरकर गौओंके लिये गोष्ठ बनाया । राजन् उस व्रजमें अपने कुटुम्बी बन्धुजनोंके साथ रहते हुए दिवस्पतिको बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई ॥

देवल मुनिके आदेशसे समस्त देवाङ्गनाएँ उन्हीं दिवस्पतिकी महादिव्य कन्याएँ हुईं, जो प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्विनी थीं ॥ ६॥

किसी समय श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका दर्शन पाकर वे सब कन्याएँ मोहित हो गयीं और उन दामोदरकी प्राप्ति- के लिये उन्होंने परम उत्तम माघ मासका व्रत किया। आधे सूर्यके उदित होते-होते प्रतिदिन वे व्रजाङ्गनाएँ यमुनामें जाकर स्नान करतीं और प्रेमानन्दसे विह्वल हो उच्चस्वरसे श्रीकृष्णकी लीलाएँ गाती थीं । भगवान् श्रीकृष्ण उनपर प्रसन्न होकर बोले- 'तुम कोई वर माँगो ।' तब उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर उन परमात्माको प्रणाम करके उनसे धीरे-धीरे कहा ।। ७–९॥

गोपियाँ बोलीं- प्रभो ! निश्चय ही आप योगीश्वरोंके लिये भी दुर्लभ हैं। सबके ईश्वर तथा कारणोंके भी कारण हैं। आप वंशीधारी हैं। आपका अङ्ग मन्मथके मनको भी मथ डालनेवाला (मोह लेने- वाला) है। आप सदा हमारे नेत्रोंके समक्ष रहें ॥ १० ॥

राजन् ! तब 'तथास्तु' कहकर जिन आदिदेव श्रीहरिने गोपियोंके लिये अपने दर्शनका द्वार उन्मुक्त कर दिया, वे सदा तुम्हारे हृदयमें, नेत्रमार्गमें बसे रहें और बुलाये हुए-से तत्काल चित्तमें आकर स्थित हो जायँ । जिन्होंने कमर में पीताम्बर बाँध रखा है, जिनके सिर पर मोरपंख का मुकुट सुशोभित है और गर्दन झुकी हुई है, जिनके हाथ में बाँसुरी और लकुटी है तथा कानोंमें रत्नमय कुण्डल झलमला रहे हैं, उन पटुतर नटवेषधारी श्रीहरिका मैं भजन करता हूँ। आदिदेव श्रीहरि केवल भक्तिसे ही वशमें होते हैं निश्चय ही इसमें गोपियाँ सदा प्रमाणभूत हैं, जिन्होंने न तो कभी सांख्य का विचार किया योग का अनुष्ठान; केवल प्रेमसे ही वे भगवान्‌ के स्वरूप को प्राप्त हो गयीं ॥। ११ – १४ ॥


इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'देवाङ्गनास्वरूपा गोपियोंका उपाख्यान' नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट१२)

उद्धव और विदुर की भेंट

अहो पृथापि ध्रियतेऽर्भकार्थे
    राजर्षिवर्येण विनापि तेन ।
यस्त्वेकवीरोऽधिरथो विजिग्ये
    धनुर्द्वितीयः ककुभश्चतस्रः ॥ ४० ॥
सौम्यानुशोचे तमधःपतन्तं
    भ्रात्रे परेताय विदुद्रुहे यः ।
निर्यापितो येन सुहृत्स्वपुर्या
    अहं स्वपुत्रान् समनुव्रतेन ॥ ४१ ॥
सोऽहं हरेर्मर्त्यविडम्बनेन
    दृशो नृणां चालयतो विधातुः ।
नान्योपलक्ष्यः पदवीं प्रसादात्
    चरामि पश्यन् गतविस्मयोऽत्र ॥ ४२ ॥

