सोमवार, 26 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– बारहवाँ अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्ध बारहवाँ अध्याय (पोस्ट०२)

 

श्रीमद्भागवत की संक्षिप्त विषय-सूची

 

 मन्वन्तरानुकथनं गजेन्द्रस्य विमोक्षणम् ।

 मन्वन्तरावताराश्च विष्णोर्हयशिरादयः ॥ १९ ॥

 कौर्मं धान्वतरं मात्स्यं वामनं च जगत्पतेः ।

 क्षीरोदमथनं तद्वद् अमृतार्थे दिवौकसाम् ॥ २० ॥

 देवासुरमहायुद्धं राजवंशानुकीर्तनम् ।

 इक्ष्वाकुजन्म तद्वंशः सुद्युम्नस्य महात्मनः ॥ २१ ॥

 इलोपाख्यानमत्रोक्तं तारोपाख्यानमेव च ।

 सूर्यवंशानुकथनं शशादाद्या नृगादयः ॥ २२ ॥

 सौकन्यं चाथ शर्यातेः ककुत्स्थस्य च धीमतः ।

 खट्वाङ्‌गस्य च मान्धातुः सौभरेः सगरस्य च ॥ २३ ॥

 रामस्य कोशलेन्द्रस्य चरितं किल्बिषापहम् ।

 निमेरङ्‌गपरित्यागो जनकानां च सम्भवः ॥ २४ ॥

 रामस्य भार्गवेन्द्रस्य निःक्षतृईकरणं भुवः ।

 ऐलस्य सोमवंशस्य ययातेर्नहुषस्य च ॥ २५ ॥

 दौष्मन्तेर्भरतस्यापि शान्तनोस्तत्सुतस्य च ।

 ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशोऽनुकीर्तितः ॥ २६ ॥

 यत्रावतीर्णो भगवान् कृष्णाख्यो जगदीश्वरः ।

 वसुदेवगृहे जन्म ततो वृद्धिश्च गोकुले ॥ २७ ॥

 तस्य कर्माण्यपाराणि कीर्तितान्यसुरद्विषः ।

 पूतनासुपयःपानं शकटोच्चाटनं शिशोः ॥ २८ ॥

 तृणावर्तस्य निष्पेषः तथैव बकवत्सयोः ।

 धेनुकस्य सहभ्रातुः प्रलम्बस्य च संक्षयः ॥ २९ ॥

 गोपानां च परित्राणं दावाग्नेः परिसर्पतः ।

 दमनं कालियस्याहेः महाहेर्नन्दमोक्षणम् ॥ ३० ॥

 व्रतचर्या तु कन्यानां यत्र तुष्टोऽच्युतो व्रतैः ।

 प्रसादो यज्ञपत्‍नीभ्यो विप्राणां चानुतापनम् ॥ ३१ ॥

 गोवर्धनोद्धारणं च शक्रस्य सुरभेरथ ।

 यज्ञभिषेकं कृष्णस्य स्त्रीभिः क्रीडा च रात्रिषु ॥ ३२ ॥

 शङ्‌खचूडस्य दुर्बुद्धेः वधोऽरिष्टस्य केशिनः ।

 अक्रूरागमनं पश्चात् प्रस्थानं रामकृष्णयोः ॥ ३३ ॥

 व्रजस्त्रीणां विलापश्च मथुरालोकनं ततः ।

 गजमुष्टिकचाणूर कंसादीनां तथा वधः ॥ ३४ ॥

 मृतस्यानयनं सूनोः पुनः सान्दीपनेर्गुरोः ।

 मथुरायां निवसता यदुचक्रस्य यत्प्रियम् ।

 कृतमुद्धवरामाभ्यां युतेन हरिणा द्विजाः ॥ ३५ ॥

 जरासन्धसमानीत सैन्यस्य बहुशो वधः ।

 घातनं यवनेन्द्रस्य कुशस्थल्या निवेशनम् ॥ ३६ ॥

 आदानं पारिजातस्य सुधर्मायाः सुरालयात् ।

 रुक्मिण्या हरणं युद्धे प्रमथ्य द्विषतो हरेः ॥ ३७ ॥

 हरस्य जृम्भणं युद्धे बाणस्य भुजकृन्तनम् ।

 प्राग्ज्योतिषपतिं हत्वा कन्यानां हरणं च यत् ॥ ३८ ॥

 चैद्यपौण्ड्रकशाल्वानां दन्तवक्रस्य दुर्मतेः ।

 शम्बरो द्विविदः पीठो मुरः पञ्चजनादयः ॥ ३९ ॥

 माहात्म्यं च वधस्तेषां वाराणस्याश्च दाहनम् ।

 भारावतरणं भूमेः निमित्तीकृत्य पाण्डवान् ॥ ४० ॥

 

आठवें स्कन्धमें मन्वन्तरोंकी कथा, गजेन्द्रमोक्ष, विभिन्न मन्वन्तरोंमें होनेवाले जगदीश्वर भगवान्‌ विष्णुके अवतार—कूर्म, मत्स्य, वामन, धन्वन्तरि, हयग्रीव आदि; अमृत-प्राप्तिके लिये देवताओं और दैत्योंका समुद्र-मन्थन और देवासुर-संग्राम आदि विषयोंका वर्णन है। नवें स्कन्धमें मुख्यत: राजवंशोंका वर्णन है। इक्ष्वाकुके जन्म-कर्म, वंश-विस्तार, महात्मा सुद्युम्र, इला एवं ताराके उपाख्यान—इन सबका वर्णन किया गया है। सूर्यवंशका वृत्तान्त, शशाद और नृग आदि राजाओंका वर्णन, सुकन्याका चरित्र, शर्याति, खट्वाङ्ग, मान्धाता, सौभरि, सगर, बुद्धिमान् ककुत्स्थ और कोसलेन्द्र भगवान्‌ रामके सर्वपापहारी चरित्रका वर्णन भी इसी स्कन्धमें है। तदनन्तर निमिका देह- त्याग और जनकोंकी उत्पत्तिका वर्णन है ॥ १९-२४ ॥ भृगुवंशशिरोमणि परशुरामजीका क्षत्रियसंहार, चन्द्रवंशी नरपति पुरूरवा, ययाति, नहुष, दुष्यन्तनन्दन भरत, शन्तनु और उनके पुत्र भीष्म आदिकी संक्षिप्त कथाएँ भी नवम स्कन्धमें ही हैं। सबके अन्तमें ययातिके बड़े लडक़े यदुका वंशविस्तार कहा गया है ॥ २५-२६ ॥

