गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.०८)


 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

 

 यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।

समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥ १५॥

 

कारण कि हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दु:खमें सम रहनेवाले जिस बुद्धिमान् मनुष्यको ये मात्रास्पर्श (पदार्थ) विचलित (सुखी-दु:खी) नहीं करतेवह अमर होनेमें समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है।

 

व्याख्या

 

मिले हुए और बिछुडनेवाले शरीरको मैं, मेरा तथा मेरे लिये मानना मनुष्यकी मूल भूल है ।  यह भूल स्वतः-स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत मनुष्यके द्वारा रची हुई (कृत्रिम) है ।  अपने विवेकको महत्त्व न देनेसे ही यह भूल उत्पन्न होती है ।  इस एक भूलसे फिर अनेक तरहकी भूलें उत्पन्न होती हैं ।  इसलिये इस भूलको मिटाना बहुत आवश्यक है और इसको मिटानेकी जिम्मेवारी मनुष्य पर ही है ।  इसको मिटानेके लिये भगवान्‌ने मनुष्यको विवेक प्रदान किया है ।  जब साधक अपने विवेकको महत्त्व देकर इस भूलको मिटा देता है, तब वह निर्मम-निरहंकार हो जाता है ।  निर्मम-निरहंकार होते ही साधक मे  समता आजाती है ।

 

 

ॐ तत्सत् !

 

शेष आगामी पोस्ट में .........

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)



गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.०७)


 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

 

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥ १४॥

 

हे कुन्तीनन्दन! इन्द्रियोंके विषय (जड़ पदार्थ) तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता)-के द्वारा सुख और दु:ख देनेवाले हैं तथा आने-जानेवाले और अनित्य हैं। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! उनको तुम सहन करो।

 

व्याख्या

 

संसारकी समस्त परिस्थितियाँ आने-जानेवाली, मिलने-बिछुड़नेवाली हैं ।  मनुष्य यह चाहता है कि सुखदायी परिस्थितिबनी रहे और दुःखदायी परिस्थिति न आये ।  परन्तु सुखदायी परिस्थिति जाती ही है और दःखदायी परिस्थिति आती ही है- यह प्राकृतिक नियम है अथवा प्रभुका मंगलमय विधान है ।  अतः साधकको प्रत्येक परिस्थिति प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करनी चाहिये । निरन्तर परिवर्तनशील वस्तुओंमें स्थिरता देखना भूल है ।  इस भूलसे ही ममता और कामनाकी उत्पत्ति होती है ।  देखनेमें वस्तु मुख्य दीखती है, क्रिया गौण ।  पर वास्तवमें क्रिया-ही-क्रिया है, वस्तु है ही नहीं ।

 

ॐ तत्सत् !

 

शेष आगामी पोस्ट में .........

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)



गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.०६)

 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

 न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा:।

न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम्॥ १२॥

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥ १३॥

 

किसी काल में मैं नहीं था और तू नहीं था तथा ये राजा लोग नहीं थेयह बात भी नहीं हैऔर इसके बाद (भविष्य में मैंतू और राजालोग) हम सभी नहीं रहेंगेयह बात भी नहीं है।

देहधारी के इस मनुष्यशरीर में जैसे बालकपनजवानी और वृद्धावस्था होती हैऐसे ही दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है। उस विषय में धीर मनुष्य मोहित नहीं होता।

 

व्याख्या

 

मनुष्यमात्र को मैं हूँ’- इस रूप में अपनी एक सत्ता का अनुभव होता  है ।  इस सत्ता में अहम्‌ (मैं’) मिला हुआ होनेसे ही हूँके रूपमें अपनी अलग एकदेशीय सत्ता अनुभवमें आती है ।  यदि अहम्‌ न रहे तो हैके रूपमें एक सर्वदेशीय सत्ता ही अनुभवमें आयेगी ।  वह सर्वदेशीय सत्ता ही प्राणीमात्रका वास्तविक स्वरूप है ।  उस सत्तामें जड़ताका मिश्रण नहीं है अर्थात्‌ उसमें मैं, तु, यह और वह- ये चारों ही नहीं हैं ।  सार बात यह है कि एक चिन्मय सत्तामात्रके सिवाय कुछ नहीं है ।

