शनिवार, 23 दिसंबर 2017

ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज के अन्तिम प्रवचन

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे !
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे !!

ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज के
अन्तिम प्रवचन

(ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजके आषाढ़ कृष्ण द्वादशी, विक्रम सम्वत्-२०६२, तदनुसार 3 जुलाई, 2005 को परमधाम पधारने के पूर्व दिनांक 29-30 जून, 2005 को गीताभवन, स्वर्गाश्रममें दिया गया अन्तिम प्रवचन)

एक बहुत श्रेष्ठ, बड़ी सुगम, बड़ी सरल बात है । वह यह है कि किसी तरहकी कोई इच्छा मत रखो । न परमात्मा की, न आत्मा की, न संसार की, न मुक्ति की, न कल्याण की, कुछ भी इच्छा मत करो और चुप हो जाओ । शान्त हो जाओ । कारण कि परमात्मा सब जगह शान्तरूप से परिपूर्ण है । स्वतः-स्वाभाविक सब जगह परिपूर्ण है । कोई इच्छा न रहे, किसी तरहकी कोई कामना न रहे तो एकदम परमात्माकी प्राप्ति हो जाय, तत्त्वज्ञान हो जाय, पूर्णता हो जाय !
यह सबका अनुभव है कि कोई इच्छा पूरी होती है, कोई नहीं होती । सब इच्छाएँ पूरी हो जायँ यह नियम नहीं है । इच्छाओं का पूरा करना हमारे वश की बात नहीं है, पर इच्छाओं का त्याग करना हमारे वश की बात है । कोई भी इच्छा, चाहना नहीं रहेगी तो आपकी स्थिति स्वतः परमात्मामें होगी । आपको परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जायगा । कुछ चाहना नहीं, कुछ करना नहीं, कहीं जाना नहीं, कहीं आना नहीं, कोई अभ्यास नहीं । बस, इतनी ही बात है । इतनेमें ही पूरी बात हो गयी ! इच्छा करनेसे ही हम संसारमें बँधे हैं । इच्छा सर्वथा छोड़ते ही सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मामें स्वतः-स्वाभाविक स्थिति है ।

प्रत्येक कार्यमें तटस्थ रहो । न राग करो, न द्वेष करो ।
तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार ।
राग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार ॥

एक क्रिया है और एक पदार्थ है । क्रिया और पदार्थ यह प्रकृति है । क्रिया और पदार्थ दोनोंसे संबंध-विच्छेद करके एक भगवान्‌ के आश्रित हो जायँ । भगवान्‌के शरण हो जायँ, बस । उसमें आपकी स्थिति स्वतः है । भूमा अचल शाश्वत अमल सम ठोस है तू सर्वदा’‒ ऐसे परमात्मामें आपकी स्वाभाविक स्थिति है । स्वप्नमें एक स्त्रीका बालक खो गया । वह बड़ी व्याकुल हो गयी । पर जब नींद खुली तो देखा कि बालक तो साथमें ही सोया हैतात्पर्य है कि जहाँ आप हैं, वहाँ परमात्मा पूरे-के-पूरे विद्यमान है । आप जहाँ हैं, वहीं चुप हो जाओ !!
--------‒29 जून 2005, सायं लगभग 4 बजे
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श्रोताकल आपने बताया कि कोई चाहना न रखे । इच्छा छोड़ना और चुप होना दोनोंमें कौन ज्यादा फायदा करता है ?

स्वामीजीमैं भगवान्‌का हूँ, भगवान्‌ मेरे हैं, मैं और किसीका नहीं हूँ, और कोई मेरा नहीं है । ऐसा स्वीकार कर लो । इच्छारहित होना और चुप होनादोनों बातें एक ही हैं । इच्छा कोई करनी ही नहीं है, भोगोंकी, न मोक्षकी, न प्रेमकी, न भक्तिकी, न अन्य किसीकी ।

श्रोताइच्छा नहीं करनी है, पर कोई काम करना हो तो ?

स्वामीजीकाम उत्साहसे करो, आठों पहर करो, पर कोई इच्छा मत करो । इस बातको ठीक तरहसे समझो । दूसरोंकी सेवा करो, उनका दुःख दूर करो, पर बदलेमें कुछ चाहो मत । सेवा कर दो और अन्तमें चुप हो जाओ । कहीं नौकरी करो तो वेतन भले ही ले लो, पर इच्छा मत करो ।
सार बात है कि जहाँ आप हैं, वहीं परमात्मा हैं । कोई इच्छा नहीं करोगे तो आपकी स्थिति परमात्मामें ही होगी । जब सब परमात्मा ही हैं तो फिर इच्छा किसकी करें ? संसारकी इच्छा है, इसलिये हम संसारमें हैं । कोई भी इच्छा नहीं है तो हम परमात्मामें हैं ।

------------- 30 जून 2005, दिनमें लगभग 11 बजे

नारायण ! नारायण !!

‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित एक संत की वसीयतपुस्तक से (पुस्तक कोड.1633)




शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

एक संत की वसीयत-4

||ॐ श्री परमात्मने नम:||
एक संत की वसीयत (पोस्ट.४)
(श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज की वसीयत)
5. जिस स्थान पर इस शरीर का अन्तिम संस्कार किया जाए, वहां स्मृति के रूप में कुछ भी नहीं बनाना चाहिए, यहां तक कि उस स्थान पर केवल पत्थर आदि को रखने का भी मैं निषेध करता हूं। अन्तिम संस्कार से पूर्व वह स्थल जैसा उपेक्षित रहा है, इस शरीर के अन्तिम संस्कार के बाद भी वह स्थल वैसा ही उपेक्षित रहना चाहिए। अन्तिम संस्कार के बाद अस्थि आदि सम्पूर्ण अवशिष्ट सामग्री को गंगाजी में प्रवाहित कर देना चाहिए।
मेरी स्मृति के रूप में कहीं भी गोशाला, पाठशाला, चिकित्सालय आदि सेवार्थ संस्थाएं नहीं बनानी चाहिए। अपने जीवनकाल में भी मैंने अपने लिए कभी कहीं किसी मकान आदि का निर्माण नहीं कराया है और इसके लिए किसी को प्रेरणा भी नहीं दी है। यदि कोई व्यक्ति कहीं भी किसी मकान आदि को मेरे द्वारा अथवा मेरी प्रेरणा से निर्मित बताये तो उसको सर्वथा मिथ्या समझना चाहिए।
6. इस शरीर के शान्त होने के बाद सत्रहवीं, मेला या महोत्सव आदि बिल्कुल नहीं करना चाहिए और उन दिनों में किसी प्रकार की कोई मिठाई आदि भी नहीं प्रयोग करनी चाहिए। साधु-संत जिस प्रकार अब तक मेरे सामने भिक्षा लाते रहे हैं, उसी प्रकार लाते रहने चाहिए। अगर संतों के लिए सद्गृहस्थ अपने-आप भिक्षा लाते हैं तो उसी भिक्षा को स्वीकार करना चाहिए जिसमें कोई मीठी चीज न हो। अगर कोई साधु या सद्गृहस्थ बाहर से आ जायँ तो उनकी भोजन-व्यवस्था में मिठाई बिल्कुल नहीं बनानी चाहिए प्रत्युत् उनके लिए भी साधारण भोजन ही बनाना चाहिए |
7. इस शरीर के शान्त होने पर शोक अथवा शोक-सभा आदि नहीं करनी चाहिए, प्रत्युत सत्रह दिन तक सत्संग, भजन-कीर्तन, भगवन्नाम-जप, गीतापाठ, श्रीरामचरितमानसपाठ, संतवाणी-पाठ, भागवत-पाठ आदि आध्यात्मिक कृत्य ही होते रहने चाहिए। सनातन हिन्दू संस्कृति में इन दिनों के ये ही मुख्य कृत्य माने गए हैं।
8. इस शरीर के शांत होने के बाद सत्रहवीं आदि किसी भी अवसर पर यदि कोई सज्जन रुपया-पैसा, कपड़ा आदि भेंट करना चाहे तो नहीं लेना चाहिए अर्थात् किसी से भी किसी प्रकार की कोई भेंट बिल्कुल नहीं लेनी चाहिए। यदि कोई कहे कि हम तो मंदिर में भेंट चढाते हैं इसको फालतू बात मानकर इसका विरोध करना चाहिए | बाहर से कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार की कोई भेंट किसी भी माध्यम से भेजे तो उसको सर्वथा अस्वीकार कर देना चाहिए | किसी से भी भेंट न लेने के साथ-साथ यह सावधानी भी रखनी चाहिए कि किसी को कोई भेंट, चद्दर, किराया आदि नहीं दिया जाए | जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिए।
9. इस शरीर के शान्त होने के बाद इस (शरीर) से सम्बन्धित घटनाओं की जीवनी, स्मारिका, संस्मरण आदि किसी भी रूप में प्रकाशित नहीं किए जाने चाहिए।
अन्त में मैं अपने परिचित सभी संतों एवं सद्गृहस्थों से विनम्र निवेदन करता हूं कि जिन बातों का मैंने निषेध किया है, उनको किसी भी स्थिति में नहीं किया जाना चाहिए। इस शरीर के शान्त होने पर इन निर्देशों के विपरीत आचरण करके तथा किसी प्रकार का विवाद, विरोध, मतभेद, झगड़ा, वितण्डावाद आदि अवाञ्छनीय स्थिति उत्पन्न करके अपने को अपराध एवं पाप का भागी नहीं बनाना चाहिए प्रत्युत अत्यन्त धैर्य, प्रेम, सरलता एवं पारस्परिक विश्वास, निश्छल व्यवहार के साथ पूर्वोक्त निर्देशों का पालन करते हुए भगवन्नाम-कीर्तनपूर्वक अन्तिम संस्कार कर देना चाहिए। जब और जहां भी ऐसा संयोग हो, इस शरीर के सम्बंध में दिए गए निर्देशों का पालन वहां उपस्थित प्रत्येक सम्बंधित व्यक्ति को करना चाहिए।
मेरे जीवनकाल में मेरे द्वारा शरीर से, वाणी से, मन से, जाने-अनजाने में किसी को किसी प्रकार का कष्ट पहुंचा हो तो मैं उन सभी से विनम्र हृदय से करबद्ध क्षमा मांगता हूं। आशा है, सभी उदारतापूर्वक मुझको क्षमा प्रदान करेंगे।
------स्वामी रामसुखदास जी |
नारायण ! नारायण !!
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘एक संत की वसीयत’ पुस्तक से (पुस्तक कोड.1633)