शौनकादि ऋषियो ! इसी यदुवंशमें जगत्पति भगवान्‌ श्रीकृष्णने अवतार ग्रहण किया था। उन्होंने अनेक असुरोंका संहार किया। उनकी लीलाएँ इतनी हैं कि कोई पार नहीं पा सकता। फिर भी दशम स्कन्धमें उनका कुछ कीर्तन किया गया है। वसुदेवकी पत्नी देवकीके गर्भसे उनका जन्म हुआ। गोकुलमें नन्दबाबाके घर जाकर बढ़े। पूतनाके प्राणोंको दूधके साथ पी लिया। बचपनमें ही छकड़ेको उलट दिया ॥ २७-२८ ॥ तृणावर्त, बकासुर एवं वत्सासुरको पीस डाला। सपरिवार धेनुकासुर और प्रलम्बासुरको मार डाला ॥ २९ ॥ दावानलसे घिरे गोपोंकी रक्षा की। कालिय नागका दमन किया। अजगरसे नन्दबाबाको छुड़ाया ॥ ३० ॥ इसके बाद गोपियोंने भगवान्‌को पतिरूपसे प्राप्त करनेके लिये व्रत किया और भगवान्‌ श्रीकृष्णने प्रसन्न होकर उन्हें अभिमत वर दिया। भगवान्‌ ने यज्ञपत्नियोंपर कृपा की। उनके पतियों—ब्राह्मणोंको बड़ा पश्चत्ताप हुआ ॥ ३१ ॥ गोवद्र्धनधारणकी लीला करनेपर इन्द्र और कामधेनुने आकर भगवान्‌का यज्ञाभिषेक किया। शरद् ऋतुकी रात्रियोंमें व्रजसुन्दरियोंके साथ रासक्रीड़ा की ॥ ३२ ॥ दुष्ट शङ्खचूड, अरिष्ट, और केशीके वधकी लीला हुई। तदनन्तर अक्रूरजी मथुरासे वृन्दावन आये और उनके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा बलरामजीने मथुराके लिये प्रस्थान किया ॥ ३३ ॥ उस प्रसंगपर व्रज-सुन्दरियोंने जो विलाप किया था, उसका वर्णन है। राम और श्यामने मथुरामें जाकर वहाँकी सजावट देखी और कुवलयापीड़ हाथी, मुष्टिक, चाणूर एवं कंस आदिका संहार किया ॥ ३४ ॥ सान्दीपनि गुरुके यहाँ विद्याध्ययन करके उनके मृत पुत्रको लौटा लाये। शौनकादि ऋषियो ! जिस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण मथुरामें निवास कर रहे थे, उस समय उन्होंने उद्धव और बलरामजीके साथ यदुवंशियोंका सब प्रकारसे प्रिय और हित किया ॥ ३५ ॥ जरासन्ध कई बार बड़ी-बड़ी सेनाएँ लेकर आया और भगवान्‌ने उनका उद्धार करके पृथ्वीका भार हलका किया। कालयवनको मुचुकुन्दसे भस्म करा दिया। द्वारकापुरी बसाकर रातों-रात सबको वहाँ पहुँचा दिया ॥ ३६ ॥ स्वर्गसे कल्पवृक्ष एवं सुधर्मा सभा ले आये। भगवान्‌ने दल-के-दल शत्रुओंको युद्धमें पराजित करके रुक्मिणीका हरण किया ॥ ३७ ॥ बाणासुरके साथ युद्धके प्रसङ्गमें महादेवजीपर ऐसा बाण छोड़ा कि वे जँभाई लेने लगे और इधर बाणसुरकी भुजाएँ काट डालीं। प्राग्ज्योतिषपुर के स्वामी भौमासुर को मारकर सोलह हजार कन्याएँ ग्रहण कीं ॥ ३८ ॥ शिशुपाल, पौण्ंड्रक, शाल्व, दुष्ट दन्तवक्त्र, शम्बरासुर, द्विविद, पीठ, मुर, पञ्चजन आदि दैत्योंके बल-पौरुषका वर्णन करके यह बात बतलायी गयी कि भगवान्‌ने उन्हें कैसे-कैसे मारा। भगवान्‌के चक्रने काशीको जला दिया और फिर उन्होंने भारतीय युद्धमें पाण्डवोंको निमित्त बनाकर पृथ्वीका बहुत बड़ा भार उतार दिया ॥ ३९-४० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– बारहवाँ अध्याय (पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्ध बारहवाँ अध्याय (पोस्ट०१)

 

श्रीमद्भागवत की संक्षिप्त विषय-सूची

 