(विदुरजी उद्धवजी से कहरहे हैं) अहो ! बेचारी कुन्ती तो राजर्षिश्रेष्ठ पाण्डु के वियोग में मृतप्राय-सी होकर भी इन बालकों के लिये ही प्राण धारण किये हुए है। रथियों में श्रेष्ठ महाराज पाण्डु ऐसे अनुपम वीर थे कि उन्होंने केवल एक धनुष लेकर ही अकेले चारों दिशाओं को जीत लिया था ॥ ४० ॥ सौम्यस्वभाव उद्धवजी ! मुझे तो अध:पतन की ओर जानेवाले उन धृतराष्ट्र के लिये बार-बार शोक होता है, जिन्होंने पाण्डवों के रूप में अपने परलोकवासी भाई पाण्डु से ही द्रोह किया तथा अपने पुत्रोंकी हाँ-में-हाँ मिलाकर अपने हितचिन्तक मुझको भी नगरसे निकलवा दिया ॥ ४१ ॥ किंतु भाई ! मुझे इसका कुछ भी खेद अथवा आश्चर्य नहीं है। जगद्विधाता भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही मनुष्योंकी-सी लीलाएँ करके लोगों की मनोवृत्तियों को भ्रमित कर देते हैं । मैं तो उन्हींकी  कृपा से उनकी महिमा को देखता हुआ दूसरों की दृष्टि से दूर रहकर सानन्द विचर रहा हूँ ॥ ४२ ॥ 

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सोमवार, 14 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

दिव्यादिव्य, त्रिगुणवृत्तिमयी भूतल-गोपियोंका वर्णन तथा श्रीराधासहित गोपियोंकी श्रीकृष्णके साथ होली


श्रीनारद उवाच -
अथ मानवती राधा मानं त्यक्त्वा समुत्थिता ।
 सखीसंघैः परिवृता प्रकर्तुं होलिकोत्सवम् ॥ १३ ॥
 श्रीखण्डागुरुकस्तूरीहरिद्राकुंकुमद्रवैः ।
 पूरिताभिर्दृतीभिश्च संयुक्तास्ता व्रजांगनाः ॥ १४ ॥
 रक्तहस्ताः पीतवस्त्राः कूजन् नूपुरमेखलाः ।
 गायंत्यो होलिकागीतीः गालीभिर्हास्यसंधिभिः ॥ १५ ॥
 आबीरारुणचूर्णानां मुष्टिभिस्ता इतस्ततः ।
 कुर्वंत्यश्चारुणं भूमिं दिगन्तं चांबरं तथा ॥ १६ ॥
 कोटिशः कोटिशस्तत्र स्फुरंत्याबीरमुष्टयः ।
 सुगंधारुणचूर्णानां कोटिशः कोटिशस्तथा ॥ १७ ॥
 सर्वतो जगृहुः कृष्णं कराभ्यां व्रजगोपिकाः ।
 यथा मेघं च दामिन्यः संध्यायां श्रावणस्य च ॥ १८ ॥
 तन्मुखं च विलिम्पन्त्योऽथाबीरारुणमुष्टिभिः ।
 कुंकुमाक्तदृतीभिस्तं आर्द्रीचक्रुर्विधानतः ॥ १९ ॥
 भगवनपि तत्रैव यावतीर्व्रजयोषितः ।
 धृत्वा रूपाणि तावंति विजहार नृपेश्वर ॥ २० ॥
 राधया शुशुभे तत्र होलिकाया महोत्सवे ।
 वर्षासंध्याक्षणे कृष्णः सौदामिन्या घनो यथा ॥ २१ ॥
 कृष्णोऽपि तद्धस्तकृताक्तनेत्रो
     दत्वा स्वकीयं नवमुत्तरीयम् ।
 ताभ्यो ययौ नन्दगृहं परेशो
     देवेषु वर्षत्सु च पुष्पवर्षम् ॥ २२ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तब मानवती राधा मान छोड़कर उठीं और सखियोंके समूहसे घिरकर होलीका उत्सव मनानेके लिये निकलीं । चन्दन, अगर, कस्तूरी, हल्दी तथा केसरके घोलसे भरी हुई डोलचियाँ लिये वे बहुसंख्यक व्रजाङ्गनाएँ एक साथ होकर चलीं ॥ १-१४