सर्वोत्कृष्ट भक्त –श्री हनुमान


जय सियाराम जय जय सियाराम ! विघ्न विनाशक जय हनुमान !!
सर्वोत्कृष्ट भक्त –श्री हनुमान
श्रीरामभक्त हनुमान जी के जीवन में अभिमान का तो लेशमात्र भी नहीं है | जब वे माता श्रीजानकीजी की सुध लेकर आये और भगवान् से मिले, तब भगवान् श्रीराम ने उनसे पूछा –
“ कहु कपि रावन पालित लंका |
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ||”
............ (मानस ५.३३.३)
(हनुमान जी ! बताओ,रावण द्वारा सुरक्षित लंका और उसके बड़े बांके किले को किस प्रकार जलाया ?” तब श्री हनुमान जी भगवान् श्रीराम को प्रसन्नमन जान अभिमान रहित वचन बोले –
“साखामृग कै बड़ि मनुसाई | साखा तें साखा पर जाई ||
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा | निसिचर गन बधि बिपिन उजारा ||
सो सब तव प्रताप रघुराई | नाथ न कछु मोरि प्रभुताई ||”
............(मानस ५|३३|४-५)
( प्रभो ! बन्दर का केवल एकमात्र यही पुरुषार्थ है कि वह एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है | मैंने जो समुद्र लांघकर सोने की नगरी जलाई और राक्षसों को मारकर अशोकवन का विध्वंस किया, वह तो केवल आपका ही प्रताप एवं प्रसाद है | नाथ इसमें मेरे सामर्थ्य की कोई बात ही नहीं है |)
सेवक को अपने स्वामी के गुण-गौरव एवं बल-पुरुषार्थ आदि पर पूर्ण भरोसा रखते हुए सदा यह ध्यान रखना चाहिए कि मैं ऐसे स्वामी का सेवक हूँ , कहीं मेरे कारण उनके गुण-गौरव पर किसी प्रकार की आँच न आ जाए , ऐसा अभिमान तो सेवकों को होना ही चाहिए , जैसे –
“अस अभिमान जाइ जनि भोरे |
मैं सेवक रघुपति पति मोरे |”
.......मानस ३|११|११)
श्रीहनुमानजी का अपना कोई भी स्वार्थ नहीं है | वे केवल अपने प्रभु की सेवा एवं प्रसन्नता में ही प्रसन्नता मानते हैं | ठीक ही है , सच्चा भक्त तो प्रभु की प्रसन्नता में ही अपनी प्रसन्नता मानता है | इसी को तत्सुख-सुखित्वभाव कहा जाता है | यही सर्वोत्कृष्ट भक्त का लक्षण है !!
{कल्याण- श्री हनुमान अंक}


