गुरुवार, 28 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०६)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

श्रद्धा त्वङ्‌गिरसः पत्नीश चतस्रोऽसूत कन्यकाः ।
सिनीवाली कुहू राका चतुर्थ्यनुमतिस्तथा ॥ ३४ ॥
तत्पुत्रावपरावास्तां ख्यातौ स्वारोचिषेऽन्तरे ।
उतथ्यो भगवान् साक्षात् ब्रह्मिष्ठश्च बृहस्पतिः ॥ ३५ ॥
पुलस्त्योऽजनयत्पत्न्यांय अगस्त्यं च हविर्भुवि ।
सोऽन्यजन्मनि दह्राग्निः विश्रवाश्च महातपाः ॥ ३६ ॥
तस्य यक्षपतिर्देवः कुबेरस्त्विडविडासुतः ।
रावणः कुम्भकर्णश्च तथान्यस्यां विभीषणः ॥ ३७ ॥
पुलहस्य गतिर्भार्या त्रीनसूत सती सुतान् ।
कर्मश्रेष्ठं वरीयांसं सहिष्णुं च महामते ॥ ३८ ॥
क्रतोरपि क्रिया भार्या वालखिल्यानसूयत ।
ऋषीन्षष्टिसहस्राणि ज्वलतो ब्रह्मतेजसा ॥ ३९ ॥
ऊर्जायां जज्ञिरे पुत्रा वसिष्ठस्य परंतप ।
चित्रकेतुप्रधानास्ते सप्त ब्रह्मर्षयोऽमलाः ॥ ४० ॥
चित्रकेतुः सुरोचिश्च विरजा मित्र एव च ।
उल्बणो वसुभृद्यानो द्युमान् शक्त्यादयोऽपरे ॥ ४१ ॥
चित्तिस्त्वथर्वणः पत्नीम लेभे पुत्रं धृतव्रतम् ।
दध्यञ्चमश्वशिरसं भृगोर्वंशं निबोध मे ॥ ४२ ॥

अङ्गिरा की पत्नी श्रद्धा ने सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति—इन चार कन्याओं को जन्म दिया ॥ ३४ ॥ इनके सिवा उनके साक्षात् भगवान्‌ उतथ्यजी और ब्रह्मनिष्ठ बृहस्पतिजी—ये दो पुत्र भी हुए, जो स्वारोचिष मन्वन्तर में विख्यात हुए ॥ ३५ ॥ पुलस्त्यजी के उनकी पत्नी हविर्भू से महर्षि अगस्त्य और महातपस्वी विश्रवा—ये दो पुत्र हुए। इनमें अगस्त्यजी दूसरे जन्म में जठराग्नि हुए ॥ ३६ ॥ विश्रवा मुनिके इडविडाके गर्भसे यक्षराज कुबेरका जन्म हुआ और उनकी दूसरी पत्नी केशिनी से रावण, कुम्भकर्ण एवं विभीषण उत्पन्न हुए ॥ ३७ ॥ 
महामते ! महर्षि पुलहकी स्त्री परम साध्वी गतिसे कर्मश्रेष्ठ, वरीयान् और सहिष्णु—ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ३८ ॥ इसी प्रकार क्रतुकी पत्नी क्रियाने ब्रह्मतेजसे देदीप्यमान बालखिल्यादि साठ हजार ऋषियोंको जन्म दिया ॥ ३९ ॥ शत्रुतापन विदुरजी ! वसिष्ठजीकी पत्नी ऊर्जा (अरुन्धती) से चित्रकेतु आदि सात विशुद्धचित्त ब्रहमर्षियों का जन्म हुआ ॥४०॥ उनके नाम चित्रकेतु, सुरोचि, विरजा, मित्र, उल्बण, वसुभृद्यान और द्युमान् थे। इनके सिवा उनकी दूसरी पत्नीसे शक्ति आदि और भी कई पुत्र हुए ॥ ४१ ॥ अथर्वा मुनिकी पत्नी चित्तिने दध्यङ् (दधीचि) नामक एक तपोनिष्ठ पुत्र प्राप्त किया, जिसका दूसरा नाम अश्वशिरा भी था। अब भृगुके वंशका वर्णन सुनो ॥ ४२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 27 अगस्त 2025

#जय श्री गजानन#

#श्री गणेशाय नम:#

श्री गणेशचतुर्थी पर्व की हार्दिक शुभ कामनाएं !!
(भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी)

गजाननं भूतगणादिसेवितं 
कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम् ।
उमासुतं शोकविनाशकारकं 
नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम् ॥

भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मध्याह्न के समय विघ्नविनाशक श्री गणेश का जन्म हुआ था | अत: यह तिथि मध्याह्नव्यापिनी लेनी चाहिए | इस दिन रविवार अथवा मंगलवार हो तो प्रशस्त है | गणेश जी हिन्दुओं के प्रथमपूज्य देवता हैं | सनातन धर्मानुयायी स्मार्तों के पञ्चदेवताओं में गणेशजी प्रमुख हैं | हिन्दुओं के घर में चाहे पूजा या क्रियाकर्म हो, सर्वप्रथम श्रीगणेश जी का आवाहन और पूजन किया जाता है | शुभ कार्यों में गणेश जी की स्तुति का अत्यन्त महत्त्व माना गया है | गणेशजी विघ्नों को दूर करने वाले देवता हैं | इनका मुख हाथी का, उदर लंबा तथा शेष शरीर मनुष्य के सामान है | मोदक इन्हें विशेषप्रिय है | बंगाल की दुर्गापूजा की तरह महाराष्ट्र में गणेशपूजा एक राष्ट्रिय पर्व के रूप में प्रतिष्ठित है |

गणेशचतुर्थी के दिन नक्तव्रत का विधान है | अत: भोजन सांयकाल करना चाहिए तथा पूजा यथासंभव मध्याह्न में ही करनी चाहिए, क्योंकि---
“पूजाव्रतेषु सर्वेषु मध्याह्नव्यापिनी तिथि: |”

....अर्थात् सभी पूजा-व्रतों में मध्याह्नव्यापिनी तिथि लेनी चाहिए |

भाद्रपद शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि को प्रात:काल स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर अपनी शक्ति के अनुसार सोने,चाँदी ,तांबे,मिट्टी, पीतल अथवा गोबर से गणेश की प्रतिमा बनाए या बनी हुई प्रतिमा का पुराणों में वर्णित गणेश जी के गजानन, लम्बोदरस्वरूप का ध्यान करे और अक्षत-पुष्प लेकर निम्न संकल्प करे—

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: अद्य दक्षिणायने सूर्ये वर्षर्तौ भाद्रपदमासे शुक्लपक्षे गणेशचतुर्थ्यां तिथौ अमुकगोत्रोऽमुक शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहं विद्याऽऽरोगीपुत्रधनप्राप्तिपूर्वकं सपरिवारस्य मम सर्वसंकटनिवारणार्थं श्रीगणपतिप्रसादसिद्धये चतुर्थीव्रतांगत्वेन श्रीगणपतिदेवस्य यथालब्धोपचारै: पूजनं करिष्ये |

हाथ में लिए हुए अक्षत-पुष्प इत्यादि गणेशजीके पास छोड़ दें |

इसके बाद विघ्नेश्वर का यथाविधि “ ॐ गं गणपतये नम:” से पूजन कर दक्षिणा के पश्चात् आरती कर गणेशजी को नमस्कार करे एवं गणेशजी की मूर्त पर सिंदूर चढ़ाए | मोदक और दूर्वा की इस पूजा में विशेषता है | अत: पूजा के अवसर पर 21 दूर्वादल भी रखें | तथा उनमें से 2-2 दूर्वा निम्नलिखित दस नाममन्त्रों से क्रमश: चढ़ाएं ----

१-ॐ गणाधिपाय नम: , २- ॐ उमापुत्राय नम:, ३- ॐ विघ्ननाशनाय नम:,४- ॐ विनायकाय नम:, ५-ॐ ईशपुत्राय नम:, ६-ॐ सर्वसिद्धिप्रदाय नम:, ७-ॐ एकदन्ताय नम:, ८-इभवक्त्राय नम:, ९-ॐ मूषकवाहनाय नम:, १०- ॐ कुमारगौरवे नम: |

पश्चात् दसों नामों का एक साथ उच्चारण कर अवशिष्ट एक दूब चढ़ाएं | इसी प्रकार 21 लड्डू भी गणेशपूजा में आवश्यक होते हैं | इक्कीस लड्डू का भोग रखकर पांच लड्डू मूर्ति के पास चढ़ाएं और पांच, ब्राह्मण को दे दें एवं शेष को प्रसाद स्वरूप में स्वयं लेलें तथा परिवार के लोगों में बाँट दें | पूजन की यह विधि चतुर्थी के मध्याह्न में करें | ब्राह्मणभोजन कराकर दक्षिणा दे और स्वयं भोजन करें |