रँगे हुए लाल-लाल हाथ, वासन्ती रंगके पीले वस्त्र, बजते हुए नूपुरोंसे युक्त पैर तथा झनकारती हुई करधनीसे सुशोभित कटिप्रदेश बड़ी मनोहर शोभा थी उन गोपाङ्गनाओंकी । वे हास्ययुक्त गालियोंसे सुशोभित होलीके गीत गा रही थीं। अबीर, गुलालके चूर्ण मुट्ठियोंमें ले-लेकर इधर-उधर फेंकती हुई वे व्रजाङ्गनाएँ भूमि, आकाश और वस्त्रको लाल किये देती थीं। वहाँ अबीरकी करोड़ों मुट्ठियाँ एक साथ उड़ती थीं। सुगन्धित गुलालके चूर्ण भी कोटि-कोटि हांथोंसे बिखेरे जाते थे । १ - १७ ॥

इसी समय व्रजगोपियोंने श्रीकृष्णको चारों ओरसे घेर लिया, मानो सावनकी साँझमें विद्युन्मालाओंने मेघको सब ओरसे अवरुद्ध कर लिया हो। पहले तो उनके मुँहपर खूब अबीर और गुलाल पोत दिया, फिर सारे अङ्गोंपर अबीर-गुलाल बरसाये तथा केसरयुक्त रंग से भरी डोलचियों द्वारा उन्हें विधिपूर्वक भिगोया । नृपेश्वर ! वहाँ जितनी गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण करके भगवान् भी उनके साथ विहार करते रहे। वहाँ होलिका महोत्सव में श्रीकृष्ण श्रीराधाके साथ वैसी ही शोभा पाते थे, जैसे वर्षाकालकी संध्या-वेलामें विद्युन्माला के साथ मेघ सुशोभित होता है। श्रीराधा ने श्रीकृष्ण के नेत्रों में काजल लगा दिया। श्रीकृष्णने भी अपना नया उत्तरीय (दुपट्टा) गोपियोंको उपहार में दे दिया । फिर वे परमेश्वर श्रीनन्दभवन को लौट गये। उस समय समस्त देवता उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ १८-२२ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें होलिकोत्सवके प्रसङ्गमें 'दिव्यादिव्य- त्रिगुणवृत्तिमयी भूतल-गोपियोंका उपाख्यान' नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२ ॥


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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट११)

उद्धव और विदुर की भेंट

अपि स्वदोर्भ्यां विजयाच्युताभ्यां
    धर्मेण धर्मः परिपाति सेतुम् ।
दुर्योधनोऽतप्यत यत्सभायां
    साम्राज्यलक्ष्म्या विजयानुवृत्त्या ॥ ३६ ॥
किं वा कृताघेष्वघमत्यमर्षी
    भीमोऽहिवद्दीर्घतमं व्यमुञ्चत् ।
यस्याङ्‌घ्रिपातं रणभूर्न सेहे
    मार्गं गदायाश्चरतो विचित्रम् ॥ ३७ ॥
कच्चिद् यशोधा रथयूथपानां
    गाण्डीव धन्वोपरतारिरास्ते ।
अलक्षितो यच्छरकूटगूढो
    मायाकिरातो गिरिशस्तुतोष ॥ ३८ ॥
यमावुतस्वित्तनयौ पृथायाः
    पार्थैर्वृतौ पक्ष्मभिरक्षिणीव ।
रेमात उद्दाय मृधे स्वरिक्थं
    परात्सुपर्णाविव वज्रिवक्त्रात् ॥ ३९ ॥

(विदुरजी उद्धवजी से पूछ रहे हैं) महाराज युधिष्ठिर अपनी अर्जुन और श्रीकृष्णरूप दोनों भुजाओं की सहायता से धर्ममर्यादा का न्यायपूर्वक पालन करते हैं न ? मय दानव की बनायी हुई सभा में इनके राज्यवैभव और दबदबे को देखकर दुर्योधनको बड़ा डाह हुआ था ॥ ३६ ॥ 