 सूत उवाच -

 नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे ।

 ब्रह्मणेभ्यो नमस्कृत्य धर्मान् वक्ष्ये सनातनान् ॥ १ ॥

 एतद् वः कथितं विप्रा विष्णोश्चरितमद्‌भुतम् ।

 भवद्‌भिः यदहं पृष्टो नराणां पुरुषोचितम् ॥ २ ॥

 अत्र सङ्‌कीर्तितः साक्षात् सर्वपापहरो हरिः ।

 नारायणो हृषीकेशो भगवान् सात्वतां पतिः ॥ ३ ॥

 अत्र ब्रह्म परं गुह्यं जगतः प्रभवाप्ययम् ।

 ज्ञानं च तदुपाख्यानं प्रोक्तं विज्ञानसंयुतम् ॥ ४ ॥

 भक्तियोगः समाख्यातो वैराग्यं च तदाश्रयम् ।

 पारीक्षितं उपाख्यानं नारदाख्यानमेव च ॥ ५ ॥

 प्रायोपवेशो राजर्षेः विप्रशापात् परीक्षितः ।

 शुकस्य ब्रह्मर्षभस्य संवादश्च परीक्षितः ॥ ६ ॥

 योगधारणयोत्क्रान्तिः संवादो नारदाजयोः ।

 अवतारानुगीतं च सर्गः प्राधानिकोऽग्रतः ॥ ७ ॥

 विदुरोद्धवसंवादः क्षत्तृमैत्रेययोस्ततः ।

 पुराणसंहिताप्रश्नो महापुरुषसंस्थितिः ॥ ८ ॥

 ततः प्राकृतिकः सर्गः सप्त वैकृतिकाश्च ये ।

 ततो ब्रह्माण्डसम्भूतिः वैराजः पुरुषो यतः ॥ ९ ॥

 कालस्य स्थूलसूक्ष्मस्य गतिः पद्मसमुद्‌भवः ।

 भुव उद्धरणेऽम्भोधेः हिरण्याक्षवधो यथा ॥ १० ॥

 ऊर्ध्वतिर्यगवाक्सर्गो रुद्रसर्गस्तथैव च ।

 अर्धनारीश्वरस्याथ यतः स्वायंभुवो मनुः ॥ ११ ॥

 शतरूपा च या स्त्रीणां आद्या प्रकृतिरुत्तमा ।

 सन्तानो धर्मपत्‍नीनां कर्दमस्य प्रजापतेः ॥ १२ ॥

 अवतारो भगवतः कपिलस्य महात्मनः ।

 देवहूत्याश्च संवादः कपिलेन च धीमता ॥ १३ ॥

 नवब्रह्मसमुत्पत्तिः दक्षयज्ञविनाशनम् ।

 ध्रुवस्य चरितं पश्चात् पृथोः प्राचीनबर्हिषः ॥ १४ ॥

 नारदस्य च संवादः ततः प्रैयव्रतं द्विजाः ।

 नाभेस्ततोऽनुचरितं ऋषभस्य भरतस्य च ॥ १५ ॥

 द्वीपवर्षसमुद्राणां गिरिनद्युपवर्णनम् ।

 ज्योतिश्चक्रस्य संस्थानं पातालनरकस्थितिः ॥ १६ ॥

 दक्षजन्म प्रचेतोभ्यः तत्पुत्रीणां च सन्ततिः ।

 यतो देवासुरनराः तिर्यङ्‌नगखगादयः ॥ १७ ॥

 त्वाष्ट्रस्य जन्मनिधनं पुत्रयोश्च दितेर्द्विजाः ।

 दैत्येश्वरस्य चरितं प्रह्रादस्य महात्मनः ॥ १८ ॥

 

सूतजी कहते हैं—भगवद्भक्तिरूप महान् धर्मको नमस्कार है। विश्वविधाता भगवान्‌ श्रीकृष्णको नमस्कार है। अब मैं ब्राह्मणोंको नमस्कार करके श्रीमद्भागवतोक्त सनातन धर्मोंका संक्षिप्त विवरण सुनाता हूँ ॥ १ ॥ शौनकादि ऋषियो ! आपलोगोंने मुझसे जो प्रश्र किया था, उसके अनुसार मैंने भगवान्‌ विष्णुका यह अद्भुत चरित्र सुनाया। यह सभी मनुष्योंके श्रवण करनेयोग्य है ॥ २ ॥ इस श्रीमद्भागवतपुराण में सर्वपापापहारी स्वयं भगवान्‌ श्रीहरिका ही संकीर्तन हुआ है। वे ही सबके हृदयमें विराजमान, सबकी इन्द्रियोंके स्वामी और प्रेमी भक्तोंके जीवनधन हैं ॥ ३ ॥ इस श्रीमद्भागवत- पुराणमें परम रहस्यमय—अत्यन्त गोपनीय ब्रह्मतत्त्वका वर्णन हुआ है। उस ब्रह्ममें ही इस जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकी प्रतीति होती है। इस पुराणमें उसी परमतत्त्वका अनुभवात्मक ज्ञान और उसकी प्राप्तिके साधनोंका स्पष्ट निर्देश है ॥ ४ ॥

शौनकजी ! इस महापुराणके प्रथम स्कन्धमें भक्तियोगका भलीभाँति निरूपण हुआ है और साथ ही भक्तियोगसे उत्पन्न एवं उसको स्थिर रखनेवाले वैराग्यका भी वर्णन किया गया है। परीक्षित्‌की कथा और व्यास-नारद-संवादके प्रसङ्गसे नारदचरित्र भी कहा गया है ॥ ५ ॥ राजर्षि परीक्षित्‌ ब्राह्मणका शाप हो जानेपर किस प्रकार गङ्गातटपर अनशन-व्रत लेकर बैठ गये और ऋषिप्रवर श्रीशुकदेवजीके साथ किस प्रकार उनका संवाद प्रारम्भ हुआ, यह कथा भी प्रथम स्कन्धमें ही है ॥ ६ ॥

योगधारणाके द्वारा शरीरत्यागकी विधि, ब्रह्मा और नारदका संवाद, अवतारोंकी संक्षिप्त चर्चा तथा महत्तत्त्व आदिके क्रमसे प्राकृतिक सृष्टिकी उत्पत्ति आदि विषयोंका वर्णन द्वितीय स्कन्धमें हुआ है ॥ ७ ॥

