॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पाँचवाँ
अध्याय..(पोस्ट१३)
हिरण्यकशिपु
के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न
इति
तच्चिन्तया किञ्चिन्म्लानश्रियमधोमुखम्
शण्डामर्कावौशनसौ
विविक्त इति होचतुः ||४८||
जितं
त्वयैकेन जगत्त्रयं भ्रुवो-
र्विजृम्भणत्रस्तसमस्तधिष्ण्यपम्
न
तस्य चिन्त्यं तव नाथ चक्ष्वहे
न
वै शिशूनां गुणदोषयोः पदम् ||४९||
इमं
तु पाशैर्वरुणस्य बद्ध्वा
निधेहि
भीतो न पलायते यथा
बुद्धिश्च
पुंसो वयसार्यसेवया
यावद्गुरुर्भार्गव
आगमिष्यति ||५०||
इस
प्रकार सोच-विचार करते-करते उसका चेहरा कुछ उतर गया। शुक्राचार्य के पुत्र शण्ड और
अमर्क ने जब देखा कि हिरण्यकशिपु तो मुँह लटकाकर बैठा हुआ है, तब उन्होंने एकान्त में जाकर उससे यह बात कही— ॥ ४८
॥ ‘स्वामी ! आपने अकेले ही तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर
ली। आपके भौंहें टेढ़ी करनेपर ही सारे लोकपाल काँप उठते हैं। हमारे देखने में तो
आपके लिये चिन्ता की कोई बात नहीं है। भला, बच्चोंके खिलवाड़
में भी भलाई-बुराई सोचने की कोई बात है ॥ ४९ ॥ जब तक हमारे पिता शुक्राचार्य जी
नहीं आ जाते, तब तक यह डरकर कहीं भाग न जाय। इसलिये इसे
वरुणके पाशों से बाँध रखिये। प्राय: ऐसा होता है कि अवस्था की वृद्धि के साथ-साथ
और गुरुजनों की सेवा से बुद्धि सुधर जाया करती है’ ॥ ५० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से