जीव स्वयं तो निरन्तर अमरत्त्वमें ही रहता है, पर शरीर निरन्तर मृत्युमें जा रहा है ।  जीवके गर्भ में आते ही मृत्यु का यह क्रम आरम्भ हो जाता है ।  गर्भावस्था मरती है तो बाल्यावस्था आती है ।  बाल्यावस्था मरती है तो युवावस्था आती है ।  युवावस्था मरती है तो वृद्धावस्था आती है ।  वृद्धावस्था मरती है तो देहान्तर-अवस्था आती है अर्थात्‌ दूसरे जन्म की प्राप्ति होती है । इस प्रकार  शरीर की अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उसमें रहनेवाला शरीरी ज्यों-का-त्यों रहता है ।  कारण यह है कि शरीर और शरीरी- दोनोंके विभाग ही अलग-अलग हैं ।  अतः साधक अपनेको कभी शरीर न माने ।  बन्धन-मुक्ति स्वयं की होती है, शरीर की नहीं ।

 

ॐ तत्सत् !

 

शेष आगामी पोस्ट में .........

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)




मंगलवार, 10 अक्तूबर 2023

गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.०५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

तमुवाच हृषीकेश: प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वच:॥ १०॥

श्रीभगवानुवाच

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता:॥ ११॥

हे भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र ! दोनों सेनाओं के मध्य भाग में विषाद करते हुए उस अर्जुन के प्रति हँसते हुए-से भगवान् हृषीकेश यह (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले।

श्रीभगवान् बोले—

तुमने शोक न करनेयोग्य का शोक किया है और विद्वत्ता (पण्डिताई)-की बातें कह रहे हो; परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये पण्डितलोग शोक नहीं करते।

व्याख्या—

इस श्लोक से भगवान् शरीर और शरीरी (स्वयं) के विवेक का उपदेश आरम्भ करते हैं, जो प्रत्येक मार्ग के साधक के लिए अत्यंत आवश्यक है | शरीर सदा मृत्यु में रहता है और शरीरी सदा अमरत्व में रहता है, इसलिए दोनों के लिए ही शोक करने का कोई औचित्य नहीं है—यह इस सम्पूर्ण उपदेश का सार है |

यहाँ एक बात विशेष ध्यान देने की है कि भगवान् ने इस प्रकरण में चिन्मय सत्तारूप अपने अंश (आत्मा) को ही सामान्य लोगों को समझाने की दृष्टि से ‘शरीरी’ तथा ‘देही’ नामों से कहा है | वास्तव में शरीरी का शरीर से सम्बन्ध है ही नहीं, हो सकता ही नहीं, असम्भव है |

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट..10)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

नारद-राम-संवाद

अरण्यकाण्ड में ऐसा वर्णन आया है‒श्रीरामजी लक्ष्मणजी के सहित,सीताजीके वियोग में घूम रहे थे । वे घूमते-घूमते पम्पा सरोवर पहुँच गये । तो नारदजीके मनमें बात आयी कि मेरे शापको स्वीकार करके भगवान् स्त्री-वियोगमें घूम रहे हैं । उन्होंने देखा कि अभी बड़ा सुन्दर मौका है, एकान्त है । इस समय जाकर पूछें, बात करें । नारदजीने भगवान्‌ को ऐसा शाप दिया कि आपने मेरा विवाह नहीं होने दिया तो आप भी स्त्री के लिये रोते फिरोगे । भगवान्‌ ने शाप स्वीकार कर लिया, परंतु नारदजीका अहित नहीं होने दिया ।