अपराधियोंके प्रति अत्यन्त असहिष्णु भीमसेनने सर्पके समान दीर्घकालीन क्रोधको छोड़ दिया है क्या ? जब वे गदायुद्धमें तरह-तरहके पैंतरे बदलते थे, तब उनके पैरों की धमक से धरती डोलने लगती थी ॥ ३७ ॥ जिनके बाणों के जालसे छिपकर किरातवेषधारी, अतएव किसी की पहचान में न आनेवाले भगवान्‌ शङ्कर प्रसन्न हो गये थे, वे रथी और यूथपतियोंका सुयश बढ़ानेवाले गाण्डीवधारी अर्जुन तो प्रसन्न हैं न ? अब तो उनके सभी शत्रु शान्त हो चुके होंगे ? ॥ ३८ ॥ पलक जिस प्रकार नेत्रोंकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कुन्तीके पुत्र युधिष्ठिरादि जिनकी सर्वदा सँभाल रखते हैं और कुन्तीने ही जिनका लालन-पालन किया है, वे माद्रीके यमज पुत्र नकुल-सहदेव कुशलसे तो हैं न ? उन्होंने युद्धमें शत्रुसे अपना राज्य उसी प्रकार छीन लिया, जैसे दो गरुड़ इन्द्रके मुखसे अमृत निकाल लायें ॥ ३९ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 13 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

दिव्यादिव्य, त्रिगुणवृत्तिमयी भूतल-गोपियोंका वर्णन तथा श्रीराधासहित गोपियोंकी श्रीकृष्णके साथ होली

 

श्रीनारद उवाच -
इदं मया ते कथितं गोपीनां चरितं शुभम् ।
 अन्यसां चैव गोपीनां वर्णनं शृणु मैथिल ॥ १ ॥
 वीतिहोत्रोऽग्निभुक् सांबः श्रीकरो गोपतिः श्रुतः ।
 व्रजेशः पावनः शांत उपनन्दा व्रजेभवाः ॥ २ ॥
 धनवंतो रूपवंतः पुत्रवंतो बहुश्रुताः ।
 शीलादिगुणसंपनाः सर्वे दानपरायणाः ॥ ३ ॥
 तेषां गृहेषु संजाताः कन्यका देववाक्यतः ।
 काश्चिद्दिव्या अदिव्याश्च तथा त्रिगुणवृत्तयः ॥ ४ ॥
 भूमिगोप्यश्च संजाताः पुण्यैर्नानाविधैः कृतैः ।
 राधिकासहचर्यस्ताः सख्योऽभूवन् विदेहराट् ॥ ५ ॥
 एकदा मानिनीं राधां ताः सर्वा व्रजगोपिकाः ।
 ऊचुर्वीक्ष्य हरिं प्राप्तं होलिकाया महोत्सवे ॥ ६ ॥


 गोप्य ऊचुः -
रंभोरु चन्द्रवदने मधुमानिनीशे
     राधे वचः सुललितं ललने शृणु त्वम् ।
 श्रीहोलिकोत्सवविहारमलं विधातु-
     मायाति ते पुरवने व्रजभूषणोऽयम् ॥ ७ ॥
 श्रीयौवनोन्मदविधूर्णितलोचनोऽसौ
     नीलालकालिकलितां सकपोलगोलः ।
 सत्पीतकंचुकघनांतमशेषमाराद्
     आचालयन्ध्वनिमता स्वपदारुणेन ॥ ८ ॥
 बालार्कमौलिविमलांगदहारमुद्य-
     द्विद्युत्क्षिपन् मकरकुण्डलमादधानः ।
 पीतांबरेण जयति द्युतिमण्डलोऽसौ
     भूमण्डले सधनुषेव घनो दिविस्थः ॥ ९ ॥
 आबीरकुंकुमरसैश्च विलिप्तदेहो
     हस्ते गृहीतनवसेचनयंत्र आरात् ।
 प्रेक्ष्यंस्तवाशु सखि वाटमतीव राधे
     त्वद्‌रासरंगरसकेलिरतः स्थितः सः ॥ १० ॥
 निर्गच्छ फाल्गुनमिषेण विहाय मानं
     दातव्यमद्य च यशः किल होलिकायै ।
 कर्तव्यमाशु निजमन्दिररङ्गवारि-
     पाटीरपंकमकरन्दचयं च तूर्णम् ॥ ११ ॥
 उत्तिष्ठ गच्छ सहसा निजमण्डलीभि-
     र्यत्रास्ति सोऽपि किल तत्र महामते त्वम् ।
 एतादृशोऽपि समयो न कदापि लभ्यः
     प्रक्षालितं करतलं विदितं प्रवाहे ॥ १२ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं— मिथिलेश्वर ! यह मैंने तुमसे गोपियोंके शुभ चरित्रका वर्णन किया है, अब दूसरी गोपियोंका वर्णन सुनो। वीतिहोत्र, अग्निभुक्, साम्बु, श्रीकर, गोपति, श्रुत, व्रजेश, पावन तथा शान्त — ये व्रजमें उत्पन्न हुए नौ उपनन्दोंके नाम हैं। वे सब-के-सब धनवान्, रूपवान् पुत्रवान् बहुत-से शास्त्रोंका ज्ञान रखनेवाले, शील-सदाचारादि गुणोंसे सम्पन्न तथा दानपरायण हैं ॥ १-