तीसरे स्कन्धमें पहले-पहल विदुरजी और उद्धवजीके, तदनन्तर विदुर तथा मैत्रेयजीके समागम और संवादका प्रसङ्ग है। इसके पश्चात् पुराणसंहिताके विषयमें प्रश्र है और फिर प्रलयकालमें परमात्मा किस प्रकार स्थित रहते हैं, इसका निरूपण है ॥ ८ ॥ गुणोंके क्षोभसे प्राकृतिक सृष्टि और महत्तत्त्व आदि सात प्रकृति-विकृतियोंके द्वारा कार्य-सृष्टिका वर्णन है। इसके बाद ब्रह्माण्डकी उत्पत्ति और उसमें विराट् पुरुषकी स्थितिका स्वरूप समझाया गया है ॥ ९ ॥ तदनन्तर स्थूल और सूक्ष्म कालका स्वरूप, लोक-पद्मकी उत्पत्ति, प्रलय-समुद्रसे पृथ्वीका उद्धार करते समय वराहभगवान्‌के द्वारा हिरण्याक्षका वध; देवता, पशु, पक्षी और मनुष्योंकी सृष्टि एवं रुद्रोंकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग है। इसके पश्चात् उस अद्र्धनारी-नरके स्वरूपका विवेचन है, जिससे स्वायम्भुव मनु और स्त्रियोंकी अत्यन्त उत्तम आद्या प्रकृति शतरूपाका जन्म हुआ था। कर्दम प्रजापतिका चरित्र, उनसे मुनिपत्नियोंका जन्म, महात्मा भगवान्‌ कपिलका अवतार और फिर कपिलदेव तथा उनकी माता देवहूतिके संवादका प्रसङ्ग आता है ॥ १०-१३ ॥

चौथे स्कन्धमें मरीचि आदि नौ प्रजापतियोंकी उत्पत्ति, दक्षयज्ञका विध्वंस, राजर्षि ध्रुव एवं पृथुका चरित्र तथा प्राचीनबर्हि और नारदजीके संवादका वर्णन है। पाँचवें स्कन्धमें प्रियव्रतका उपाख्यान; नाभि, ऋषभ और भरतके चरित्र, द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत और नदियोंका वर्णन; ज्योतिश्चक्रके विस्तार एवं पाताल तथा नरकोंकी स्थितिका निरूपण हुआ है ॥ १४—१६ ॥

शौनकादि ऋषियो ! छठे स्कन्धमें ये विषय आये हैं—प्रचेताओंसे दक्षकी उत्पत्ति; दक्ष- पुत्रियोंकी सन्तान देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पर्वत और पक्षियोंका जन्म-कर्म; वृत्रासुरकी उत्पत्ति और उसकी परम गति। (अब सातवें स्कन्धके विषय बतलाये जाते हैं—) इस स्कन्धमें मुख्यत: दैत्यराज हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षके जन्म-कर्म एवं दैत्यशिरोमणि महात्मा प्रह्लादके उत्कृष्ट चरित्रका निरूपण है ॥ १७-१८ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



रविवार, 25 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधों का रहस्य

तथा विभिन्न सूर्यगणों का वर्णन

 

श्रीशौनक उवाच

शुको यदाह भगवान्विष्णुराताय शृण्वते

सौरो गणो मासि मासि नाना वसति सप्तकः २७

तेषां नामानि कर्माणि नियुक्तानामधीश्वरैः

ब्रूहि नः श्रद्दधानानां व्यूहं सूर्यात्मनो हरेः २८

 