एक संत की वसीयत -3


||ॐ श्री परमात्मने नम:||
एक संत की वसीयत (पोस्ट.३)
(श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज की वसीयत)
वास्तविक जीवनी या चरित्र वही होता है जो सांगोपांग हो अर्थात जीवन की अच्छी-बुरी (सद्गुण दुर्गुण, सदाचार, दुराचार आदि) सब बातों का यथार्थ रूप से वर्णन हो। आजकल जो जीवनी लिखी जाती है, उसमें दोषों को छिपाकर गुणों का ही मिथ्यारूप से अधिक वर्णन करने के कारण वह सांगोपांग तथा पूर्णरूप से सत्य होती नहीं है। वास्तव में मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के चरित्र से बढ़कर और किसी का चरित्र क्या हो सकता है। अत: उन्हीं के चरित्र को पढ़ना-सुनना चाहिए और उसी के अनुसार अपना जीवन बनाना चाहिए। जिसको हम महात्मा मानते हैं, उनका सिद्धान्त और उपदेश ही श्रेष्ठ होता है, अत: उन उपदेशों के अनुसार अपना जीवन बनाने का यत्न करना चाहिए।
उपर्युक्त सभी बातों पर विचार करके मैं सभी परिचित संतों तथा सद्गृहस्थों से एक विनम्र निवेदन प्रस्तुत कर रहा हूं। इसमें सभी बातें मैंने व्यक्तिगत आधार पर प्रकट की हैं अर्थात् मैंने अपने व्यक्तिगत चित्र, स्मारक, जीवनी आदि का ही निषेध किया है। मेरी शारीरिक असमर्थता के समय तथा शरीर शान्त होने के बाद इस शरीर के प्रति आपका क्या दायित्व रहेगा- इसका स्पष्ट निर्देश करना ही इस लेख का प्रयोजन है।
1. यदि यह शरीर चलने-फिरने, उठने-बैठने आदि में असमर्थ हो जाए एवं वैद्यों-डाक्टरों की राय से शरीर के रहने की कोई आशा प्रतीत न हो तो इसको गंगाजी के तटवर्ती स्थान पर ले जाया जाना चाहिए। उस समय किसी भी प्रकार की औषधि आदि का प्रयोग न करके केवल गंगाजल तथा तुलसीदल का ही प्रयोग किया जाना चाहिए। उस समय अनवरत रूप से भगवन्नाम का जप तथा कीर्तन और श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीविष्णुसहस्रनाम, श्रीरामचरितमानस आदि पूज्य ग्रंथों का श्रवण कराया जाना चाहिए।
2. इस शरीर के निष्प्राण होने के बाद इस पर गोपीचन्दन एवं तुलसीमाला के सिवाय पुष्प, इत्र, गुलाल आदि का प्रयोग बिल्कुल नहीं करना चाहिए। निष्प्राण शरीर को साधु परम्परा के अनुसार कपड़े की झोली में ले जाया जाना चाहिए न कि लकड़ी आदि से निर्मित वैकुण्ठी (विमान) आदि में।
जिस प्रकार इस शरीर की जीवित-अवस्था में मैं चरण-स्पर्श, दण्डवत प्रणाम, परिक्रमा, माल्यार्पण, अपने नाम की जयकार आदि का निषेध करता आया हूं, उसी प्रकार इस शरीर के निष्प्राण होने के बाद भी चरण-स्पर्श, दण्डवत प्रणाम, परिक्रमा, माल्यार्पण, अपने नाम की जयकार आदि का निषेध समझना चाहिए।
इस शरीर की जीवित-अवस्था के, मृत्यु-अवस्था के तथा अंतिम संस्कार आदि के चित्र (फोटो) लेने का मैं सर्वथा निषेध करता हूं।
3. मेरी हार्दिक इच्छा यही है कि अन्य नगर या गांव में इस शरीर के शान्त होने पर इसको वाहन में रखकर गंगाजी के तट पर ले जाना चाहिए और वहीं इसका अन्तिम संस्कार कर देना चाहिए। यदि किसी अपरिहार्य कारण से ऐसा होना कदापि सम्भव न हो सके तो जिस नगर या गांव में शरीर शान्त हो जाए, वहीं गायों के गांव से जंगल की ओर जाने-आने के मार्ग में अथवा नगर या गांव से बाहर जहां गायें विश्राम आदि किया करती हैं, वहां इस शरीर का सूर्य की साक्षी में अन्तिम संस्कार कर देना चाहिए।
इस शरीर के शान्त होने पर किसी को प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। अन्तिम संस्कारपर्यन्त केवल भजन-कीर्तन, भगवन्नाम-जप आदि ही होने चाहिए और अत्यंत सादगी के साथ अन्तिम संस्कार करना चाहिए।
4. अन्तिम संस्कार के समय इस शरीर की दैनिकोपयोगी सामग्री (कपड़े, खड़ाऊं, जूते आदि) को भी इस शरीर के साथ ही जला देना चाहिए तथा अवशिष्ट सामग्री (पुस्तकें, कमण्डलु आदि) को पूजा में अथवा स्मृति के रूप में बिल्कुल नहीं रखना चाहिए, प्रत्युत उनका भी सामान्यतया उपयोग करते रहना चाहिए।
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘एक संत की वसीयत’ पुस्तक से (पुस्तक कोड.1633)