इनके घरों में देवताओं की आज्ञा के अनुसार जो कन्याएँ उत्पन्न हुईं, उनमें से कोई दिव्य, कोई अदिव्य तथा कोई त्रिगुणवृत्तिवाली थीं। वे सब नाना प्रकारके पूर्वकृत पुण्योंके फलस्वरूप भूतलपर गोपकन्याओंके रूपमें प्रकट हुई थीं। विदेहराज ! वे सब श्रीराधिकाके साथ रहनेवाली उनकी सखियाँ थीं। एक दिनकी बात है, होलिका- महोत्सवपर श्रीहरिको आया हुआ देख उन समस्त व्रजगोपिकाओंने मानिनी श्रीराधासे कहा ॥ -६ ॥

गोपियाँ बोलीं- रम्भोरु ! चन्द्रवदने ! मधु- मानिनि ! स्वामिनि ! ललने ! श्रीराधे ! हमारी यह सुन्दर बात सुनो। ये व्रजभूषण नन्दनन्दन तुम्हारी बरसाना-नगरीके उपवनमें होलिकोत्सव-विहार करने- के लिये आ रहे हैं। शोभासम्पन्न यौवनके मदसे मत्त उनके चञ्चल नेत्र घूम रहे हैं। घुँघराली नीली अलकावली उनके कंधों और कपोलमण्डलको चूम रही है | शरीरपर पीले रंगका रेशमी जामा अपनी घनीं शोभा बिखेर रहा है। वे बजते हुए नूपुरोंकी ध्वनिसे युक्त अपने अरुण चरणारविन्दोंद्वारा सबका ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं ॥ ७-८

उनके मस्तकपर बालरवि के समान कान्तिमान् मुकुट है। वे भुजाओं में विमल अङ्गद, वक्षःस्थल पर हार और कानों में विद्युत् को भी विलज्जित करनेवाले मकराकार कुण्डल धारण किये हुए हैं। इस भूमण्डल पर पीताम्बर की पीत प्रभासे सुशोभित उनका श्याम कान्तिमण्डल उसी प्रकार उत्कृष्ट शोभा पा रहा है, जैसे आकाशमें इन्द्रधनुषसे युक्त मेघमण्डल सुशोभित होता है ॥