सूत उवाच

अनाद्यविद्यया विष्णोरात्मनः सर्वदेहिनाम्

निर्मितो लोकतन्त्रोऽयं लोकेषु परिवर्तते २९

एक एव हि लोकानां सूर्य आत्मादिकृद्धरिः

सर्ववेदक्रियामूलमृषिभिर्बहुधोदितः ३०

कालो देशः क्रिया कर्ता करणं कार्यमागमः

द्रव्यं फलमिति ब्रह्मन्नवधोक्तोऽजया हरिः ३१

मध्वादिषु द्वादशसु भगवान्कालरूपधृक्

लोकतन्त्राय चरति पृथग्द्वादशभिर्गणैः ३२

धाता कृतस्थली हेतिर्वासुकी रथकृन्मुने

पुलस्त्यस्तुम्बुरुरिति मधुमासं नयन्त्यमी ३३

अर्यमा पुलहोऽथौजाः प्रहेतिः पुञ्जिकस्थली

नारदः कच्छनीरश्च नयन्त्येते स्म माधवम् ३४

मित्रोऽत्रिः पौरुषेयोऽथ तक्षको मेनका हहाः

रथस्वन इति ह्येते शुक्रमासं नयन्त्यमी ३५

वसिष्ठो वरुणो रम्भा सहजन्यस्तथा हुहूः

शुक्रश्चित्रस्वनश्चैव शुचिमासं नयन्त्यमी ३६

इन्द्रो विश्वावसुः श्रोता एलापत्रस्तथाङ्गिराः

प्रम्लोचा राक्षसो वर्यो नभोमासं नयन्त्यमी ३७

विवस्वानुग्रसेनश्च व्याघ्र आसारणो भृगुः

अनुम्लोचा शङ्खपालो नभस्याख्यं नयन्त्यमी ३८

पूषा धनञ्जयो वातः सुषेणः सुरुचिस्तथा

घृताची गौतमश्चेति तपोमासं नयन्त्यमी ३९

ऋतुर्वर्चा भरद्वाजः पर्जन्यः सेनजित्तथा

विश्व ऐरावतश्चैव तपस्याख्यं नयन्त्यमी ४०

अथांशुः कश्यपस्तार्क्ष्य ऋतसेनस्तथोर्वशी

विद्युच्छत्रुर्महाशङ्खः सहोमासं नयन्त्यमी ४१

भगः स्फूर्जोऽरिष्टनेमिरूर्ण आयुश्च पञ्चमः

कर्कोटकः पूर्वचित्तिः पुष्यमासं नयन्त्यमी ४२

त्वष्टा ऋचीकतनयः कम्बलश्च तिलोत्तमा

ब्रह्मापेतोऽथ शतजिद्धृतराष्ट्र इषम्भराः ४३

विष्णुरश्वतरो रम्भा सूर्यवर्चाश्च सत्यजित्

विश्वामित्रो मखापेत ऊर्जमासं नयन्त्यमी ४४

एता भगवतो विष्णोरादित्यस्य विभूतयः

स्मरतां सन्ध्ययोर्नॄणां हरन्त्यंहो दिने दिने ४५

द्वादशस्वपि मासेषु देवोऽसौ षड्भिरस्य वै

चरन्समन्तात्तनुते परत्रेह च सन्मतिम् ४६

सामर्ग्यजुर्भिस्तल्लिङ्गैरृषयः संस्तुवन्त्यमुम्

गन्धर्वास्तं प्रगायन्ति नृत्यन्त्यप्सरसोऽग्रतः ४७

उन्नह्यन्ति रथं नागा ग्रामण्यो रथयोजकाः

चोदयन्ति रथं पृष्ठे नैरृता बलशालिनः ४८

वालखिल्याः सहस्राणि षष्टिर्ब्रह्मर्षयोऽमलाः

पुरतोऽभिमुखं यान्ति स्तुवन्ति स्तुतिभिर्विभुम् ४९

एवं ह्यनादिनिधनो भगवान्हरिरीश्वरः

कल्पे कल्पे स्वमात्मानं व्यूह्य लोकानवत्यजः ५०

 

शौनकजीने कहा—सूतजी ! भगवान्‌ श्रीशुकदेवजीने श्रीमद्भागवत-कथा सुनाते समय राजर्षि परीक्षित्‌से (पञ्चम स्कन्धमें) कहा था कि ऋषि, गन्धर्व, नाग, अप्सरा, यक्ष, राक्षस और देवताओंका एक सौरगण होता है और ये सातों प्रत्येक महीनेमें बदलते रहते हैं। ये बारह गण अपने स्वामी द्वादश आदित्योंके साथ रहकर क्या काम करते हैं और उनके अन्तर्गत व्यक्तियोंके नाम क्या हैं ? सूर्यके रूपमें भी स्वयं भगवान्‌ ही हैं; इसलिये उनके विभागको हम बड़ी श्रद्धाके साथ सुनना चाहते हैं, आप कृपा करके कहिये ॥ २७-२८ ॥

सूतजीने कहा—समस्त प्राणियोंके आत्मा भगवान्‌ विष्णु ही हैं। अनादि अविद्यासे अर्थात् उनके वास्तविक स्वरूपके अज्ञानसे ही समस्त लोकोंके व्यवहार-प्रवर्तक प्राकृत सूर्यमण्डलका निर्माण हुआ है। वही लोकोंमें भ्रमण किया करता है ॥ २९ ॥ असलमें समस्त लोकोंके आत्मा एवं आदिकर्ता एकमात्र श्रीहरि ही अन्तर्यामीरूपसे सूर्य बने हुए हैं। वे यद्यपि एक ही हैं, तथापि ऋषियोंने उनका बहुत रूपोंमें वर्णन किया है, वे ही समस्त वैदिक क्रियाओंके मूल हैं ॥ ३० ॥ शौनकजी ! एक भगवान्‌ ही मायाके द्वारा काल, देश, यज्ञादि क्रिया, कर्ता, स्रुवा आदि करण, यागादि कर्म, वेदमन्त्र, शाकल्य आदि द्रव्य और फलरूपसे नौ प्रकारके कहे जाते हैं ॥ ३१ ॥ कालरूपधारी भगवान्‌ सूर्य लोगोंका व्यवहार ठीक-ठीक चलानेके लिये चैत्रादि बारह महीनोंमें अपने भिन्न-भिन्न बारह गणोंके साथ चक्कर लगाया करते हैं ॥ ३२ ॥

शौनकजी ! धाता नामक सूर्य, कृतस्थली अप्सरा, हेति राक्षस, वासुकि सर्प, रथकृत् यक्ष, पुलस्त्य ऋषि और तुम्बुरु गन्धर्व—ये चैत्र मासमें अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं ॥ ३३ ॥ अर्यमा सूर्य, पुलह ऋषि, अथौजा यक्ष, प्रहेति राक्षस, पुञ्जिकस्थली अप्सरा, नारद गन्धर्व और कच्छनीर सर्प—ये वैशाख मासके कार्यनिर्वाहक हैं ॥ ३४ ॥ मित्र सूर्य, अत्रि ऋषि, पौरुषेय राक्षस, तक्षक सर्प, मेनका अप्सरा, हाहा गन्धर्व और रथस्वन यक्ष—ये ज्येष्ठ मासके कार्यनिर्वाहक हैं ॥ ३५ ॥ आषाढ़में वरुण नामक सूर्यके साथ वसिष्ठ ऋषि, रम्भा अप्सरा, सहजन्य यक्ष, हूहू गन्धर्व, शुक्र नाग और चित्रस्वन राक्षस अपने-अपने कार्यका निर्वाह करते हैं ॥ ३६ ॥ श्रावण मास इन्द्र नामक सूर्यका कार्यकाल है। उनके साथ विश्वावसु गन्धर्व, श्रोता यक्ष, एलापत्र नाग, अङ्गिरा ऋषि, प्रम्लोचा अप्सरा एवं वर्य नामक राक्षस अपने कार्यका सम्पादन करते हैं ॥ ३७ ॥ भाद्रपदके सूर्यका नाम है विवस्वान्। उनके साथ उग्रसेन गन्धर्व, व्याघ्र राक्षस, आसारण यक्ष, भृगु ऋषि, अनुम्लोचा अप्सरा और शङ्खपाल नाग रहते हैं ॥ ३८ ॥ शौनकजी ! माघ मासमें पूषा नामके सूर्य रहते हैं। उनके साथ धनञ्जय नाग, वात राक्षस, सुषेण गन्धर्व, सुरुचि यक्ष, घृताची अप्सरा और गौतम ऋषि रहते हैं ॥ ३९ ॥ फाल्गुन मासका कार्यकाल पर्जन्य नामक सूर्यका है। उनके साथ क्रतु यक्ष, वर्चा राक्षस, भरद्वाज ऋषि, सेनजित् अप्सरा, विश्व गन्धर्व और ऐरावत सर्प रहते हैं ॥ ४० ॥ मार्गशीर्ष मासमें सूर्यका नाम होता है अंशु। उनके साथ कश्यप ऋषि, ताक्ष्1र्य यक्ष, ऋतसेन गन्धर्व, उर्वशी अप्सरा, विद्युच्छत्रु राक्षस और महाशङ्ख नाग रहते हैं ॥ ४१ ॥ पौष मासमें भग नामक सूर्यके साथ स्फूर्ज राक्षस, अरिष्टनेमि गन्धर्व, ऊर्ण यक्ष, आयु ऋषि, पूर्वचित्ति अप्सरा और कर्कोटक नाग रहते हैं ॥ ४२ ॥ आश्विन मासमें त्वष्टा सूर्य, जमदग्रि ऋषि, कम्बल नाग, तिलोत्तमा अप्सरा, ब्रह्मापेत राक्षस, शतजित् यक्ष और धृतराष्ट्र गन्धर्वका कार्यकाल है ॥ ४३ ॥ तथा कार्तिकमें विष्णु नामक सूर्यके साथ अश्वतर नाग, रम्भा अप्सरा, सूर्यवर्चा गन्धर्व, सत्यजित् यक्ष, विश्वामित्र ऋषि और मखापेत राक्षस अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं ॥ ४४ ॥