पूजन के पश्चात् नीचे लिखे वह सब सामग्री ब्राह्मण को निवेदन करें |

“दानेनानेन देवेश प्रीतो भव गणेश्वर |
सर्वत्र सर्वदा देव निर्विघ्नं कुरु सर्वदा |
मानोन्नतिं च राज्यं च पुत्रपौत्रान् प्रदेहि मे |”

इस व्रत से मनोवांछित कार्य सिद्ध होते हैं, क्योंकि विघ्नहर गणेशजी के प्रसान्न होने पर क्या दुर्लभ है ? गणेशजी का यह पूजन बुद्धि, विद्या, तथा ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति एवं विघ्नों के नाश के लिए किया जाता है |

कई व्यक्ति श्रीगणेशसहस्रनामावली के एक हजार नामों से प्रत्येक नाम के उच्चारण के साथ लड्डू अथवा दूर्वादल आदि श्रीगणेशजी को अर्पित करते हैं | इसे गणपतिसहस्रार्चन कहा जाता है |

..........कल्याण व्रतपर्वोत्सव-अंक


श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०५)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

मैत्रेय उवाच -
इति तस्य वचः श्रुत्वा त्रयस्ते विबुधर्षभाः ।
प्रत्याहुः श्लक्ष्णया वाचा प्रहस्य तं ऋषिं प्रभो ॥ २९ ॥

देवा ऊचुः -
यथा कृतस्ते सङ्‌कल्पो भाव्यं तेनैव नान्यथा ।
सत्सङ्‌कल्पस्य ते ब्रह्मन् यद्वै ध्यायति ते वयम् ॥ ३० ॥
अथास्मद् अंशभूतास्ते आत्मजा लोकविश्रुताः ।
भवितारोऽङ्‌ग भद्रं ते विस्रप्स्यन्ति च ते यशः ॥ ३१ ॥
एवं कामवरं दत्त्वा प्रतिजग्मुः सुरेश्वराः ।
सभाजितास्तयोः सम्यग् दम्पत्योर्मिषतोस्ततः ॥ ३२ ॥
सोमोऽभूद्ब्र ह्मणोंऽशेन दत्तो विष्णोस्तु योगवित् ।
दुर्वासाः शंकरस्यांशो निबोधाङ्‌गिरसः प्रजाः ॥ ३३ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—समर्थ विदुरजी ! अत्रिमुनि के वचन सुनकर वे तीनों देव हँसे और उनसे सुमधुर वाणी में कहने लगे ॥ २९ ॥
देवताओं ने कहा—ब्रह्मन् ! तुम सत्यसङ्कल्प हो । अत: तुमने जैसा सङ्कल्प किया था, वही होना चाहिये। उससे विपरीत कैसे हो सकता था ? तुम जिस ‘जगदीश्वर’ का ध्यान करते थे, वह हम तीनों ही हैं ॥ ३० ॥ प्रिय महर्षे ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे यहाँ हमारे ही अंशस्वरूप तीन जगद्विख्यात पुत्र उत्पन्न होंगे और तुम्हारे सुन्दर यशका विस्तार करेंगे ॥ ३१ ॥
उन्हें इस प्रकार अभीष्ट वर देकर तथा पति-पत्नी दोनोंसे भलीभाँति पूजित होकर उनके देखते- ही-देखते वे तीनों सुरेश्वर अपने-अपने लोकोंको चले गये ॥ ३२ ॥ ब्रह्माजीके अंशसे चन्द्रमा,विष्णुके अंशसे योगवेत्ता दत्तात्रेयजी और महादेवजीके अंशसे दुर्वासा ऋषि अत्रिके पुत्ररूपमें प्रकट हुए। अब अङ्गिरा ऋषिकी सन्तानों का वर्णन सुनो ॥ ३३ ॥

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मंगलवार, 26 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०४)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

तत्प्रादुर्भावसंयोग विद्योतितमना मुनिः ।
उत्तिष्ठन्नेकपादेन ददर्श विबुधर्षभान् ॥ २३ ॥
प्रणम्य दण्डवद्भूरमौ उपतस्थेऽर्हणाञ्जलिः ।
वृषहंससुपर्णस्थान् स्वैः स्वैश्चिह्नैश्च चिह्नितान् ॥ २४ ॥
कृपावलोकेन हसद् वदनेनोपलम्भितान् ।
तद् रोचिषा प्रतिहते निमील्य मुनिरक्षिणी ॥ २५ ॥
चेतस्तत्प्रवणं युञ्जन् नस्तावीत्संहताञ्जलिः ।
श्लक्ष्णया सूक्तया वाचा सर्वलोकगरीयसः ॥ २६ ॥