अबीर और केसर के रस से उनका सारा अङ्ग लिप्त हैं। उन्होंने हाथमें नयी पिचकारी ले रखी है तथा सखि राधे ! तुम्हारे साथ रासरङ्गकी रसमयी क्रीडामें निमग्न रहनेवाले वे श्यामसुन्दर तुम्हारे शीघ्र निकलनेकी राह देखते हुए पास ही खड़े हैं । तुम भी मान छोड़कर फगुआ (होली) के बहाने निकलो । निश्चय ही आज होलिकाको यश देना चाहिये और अपने भवनमें तुरंत ही रंग-मिश्रित जल, चन्दनके पङ्क और मकरन्द ( इत्र आदि पुष्परस) का अधिक मात्रामें संचय कर लेना चाहिये। परम बुद्धिमती प्यारी सखी! उठो और सहसा अपनी सखीमण्डलीके साथ उस स्थानपर चलो, जहाँ वे श्यामसुन्दर भी मौजूद हों। ऐसा समय फिर कभी नहीं मिलेगा। बहती धारा में हाथ धो लेना चाहिये - यह कहावत सर्वत्र विदित है ॥ १० – १२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट१०)

उद्धव और विदुर की भेंट

कच्चिच्छिवं देवकभोजपुत्र्या
    विष्णुप्रजाया इव देवमातुः ।
या वै स्वगर्भेण दधार देवं
    त्रयी यथा यज्ञवितानमर्थम् ॥ ३३ ॥
अपिस्विदास्ते भगवान् सुखं वो
    यः सात्वतां कामदुघोऽनिरुद्धः ।
यमामनन्ति स्म हि शब्दयोनिं
    मनोमयं सत्त्वतुरीयतत्त्वम् ॥ ३४ ॥
अपिस्विदन्ये च निजात्मदैवं
    अनन्यवृत्त्या समनुव्रता ये ।
हृदीकसत्यात्मज चारुदेष्ण
    गदादयः स्वस्ति चरन्ति सौम्य ॥ ३५ ॥

(विदुरजी उद्धवजी से पूछ रहे हैं) भोजवंशी देवक की पुत्री देवकी जी अच्छी तरह हैं न, जो देवमाता अदितिके समान ही साक्षात् विष्णुभगवान्‌ की माता हैं ? जैसे वेदत्रयी यज्ञविस्ताररूप अर्थको अपने मन्त्रोंमें धारण किये रहती है, उसी प्रकार उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्णको अपने गर्भमें धारण किया था ॥ ३३ ॥ आप भक्तजनों की कामनाएँ पूर्ण करनेवाले भगवान्‌ अनिरुद्ध जी सुखपूर्वक हैं न,जिन्हें शास्त्र वेदों के आदिकारण और अन्त:करणचतुष्टय के चौथे अंश मन के अधिष्ठाता बतलाते हैं [*] ॥ ३४ ॥ सौम्यस्वभाव उद्धवजी ! अपने हृदयेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णका अनन्यभावसे अनुसरण करनेवाले जो हृदीक, सत्यभामानन्दन चारुदेष्ण और गद आदि अन्य भगवान्‌ के पुत्र हैं, वे सब भी कुशलपूर्वक हैं न ? ॥ ३५ ॥ 
.......................................................
[*] चित्त, अहंकार, बुद्धि और मन—ये अन्त:करणके चार अंश है। इनके अधिष्ठाता क्रमश: वासुदेव,सङ्कर्षण,प्रद्युम्न और अनिरुद्ध हैं।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 12 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

लक्ष्मीजीकी सखियोंका वृषभानुओंके घरोंमें कन्यारूपसे उत्पन्न होकर माघ मासके व्रतसे श्रीकृष्णको रिझाना और पाना

 

 गोप्य ऊचुः -
कस्त्वं योगिन्नाम किं ते कुत्र वासस्तु ते मुने ।
 का वृत्तिस्तव का सिद्धिर्वद नो वदतां वर ॥ १३ ॥


 सिद्ध उवाच -
योगेश्वरोऽहं मे वासः सदा मानसरोवरे ।
 नाम्ना स्वयंप्रकाशोऽहं निरन्नः स्वबलात्सदा ॥ १४ ॥
 सार्थे परमहंसानां याम्यहं हे व्रजांगनाः ।
 भूतं भव्यं वर्तमानं वेद्म्यहं दिव्यदर्शनः ॥ १५ ॥
 उच्चाटनं मारणं च मोहनं स्तंबनं तथा ।
 जानामि मंत्रविद्याभिः वशीकरणमेव च ॥ १६ ॥