यहाँ नारदजीने पूछा‒‘महाराज ! उस समय आपने मेरा विवाह क्यों नहीं होने दिया ?’ तो भगवान्‌ने कहा‒‘भैया ! एक मेरे ज्ञानी भक्त होते हैं और दूसरे छोटे ‘दास’ भक्त होते हैं; परंतु उन दासोंकी, प्यारे भक्तोंकी मैं रखवाली करता हूँ ।’

करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी ।
जिमि बालक राखइ महतारी ॥
मोरे प्रौढ़ तनय सम ग्यानी ।
बालक सुत सम दास अमानी 
………………..(मानस, अरण्यकाण्ड, दोहा ४३ । ५, ८)

ज्ञानी भक्त बड़े बेटे हैं । अमानी भक्त छोटे बालकके समान हैं । जैसे, छोटे बालकका माँ विशेष ध्यान रखती है कि यह कहीं साँप, बिच्छू, काँटा न पकड़ ले,कहीं गिर न जाय । वह उसकी विशेष निगाह रखती है, ऐसे ही मैं अपने दासोंकी निगाह रखता हूँ । माँ प्यारसे बच्चेको खिलाती-पिलाती है, प्यार करती है, गोदमें लेती है । परंतु बच्चेको नुकसानवाली कोई बात नहीं करने देती । अपने मनकी बात न करने देनेसे बच्चा कभी-कभी क्या करता है कि गुस्सेमें आकर माँके स्तनको मुँहमें लेते समय काट लेता है, फिर भी माँ उसके मनकी बात नहीं होने देती । माँ इतनी हितैषिणी होती है कि उसका स्तन काटनेपर भी बालकपर स्नेह रखती है, गुस्सा नहीं करती । वह तो फिर भी दूध पिलाती है । वह उसकी परवाह नहीं करती और अहित नहीं होने देती ।

राम ! राम !! राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.०४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्  
यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं-  
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्॥ ८॥

(अर्जुन कहते हैं कि) पृथ्वीपर धन-धान्यसमृद्ध और शत्रुरहित राज्य तथा (स्वर्गमें) देवताओंका आधिपत्य मिल जाय तो भी इन्द्रियोंको सुखानेवाला मेरा जो शोक है, वह दूर हो जाय—ऐसा मैं नहीं देखता हूँ।

सञ्जय उवाच

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेश: परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥  ९ ॥

संजय बोले—

हे शत्रुतापन धृतराष्ट्र ! ऐसा कहकर निद्राको जीतनेवाले अर्जुन अन्तर्यामी भगवान् गोविन्दसे “मैं युद्ध नहीं करूँगा”--- ऐसा साफ-साफ कहकर चुप हो गये।

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


सोमवार, 9 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 09)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

सहस नाम सम सुनि सिव बानी ।
जपि जेई पिय संग भवानी ॥
…………….(मानस, बालकाण्ड, दोहा १९ । ६)

‘राम’ नाम सहस्रनामके समान है, भगवान् शंकरके इस वचनको सुनकर पार्वतीजी सदा उनके साथ ‘राम’ नाम जपती रहती हैं । पद्मपुराणमें एक कथा आती है । पार्वतीजी सदा ही विष्णुसहस्रनामका पाठ करके ही भोजन किया करतीं । एक दिन भगवान् शंकर बोले‒‘पार्वती ! आओ भोजन करें ।’ तब पार्वतीजी बोलीं‒‘महाराज ! मेरा अभी सहस्रनामका पाठ बाकी है ।’

भगवान् शंकर बोले‒

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने ॥

पद्मपुराणके उस विष्णुसहस्रनाम में यह श्लोक आया है । राम, राम, राम‒ऐसे तीन बार कहनेसे पूर्णता हो जाती है । ऐसा जो ‘राम’ नाम है, हे वरानने ! हे रमे ! रामे मनोरमे, मैं सहस्रनामके तुल्य इस ‘राम’ नाम में ही रमण कर रहा हूँ । तुम भी उस ‘राम’ नामका उच्चारण करके भोजन कर लो । हर समय भगवान् शंकर राम, राम, राम जप करते रहते हैं । पार्वतीजीने भी फिर ‘राम’ नाम ले लिया और भोजन कर लिया ।