शौनकजी ! वे सब सूर्यरूप भगवान्‌की विभूतियाँ हैं। जो लोग इनका प्रतिदिन प्रात:काल और सायङ्काल स्मरण करते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ४५ ॥ ये सूर्यदेव अपने छ: गणोंके साथ बारहों महीने सर्वत्र विचरते रहते हैं और इस लोक तथा परलोकमें विवेकबुद्धिका विस्तार करते हैं ॥ ४६ ॥ सूर्यभगवान्‌के गणोंमें ऋषिलोग तो सूर्यसम्बन्धी ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके मन्त्रोंद्वारा उनकी स्तुति करते हैं और गंधर्व उनके सुयशका गान करते रहते हैं। अप्सराएँ आगे-आगे नृत्य करती चलती हैं ॥ ४७ ॥ नागगण रस्सीकी तरह उनके रथको कसे रहते हैं। यक्षगण रथका साज सजाते हैं और बलवान् राक्षस उसे पीछेसे ढकेलते हैं ॥ ४८ ॥ इनके सिवा वालखिल्य नामके साठ हजार निर्मलस्वभाव ब्रहमर्षि सूर्यकी ओर मुँह करके उनके आगे-आगे स्तुतिपाठ करते चलते हैं ॥ ४९ ॥ इस प्रकार अनादि, अनन्त, अजन्मा भगवान्‌ श्रीहरि ही कल्प-कल्पमें अपने स्वरूपका विभाग करके लोकोंका पालन-पोषण करते-रहते हैं ॥ ५० ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

द्वादशस्कन्धे आदित्यव्यूहविवरणं नामैकादशोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधों का रहस्य

तथा विभिन्न सूर्यगणों का वर्णन

 

अथेममर्थं पृच्छामो भवन्तं बहुवित्तमम्

समस्ततन्त्रराद्धान्ते भवान्भागवत तत्त्ववित् १

तान्त्रिकाः परिचर्यायां केवलस्य श्रियः पतेः

अङ्गोपाङ्गायुधाकल्पं कल्पयन्ति यथा च यैः २

तन्नो वर्णय भद्रं ते क्रियायोगं बुभुत्सताम्

येन क्रियानैपुणेन मर्त्यो यायादमर्त्यताम् ३

 