 गोप्य ऊचुः -
यदि जानासि योगिंस्त्वं वार्तां कालत्रयोद्‌भवाम् ।
 किं वर्तते नो मनसि वद तर्हि महामते ॥ १७ ॥


 सिद्ध उवाच -
भवतीनां च कर्णांते कथनीयमिदं वचः ।
 युष्मदाज्ञया वा वक्ष्ये सर्वेषां शृण्वतामिह ॥ १८ ॥


 गोप्य ऊचुः -
सत्यं योगेश्वरोऽसि त्वं त्रिकालज्ञो न संशयः ।
 वशीकरणमंत्रेण सद्यः पठनमात्रतः ॥ १९ ॥
 यदि सोऽत्रैव चायाति चिंतितो योऽस्ति वै मुने ।
 तदा मन्यामहे त्वां वै मंत्रिणां प्रवरं परम् ॥ २० ॥


 सिद्ध उवाच -
दुर्लभो दुर्घटो भावो युष्माभिर्गदितः स्त्रियः ।
 तथाप्यहं करिष्यामि वाक्यं न चलते सताम् ॥ २१ ॥
 निमीलयत नेत्राणि मा शोचं कुरुत स्त्रियः ।
 भविष्यति न संदेहो युष्माकं कार्यमेव च ॥ २२ ॥


 श्रीनारद उवाच -
तथेति मीलिताक्षीषु गोपीषु भगवान्हरिः ।
 विहाय तद्योगिरूपं बभौ श्रीनन्दनन्दनः ॥ २३ ॥
 नेत्राण्युन्मील्य ददृशुः सानन्दं नन्दनन्दनम् ।
 विस्मितास्तत्प्रभावज्ञा हर्षिता मोहमागताः ॥ २४ ॥
 माघमासे महारासे पुण्ये वृन्दावने वने ।
 ताभिः सार्द्धं हरी रेमे सुरीभिः सुरराडिव ॥ २५ ॥

गोपियोंने पूछा- योगीबाबा ! तुम्हारा नाम क्या है ? मुनिजी ! तुम रहते कहाँ हो ? तुम्हारी वृत्ति क्या है और तुमने कौन-सी सिद्धि पायी है ? वक्ताओं में श्रेष्ठ ! हमें ये सब बातें बताओ ॥१३॥

सिद्धयोगीने कहा- मैं योगेश्वर हूँ और सदा मानसरोवर में निवास करता हूँ। मेरा नाम स्वयंप्रकाश है। मैं अपनी शक्तिसे सदा बिना खाये पीये ही रहता हूँ। व्रजाङ्गनाओ ! परमहंसोंका जो अपना स्वार्थ- आत्मसाक्षात्कार है, उसीकी सिद्धिके लिये मैं जा रहा हूँ। मुझे दिव्यदृष्टि प्राप्त हो चुकी है। मैं भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंकी बातें जानता हूँ । मन्त्र- विद्याद्वारा उच्चाटन, मारण, मोहन, स्तम्भन तथा वशीकरण भी जानता हूँ । १४ – १६ ॥

गोपियोंने पूछा- योगीबाबा ! तुम तो बड़े बुद्धिमान् हो । यदि तुम्हें तीनों कालोंकी बातें ज्ञात हैं तो बताओ न, हमारे मनमें क्या है ? ।। १७ ।।

सिद्धयोगीने कहा- यह बात तो आप- लोगोंके कानमें कहनेयोग्य है । अथवा यदि आप- लोगोंकी आज्ञा हो तो सब लोगोंके सामने ही कह डालूँ ॥ १८ ॥

गोपियाँ बोलीं- मुने! तुम सचमुच योगेश्वर हो । तुम्हें तीनोंकालोंका ज्ञान है, इसमें संशय नहीं यदि तुम्हारे वशीकरण मन्त्रसे, उसके पाठ करनेमात्रसे तत्काल वे यहीं आ जायँ, जिनका कि हम मन-ही-मन चिन्तन करती हैं, तब हम मानेंगी कि तुम मन्त्रज्ञों में सबसे श्रेष्ठ हो । १९-२० ।।