राम ! राम !! राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.०३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता:।
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे  
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥७॥

कायरतारूप दोष से तिरस्कृत स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहित अन्त:करणवाला मैं आपसे पूछता हूँ कि जो निश्चित कल्याण करनेवाली हो,वह बात मेरे लिये कहिये। मैं आपका शिष्य हूँ। आपके शरण हुए मुझे शिक्षा दीजिये।

व्याख्या—

प्रत्येक मनुष्य वास्तव में साधक है  ।  कारण कि चौरासी लाख योनियों में भटकते हुए जीव को भगवान्‌ यह मनुष्य शरीर केवल अपना कल्याण करने के लिए ही प्रदान करते हैं ।  इसलिये किसी भी मनुष्य को अपने कल्याण से  निराश नहीं होना चाहिये ।  मनुष्यमात्र को परमात्मप्राप्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है । साधक होने के नाते मनुष्यमात्र अपने साध्य को प्राप्त करने में स्वतन्त्र, समर्थ, योग्य और अधिकारी है ।  सबसे पहले इस बात की  आवश्यकता है कि मनुष्य अपने उद्देश्य को पहचानकर दृढ़तापूर्वक यह स्वीकार कर ले कि मैं संसारी नहीं हूँ, प्रत्युत साधक हूँ ।

मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं वैश्य हूँ, मैं शूद्र हूँ, मैं ब्रह्मचारी हूँ, मैं गृहस्थ हूँ, मैं वानप्रस्थ हूँ, मैं सन्यासी हूँ आदि मान्यताएँ केवल सांसारिक व्यवहार (मर्यादा)- के लिये तो ठीक हैं, पर परमात्म प्राप्तिमें ये बाधक है।  ये मान्यताएँ शरीर को लेकर हैं ।  परमात्मप्राप्ति शरीर को नहीं होती, प्रत्युत स्वयं साधक को होती है ।  साधक स्वयं अशरीरी ही होता है ।

अर्जुन ने अपने वास्तविक उद्देश्य को पहचान लिया है कि मुझे अपना कल्याण करना है ।  इसलिये वे युद्ध करने अथवा न करनेकी बात न पूछकर अपने कल्याणका निश्चित उपाय पूछते हैं ।

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.०२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभि: प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥ ४॥
गुरूनहत्वा हि महानुभावान् 
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव 
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्॥ ५॥
न चैतद्विद्म: कतरन्नो गरीयो- 
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु:।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम- 
स्तेऽवस्थिता: प्रमुखे धार्तराष्ट्रा:॥ ६॥

अर्जुन बोले—

हे मधुसूदन! मैं रणभूमिमें भीष्म और द्रोणके साथ बाणोंसे कैसे युद्ध करूँ? क्योंकि हे अरिसूदन! ये दोनों ही पूजाके योग्य हैं।
महानुभाव गुरुजनोंको न मारकर इस लोक में मैं भिक्षाका अन्न खाना भी श्रेष्ठ समझता हूँ; क्योंकि गुरुजनोंको मारकर यहाँ रक्तसे सने हुए तथा धनकी कामनाकी मुख्यतावाले भोगोंको ही तो भोगूँगा!
हम यह भी नहीं जानते कि हमलोगोंके लिये (युद्ध करना और न करना—इन) दोनोंमेंसे कौन-सा अत्यन्त श्रेष्ठ है अथवा हम उन्हें जीतेंगे या वे हमें जीतेंगे। जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्रके सम्बन्धी हमारे सामने खड़े हैं।

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


रविवार, 8 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 08)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

भगवान् शंकर ने ‘राम’ नाम के प्रभाव से काशी में मुक्ति का क्षेत्र खोल दिया और इसी महामन्त्र के जप से ईश से ‘महेश’ हो गये । अब आगे गोस्वामीजी महाराज कहते हैं‒