अत्रिरुवाच -
विश्वोद्भचवस्थितिलयेषु विभज्यमानैः
     मायागुणैरनुयुगं विगृहीतदेहाः ।
ते ब्रह्मविष्णुगिरिशाः प्रणतोऽस्म्यहं वः
     तेभ्यः क एव भवतां मे इहोपहूतः ॥ २७ ॥
एको मयेह भगवान् विविधप्रधानैः
     चित्तीकृतः प्रजननाय कथं नु यूयम् ।
अत्रागतास्तनुभृतां मनसोऽपि दूराद्
     ब्रूत प्रसीदत महानिह विस्मयो मे ॥ २८ ॥

उन तीनों का (ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का) एक ही साथ प्रादुर्भाव होने से अत्रिमुनि का अन्त:करण प्रकाशित हो उठा। उन्होंने एक पैरसे खड़े-खड़े ही उन देवदेवों को देखा और फिर पृथ्वी पर दण्ड के समान लोटकर प्रणाम करनेके अनन्तर अर्घ्य-पुष्पादि पूजन की सामग्री हाथ में ले उनकी पूजा की । वे तीनों अपने-अपने वाहन—हंस, गरुड और बैलपर चढ़े हुए तथा अपने कमण्डलु, चक्र, त्रिशूलादि चिह्नोंसे सुशोभित थे ॥२३-२४॥ उनकी आँखोंसे कृपाकी वर्षा हो रही थी। उनके मुखपर मन्द हास्यकी रेखा थी—जिससे उनकी प्रसन्नता झलक रही थी। उनके तेजसे चौंधियाकर मुनिवरने अपनी आँखें मूँद लीं ॥ २५ ॥ वे चित्तको उन्हींकी ओर लगाकर हाथ जोड़ अतिमधुर और सुन्दर भावपूर्ण वचनोंमें लोकमें सबसे बड़े उन तीनों देवोंकी स्तुति करने लगे ॥ २६ ॥ अत्रिमुनि ने कहा—भगवन् ! प्रत्येक कल्पके आरम्भमें जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लयके लिये जो मायाके सत्त्वादि तीनों गुणोंका विभाग करके भिन्न-भिन्न शरीर धारण करते हैं—वे ब्रह्मा, विष्णु और महादेव आप ही हैं; मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कहिये—मैंने जिनको बुलाया था, आपमेंसे वे कौन महानुभाव हैं ? ॥ २७ ॥ क्योंकि मैंने तो सन्तानप्राप्ति की इच्छासे केवल एक सुरेश्वर भगवान्‌का ही चिन्तन किया था। फिर आप तीनोंने यहाँ पधारनेकी कृपा कैसे की ? आपलोगों तक तो देहधारियों के मनकी भी गति नहीं है, इसलिये मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। आपलोग कृपा करके मुझे इसका रहस्य बतलाइये ॥ २८ ॥

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सोमवार, 25 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०३)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

विदुर उवाच -
अत्रेर्गृहे सुरश्रेष्ठाः स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः ।
किञ्चित् चिकीर्षवो जाता एतदाख्याहि मे गुरो ॥ १६ ॥

मैत्रेय उवाच -
ब्रह्मणा चोदितः सृष्टौ अत्रिर्ब्रह्मविदां वरः ।
सह पत्न्याो ययावृक्षं कुलाद्रिं तपसि स्थितः ॥ १७ ॥
तस्मिन् प्रसूनस्तबक पलाशाशोककानने ।
वार्भिः स्रवद्‌भिरुद्घुेष्टे निर्विन्ध्यायाः समन्ततः ॥ १८ ॥
प्राणायामेन संयम्य मनो वर्षशतं मुनिः ।
अतिष्ठत् एकपादेन निर्द्वन्द्वोऽनिलभोजनः ॥ १९ ॥
शरणं तं प्रपद्येऽहं य एव जगदीश्वरः ।
प्रजां आत्मसमां मह्यं प्रयच्छत्विति चिन्तयन् ॥ २० ॥
तप्यमानं त्रिभुवनं प्राणायामैधसाग्निना ।
निर्गतेन मुनेर्मूर्ध्नः समीक्ष्य प्रभवस्त्रयः ॥ २१ ॥
अप्सरोमुनिगन्धर्व सिद्धविद्याधरोरगैः ।
वितायमानयशसः तदा आश्रमपदं ययुः ॥ २२ ॥