बुधवार, 20 दिसंबर 2017

एक संत की वसीयत -2





||ॐ श्री परमात्मने नम:||
एक संत की वसीयत (पोस्ट.२)
(श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज की वसीयत)
वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो शरीर मल-मूत्र बनाने की एक मशीन ही है | इसे उत्तम से उत्तम भोजन या भगवान् का प्रसाद खिला दो वह मल बनकर निकल जाएगा तथा उत्तम-से-उत्तम पेय या गंगाजल पीला दो तो वह मूत्र बनकर निकल जाएगा | जब तक प्राण हैं, तब तक तो यह शरीर मलमूत्र बनाने की मशीन है और प्राण निकल जाने पर यह मुर्दा है, जिसको छू लेने पर स्नान करना पड़ता है | वास्तव में यह शरीर प्रतिक्षण ही मर रहा है, मुर्दा बन रहा है | इसमें जो वास्तविक तत्त्व (चेतन) है, उसका चित्र तो लिया ही नहीं जा सकता | चित्र लिया जा सकता है उस शरीर का, जो प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है | अत: चित्र लेने के बाद शरीर भी वैसा नहीं रहता, जैसा चित्र लेते समय था | इसलिए चित्र की पूजा तो असत् (‘नहीं’) की ही पूजा हुई | चित्र में चित्रित शरीर निष्प्राण रहता है, अत: हाड़-मांसमय अपवित्र शरीर चित्र तो मुर्दे का भी मुर्दा ही हुआ |
हम अपनी मान्यता से जिस पुरुष को महात्मा कहते हैं, वह अपने शरीर से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होजाने से ही महात्मा है, न कि शरीर से सम्बन्ध रहने के कारण | शरीर को तो वे मल के समान समझते हैं | अत: महात्मा के कहे जाने वाले शरीर का आदर करना मल का आदर करना हुआ | क्या यह उचित है ? यदि कोई कहे कि जैसे भगवान् के चित्र की पूजा आदि होती है, वैसे ही महात्मा के चित्र की भी पूजा आदि की जाये क्या आपत्ति है ? तो यह कहना भी उचित नहीं है | कारण कि भगवान् का शरीर चिन्मय एवं अविनाशी होता है, जबकि महात्मा का कहे जाने वाला शरीर पाँचभौतिक होने के कारण जड़ एवं विनाशी होता है |
भगवान् सर्वव्यापी हैं, अत: वे चित्र में भी है, परन्तु महात्मा की सर्वव्यापकता (शरीर से अलग) भगवान् की सर्वव्यापकता के ही अंतर्गत होती है | एक भगवान् के अंतर्गत समस्त महात्मा हैं, अत: भगवान् की पूजा के अंतर्गत सभी महात्माओं की पूजा स्वत: हो जाती है | यदि महात्माओं के हाड़-मांसमय शरीरों की तथा उनके चित्रों की पूजा होने लगे तो इससे पुरुषोत्तम भगवान् की ही पूजा में बाधा पहुँचेगी, जो महात्माओं के सिद्धांत से सर्वथा विपरीत है | महात्मा तो संसार में लोगों को भगवान् की ओर लगाने के लिए आते हैं, न कि अपनी ओर लगाने के लिए। जो लोगों को अपनी ओर (अपने ध्यान, पूजा आदि में) लगाता है, वह तो भगवद्विरोधी होता है। वास्तव में महात्मा कभी शरीर में सीमित होता ही नहीं।
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘एक संत की वसीयत’ पुस्तक से (पुस्तक कोड.1633)


मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

एक संत की वसीयत-1



||ॐ श्री परमात्मने नम:||
एक संत की वसीयत-1
(श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज की वसीयत)

{ ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज गीताभवन स्वर्गाश्रम में ग्रीष्म-ऋतु में प्रतिवर्ष पधारकर लोगों को सत्संग का लाभ देते रहे | अपनी जीवन-लीला के अन्तिम लगभग सवा चार वर्ष तक वे लगातार गीताभवन में ही रहे और 100 वर्ष से अधिक की आयु में भी निरंतर सत्संग करवाते रहे | त्याग एवं वैराग्य की मूर्ति श्री स्वामी जी महाराज की वसीयत साधकों के लिए आदर्श एवं अनुकरणीय है }
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श्रीभगवान की असीम, अहैतुकी कृपा से ही जीव को मानव शरीर मिलता है । इसका एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है। परन्तु मनुष्य इस शरीर को प्राप्त करने के बाद अपने मूल उद्देश्य को भूलकर शरीर के साथ दृढ़ता से तादात्म्य कर लेता है और इसके सुख को ही परम सुख मानने लगता है। शरीर के सुखों में मान-बड़ाई का सुख सबसे सूक्ष्म होता है। इसकी प्राप्ति के लिए वह झूठ, कपट, बेईमानी आदि दुर्गुण-दुराचार भी करने लग जाता है। शरीर के नाम में प्रियता होने से उसमें दूसरों से अपनी प्रशंसा, स्तुति की चाहना रहती है। वह यह चाहता है कि जीवन पर्यन्त मेरे को मान-बढ़ाई मिले और मरने के बाद मेरे नाम की कीर्ति हो। वह यह भूल जाता है कि केवल लौकिक व्यवहार के लिए शरीर का रखा हुआ नाम शरीर के नष्ट होने के बाद कोई अस्तित्व नहीं रखता। इस दृष्टि से शरीर की पूजा, मान-आदर एवं नाम को बनाए रखने का भाव किसी महत्व का नहीं है। परन्तु मनुष्य अपने प्रियजनों के साथ तो ऐसा व्यवहार करते ही हैं, जो सच्चे हृदय से जीवनभर भगवद्भक्ति में रहते हैं। अधिक क्या कहा जाए, उन साधकों का शरीर निष्प्राण होने पर भी उसकी स्मृति बनाये रखने के लिए वे उस शरीर को चित्र में आबद्ध करते हैं एवं उसको बहुत ही साज-सज्जा के साथ अन्तिम संस्कार-स्थल तक ले जाते हैं। विनाशी नाम को अविनाशी बनाने के प्रयास में वे उस संस्कार-स्थल पर छतरी, चबूतरा या मकान (स्मारक) आदि बना देते हैं। इसके सिवाय उनके शरीर से सम्बंधित एकपक्षीय घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर उनको जीवनी, संस्मरण आदि के रूप में लिखते और प्रकाशित कराते हैं। कहने को तो वे अपने-आपको उन साधकों का श्रद्धालु कहते हैं, पर काम वही करते हैं, जिसका वे साधक निषेध करते हैं।
श्रद्धातत्व अविनाशी है। अत: साधकों के अविनाशी सिद्धान्तों तथा वचनों पर ही श्रद्धा होनी चाहिए न कि उनकी विनाशी देह या नाम में। नाशवान् शरीर तथा नाम में तो मोह होता है, श्रद्धा नहीं | परन्तु जब मोह ही श्रद्धा का रूप धारण कर लेता है तभी ये अनर्थ होते हैं | अत: भगवान् के शाश्वत, दिव्य, अलौकिक श्रीविग्रह की पूजा तथा उनके अविनाशी नाम की स्मृति को छोड़कर इन नाशवान शरीरों तथा नामों को महत्त्व देने से न केवल अपना आजीवन ही निरर्थक होता है, प्रत्युत अपने साथ महान धोखा भी होता है |
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘एक संत की वसीयत’ पुस्तक से (पुस्तक कोड.1633)


“कलि मल मथन नाम ममताहन। तुलसिदास प्रभु पाहि प्रनत जन।।“






जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम

“कलि मल मथन नाम ममताहन। तुलसिदास प्रभु पाहि प्रनत जन।।“

(आपका नाम कलियुग के पापों को मथ डालनेवाला और ममता को मारनेवाला है। हे तुलसीदासके प्रभु ! शरणागतकी रक्षा कीजिये)

कलियुग में न वर्ण धर्म रहता है, न चारों आश्रम रहते हैं। सब स्त्री पुरुष वेद के विरोध में लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदों के बेचने वाले और राजा प्रजा को खा डालने वाले होते हैं। वेद की आज्ञा कोई नहीं मानता।। जो आचारहीन है और वेदमार्ग के छोड़े हुए है, कलियुग में वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान् है। जिसके बड़े-बड़े नख और लम्बी-लम्बी जटाएँ हैं, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है।। जो अमंगल वेष और अमंगल भूषण धारण करते हैं और खाने योग्य और न खाने योग्य, सब कुछ खा लेते हैं, वे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुग में पूज्य हैं।। जिनके आचरण दूसरों का अहित करनेवाले हैं, उन्हें ही बड़ा गौरव होता है। और वे ही सम्मान के योग्य होते हैं। जो मन, वचन और कर्म से झूठ बकनेवाले है, वे ही कलियुग में वक्ता माने जाते हैं।।

कोई बहिन-बेटी का भी विचार नहीं करता। लोगों में न सन्तोष है, न विवेक है और न शीतलता है। सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और मदारी के बंदर की तरह उनके नचाये नाचते हैं। सभी पुरुष काम और लोभ में तत्पर और क्रोधी होते हैं। देवता, ब्राह्मण, वेद और संतों के विरोधी होते हैं। अभागिनी स्त्रियाँ गुणों के धाम सुन्दर पति को छोड़कर परपुरुष का सेवन करती हैं।। कोई बहिन-बेटी का भी विचार नहीं करता। लोगों में न सन्तोष है, न विवेक है और न शीतलता है। 

शिष्य और गुरु में बहरे और अंधे का-सा हिसाब होता है। एक शिष्य गुरुके उपदेश को सुनता नहीं, एक गुरु देखता नहीं अर्थात उसे ज्ञानदृष्टि प्राप्त नहीं है।।

जो परायी स्त्री में आसक्त, कपट करने में चतुर और मोह, द्रोह और ममता में लिपटे हुए हैं, वे ही मनुष्य अभेद वादी अर्थात् ब्रह्म और जीवको एक बतानेवाले ज्ञानी हैं।

कलिकाल ने मनुष्य को बेहाल कर डाला !!