महिमा जासु जान गनराऊ ।
प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ ॥
                  ………..………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा १९ । ४)

सम्पूर्ण त्रिलोकी की प्रदक्षिणा करके जो सबसे पहले आ जाय, वही सबसे पहले पूजनीय हो‒देवताओंमें ऐसी शर्त होनेसे गणेशजी निराश हो गये, पर नारदजीके कहनेसे गणेशजीने ‘राम’ नाम पृथ्वीपर लिखकर उसकी परिक्रमा कर ली । इस कारण उनकी सबसे पहले परिक्रमा मानी गयी । नामकी ऐसी महिमा जाननेसे गणेशजी सर्वप्रथम पूजनीय हो गये । आगे गोस्वामीजी कहते हैं‒

जान आदिकबि नाम प्रतापू ।
भयउ सुद्ध करि उलटा जापू ॥
                   …………… (मानस, बालकाण्ड, दोहा १९ । ५)

सबसे पहले श्रीवाल्मीकिजीने ‘रामायण’ लिखी है, इसलिये वे ‘आदिकवि’माने जाते हैं । उलटा नाम ( मरा-मरा) जप करके वाल्मीकिजी एकदम शुद्ध हो गये । उनके विषयमें ऐसी बात सुनी है कि वे लुटेरे थे । रास्तेमें जो कोई मिलता,उसको लूट लेते और मार भी देते । एक बार संयोगवश देवर्षि नारद उधर आ गये । उनको भी लूटना चाहा तो देवर्षिने कहा‒‘तुम क्यों लूट-मार करते हो ? यह तो बड़ा पाप है ।’ वह बोला‒‘मैं अकेला थोड़े ही हूँ, घरवाले सभी मेरी कमाई खाते हैं । सभी पापके भागीदार बनेंगे ।’ देवर्षिने कहा‒‘भाई, पाप करनेवालेको ही पाप लगता है । सुखके, पुण्यके, धनके भागी बननेको तो सभी तैयार हो जाते हैं; परंतु बदलेमें कोई भी पापका भागी बननेके लिये तैयार नहीं होगा । तू अपने माँ-बाप,स्त्री-बच्चोंसे पूछ तो आ ।’ वह अपने घर गया । उसके पूछनेपर माँ बोली‒‘तेरेको पाल-पोसकर बड़ा किया, अब भी तू हमें पाप ही देगा क्या ?’ उसने कहा‒‘माँ ! मैं आप लोंगोंके लिये ही तो पाप करता हूँ ।’ सब घरवाले बोले‒‘हम तो पापके भागीदार नहीं बनेंगे ।’

तब वह जाकर देवर्षिके चरणोंमें गिर गया और बोला‒‘महाराज ! मेरे पापका कोई भी भागीदार बननेको तैयार नहीं हैं ।’ देवर्षिने कहा‒‘भाई ! तुम भजन करो, भगवान्‌का नाम लो’, परंतु भयंकर पापी होनेके कारण मुँहसे प्रयास करनेपर भी ‘राम’ नाम उच्चारण नहीं कर सका । उसने कहा‒‘यह मरा, मरा, मरा । ऐसा मेरा अभ्यास है, इसलिये  ‘मरा’ तो मैं कह सकता हूँ ।’ देवर्षिने कहा कि ‘अच्छा, ऐसा ही तुम कहो ।’ तो  ‘मरा-मरा’ करने लगा । इस प्रकार उलटा नाम जपनेसे भी वे सिद्ध हो गये, महात्मा बन गये, आदिकवि बन गये । ‘राम’ नाम महामन्त्र है, उसे ठीक सुलटा जपनेसे तो पुण्य होता ही है, पर उलटे जपसे भी पुण्य होता है ।

उलटा नामु जपत जगु जाना ।
बालमीकि भए ब्रह्म समाना ॥
                          ………….. (मानस, अयोध्याकाण्ड, दोहा १९४ । ८)

राम !   राम !!   राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में  नाम-वन्दना” पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...