सूत उवाच

नमस्कृत्य गुरून्वक्ष्ये विभूतीर्वैष्णवीरपि

याः प्रोक्ता वेदतन्त्राभ्यामाचार्यैः पद्मजादिभिः ४

मायाद्यैर्नवभिस्तत्त्वैः स विकारमयो विराट्

निर्मितो दृश्यते यत्र सचित्के भुवनत्रयम् ५

एतद्वै पौरुषं रूपं भूः पादौ द्यौः शिरो नभः

नाभिः सूर्योऽक्षिणी नासे वायुः कर्णौ दिशः प्रभोः ६

प्रजापतिः प्रजननमपानो मृत्युरीशितुः

तद्बाहवो लोकपाला मनश्चन्द्रो भ्रुवौ यमः ७

लज्जोत्तरोऽधरो लोभो दन्ता ज्योत्स्ना स्मयो भ्रमः

रोमाणि भूरुहा भूम्नो मेघाः पुरुषमूर्धजाः ८

यावानयं वै पुरुषो यावत्या संस्थया मितः

तावानसावपि महा पुरुषो लोकसंस्थया ९

कौस्तुभव्यपदेशेन स्वात्मज्योतिर्बिभर्त्यजः

तत्प्रभा व्यापिनी साक्षात्श्रीवत्समुरसा विभुः १०

स्वमायां वनमालाख्यां नानागुणमयीं दधत्

वासश्छन्दोमयं पीतं ब्रह्मसूत्रं त्रिवृत्स्वरम् ११

बिभर्ति साङ्ख्यं योगं च देवो मकरकुण्डले

मौलिं पदं पारमेष्ठ्यं सर्वलोकाभयङ्करम् १२

अव्याकृतमनन्ताख्यमासनं यदधिष्ठितः

धर्मज्ञानादिभिर्युक्तं सत्त्वं पद्ममिहोच्यते १३

ओजःसहोबलयुतं मुख्यतत्त्वं गदां दधत्

अपां तत्त्वं दरवरं तेजस्तत्त्वं सुदर्शनम् १४

नभोनिभं नभस्तत्त्वमसिं चर्म तमोमयम्

कालरूपं धनुः शार्ङ्गं तथा कर्ममयेषुधिम् १५

इन्द्रियाणि शरानाहुराकूतीरस्य स्यन्दनम्

तन्मात्राण्यस्याभिव्यक्तिं मुद्रयार्थक्रियात्मताम् १६

मण्डलं देवयजनं दीक्षा संस्कार आत्मनः

परिचर्या भगवत आत्मनो दुरितक्षयः १७

भगवान्भगशब्दार्थं लीलाकमलमुद्वहन्

धर्मं यशश्च भगवांश्चामरव्यजनेऽभजत् १८

आतपत्रं तु वैकुण्ठं द्विजा धामाकुतोभयम्

त्रिवृद्वेदः सुपर्णाख्यो यज्ञं वहति पूरुषम् १९

अनपायिनी भगवती श्रीः साक्षादात्मनो हरेः

विष्वक्सेनस्तन्त्रमूर्तिर्विदितः पार्षदाधिपः

नन्दादयोऽष्टौ द्वाःस्थाश्च तेऽणिमाद्या हरेर्गुणाः २०

वासुदेवः सङ्कर्षणः प्रद्युम्नः पुरुषः स्वयम्

अनिरुद्ध इति ब्रह्मन्मूर्तिव्यूहोऽभिधीयते २१

स विश्वस्तैजसः प्राज्ञस्तुरीय इति वृत्तिभिः

अर्थेन्द्रियाशयज्ञानैर्भगवान्परिभाव्यते २२

अङ्गोपाङ्गायुधाकल्पैर्भगवांस्तच्चतुष्टयम्

बिभर्ति स्म चतुर्मूर्तिर्भगवान्हरिरीश्वरः २३

द्विजऋषभ स एष ब्रह्मयोनिः स्वयंदृक्

स्वमहिमपरिपूर्णो मायया च स्वयैतत्

सृजति हरति पातीत्याख्ययानावृताक्षो

विवृत इव निरुक्तस्तत्परैरात्मलभ्यः २४

श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिध्रुग्

राजन्यवंशदहनानपवर्गवीर्य

गोविन्द गोपवनिताव्रजभृत्यगीत

तीर्थश्रवः श्रवणमङ्गल पाहि भृत्यान् २५

य इदं कल्य उत्थाय महापुरुषलक्षणम्

तच्चित्तः प्रयतो जप्त्वा ब्रह्म वेद गुहाशयम् २६

 

शौनकजीने कहा—सूतजी ! आप भगवान्‌ के परमभक्त और बहुज्ञोंमें शिरोमणि हैं। हमलोग समस्त शास्त्रोंके सिद्धान्तके सम्बन्धमें आपसे एक विशेष प्रश्र पूछना चाहते हैं, क्योंकि आप उसके मर्मज्ञ हैं ॥ १ ॥ हमलोग क्रियायोग का यथावत् ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं; क्योंकि उसका कुशलता- पूर्वक ठीक-ठीक आचरण करनेसे मरणधर्मा पुरुष अमरत्व प्राप्त कर लेता है। अत: आप हमें यह बतलाइये कि पाञ्चरात्रादि तन्त्रोंकी विधि जाननेवाले लोग केवल श्रीलक्ष्मीपति भगवान्‌की आराधना करते समय किन-किन तत्त्वोंसे उनके चरणादि अङ्ग, गरुडादि उपाङ्ग, सुदर्शनादि आयुध और कौस्तुभादि आभूषणोंकी कल्पना करते हैं ? भगवान्‌ आपका कल्याण करें ॥ २-३ ॥

सूतजीने कहा—शौनकजी ! ब्रह्मादि आचार्योंने, वेदोंने और पाञ्चरात्रादि तन्त्र-ग्रन्थोंने विष्णुभगवान्‌की जिन विभूतियोंका वर्णन किया है, मैं श्रीगुरुदेवके चरणोंमें नमस्कार करके आप- लोगोंको वही सुनाता हूँ ॥ ४ ॥ भगवान्‌ के जिस चेतनाधिष्ठित विराट् रूपमें यह त्रिलोकी दिखायी देती है, वह प्रकृति, सूत्रात्मा, महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्रा—इन नौ तत्त्वोंके सहित ग्यारह इन्द्रिय तथा पञ्चभूत—इन सोलह विकारोंसे बना हुआ है ॥ ५ ॥ यह भगवान्‌का ही पुरुषरूप है। पृथ्वी इसके चरण हैं, स्वर्ग मस्तक है, अन्तरिक्ष नाभि है, सूर्य नेत्र हैं, वायु नासिका है और दिशाएँ कान हैं ॥ ६ ॥ प्रजापति लिङ्ग है, मृत्यु गुदा है, लोकपालगण भुजाएँ हैं, चन्द्रमा मन है और यमराज भौंहें हैं ॥ ७ ॥ लज्जा ऊपरका होठ है, लोभ नीचेका होठ है, चन्द्रमा की चाँदनी दन्तावली है, भ्रम मुसकान है, वृक्ष रोम हैं और बादल ही विराट् पुरुष के सिरपर उगे हुए बाल हैं ॥ ८ ॥ शौनकजी ! जिस प्रकार यह व्यष्टि पुरुष अपने परिमाण से सात बित्ते का है उसी प्रकार वह समष्टि पुरुष भी इस लोकसंस्थिति के साथ अपने सात बित्ते का है ॥ ९ ॥