शनिवार, 16 दिसंबर 2017

श्रीराम जी के प्रति भरत जी की अविचल भक्ति



जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम

श्रीराम जी के प्रति भरत जी की अविचल भक्ति

रामचरितमानस की सम्पूर्ण कथा का पर्यवसान श्रीराम के चरणों में अविचल भक्ति के रूप में होता है | भरत जी अपने आतंरिक हृदय की अभिलाषा को व्यक्त करते हुए कहते हैं :--

“ अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम-जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥ “
भरत, भगवान् श्रीराम से एक ही वरदान की याचना करते हैं –हे भगवान् ! मुझे आपके चरणों की भक्ति के अलावा संसार में और कुछ भी नहीं चाहिए | अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष—नाम के चार पदार्थों में मेरी कोई आसक्ति नहीं है | मुझे इनकी कतई आवश्यकता नहीं है | मुझे जन्म-मरण के चक्कर से मुक्ति भी नहीं चाहिए | मेरा जन्म इस धारा-धाम पर बा-बार क्यों न हो, मुझे धनैश्वर्य से हीन, दरिद्र ही क्यों न रहना पड़े, पुत्र-कलत्र से रहित एकाकी जीवन ही क्यों न बिताऊँ, धर्माधर्म या कर्त्तव्य –अकर्तव्य के ज्ञान से हीन बनके क्यों न रहूँ—पर आपके चरणों में मेरी अविचल भक्ति बनी रहे, यही मेरे जीवन की सर्वसिद्धि है, यही मेरे जीवन का सबसे बड़ा धनैश्वर्य है, यही मेरा परम पुरुषार्थ है, यही मेरे जीवन की परम गति है |
मोक्ष प्राप्त करने वाले क्या जानें भगवद्भक्ति का स्वाद ! वे तो राममय हो जाते हैं, राम ही बन जाते हैं | बार-बार जीवन धारणकर आजन्म भक्ति के नशे में झूमने वाले भक्तों के उस आनंद की समता “निर्वाण” नहीं कर सकता | जिसकी जिव्हा पर श्रीराम के नामोच्चार का चस्का लग गया, उसके लिए चारों पदार्थ मिट्टी हैं ! मिट्टी !!
{कल्याण-वर्ष ८८,संख्या ७)


शुक्रवार, 15 दिसंबर 2017

कलिजुग केवल हरि गुन गाहा।




जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम

“कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा ।।“

सम्पूर्ण राम चरितमानस में आद्यन्त भक्ति का गम्भीर समुद्र लहराता हुआ दिखता है | इस महाकाव्य में यद्यपि स्थल स्थल पर योग-यज्ञ, ज्ञान-वैराग्य आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है, पर वह सब भक्ति की पृष्ठभूमि के रूप में ही हुआ है |

राम चरितमानस के प्रत्येक पात्र के आराध्य भगवान् श्रीराम हैं – वे चाहे भरत हों या शबरी,विभीषण हों या हनुमान, सुतीक्ष्ण हों या केवट | भगवान् श्रीराम के चरणों में इनकी अविचल भक्ति देखते ही बनती है | गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी समन्वय-भावना को पुष्ट करने के लिए कहने को तो कह दिया कि –
“भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा | उभय हरहिं भव सम्भव खेदा ||”
पर जहां अलग अलग ज्ञान और भक्ति का प्रसंग आया, वहाँ स्पष्ट रूप से उन्होंने ज्ञान मार्ग की दुस्तरता का उल्लेख करते हुए कहा –
“ग्यान पंथ कृपान कै धारा |”
(ज्ञान का मार्ग दोधारी तलवार की धार के समान है) —और ठीक इसके विपरीत भक्ति की सुगमता का उल्लेख करते हुए कहा—
“मोह न नारि नारि कें रूपा | पन्नगारि यह रीति अनूपा |”
भक्ति स्त्री है और माया भी स्त्री है | यद्यपि माया का रूप अत्यंत मनमोहक है, पर स्त्री, स्त्री के रूप पर मोहित नहीं होती | अर्थात् ज्ञान पर माया का जाल बिछ सकता है, पर भक्ति पर माया का जाल कभी भी नहीं चढ सकता | ज्ञानमार्गी सरलतया माया के जाल में फंस सकता है , पर भक्त कदापि नहीं |
(कल्याण- भाग ८८,संख्या ७)


