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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)
महारास
जिन्होंने
अध्यात्मशास्त्र का अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि योगसिद्धिप्राप्त साधारण योगी
भी कायव्यूह के द्वारा एकसाथ अनेक शरीरों का निर्माण कर सकते हैं और अनेक स्थानों
पर उपस्थित रहकर पृथक्-पृथक् कार्य कर सकते हैं | इन्द्रादिदेवगण एक ही समय अनेक
स्थानों पर उपस्थित होकर अनेक यज्ञों में युगपत् आहुति स्वीकार कर सकते हैं |
निखिल योगियों और योगीश्वरों के ईश्वर सर्वसमर्थ भगवान् श्रीकृष्ण यदि एक ही साथ
अनेक गोपियों के साथ क्रीडा करें तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है ? जो लोग
भगवान् को भगवान् नहीं स्वीकार करते, वही अनेकों प्रकार की शंका-कुशंकाएँ करते हैं
| भगवान् की निजलीला में इन तर्कों का सर्वथा प्रवेश नहीं है |
गोपियाँ
श्रीकृष्ण की स्वकीया थीं या परकीया,यह प्रश्न भी श्रीकृष्ण के स्वरूप को भुलाकर
ही उठाया जा सकता है | श्रीकृष्ण जीव नहीं हैं कि जगत की वस्तुओं में उनका
हिस्सेदार दूसरा भी जीव हो | जो कुछ भी था,है और आगे होगा—उसके एकमात्र पति
श्रीकृष्ण ही हैं | अपनी प्रार्थना में गोपियों ने और परीक्षित के प्रश्न के उत्तर
में श्रीशुकदेवजी ने यही बात कही है कि गोपी,गोपियों के पति, उनके पुत्र
सगे-संबंधी और जगत के समस्त प्राणियों के हृदय में आत्मारूप से,परमात्मारूप से जो
प्रभु स्थित हैं—वही श्रीकृष्ण हैं |कोई भ्रम से, अज्ञान से, भले ही श्रीकृष्ण को
पराया समझे; वे किसी के पराये नहीं हैं, सबके अपने हैं , सब उनके हैं | श्रीकृष्ण
की दृष्टि से, जो कि वास्तविक दृष्टि है, कोई परकीया है ही नहीं; सब स्वकीया हैं,
सब केवल अपना ही लीलाविलास हैं, सभी स्वरूपभूता अंतरंगा शक्ति हैं | गोपियाँ इस
बात को जानती थीं और स्थान स्थान पर उन्होंने
ऐसा कहा है |
ऐसी
स्थितिमें ‘जारभाव’ और ‘औपपत्य’ का कोई लौकिक अर्थ नहीं रह जाता। जहाँ काम नहीं है, अङ्ग-सङ्ग
नहीं है, वहाँ ‘औपपत्य’ और ‘जारभाव’ की कल्पना ही कैसे
हो सकती है ? गोपियाँ परकीया नहीं थीं, स्वकीया थीं; परंतु उनमें परकीया-भाव था। परकीया
होनेमें और परकीयाभाव होनेमें आकाश- पातालका अन्तर है। परकीयाभावमें तीन बातें
बड़े महत्त्वकी होती हैं—अपने प्रियतमका निरन्तर चिन्तन,
मिलनकी उत्कट उत्कण्ठा और दोषदृष्टिका सर्वथा अभाव। स्वकीयाभावमें
निरन्तर एक साथ रहनेके कारण ये तीनों बातें गौण हो जाती हैं; परंतु परकीया-भावमें ये तीनों भाव बने रहते हैं। कुछ गोपियाँ जारभावसे
श्रीकृष्णको चाहती थीं, इसका इतना ही अर्थ है कि वे
श्रीकृष्णका निरन्तर चिन्तन करती थीं, मिलनेके लिये
उत्कण्ठित रहती थीं और श्रीकृष्णके प्रत्येक व्यवहारको प्रेमकी आँखोंसे ही देखती
थीं। चौथा भाव विशेष महत्त्वका और है—वह यह कि स्वकीया अपने
घरका, अपना और अपने पुत्र एवं कन्याओंका पालन-पोषण, रक्षणावेक्षण पतिसे चाहती है। वह समझती है कि इनकी देखरेख करना पतिका
कर्तव्य है; क्योंकि ये सब उसीके आश्रित हैं, और वह पतिसे ऐसी आशा भी रखती है। कितनी ही पतिपरायणा क्यों न हो, स्वकीयामें यह सकामभाव छिपा रहता ही है। परंतु परकीया अपने प्रियतमसे कुछ
नहीं चाहती, कुछ भी आशा नहीं रखती; वह
तो केवल अपनेको देकर ही उसे सुखी करना चाहती है। श्रीगोपियोंमें यह भाव भी
भलीभाँति प्रस्फुटित था। इसी विशेषताके कारण संस्कृत-साहित्यके कई ग्रन्थोंमें
निरन्तर चिन्तनके उदाहरणस्वरूप परकीयाभावका वर्णन आता है।
गोपियोंके
इस भावके एक नहीं,
अनेक दृष्टान्त श्रीमद्भागवतमें मिलते हैं; इसलिये
गोपियोंपर परकीयापनका आरोप उनके भावको न समझनेके कारण है। जिसके जीवनमें साधारण
धर्मकी एक हलकी-सी प्रकाशरेखा आ जाती है। उसीका जीवन परम पवित्र और दूसरोंके लिये
आदर्श-स्वरूप बन जाता है। फिर वे गोपियाँ, जिनका जीवन
साधनाकी चरम सीमापर पहुँच चुका है, अथवा जो नित्यसिद्धा एवं
भगवान्की स्वरूपभूता हैं, या जिन्होंने कल्पोंतक साधना करके
श्रीकृष्णकी कृपासे उनका सेवाधिकार प्राप्त कर लिया है, सदाचारका
उल्लङ्घन कैसे कर सकती हैं और समस्त धर्म-मर्यादाओंके संस्थापक श्रीकृष्णपर
धर्मोल्लङ्घनका लाञ्छन कैसे लगाया जा सकता है ? श्रीकृष्ण और
गोपियोंके सम्बन्धमें इस प्रकारकी कुकल्पनाएँ उनके दिव्य स्वरूप और दिव्यलीलाके
विषयमें अनभिज्ञता ही प्रकट करती हैं।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से