स्वयं भगवान्‌ अजन्मा हैं। वे कौस्तुभमणिके बहाने जीव-चैतन्यरूप आत्मज्योतिको ही धारण करते हैं और उसकी सर्वव्यापिनी प्रभाको ही वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सरूपसे ॥ १० ॥ वे अपनी सत्त्व, रज आदि गुणोंवाली मायाको वनमालाके रूपसे, छन्दको पीताम्बरके रूपसे तथा अ+उ+म्—इन तीन मात्रावाले प्रणवको यज्ञोपवीतके रूपमें धारण करते हैं ॥ ११ ॥ देवाधिदेव भगवान्‌ सांख्य और योगरूप मकराकृत कुण्डल तथा सब लोकोंको अभय करनेवाले ब्रह्मलोकको ही मुकुटके रूपमें धारण करते हैं ॥ १२ ॥ मूलप्रकृति ही उनकी शेषशय्या है, जिसपर वे विराजमान रहते हैं और धर्म-ज्ञानादियुक्त सत्त्वगुण ही उनके नाभिकमलके रूपमें वर्णित हुआ है ॥ १३ ॥ वे मन, इन्द्रिय और शरीरसम्बन्धी शक्तियोंसे युक्त प्राणतत्त्वरूप कौमोदकी गदा, जलतत्त्वरूप पाञ्चजन्य शङ्ख और तेजस्तत्त्वरूप सुदर्शनचक्रको धारण करते हैं ॥ १४ ॥ आकाशके समान निर्मल आकाश-स्वरूप खड्ग, तमोमय अज्ञानरूप ढाल, कालरूप शार्ङ्गधनुष और कर्मका ही तरकस धारण किये हुए हैं ॥ १५ ॥ इन्द्रियोंको ही भगवान्‌के बाणोंके रूपमें कहा गया है। क्रियाशक्तियुक्त मन ही रथ है। तन्मात्राएँ रथके बाहरी भाग हैं और वर-अभय आदिकी मुद्राओंसे उनकी वरदान, अभयदान आदिके रूपमें क्रियाशीलता प्रकट होती है ॥ १६ ॥ सूर्यमण्डल अथवा अग्रि-मण्डल ही भगवान्‌की पूजाका स्थान है, अन्त:करणकी शुद्धि ही मन्त्रदीक्षा है और अपने समस्त पापोंको नष्ट कर देना ही भगवान्‌की पूजा है ॥ १७ ॥

ब्राह्मणो ! समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य—इन छ: पदार्थोंका नाम ही लीला-कमल है, जिसे भगवान्‌ अपने करकमलमें धारण करते हैं। धर्म और यशको क्रमश: चँवर एवं व्यजन (पंखे) के रूपसे तथा अपने निर्भय धाम वैकुण्ठको छत्ररूपसे धारण किये हुए हैं। तीनों वेदोंका ही नाम गरुड है। वे ही अन्तर्यामी परमात्माका वहन करते हैं ॥ १८-१९ ॥ आत्मस्वरूप भगवान्‌की उनसे कभी न बिछुडऩेवाली आत्मशक्तिका ही नाम लक्ष्मी है। भगवान्‌के पार्षदोंके नायक विश्वविश्रुत विष्वक्सेन पाञ्चरात्रादि आगमरूप हैं। भगवान्‌के स्वाभाविक गुण अणिमा, महिमा आदि अष्टसिद्धियोंको ही नन्द-सुनन्दादि आठ द्वारपाल कहते हैं ॥ २० ॥ शौनकजी ! स्वयं भगवान्‌ ही वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्र और अनिरुद्ध—इन चार मूर्तियोंके रूपमें अवस्थित हैं; इसलिये उन्हींको चतुव्र्यूहके रूपमें कहा जाता है ॥ २१ ॥ वे ही जाग्रत्-अवस्थाके अभिमानी ‘विश्व’ बनकर शब्द, स्पर्श आदि बाह्य विषयोंको ग्रहण करते और वे ही स्वप्नावस्थाके अभिमानी ‘तैजस’ बनकर बाह्य विषयोंके बिना ही मन-ही-मन अनेक विषयोंको देखते और ग्रहण करते हैं। वे ही सुषुप्ति-अवस्थाके अभिमानी ‘प्राज्ञ’ बनकर विषय और मनके संस्कारोंसे युक्त अज्ञानसे ढक जाते हैं और वही सबके साक्षी ‘तुरीय’ रहकर समस्त ज्ञानोंके अधिष्ठान रहते हैं ॥ २२ ॥ इस प्रकार अङ्ग, उपाङ्ग, आयुध और आभूषणोंसे युक्त तथा वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्र एवं अनिरुद्ध—इन चार मूर्तियोंके रूपमें प्रकट सर्व- शक्तिमान् भगवान्‌ श्रीहरि ही क्रमश: विश्व, तैजस, प्राज्ञ एवं तुरीयरूपसे प्रकाशित होते हैं ॥ २३ ॥

शौनकजी ! वही सर्वस्वरूप भगवान्‌ वेदोंके मूल कारण हैं, वे स्वयंप्रकाश एवं अपनी महिमासे परिपूर्ण हैं। वे अपनी मायासे ब्रह्मा आदि रूपों एवं नामोंसे इस विश्वकी सृष्टि, स्थिति और संहार सम्पन्न करते हैं। इन सब कर्मों और नामोंसे उनका ज्ञान कभी आवृत नहीं होता। यद्यपि शास्त्रोंमें भिन्नके समान उनका वर्णन हुआ है अवश्य, परन्तु वे अपने भक्तोंको आत्मस्वरूपसे ही प्राप्त होते हैं ॥ २४ ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप अर्जुनके सखा हैं। आपने यदुवंशशिरोमणिके रूपमें अवतार ग्रहण करके पृथ्वीके द्रोही भूपालोंको भस्म कर दिया है। आपका पराक्रम सदा एकरस रहता है। व्रजकी गोपबालाएँ और आपके नारदादि प्रेमी निरन्तर आपके पवित्र यशका गान करते रहते हैं। गोविन्द ! आपके नाम, गुण और लीलादिका श्रवण करनेसे ही जीवका मङ्गल हो जाता है। हम सब आपके सेवक हैं। आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये ॥ २५ ॥

पुरुषोत्तम भगवान्‌के चिह्नभूत अङ्ग, उपाङ्ग और आयुध आदिके इस वर्णनका जो मनुष्य भगवान्‌में ही चित्त लगाकर पवित्र होकर प्रात:काल पाठ करेगा, उसे सबके हृदयमें रहनेवाले ब्रह्मस्वरूप परमात्माका ज्ञान हो जायगा ॥ २६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...