उद्धार का सुगम उपाय..(02)


|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
उद्धार का सुगम उपाय..(02)
हमारे भाई-बहनों में यह विचार उठता है कि हमारे को कोई विशेष साधन बताया जाय, और जब उनको कहते हैं कि ऐसे प्राणायाम करो, ऐसे बैठो, ऐसे आहार-विहार करो तो कह देंगे‒‘महाराज ! ऐसे तो हमारे से होता नहीं, हम तो साधारण आदमी हैं, हम गृहस्थी हैं, निभता नहीं है, क्या करें ? यह तो कठिन है ।’ फिर ‘राम-राम’ करो तो वे कहेंगे कि ‘राम-राम’ हरेक बालक भी करते हैं । ‘राम-राम’ में क्या है ? अब कौन-सा बढ़िया साधन बतावें ? अगर विधियाँ बतावें तो होती नहीं हमारे से, और ‘राम-राम तो हरेक बालक ही करता है । ‘राम-राम’ में क्या है ! यह जवाब मिलता है । अब आप ही बताओ उनको क्या कहा जाय !
परमात्म तत्त्वसे विमुख होने का यह एक तरह से बढ़िया तरीका है । भगवन्नाम के प्रकट हो जाने से नाम में शक्ति कम नहीं हुई है । नाम में अपार शक्ति है और ज्यों-की-त्यों मौजूद है । इसको संतों ने हम लोगों पर कृपा करके प्रकट कर दिया; परंतु लोगों को यह साधारण दीखता है । नाम-जप साधारण तभी तक दीखता है, जब तक इसका सहारा नहीं लेते हैं, इसके शरण नहीं होते हैं । शरण कैसे होवें ? विधि क्या है ?
शरण लेनेकी विधि नहीं होती है । शरण लेनेकी तो आवश्यकता होती है । जैसे, चोर-डाकू आ जाये मारने-पीटने लगें, ऐसी आफतमें आ जायँ तो पुकारते हैं कि नहीं, ‘मेरी रक्षा करो, मुझे बचाओ’ ऐसे चिल्लाते हैं । कोई लाठी लेकर कुत्ते के पीछे पड़ जाय और वहाँ भागने की कहीं जगह नहीं हो तो बेचारा कुत्ता लाठी लगने से पहले ही चिल्लाने लगता है । यह चिल्लाना क्या है ? वह पुकार करता है कि मेरी रक्षा होनी चाहिये । उसके पुकार की कोई विधि होती है क्या ? मुहूर्त होता है क्या ? ‘हरिया बंदीवान ज्यूँ करिये कूक पुकार’
शरणागति सुगम होती है, जब अपने पर आफत आती है और अपनेको कोई भी उपाय नहीं सूझता, तब हम भगवान्‌के शरण होते हैं । उस समय हम जितना भगवान्‌के आधीन होते हैं, उतना ही काम बहुत जल्दी बनता है । इसमें विधि की आवश्यकता नहीं है । बालक माँको पुकारता है तो क्या कोई विधि पूछता है, या मुहूर्त पूछता है कि इस समयमें रोना शुरू करूँ, यह सिद्ध होगा कि नहीं होगा अथवा ऐसा समय बाँधता है कि आधा घण्टा रोऊँ या दस मिनट रोऊँ; वह तो माँ नहीं मिले, तबतक रोता रहता है । इस माँके मिलनेमें सन्देह है । यह माँ मर गयी हो या कहीं दूर चली गयी हो तो कैसे आवेगी ? पर ठाकुरजी तो ‘सर्वतः श्रुतिमल्लोके’ सब जगह सुनते हैं । इसलिये ‘हे नाथ ! हे नाथ ! मैं आपकी शरण हूँ’‒ऐसे भगवान्‌के शरण हो जायँ, उनके आश्रित हो जायँ । इसमें अगर कोई बाधक है तो वह है अपनी बुद्धिका, अपने वर्णका, अपने आश्रमका, अपनी योग्यता-विद्या आदिका अभिमान । भीतरमें उनका सहारा रहता है कि मैं ऐसा काम कर सकता हूँ । जबतक यह बल, बुद्धि, योग्यता आदिको अपनी मानता रहता है, तबतक सच्ची शरण हो नहीं सकता । इसलिये इनके अभिमानसे रहित होकर चाहे कोई शरण हो जाय और जब कभी हो जाय, उसी वक्त उसका बेड़ा पार है ।
राम ! राम !! राम !!!
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...