विदुरजीने पूछा—गुरुजी ! कृपया यह बतलाइये कि जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और अन्त करने वाले इन सर्वश्रेष्ठ देवों ने अत्रिमुनि के यहाँ क्या करने की इच्छा से अवतार लिया था ? ॥१६॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—जब ब्रह्माजीने ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ महर्षि अत्रिको सृष्टि रचनेके लिये आज्ञा दी, तब वे अपनी सहधर्मणीके सहित तप करनेके लिये ऋक्षनामक कुलपर्वतपर गये ॥ १७ ॥ वहाँ पलाश और अशोक के वृक्षोंका एक विशाल वन था। उसके सभी वृक्ष फूलों के गुच्छों से लदे थे तथा उसमें सब ओर निर्विन्ध्या नदीके जलकी कलकल ध्वनि गूँजती रहती थी ॥ १८ ॥ उस वनमें वे मुनिश्रेष्ठ प्राणायामके द्वारा चित्तको वशमें करके सौ वर्षतक केवल वायु पीकर सरदी-गरमी आदि द्वन्द्वोंकी कुछ भी परवा न कर एक ही पैरसे खड़े रहे ॥ १९ ॥ उस समय वे मन-ही-मन यही प्रार्थना करते थे कि ‘जो कोई सम्पूर्ण जगत् के ईश्वर हैं, मैं उनकी शरणमें हूँ; वे मुझे अपने ही समान सन्तान प्रदान करें’ ॥ २० ॥ तब यह देखकर कि प्राणायामरूपी र्ईंधनसे प्रज्वलित हुआ अत्रिमुनिका तेज उनके मस्तकसे निकलकर तीनों लोकोंको तपा रहा है—ब्रह्मा, विष्णु और महादेव—तीनों जगत्पति उनके आश्रमपर आये। उस समय अप्सरा, मुनि, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर और नाग—उनका सुयश गा रहे थे ॥ २१-२२ ॥ 

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रविवार, 24 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

तां कामयानां भगवान् उवाह यजुषां पतिः ।
तुष्टायां तोषमापन्नोऽ जनयद् द्वादशात्मजान् ॥ ॥ ६ ॥
तोषः प्रतोषः सन्तोषो भद्रः शान्तिरिडस्पतिः ।
इध्मः कविर्विभुः स्वह्नः सुदेवो रोचनो द्विषट् ॥ ७ ॥
तुषिता नाम ते देवा आसन् स्वायम्भुवान्तरे ।
मरीचिमिश्रा ऋषयो यज्ञः सुरगणेश्वरः ॥ ८ ॥
प्रियव्रतोत्तानपादौ मनुपुत्रौ महौजसौ ।
तत्पुत्रपौत्रनप्तॄणां अनुवृत्तं तदन्तरम् ॥ ९ ॥
देवहूतिमदात् तात कर्दमायात्मजां मनुः ।
तत्संबन्धि श्रुतप्रायं भवता गदतो मम ॥ १० ॥
दक्षाय ब्रह्मपुत्राय प्रसूतिं भगवान्मनुः ।
प्रायच्छद्यत्कृतः सर्गः त्रिलोक्यां विततो महान् ॥ ११ ॥
याः कर्दमसुताः प्रोक्ता नव ब्रह्मर्षिपत्नायः ।
तासां प्रसूतिप्रसवं प्रोच्यमानं निबोध मे ॥ १२ ॥
पत्नी  मरीचेस्तु कला सुषुवे कर्दमात्मजा ।
कश्यपं पूर्णिमानं च ययोः आपूरितं जगत् ॥ १३ ॥
पूर्णिमासूत विरजं विश्वगं च परन्तप ।
देवकुल्यां हरेः पाद शौचाद्याभूत्सरिद्दिवः ॥ १४ ॥
अत्रेः पत्न्येनसूया त्रीन् जज्ञे सुयशसः सुतान् ।
दत्तं दुर्वाससं सोमं आत्मेशब्रह्मसम्भवान् ॥ १५ ॥