सिद्धयोगीने कहा - व्रजाङ्गनाओ ! तुमने तो ऐसा भाव व्यक्त किया है, जो परम दुर्लभ और दुष्कर है; तथापि मैं तुम्हारी मनोनीत वस्तुको प्रकट करूँगा; क्योंकि सत्पुरुषोंकी कही हुई बात झूठ नहीं होती । व्रजकी वनिताओ ! चिन्ता न करो; अपनी आँखें मूँद लो। तुम्हारा कार्य अवश्य सिद्ध होगा, इसमें संशय नहीं है ।। २१-२२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! 'बहुत अच्छा' कहकर जब गोपियोंने अपनी आँखें मूँद लीं, तब भगवान् श्रीहरि योगीका रूप छोड़कर श्रीनन्दनन्दन्के रूपमें प्रकट हो गये। गोपियोंने आँखें खोलकर देखा तो सामने नन्दनन्दन सानन्द मुस्करा रहे हैं। पहले ती वे अत्यन्त विस्मित हुईं, फिर योगीका प्रभाव जाननेपर उन्हें हर्ष हुआ और प्रियतमका वह मोहन रूप देखकर वे मोहित हो गयीं । तदनन्तर माघ मासके महारासमें पावन वृन्दावनके भीतर श्रीहरिने उन गोपाङ्गनाओं के साथ उसी प्रकार विहार किया, जैसे देवाङ्गनाओंके साथ देवराज इन्द्र करते हैं ।। २३–२५ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें रमावैकुण्ठ, श्वेतद्वीप, ऊर्ध्ववैकुण्ठ, अजितपद तथा श्रीलोकाचलमें निवास करनेवाली 'लक्ष्मीजीकी सखियोंके गोपीरूपमें प्रकट होनेका आख्यान' नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०९)

उद्धव और विदुर की भेंट

कच्चिद् हरेः सौम्य सुतः सदृक्ष
    आस्तेऽग्रणी रथिनां साधु साम्बः ।
असूत यं जाम्बवती व्रताढ्या
    देवं गुहं योऽम्बिकया धृतोऽग्रे ॥ ३० ॥
क्षेमं स कच्चिद् युयुधान आस्ते
    यः फाल्गुनात् लब्धधनूरहस्यः ।
लेभेऽञ्जसाधोक्षजसेवयैव
    गतिं तदीयां यतिभिर्दुरापाम् ॥ ३१ ॥
कच्चिद् बुधः स्वस्त्यनमीव
    आस्ते श्वफल्कपुत्रो भगवत्प्रपन्नः ।
यः कृष्णपादाङ्‌कितमार्गपांसु-
    ष्वचेष्टत प्रेमविभिन्नधैर्यः ॥ ३२ ॥

(विदुरजी उद्धवजी से पूछ रहे हैं) सौम्य ! अपने पिता श्रीकृष्ण के समान समस्त रथियों में अग्रगण्य श्रीकृष्णतनय साम्ब सकुशल तो हैं ? ये पहले पार्वती जी के द्वारा गर्भमें धारण किये हुए स्वामिकार्तिक हैं । अनेकों व्रत करके जाम्बवती ने इन्हें जन्म दिया था ॥ ३० ॥ जिन्होंने अर्जुन से रहस्ययुक्त धनुर्विद्या की शिक्षा पायी है, वे सात्यकि तो कुशलपूर्वक हैं ? वे भगवान्‌ श्रीकृष्ण की सेवा से अनायास ही भगवज्जनों की उस महान् स्थिति पर पहुँच गये हैं, जो बड़े-बड़े योगियों को भी दुर्लभ है ॥ ३१ ॥ भगवान्‌ के शरणागत निर्मल भक्त बुद्धिमान् अक्रूरजी भी प्रसन्न हैं न, जो श्रीकृष्णके चरण-चिह्नोंसे अङ्कित व्रजके मार्गकी रजमें प्रेमसे अधीर होकर लोटने लगे थे ? ॥ ३२ ॥ 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०१) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन श्र...