हरे
राम हरे राम राम राम हरे हरे !
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे !!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे !!
ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज के
अन्तिम प्रवचन
अन्तिम प्रवचन
(ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी
महाराजके आषाढ़ कृष्ण द्वादशी, विक्रम सम्वत्-२०६२, तदनुसार 3 जुलाई, 2005 को
परमधाम पधारने के पूर्व दिनांक 29-30 जून, 2005 को गीताभवन, स्वर्गाश्रममें दिया गया अन्तिम प्रवचन)
एक बहुत श्रेष्ठ, बड़ी सुगम,
बड़ी सरल बात है । वह यह है कि किसी तरहकी कोई इच्छा मत रखो । न
परमात्मा की, न आत्मा की, न संसार की,
न मुक्ति की, न कल्याण की, कुछ भी इच्छा मत करो और चुप हो जाओ । शान्त हो जाओ । कारण कि परमात्मा सब
जगह शान्तरूप से परिपूर्ण है । स्वतः-स्वाभाविक सब जगह परिपूर्ण है । कोई इच्छा न
रहे, किसी तरहकी कोई कामना न रहे तो एकदम परमात्माकी
प्राप्ति हो जाय, तत्त्वज्ञान हो जाय, पूर्णता
हो जाय !
यह सबका अनुभव है कि कोई इच्छा पूरी होती है,
कोई नहीं होती । सब इच्छाएँ पूरी हो जायँ यह नियम नहीं है । इच्छाओं
का पूरा करना हमारे वश की बात नहीं है, पर इच्छाओं का त्याग
करना हमारे वश की बात है । कोई भी इच्छा, चाहना नहीं रहेगी
तो आपकी स्थिति स्वतः परमात्मामें होगी । आपको परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जायगा ।
कुछ चाहना नहीं, कुछ करना नहीं, कहीं
जाना नहीं, कहीं आना नहीं, कोई अभ्यास
नहीं । बस, इतनी ही बात है । इतनेमें ही पूरी बात हो गयी !
इच्छा करनेसे ही हम संसारमें बँधे हैं । इच्छा सर्वथा छोड़ते ही सर्वत्र परिपूर्ण
परमात्मामें स्वतः-स्वाभाविक स्थिति है ।
प्रत्येक कार्यमें तटस्थ रहो । न राग करो,
न द्वेष करो ।
“तुलसी ममता राम सों, समता सब
संसार ।
राग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार ॥“
राग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार ॥“
एक क्रिया है और एक पदार्थ है । क्रिया और पदार्थ यह प्रकृति है ।
क्रिया और पदार्थ दोनोंसे संबंध-विच्छेद करके एक भगवान् के आश्रित हो जायँ ।
भगवान्के शरण हो जायँ, बस । उसमें आपकी स्थिति स्वतः है । ‘भूमा अचल शाश्वत अमल सम ठोस है तू सर्वदा’‒ ऐसे
परमात्मामें आपकी स्वाभाविक स्थिति है । स्वप्नमें एक स्त्रीका बालक खो गया । वह
बड़ी व्याकुल हो गयी । पर जब नींद खुली तो देखा कि बालक तो साथमें ही सोया है‒
तात्पर्य है कि जहाँ आप हैं, वहाँ परमात्मा
पूरे-के-पूरे विद्यमान है । आप जहाँ हैं, वहीं चुप हो जाओ !!
--------‒29 जून 2005, सायं लगभग 4 बजे
--------‒29 जून 2005, सायं लगभग 4 बजे
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श्रोता‒ कल आपने बताया कि कोई चाहना न रखे । इच्छा छोड़ना
और चुप होना दोनोंमें कौन ज्यादा फायदा करता है ?
स्वामीजी‒ मैं भगवान्का हूँ, भगवान्
मेरे हैं, मैं और किसीका नहीं हूँ, और
कोई मेरा नहीं है । ऐसा स्वीकार कर लो । इच्छारहित होना और चुप होना‒दोनों बातें एक ही हैं । इच्छा कोई करनी ही नहीं है, भोगोंकी, न मोक्षकी, न प्रेमकी,
न भक्तिकी, न अन्य किसीकी ।
श्रोता‒ इच्छा नहीं करनी है, पर कोई
काम करना हो तो ?
स्वामीजी‒ काम उत्साहसे करो, आठों पहर
करो, पर कोई इच्छा मत करो । इस बातको ठीक तरहसे समझो ।
दूसरोंकी सेवा करो, उनका दुःख दूर करो, पर बदलेमें कुछ चाहो मत । सेवा कर दो और अन्तमें चुप हो जाओ । कहीं नौकरी
करो तो वेतन भले ही ले लो, पर इच्छा मत करो ।
सार बात है कि जहाँ आप हैं, वहीं
परमात्मा हैं । कोई इच्छा नहीं करोगे तो आपकी स्थिति परमात्मामें ही होगी । जब सब
परमात्मा ही हैं तो फिर इच्छा किसकी करें ? संसारकी इच्छा है,
इसलिये हम संसारमें हैं । कोई भी इच्छा नहीं है तो हम परमात्मामें
हैं ।
------------- 30 जून 2005, दिनमें लगभग 11 बजे
नारायण ! नारायण !!
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित ‘एक संत की वसीयत’ पुस्तक
से (पुस्तक कोड.1633)