(श्रीमैत्रेयजी कहते हैं) जब दक्षिणा विवाह के योग्य हुई तो उसने यज्ञ भगवान्‌ को ही पतिरूप में प्राप्त करने की इच्छा की, तब भगवान्‌ यज्ञपुरुष ने उससे विवाह किया। इससे दक्षिणा को बड़ा सन्तोष हुआ । भगवान्‌ ने प्रसन्न होकर उससे बारह पुत्र उत्पन्न किये ॥ ६ ॥ उनके नाम हैं—तोष, प्रतोष, सन्तोष, भद्र, शान्ति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव और रोचन ॥ ७ ॥ ये ही स्वायम्भुव मन्वन्तर में ‘तुषित’ नामके देवता हुए । उस मन्वन्तर में मरीचि आदि सप्तर्षि थे, भगवान्‌ यज्ञ ही देवताओं के अधीश्वर इन्द्र थे और महान् प्रभावशाली प्रियव्रत एवं उत्तानपाद मनुपुत्र थे। वह मन्वन्तर उन्हीं दोनों के बेटों, पोतों और दौहित्रों के वंशसे छा गया ॥ ८-९ ॥ प्यारे विदुरजी ! मनुजी ने अपनी दूसरी कन्या देवहूति कर्दमजी को ब्याही थी। उसके सम्बन्धकी प्राय: सभी बातें तुम मुझसे सुन चुके हो ॥ १० ॥ भगवान्‌ मनु ने अपनी तीसरी कन्या प्रसूति का विवाह ब्रह्माजी के पुत्र दक्षप्रजापति से किया था; उसकी विशाल वंशपरम्परा तो सारी त्रिलोकी में फैली हुई है ॥ ११ ॥ मैं कर्दमजी की नौ कन्याओं का, जो नौ ब्रहमर्षियों से ब्याही गयी थीं, पहले ही वर्णन कर चुका हूँ। अब उनकी वंशपरम्पराका वर्णन करता हूँ, सुनो ॥ १२ ॥ मरीचि ऋषि की पत्नी कर्दमजी की बेटी कलासे कश्यप और पूर्णिमा नामक दो पुत्र हुए, जिनके वंश से यह सारा जगत् भरा हुआ है ॥ १३ ॥ शत्रुतापन विदुरजी ! पूर्णिमा के विरज और विश्वग नामके दो पुत्र तथा देवकुल्या नाम की एक कन्या हुई। यही दूसरे जन्म में श्रीहरिके चरणों के धोवन से देवनदी गङ्गा के रूप में प्रकट हुई ॥ १४ ॥ अत्रि की पत्नी अनसूया से दत्तात्रेय, दुर्वासा और चन्द्रमा नाम के तीन परम यशस्वी पुत्र हुए । ये क्रमश: भगवान्‌ विष्णु, शङ्कर और ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए थे ॥ १५ ॥

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शनिवार, 23 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

मैत्रेय उवाच -

मनोस्तु शतरूपायां तिस्रः कन्याश्च जज्ञिरे ।
आकूतिर्देवहूतिश्च प्रसूतिरिति विश्रुताः ॥ १ ॥
आकूतिं रुचये प्रादाद् अपि भ्रातृमतीं नृपः ।
पुत्रिकाधर्ममाश्रित्य शतरूपानुमोदितः ॥ २ ॥
प्रजापतिः स भगवान् रुचिस्तस्यां अजीजनत् ।
मिथुनं ब्रह्मवर्चस्वी परमेण समाधिना ॥ ३ ॥
यस्तयोः पुरुषः साक्षात् विष्णुर्यज्ञस्वरूपधृक् ।
या स्त्री सा दक्षिणा भूतेः अंशभूतानपायिनी ॥ ४ ॥
आनिन्ये स्वगृहं पुत्र्याः पुत्रं विततरोचिषम् ।
स्वायम्भुवो मुदा युक्तो रुचिर्जग्राह दक्षिणाम् ॥ ५ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! स्वायम्भुव मनु के महारानी शतरूपा से प्रियव्रत और उत्तानपाद—इन दो पुत्रों के सिवा तीन कन्याएँ भी हुई थीं; वे आकूति, देवहूति और प्रसूति नामसे विख्यात थीं ॥ १ ॥ आकूति का, यद्यपि उसके भाई थे तो भी, महारानी शतरूपाकी अनुमति से उन्होंने रुचि प्रजापति के साथ ‘पुत्रिकाधर्म’ के [*] अनुसार विवाह किया ॥ २ ॥
प्रजापति रुचि भगवान्‌ के अनन्य चिन्तन के कारण ब्रह्मतेज से सम्पन्न थे । उन्होंने आकूति के गर्भ से एक पुरुष और स्त्री का जोड़ा उत्पन्न किया ॥ ३ ॥ उनमें जो पुरुष था, वह साक्षात् यज्ञस्वरूपधारी भगवान्‌ विष्णु थे और जो स्त्री थी, वह भगवान्‌ से कभी अलग न रहनेवाली लक्ष्मीजी की अंशस्वरूपा ‘दक्षिणा’ थी ॥ ४ ॥ मनुजी अपनी पुत्री आकूतिके उस परमतेजस्वी पुत्र को बड़ी प्रसन्नता से अपने घर ले आये और दक्षिणा को रुचि प्रजापति ने अपने पास रखा ॥ ५ ॥
....................................................
[*] ‘पुत्रिका धर्म’ के अनुसार किये जाने वाले विवाह में यह शर्त होती है कि कन्या के जो पहला पुत्र होगा, उसे कन्या के पिता ले लेंगे ।

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शुक्रवार, 22 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति

एवं सा कपिलोक्तेन मार्गेणाचिरतः परम् ।
आत्मानं ब्रह्मनिर्वाणं भगवन्तं अवाप ह ॥ ३० ॥
तद्वीरासीत् पुण्यतमं क्षेत्रं त्रैलोक्यविश्रुतम् ।
नाम्ना सिद्धपदं यत्र सा संसिद्धिमुपेयुषी ॥ ३१ ॥
तस्यास्तद्योगविधुतं आर्त्यं मर्त्यमभूत्सरित् ।
स्रोतसां प्रवरा सौम्य सिद्धिदा सिद्धसेविता ॥ ३२ ॥
कपिलोऽपि महायोगी भगवान् पितुराश्रमात् ।
मातरं समनुज्ञाप्य प्राग् उदीचीं दिशं ययौ ॥ ३३ ॥
सिद्धचारण गन्धर्वैः मुनिभिश्च अप्सरोगणैः ।
स्तूयमानः समुद्रेण दत्तार्हणनिकेतनः ॥ ३४ ॥
आस्ते योगं समास्थाय साङ्ख्याचार्यैरभिष्टुतः ।
त्रयाणामपि लोकानां उपशान्त्यै समाहितः ॥ ३५ ॥
एतन्निगदितं तात यत्पृष्टोऽहं तवानघ ।
कपिलस्य च संवादो देवहूत्याश्च पावनः ॥ ३६ ॥
य इदमनुशृणोति योऽभिधत्ते
     कपिलमुनेर्मतं आत्मयोगगुह्यम् ।
भगवति कृतधीः सुपर्णकेतौ
     उपलभते भगवत् पदारविन्दम् ॥ ३७ ॥

विदुरजी ! इस प्रकार देवहूतिजीने कपिलदेवजीके बताये हुये मार्गद्वारा थोड़े ही समयमें नित्य- मुक्त परमात्मस्वरूप श्रीभगवान्‌को प्राप्त कर लिया ॥ ३० ॥ वीरवर ! जिस स्थानपर उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई थी, वह परम पवित्र क्षेत्र त्रिलोकीमें ‘सिद्धपद’ नामसे विख्यात हुआ ॥ ३१ ॥ 
साधुस्वभाव विदुरजी ! योगसाधन के द्वारा उनकेशरीरके सारे दैहिक मल दूर हो गये थे। वह एक नदीके रूपमें परिणत हो गया, जो सिद्धगणसे सेवित और सब प्रकारकी सिद्धि देनेवाली है ॥ ३२ ॥ महायोगी भगवान्‌ कपिलजी भी माताकी आज्ञा ले पिताके आश्रमसे ईशानकोणकी ओर चले गये ॥ ३३ ॥ वहाँ स्वयं समुद्रने उनका पूजन करके उन्हें स्थान दिया। वे तीनों लोकोंको शान्ति प्रदान करनेके लिये योगमार्गका अवलम्बन कर समाधिमें स्थित हो गये हैं। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, मुनि और अप्सरागण उनकी स्तुति करते हैं तथा सांख्याचार्यगण भी उनका सब प्रकार स्तवन करते रहते हैं ॥ ३४-३५ ॥
निष्पाप विदुरजी ! तुम्हारे पूछनेसे मैंने तुम्हें यह भगवान्‌ कपिल और देवहूतिका परम पवित्र संवाद सुनाया ॥ ३६ ॥ यह कपिलदेवजीका मत अध्यात्मयोग का गूढ़ रहस्य है । जो पुरुष इसका श्रवण या वर्णन करता है, वह भगवान्‌ गरुडध्वज की भक्ति से युक्त होकर शीघ्र ही श्रीहरि के चरणारविन्दों को प्राप्त करता है ॥ ३७ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कापिलेयोपाख्याने त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥

तीसरा स्कन्ध समाप्त

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गुरुवार, 21 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति

ब्रह्मण्यवस्थितमतिः भगवति आत्मसंश्रये ।
निवृत्तजीवापत्तित्वात् क्षीणक्लेशाऽऽप्त निर्वृतिः ॥ २६ ॥
नित्यारूढसमाधित्वात् परावृत्तगुणभ्रमा ।
न सस्मार तदाऽऽत्मानं स्वप्ने दृष्टमिवोत्थितः ॥ २७ ॥
तद्देहः परतः पोषोऽपि अकृशश्चाध्यसम्भवात् ।
बभौ मलैरवच्छन्नः सधूम इव पावकः ॥ २८ ॥
स्वाङ्गं तपोयोगमयं मुक्तकेशं गताम्बरम् ।
दैवगुप्तं न बुबुधे वासुदेवप्रविष्टधीः ॥ २९ ॥

इस प्रकार जीव के अधिष्ठानभूत परब्रह्म श्रीभगवान्‌ में ही बुद्धिकी स्थिति हो जानेसे उनका (देवहूतिजी का) जीवभाव निवृत्त हो गया और वे समस्त क्लेशोंसे मुक्त होकर परमानन्दमें निमग्न हो गयीं ॥ २६ ॥ अब निरन्तर समाधिस्थ रहनेके कारण उनकी विषयोंके सत्यत्व की भ्रान्ति मिट गयी और उन्हें अपने शरीरकी भी सुधि न रही—जैसे जागे हुए पुरुषको अपने स्वप्नमें देखे हुए शरीरकी नहीं रहती ॥ २७ ॥ उनके शरीरका पोषण भी दूसरोंके द्वारा ही होता था। किन्तु किसी प्रकारका मानसिक क्लेश न होनेके कारण वह दुर्बल नहीं हुआ। उसका तेज और भी निखर गया और वह मैलके कारण धूमयुक्त अग्नि के समान सुशोभित होने लगा। उनके बाल बिथुर गये थे और वस्त्र भी गिर गया था; तथापि निरन्तर श्रीभगवान्‌ में ही चित्त लगा रहनेके कारण उन्हें अपने तपोयोगमय शरीर की कुछ भी सुधि नहीं थी, केवल प्रारब्ध ही उसकी रक्षा करता था ॥ २८-२९ ॥

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बुधवार, 20 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति

वनं प्रव्रजिते पत्यौ अपत्यविरहातुरा ।
ज्ञाततत्त्वाप्यभून्नष्टे वत्से गौरिव वत्सला ॥ २१ ॥
तमेव ध्यायती देवं अपत्यं कपिलं हरिम् ।
बभूवाचिरतो वत्स निःस्पृहा तादृशे गृहे ॥ २२ ॥
ध्यायती भगवद्‌रूपं यदाह ध्यानगोचरम् ।
सुतः प्रसन्नवदनं समस्तव्यस्तचिन्तया ॥ २३ ॥
भक्तिप्रवाहयोगेन वैराग्येण बलीयसा ।
युक्तानुष्ठानजातेन ज्ञानेन ब्रह्महेतुना ॥ २४ ॥
विशुद्धेन तदात्मानं आत्मना विश्वतोमुखम् ।
स्वानुभूत्या तिरोभूत मायागुणविशेषणम् ॥ २५ ॥

पति के वनगमन के अनन्तर पुत्र का भी वियोग हो जाने से वे(देवहूतिजी) आत्मज्ञानसम्पन्न होकर भी ऐसी व्याकुल हो गयीं, जैसे बछड़े के बिछुड़ जाने से उसे प्यार करनेवाली गौ ॥ २१ ॥ वत्स विदुर ! अपने पुत्र कपिलदेवरूप भगवान्‌ हरिका ही चिन्तन करते-करते वे कुछ ही दिनोंमें ऐसे ऐश्वर्यसम्पन्न घरसे भी उपरत हो गयीं ॥ २२ ॥ फिर वे, कपिलदेवजीने भगवान्‌के जिस ध्यान करनेयोग्य वदनारविन्दयुक्त स्वरूपका वर्णन किया था, उसके एक-एक अवयवका तथा उस समग्र रूपका भी चिन्तन करती हुई ध्यानमें तत्पर हो गयीं ॥ २३ ॥ भगवद्भक्तिके प्रवाह, प्रबल वैराग्य और यथोचित्त कर्मानुष्ठानसे उत्पन्न हुए ब्रह्म साक्षात्कार करानेवाले ज्ञानद्वारा चित्त शुद्ध हो जानेपर वे उस सर्वव्यापक आत्माके ध्यानमें मग्न हो गयीं, जो अपने स्वरूपके प्रकाशसे मायाजनित आवरणको दूर कर देता है ॥ २४-२५ ॥ 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) ध्रुवका वन-गमन मैत्रेय उवाच - मातुः सपत्न्याःा स दुर...